तमिलनाडु में भाजपा के 'कामराजार आची' के वादे से दोहरेपन की बू आती है!
हाल के वर्षों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक बयानबाज़ियों में हिंदुत्व के दायरे से बाहर के प्रतीकों को भी हथियाने और अपनाने की कोशिश दिखती रही है। ज़्यादा से ज़्यादा स्वीकार्यता, वैधता हासिल करने और राजनीतिक आधार बनाने की अपनी इन कोशिशों के ज़रिये इस पार्टी ने राजनीतिक तिकड़म के सहारे हर पार्टी के नेताओं और प्रतीकों को अपनाया है।
भाजपा, जारी प्रतीकों की तलाश में, मोटे तौर पर दो श्रेणियों की शख़्सियतों को अनाप-शनाप तरीक़ों से अपनाने की कोशिश करती है; पहली श्रेणी में ऐसी शख़्सियत शामिल हैं, जो क्षेत्रीय गौरव के ज़बरदस्त प्रतीक हैं। एक पार्टी के तौर पर, राष्ट्रवाद की ज़्यादा सख़्त व एकात्मक धारणा की बात करने वाली भाजपा जो अब तक 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' का ज़ोरदार अभियान चलती आई है, उसे उन राज्यों के मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, जहां पर क्षेत्रीय भावना मज़बूत है। ऐसे क्षेत्रों में पैर जमाने के लिए इस पार्टी ने यहां के लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे शख़्सियतों को भी हथिया लिया है। बंगाल में रबींद्रनाथ टैगोर और तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन जैसी शख़्सितयों की विरासत पर दावा करने और आह्वान करने के लिए भाजपा की ज़ोर-आज़माइश उसी रणनीति का एक हिस्सा थी।
दूसरी श्रेणी में भाजपा के कट्टर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस द्वारा उपेक्षित या दरकिनार रहे नेता और शख़्सियत शामिल हैं। 'विमुख हुए कांग्रेसियों' या ऐसे कांग्रेस नेताओं की सूची काफ़ी लम्बी है, जिन्हें पार्टी ने उनके हक़ से वंचित कर दिया और बाद में भाजपा ने इन शख़्सियतों को हथियाने के लिए अपना निशाना बनाया और इस सूची में सरदार वल्लभभाई पटेल, पीवी नरसिम्हा राव, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण जैसे नेता तक शामिल हैं।
जिन नेताओं की विरासत को हाल फिलहाल में भाजपा ने हथियाने की कोशिश की है, उनमें कांग्रेस के दिग्गज नेता और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी कामराज भी शामिल हैं। एक ऐसे राज्य में जहां यह भगवा पार्टी आगे बढ़ने में नाकाम रही है और 'उत्तर भारतीय ब्राह्मणवादी' ठप्पे को मिटाने के लिए संघर्षरत रही है, वहां भाजपा ने इन क्षेत्रीय शख़्सियतों को उधार लेने की अपनी राजनीति का सहारा लिया है। ख़ुद के 'बाहरी' होने के ठप्पे को हटाने की कोशिश में इस भगवा पार्टी ने जयललिता, एमजीआर और कामराज जैसी हस्तियों पर अपनी नज़रें गड़ा दी हैं। विधानसभा चुनावों में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोयंबटूर रैली में एमजीआर और कामराज के आदमकद कटआउट का इस्तेमाल किया था।
लेकिन,ऐसा नहीं है कि कामराज और उनकी विरासत पर दावा करने की भाजपा की ये कोशिशें 2021 के राज्य विधानसभा चुनावों से ही शुरू हुई हों। 2015 की शुरुआत से ही पार्टी की नज़रें कामराज पर टिकी थीं। उस साल इस श्रद्धेय नेता,जिन्हें प्यार से पेरुंथलैवर कहा जाता था, उनकी जयंती पर गहरी श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एम वेंकैया नायडु ने मद्रास राज्य के इस पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी के बीच कई समानताओं का ज़िक़्र किया था। उन्होंने कामराज के विज़न और उनकी विरासत को आगे ले जाने के भाजपा के इरादे भी सामने रखे थे। साल 2018 में इस राज्य में भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी जयंती समारोह के दौरान कामराज की विरासत पर दावा करने की कोशिश में एक-दूसरे से हाथापाई पर भी उतर आये थे।
सैद्धांतिक तौर पर कामराज को हथियाने की इस भाजपाई कोशिश के बहुत राजनीतिक मायने हैं। उन्हें हथियाने की कोशिश करके पार्टी राज्य के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों में हिंदू नादरों को लामबंद करते हुए उनके बीच हासिल समर्थन को मज़बूत करने की कोशिश कर रही है। इसके अलावा, कामराज, जिन्हें राज्य के ग्रामीण लोगों के बीच आज भी श्रद्धा की नज़रों से देखा जाता है, भाजपा के लिए एकदम सही विकल्प हैं। वह इस राज्य के ग़ैर-द्रविड़ राजनीति का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे बड़े नेता हैं, जहां द्रविड़ पार्टियों ने पिछले पांच दशकों से अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ है। कामराज में भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर एक और गांधी परिवार विरोधी प्रतीक दिखायी देता है, जिसका इंदिरा गांधी के साथ असहज और तनावपूर्ण रिश्तों का इस्तेमाल कांग्रेस के प्रथम परिवार पर हमला करने के लिए किया जा सकता है।
कामराज:आधुनिक तमिलनाडु के वास्तुकार
तमिलनाडु के बाहर कामराज को मुख्य रूप से ऐसे किंगमेकर के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने दो प्रधानमंत्रियों— लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी— को सत्ता पर काबिज किया था। उन्होंने 1964 में नेहरू और 1966 में शास्त्री के निधन के बाद सत्ता संघर्ष के दौरान कुर्सी पर नज़र गड़ाये कांग्रेस नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से चतुराई से निपट लिया था। उन्हें 'आधुनिक तमिलनाडु के वास्तुकार' के तौर पर जाना जाता है और अपने गृह राज्य में उनका सम्मान और धाक आज भी है। इस शख़्स की ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और संवेदना को लेकर ऐसी कई कहानियां और किंवदंतियां हैं, जिनसे उनकी राजनीतिक चतुराई और प्रशासनिक कौशल सामने आते हैं और ये कहानियां और किंवदंतियों ने कामराज को एक अर्ध-पौराणिक शख़्सियत बना दिया है।
'कामराज आची' (कामराज शासन) मुहावरे का इस्तेमाल उसी अर्थ में किया जाता है, जिस अर्थ में विंध्य के उत्तर स्थित राज्यों में 'राम राज्य' शब्द का प्रयोग किया जाता है। तमिलनाडु के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में अपने नौ साल के लम्बे कार्यकाल के दौरान कामराज ने राज्य में शैक्षिक और औद्योगिक बुनियाद रखने वाले कई सुधारों की शुरुआत की थी।
कामराज ने मुश्किल वक़्त में सी.राजगोपालाचारी से बागडोर संभाली थी। साल 1951 में मद्रास राज्य की साक्षरता दर महज़ 20% थी, स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों में से सिर्फ़ आधे बच्चों के नाम ही स्कूलों में दर्ज थे, और दाखिला लेने वाले उन बच्चों में से संभवत: 60% बच्चे पांच साल पूरे करने से पहले ही स्कूल छोड़ दे रहे थे। प्राथमिक शिक्षा पर सरकारी ख़र्च के बढ़ाये जाने के बजाय राजाजी इस समस्या को लेकर वित्तीय रूप से रूढ़िवादी थे और इसका हल वह प्राथमिक शिक्षा की उस संशोधित योजना में तलाश रहे थे, जिस नीति के तहत छह से ग्यारह साल की आयु के बच्चों के लिए स्कूल के दिन को आधा कर दिया गया था। इस योजना ने छात्रों की आमद को दोगुना करने के लिए प्राथमिक विद्यालयों में दो पाली या सत्र शुरू करने का प्रस्ताव रखा था। पहले सत्र में छात्रों को उन स्कूलों में जाना था, जहां उन्हें नियमित पढ़ाई करनी थी, और दूसरे सत्र में उन्हें अपने माता-पिता के पेशे में प्रशिक्षण पाने के लिए वापस भेज दिया जाता था। हैरानी नहीं कि राजाजी की उस विवादास्पद योजना को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था और लोगों में बड़े पैमाने पर ग़ुस्सा था। इस परियोजना के आलोचकों ने उस नयी योजना की जाति व्यवस्था के वैधता को लेकर इसे कला कुल्वी थिथम (जाति-आधारित शिक्षा नीति) क़रार दिया। राजाजी अड़ गये थे और उस योजना को वापस लेने के लिए तैयार नहीं थे, ऐसे में उन्हें कामराज के लिए रास्ता साफ़ करना पड़ा था।
कामराज के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उनके सामने मुश्किलों का अंबार लगा था। लेकिन, उन्होंने बिना समय गंवाये राजाजी की उस विवादास्पद योजना को रद्द कर दिया। उस कला कुल्वी थिथम को रद्दी की टोकरी के हवाले कर देने के बाद कक्षा छह में ही स्कूल छोड़ देने वाले कामराज ने राज्य की मौजूदा शिक्षा नीति को पूरी तरह से बदलने का फ़ैसला कर लिया। 1955 में कामराज प्रशासन ने उन तमाम ज़रूरतमंद छात्रों के लिए मुफ़्त शिक्षा योजना का विस्तार किया, जिनके माता-पिता की कमाई प्रति माह 100 रुपये से कम थी। पिछड़े वर्गों और आर्थिक रूप से कमज़ोर सरकारी सेवकों के बच्चों की स्कूल फ़ीस को आधा करने वाली इस फ़ीस रियायत योजना का विस्तार पूरे राज्य भर के सभी छात्रों तक कर दिया गया। उन्होंने सालों से एक ही कक्षा में रह रहे छात्रों को उस रियायत का फ़ायदा उठाने से रोकने वाली धारा को भी ख़त्म कर दिया।
उनके सत्ता में रहने के दौरान सरकार ने 12,000 से ज़्यादा नये स्कूल खोले और इनमें से ज़्यादातर स्कूल राज्य के दूरदराज़ और ग्रामीण इलाक़ों में खोले गये थे। 1957 में किये गये एक सर्वेक्षण से जब यह पता चला था कि राज्य भर के 6,000 से ज़्यादा गांवों में कोई स्कूल ही नहीं है, तो कामराज ने स्कूलों के विस्तार के लिए एक महत्वाकांक्षी मिशन शुरू कर दिया। अगले चार सालों के भीतर सरकार ने 4,000 से ज़्यादा नये स्कूल खोले और तक़रीबन 6,000 बेरोज़गार स्नातकों को शिक्षकों के रूप में नियुक्त किया। कामराज के मुख्यमंत्री रहते तमिलनाडु ने देश का ऐसा पहला राज्य होने की उपलब्धि हासिल कर ली, जहां हर तीन किलोमीटर पर एक प्राथमिक स्कूल था और हर पांच किलोमीटर पर एक हाई स्कूल था। कामराज के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के सात साल के भीतर स्कूल जाने वाले 6-11 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों का प्रतिशत 45 से बढ़कर 75 हो गया।
स्कूलों में उच्च नामांकन दर को सुनिश्चित करने और स्कूल छोड़ने की दर को कम करने के लिहाज़ से कामराज ने उस मिड-डे मिल योजना की शुरुआत की, जो उनकी सरकार की सबसे जानी मानी और व्यापक रूप से सराहे जाने वाली पहल बन गयी। ऐसा नहीं कि स्कूलों में दाखिला को बढ़ावा देने को लेकर मुफ़्त मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने की यह अवधारणा तमिलनाडु के लिए पूरी तरह से नयी थी क्योंकि 1920 के दशक में जस्टिस पार्टी के समय से किसी न किसी रूप में यह मौजूद थी। गाहे-ब-गाहे इस योजना को आज़माने की कोशिश की गयी थी, मगर वित्तीय बाधाओं की वजह से इसे छोड़ दिया जाता था। लेकिन, 1957 में कामराज ने इस योजना के पीछे अपनी सरकार की पूरी ताक़त झोंक देने का फ़ैसला कर लिया क्योंकि उन्हें इस बात का यक़ीन था कि ग़रीब बच्चों की भूख को मिटाये बिना सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता है। जहां सरकार ने तक़रीबन 60% ख़र्च का भार उठाया, वहीं बाक़ी ख़र्च का भार आम जनता और यहां तक कि कुछ निजी घटकों ने भी उठाये। नागरिकों को इस परियोजना की ख़ातिर चावल और दाल दान करने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया।
शुरुआत में इस योजना के तहत राज्य के 22,000 स्कूलों में से लगभग 8,000 स्कूलों को लाया गया। सरकार ने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के सभी स्कूलों को इसमें शामिल करने के लिए योजनाबद्ध, चरणबद्ध तरीक़े से इस योजना का धीरे-धीरे विस्तार किया। 1961 तक इस योजना के तहत राज्य भर के तक़रीबन 97% स्कूल शामिल कर लिये गये, इन स्कूलों में नामांकित लगभग 13 लाख बच्चों को खाना दिया जा रहा था। कामराज ने शहरी इलाक़ों के स्कूलों को शामिल करने के लिए अमेरिकन इंटरनेशनल वोलंटरी ऑर्गनाइज़ेशन जैसे अंतर्राष्ट्रीय घटकों को भी कामयाबी के साथ इस योजना से जोड़ लिया। बतौर मुख्यमंत्री एमजीआर ने बाद में उसी मिड-डे मिल योजना के दायरे और पहुंच का विस्तार किया था। आने वाले सालों में कामराज के नक़्शेक़दम पर चलते हुए देश भर की राज्य सरकारें भी अपनी-अपनी मिड-डे मिल योजनाओं को शुरू करने वाली थीं।
तमिलनाडु की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मज़बूती देने की दिशा में कामराज के इस योगदान के चलते उन्हें 'कलावी वल्लल' (परोपकारी शिक्षक) की उपाधि से नवाज़ा गया।
कामराज की अन्य बड़ी उपलब्धियों में आधुनिक तमिलनाडु की औद्योगिक प्रगति की बुनियाद रखने में उनकी अहम भूमिका थी। कृषि क्षेत्र को रफ़्तार देने के लिए बड़े पैमाने पर ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान शुरू किया गया था। राज्य की बिजली उत्पादन क्षमता 1954 में 220 मेगावाट से दोगुनी होकर 1963 में 460 मेगावाट हो गयी। जिस समय कामराज ने दिल्ली का रुख़ करने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, उस समय तक यह राज्य शहरी और ग्रामीण विद्युतीकरण, दोनों ही मामलों में भारत का नंबर एक राज्य बन गया था।
इंटीग्रल कोच फ़ैक्ट्री, भेल, नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन, हिंदुस्तान टेलीप्रिंटर और हिंदुस्तान फ़िल्म वर्कशॉप जैसी केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां (PSU) कामराज के ही कार्यकाल के दौरान सामने आये थे। उद्योग राज्य के एक ख़ास इलाक़े तक ही केंद्रित न रहे,ताकि दूसरे इलाक़ों के लोगों में आक्रोश पैदा न हो,इसे सुनिश्चित करने के लिए कामराज ने बहुत ही सावधानी से इन उद्योंगों को पूरे राज्य में फैलाने की कोशिश की। राज्य के विभिन्न हिस्सों में फैले नौ से ज़्यादा औद्योगिक क्षेत्रों ने कुशल और अकुशल,दोनों ही तरह के श्रमिकों को रोज़गार दिया और तमिलनाडु को एक औद्योगिक ऊर्जागृह के रूप में उभरने के लिहाज़ से एक ठोस आधार दिया।
भाजपा की कामराज को हथियाने की कोशिश
पिछले कुछ सालों में भाजपा नेताओं, ख़ासकर पार्टी की राज्य इकाई से जुड़े नेताओं ने कई मौक़ों पर कामराज की तारीफ़ की है और यहां तक कि कामराज आची या कामराज शासन की वापसी के पार्टी के वादे को भी दोहराया है। यह विडंबना है, मगर हक़ीक़त है। कामराज के प्रशासन की सबसे ख़ास बात यह थी कि शिक्षा को सही मायनों में सार्वभौमिक बनाने के लिए दूरदराज़ के छोटे-बड़े, दोनों ही तरह के क़स्बों और गांवों में स्कूल, कॉलेज और शैक्षणिक संस्थान खोले गये थे।
सत्ता में चाहे जिस पार्टी की सरकार हो, तमिलनाडु में बारी-बारी से आती हर राज्य सरकार ने "सार्वभौमिक शिक्षा" या "सभी के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने" के इस सिद्धांत का पूरी निष्ठा के साथ अनुसरण किया है। राज्य की मज़बूत सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली की कामयाबी के इस श्रेय का एक बड़ा हिस्सा हर एक छात्र, यहां तक कि दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले छात्रों के लिए भी शिक्षा को सुलभ बनाने को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता को जाता है और इस सब की शुरुआत कामराज के शासनकाल के दौरान ही हुई थी।
अजीब बात है कि जहां एक ओर भाजपा कामराजार आची को वापस लाने का वादा कर रही है, वहीं केंद्र की नयी शिक्षा नीति (NEP, 2020) में इसके ठीक उल्टा किये जाने का प्रस्ताव है। इस एनईपी का मक़सद एक ऐसी उच्च केंद्रीकृत शिक्षा प्रणाली बनाना है, जो पूरी तरह से "छोटे-छोटे स्कूलों" के उस विचार के ख़िलाफ़ है, जो कि कामराज की बेहद कामयाब रही शिक्षा नीति का एक प्रमुख घटक था। इस एनईपी के जरिए वह "छोटे-छोटे उच्च शिक्षा संस्थानों को 3,000 या ज़्यादा छात्रों वाले बड़े-बड़े बहु-विषयक विश्वविद्यालयों में बदलकर उच्च शिक्षा के फैलाव को ख़त्म करना चाहती है।" इससे यह भी पता चलता है कि तमिलनाडु इस एनईपी के लागू किये जाने के ख़िलाफ़ क्यों लड़ रहा है। अगर इसे लागू कर दिया जाता है, तो यह शिक्षा नीति राज्य को दूर-दराज़ के इलाक़ों में छोटे-छोटे शिक्षा संस्थानों के ज़रिये शिक्षा को सुलभ और सार्वभौमिक बनाने के उसके कामयाब फ़ॉर्मूले से दूर जाने के लिए मजबूर कर देगी।
मझोले स्तर के कई भाजपा नेताओं ने यह दावा करते हुए अक्सर कामराज और प्रधानमंत्री मोदी के बीच की समानताओं का ज़िक़्र किया है और कहा है कि प्रधानमंत्री कई लिहाज़ से तमिलनाडु के इस दिग्गज नेता के नक़्शेक़दम पर चल रहे हैं। यहां भी भाजपा की कथनी और करनी में कोई मेल नहीं नज़र आता है।
2014 में यूपीए II के ख़िलाफ़ अपने ज़बरदस्त हंगामेदार अभियान में मोदी की अगुवाई वाली भाजपा ने एक आकर्षक नारे— "छोटी सरकार, अधिकतम शासन" का इस्तेमाल किया था। इस नारे ने मतदाताओं के दिल-ओ-दिमाग़ पर जादू सा असर कर दिया था।
लेकिन, सात साल बाद ऐसा लगता है कि उस नारे को भुला दिया गया है। प्रधानमंत्री मोदी की मंत्रिपरिषद अब यूपीए- II से भी बड़ी हो गयी है और इसमें 77 मंत्री हैं, जो कि 81 की अनुमेय सीमा से महज़ चार ही कम है। लेकिन, भाजपा के "न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन" के वादे के साथ मतदाताओं को लुभाने से बहुत ही पहले अक्षमता और भ्रष्टाचार को साफ़ तौर पर ख़त्म करने के लिए किसी और ने उस वादे को पूरा कर दिया था और वह कोई और नहीं, ख़ुद कुमारस्वामी कामराज थे। जिस मंत्रिपरिषद के बूते कामराज ने आधुनिक तमिलनाडु की बुनियाद रखी थी, उसमें नौ से ज़्यादा मंत्री शामिल थे।
जब कामराज ने पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी, तो उन्होंने अपने आठ सदस्यीय मंत्रालय में एम. भक्तवत्सलम और सी सुब्रमण्यम को शामिल करने के अपने फ़ैसले से सबको चौंका दिया था। सी.सुब्रमण्यम राजाजी के एक कट्टर वफ़ादार और कांग्रेस राज्य इकाई के भीतर कामराज के ज़बरदस्त आलोचक थे। दूसरी ओर, कामराज के पूर्व समर्थक एम.भक्तवत्सलम उनके ख़िलाफ़ हो गये थे और राजाजी के इस्तीफ़े के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए उन्होंने सुब्रमण्यम का नाम भी सुझाया था। इसके बावजूद, कामराज ने सी.सुब्रमण्यम को वित्त और शिक्षा जैसे अहम विभाग सौंप दिये थे। अब ज़रा इसकी तुलना हम भाजपा और उसके उस शीर्ष नेतृत्व से कर सकते हैं, जो कामराज के नक़्शेक़दम पर चलने का दावा तो करती है, लेकिन उसी पर विदेशी स्पाइवेयर का इस्तेमाल कर के अपने ही कैबिनेट मंत्रियों की जासूसी करने का आरोप है।
2019 में तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए नरेंद्र मोदी ने कामराज का अपमान करने के सिलसिले में गांधी परिवार पर निशाना साधा था। इन बीते सालों में भाजपा नेताओं ने इंदिरा गांधी और के. कामराज के बीच के तनावपूर्ण रिश्ते की याद दिलाते हुए इस पुरानी पार्टी के प्रथम परिवार पर कटाक्ष करने का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ा है। ऐसा लगता है कि भाजपा अपने भूलने की उस बीमारी से पीड़ित है—जो इतिहास के सिर्फ वही पन्ने याद रखती है जिससे उसे कांग्रेस पर हमले के पर्याप्त रूप में गोल-बारूद मिले, बाकी इतिहास को पार्टी बड़े ही सुविधापूर्वक ढंग से भुला देती है।
अपनी ज़िंदगी के आख़िरी कुछ सालों में कामराज अपनी कांग्रेस (O) को इंदिरा की कांग्रेस के साथ विलय करने के बेहद क़रीब आ गये थे। हक़ीक़त तो यही है कि कांग्रेस के इन दोनों धड़ों ने 1974 में पुडुचेरी विधानसभा चुनाव और कोयंबटूर विधानसभा और संसदीय उपचुनाव लड़ने के लिए आपस मे गठबंधन भी किया था। लेकिन, आपातकाल लगाने और विपक्षी नेताओं की गिरफ़्तार किये जाने के साथ ही कामराज ने यह साफ़ कर दिया था कि सरकार की ओर से आपातकाल हटाने और गिरफ़्तार नेताओं को रिहा किये जने के बाद ही इस विलय की कोशिश शुरू हो सकती है। इन ख़ास हालात के बावजूद ज़िद्दी इंदिरा ने भी इस गुंज़ाइश के लिए तैयार होने के संकेत दिये थे, लेकिन अक्टूबर 1975 में कामराज के असामयिक निधन के चलते बात नहीं बन पायी थी।
जहां आज भाजपा को कामराज और उनकी विरासत को हथियाने की कोशिश करने के साथ-साथ कांग्रेस को इतिहास से छेड़-छाड़ कर उसे शर्मसार करने में कोई गुरेज़ नहीं है। लेकिन, हैरत की बात है कि भाजपा आसानी से यह भूल गयी है कि 1966 में गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाले विभिन्न हिंदुत्व समूहों के लोगों की एक क्रोधित, कट्टर भीड़ ने कामराज के दिल्ली आवास पर किस तरह से हमला किया था और आग लगा दी थी। भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन, भारतीय जन संघ (BJS) न सिर्फ़ उन कई संगठनों में से एक था, जिन्होंने उस गोहत्या विरोधी आंदोलन को अपना समर्थन दिया था, बल्कि बीजेएस के कई नेता भी इसमें सक्रिय रूप से शामिल थे।
लेकिन, भाजपा का अपने फ़ायदे के हिसाब से ऐतिहासिक तथ्यों का अपने फायदे के लिए चुनाव कोई नयी बात नहीं है और ऊपर से उधार लेने की राजनीति अब इस पार्टी की सियासत का एक अहम घटक बन गयी है। यह तो महज़ शुरुआत है, अभी तो यह सब लम्बा चलने वाला है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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