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आख़िर क्यूं हैं करोना वॉरियर्स के हाथों में मोमबत्ती और पोस्टर...योगी जी थोड़ा इनकी भी सुनिए

पिछले चार महीनों  से उत्तर प्रदेश के विभिन्न सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों के इंटर्न डॉक्टर्स हाथों में कैंडल और पोस्टर लिए अपना मानदेय बढ़ाने की मांग को लेकर अपनी ड्यूटी से समय निकाल कर प्रदर्शन कर रहे हैं।
करोना वॉरियर्स

" जब तक हमारी मांग पूरी नहीं हो जाती और जब तक हमें हमारे काम और पेशे के मुताबिक एक सम्मानित राशि नहीं मिलती, जिसके इंटर्न डॉक्टर्स हकदार हैं, तब तक पूरे प्रदेश के इंटर्न डॉक्टर्स समय समय पर यूं ही शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर अपना विरोध जताते रहेंगे।"

यह कहना है इंडियन मेडिकल स्टूडेंट विंग के प्रदेश अध्यक्ष रजनीश का। वे कहते हैं कि पिछले चार महीनों से उत्तर प्रदेश के इंटर्न डॉक्टर्स  अपनी एक जायज मांग को लेकर आंदोलनरत है, आंदोलन करते हुए भी ये सभी इंटर्न डॉक्टर्स संकट की घड़ी में भी पूरी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं जबकि राज्य सरकार एक छोटी सी मांग पर विचार तो छोड़ो बात तक करने को तैयार नहीं।

जब हमने उनसे पूछा अगर सरकार आपकी मांग को एकदम अनसुना कर देती है तो क्या हड़ताल पर जाने का निर्णय भी लिया जा सकता है तो इस सवाल पर उनका साफ कहना था कि इन चुनौतीपूर्ण हालात में  फिलहाल हम हड़ताल का निर्णय नहीं ले सकते क्योंकि हमारी पहली प्राथमिकता महामारी से लड़ने और मरीजों का इलाज करने की है जो हम बाकायदा कर भी रहे हैं।

पिछले चार महीनों  से उत्तर प्रदेश के विभिन्न सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों के इंटर्न डॉक्टर्स हाथों में कैंडल और पोस्टर लिए अपना मानदेय बढ़ाने की मांग को लेकर अपनी डयूटी से समय निकाल कर प्रदर्शन कर रहे हैं।  राज्य में सरकारी और निजी कॉलेजों के मिलाकर लगभग पांच हजार प्रशिक्षु डॉक्टर्स हैं। मानदेय  बढ़ाने की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं, मेडिकल कॉलेज प्रशासन से लेकर सरकार तक कई पत्र लिखे जा चुके हैं, रोजाना दस घंटा ड्यूटी देने के बाद भी प्रतिदिन मात्र ढाई सौ रुपए के मामूली से मानदेय पाने वाले ये इंटर्न डॉक्टर्स इस महामारी के बीच करोना के शिकार भी हो रहे हैं, बावजूद इसके इनकी मांगों को बड़ी सफाई से नजरअंदाज किया जा रहा है जबकि हमारे सामने ऐसे उदाहरण भी कि इस करोना काल में इन इंटर्न डाक्टरों का उत्साह वर्धन करने के लिए कुछ राज्यों ने स्टाइपेंड में अच्छी खासी बढ़ोतरी की है।

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पिछले दस वर्षों से राज्य में  इंटर्न डाक्टरों को उनके काम के बदले मिलने वाली धनराशि महज साढ़े सात हजार ही है। साल 2010 में जब मायावती की सरकार थी तो उसने तब तक मिलने वाला मानदेय, जो मात्र दो हज़ार के करीब था, बढ़ा कर साढ़े सात हजार कर दिया था। इस पर रजनीश कहते हैं कि  पिछले एक दशक से इंटर्न डॉक्टरों का मानदेय जस का तस है जबकि अन्य राज्य  जरूरत और डिमांड्स के हिसाब से मानदेय में बढ़ोतरी करते रहे। वे बताते हैं कि अभी जो हमारा बड़ा मूवमेंट चल रहा है इससे पहले 2014 में भी हुआ था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, स्टूडेंट्स मेडिकल नेटवर्क, ऑल इंडिया मेडिकल स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने भी इस पूरे आंदोलन का समर्थन किया है।

सरकारी मेडिकल कॉलेजों में स्टाइपेंड के नाम पर साढ़े सात हजार और निजी मेडिकल कॉलेजों में मात्र 6000 मानदेय राशि पाने वाले इंटर्न डॉक्टरों ने इसे एक मजदूर से भी कम मिलने वाली दिहाड़ी बताया। बी आर डी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के अंतिम वर्ष के छात्र और इस समय इंटर्न कर रहे हेमन्त राय कहते हैं  " जब हमारी इंटर्नशिप की बारी आती है तो हम इंटर्न डॉक्टरों को भी आठ से दस घंटा ड्यूटी करनी पड़ती है, पूरी ड्यूटी करने और अपना शत प्रतिशत एफर्ट देने के बावजूद स्टाइपेंड के नाम पर हमें मिलता है प्रतिदिन का लगभग ढाई सौ रुपए उसमें  भी महीने के अंत में हमारे हाथ पूरा मानदेय भी नहीं आ पाता। तीन सौ हॉस्टल का और दो सौ बिजली का कट जाता है, यदि घर से पैसा न मंगवाया जाए तो सर्वाइव करना बेहद मुश्किल है हर इंटर्न के लिए और यही कारण है कि पूरे प्रदेश में समय समय पर अपनी जायज मांग को लेकर इंटर्न डाक्टरों को लामबंद होना पड़ रहा है" उन्होंने कहा कि" स्टाइपेंड बढ़ाने की मांग को लेकर हम इंटर्न डॉक्टर्स लगातार शांतिपूर्ण तरीकों से प्रोटेस्ट कर रहे हैं लेकिन  बावजूद इसके हमें अभी तक केवल आश्वासन ही मिला लेकिन हुआ हमारे पक्ष में कुछ नहीं।

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तो वहीं बी आर डी मेडिकल कॉलेज से इस साल  अपना एमबीबीएस पूरा कर चुके अजय चौधरी कहते हैं कि पिछले साल हमारे बैच ने भी मानदेय बढ़ाने को लेकर प्रदर्शन कर राज्य सरकार से इसमें इज़ाफ़ा करने की अपील जारी की थी लेकिन तब भी सरकार की ओर से कोई कारगर जवाब नहीं मिला था।  वे कहते हैं  कि इंटर्न डॉक्टरों को दिया जाने वाला साढ़े सात हजार का मानदेय पिछले दस सालों से इतना ही है जबकि अन्य राज्यों में समय समय पर इसमें बढ़ोतरी होती रही और हम देखते हैं कि दूसरे राज्यों में उत्तर प्रदेश के मुकाबले डबल और कहीं तो ट्रिपल स्टाइपेंड मिलता है यहां तक की सेंट्रल मेडिकल कॉलेजों में स्टाइपेंड की राशि साढ़े तेईस हजार है जबकि हर जगह के इंटर्न डॉक्टर्स एक समान काम करते हैं लेकिन मानदेय में जमीन आसमान का फर्क है।

वे कहते हैं एक इंटर्न भी एक रेजिडेंट डॉक्टर ( एमबीबीएस पूरा करने के बाद जो पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला लेते हैं) के बराबर ही काम करता है। अजय बताते हैं कि हमारे इसी मेडिकल कॉलेज के कुछ इंटर्न डॉक्टर ऑन ड्यूटी करोना के शिकार भी हो गए हैं। राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है जहां इन प्रशिक्षु डॉक्टरों को इतना अल्प मानदेय मिलता है। कर्नाटक सरकार ने मानदेय की राशि तीस हजार कर दी है जबकि कॉविड  19 वार्ड में ड्यूटी करने वाले इन इंटर्न डॉक्टरों का उत्साहवर्धन करने के लिए हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने इनके मानदेय को चालीस हजार तक कर दिया। केंद्रीय मेडिकल कॉलेजों के इंटर्न डॉक्टरों को सरकार साढ़े तेईस हजार मानदेय देती है। प्रदेश अध्यक्ष रजनीश कहते हैं जब केंद्र और राज्य मेडिकल कॉलेजों की पढ़ाई एक जैसी होती है, काम भी हमारा एक समान होता है, मेहनत एक समान है तो फिर मानदेय एक समान क्यूं नहीं।

साढ़े चार साल एमबीबीएस की पढ़ाई करने के बाद एक साल के इंटर्नशिप के पश्चात ही छात्रों को डिग्री मिलती है। इसमें दो राय नहीं कि यह एक साल की अवधि हर विद्यार्थी के लिए परिश्रमपूर्ण होती है। और आज जबकि पूरा विश्व करोना जूझ रहा है तो ऐसे में एक इंटर्न डॉक्टर की मेहनत भी कम नहीं आंकी जा सकती। अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं, अपने सीनियर्स के साथ हर प्रशिक्षु डॉक्टर्स भी  दस, बारह घंटे काम में तैनात हैं बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि सबसे ज्यादा रिस्क फेक्टर इन्हीं के साथ है क्यूंकि कोई भी करोना पीड़ित पहले इन्हीं के पास आता है। अपने आंदोलन को गति देने के लिए ये इंटर्न डॉक्टर्स सोशल मीडिया का भी सहारा ले रहे हैं।

बहरहाल,  केवल करोना वॉरियर्स कहने और फूल बरसाने भर से ही सरकार के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती, यदि सच में इन्हें एक योद्धा माना है तो राज्य सरकार को चाहिए इन इंटर्न डॉक्टर्स की बात पर विचार करे, कम से कम सुन तो ले।

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