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बेशक अर्नब जहरीले पत्रकार हैं लेकिन आत्महत्या के मामले में उनकी गिरफ्तारी राज्य की क्रूरता भी दर्शाती है!

अर्नब की पत्रकारिता के पक्ष में खड़ा होना तो मुश्किल है, लेकिन उनकी यह गिरफ़्तारी राज्य की सनकी भरी कार्रवाई को दिखाती है।
अर्नब
फ़ोटो: आभार:आईएएनएस

बुधवार को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा रिपब्लिक टीवी के प्रचंड सरकारी समर्थक एंकर,अर्नब गोस्वामी की सनसनीखेज गिरफ़्तारी से ऐसे बहुत सारे लोगों को ख़ुशी हुई है,जिन्हें अर्नब की "पत्रकारिता" की शैली से नफ़रत रही है। अर्नब के टीवी शो के बचाव में खड़ा नहीं हुआ जा सकता है। जिस तरह अर्नब आत्ममुग्ध और शातिर प्रचारक की तरह अपने चैनल पर बहुत सारी उल्टी-सीधी बातें कहते रहे हैं,उन्हें देखते हुए वह माफ़ी के लायक़ तो नहीं हैं। लेकिन, ऐसा भी नहीं उन्हें गिरफ़्तार करके महाराष्ट्र सरकार गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता के लिए उठ खड़ी हुई है। इसके बजाय अपनी ताक़त का इज़हार करने वाली यह सरकार भी अर्नब की तरह ही माफ़ी के लायक नहीं है,यह भी उन्हीं राज्यों की क़तार में शामिल हो गयी है,जो व्यापक और ख़ालिस ताक़त का प्रतिनिधित्व करता है।

अर्नब को ज़हर उगलने वाले उनके प्राइमटाइम के लिए नहीं,बल्कि उस "दोहरे आत्महत्या" मामले में गिरफ़्तार किया गया है, जो मामला दो साल पहले बंद हो गया था। कई लोग कहेंगे कि अर्नब को उसी का सिला मिल रहा है,जो कुछ उन्होंने महाराष्ट्र सरकार,खासकर सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण के दौरान महाराष्ट्र सरकार के ख़िलाफ़ किया था। लेकिन,ऐसा भी नहीं है। अर्नब की गिरफ़्तारी का कारण यह है कि राज्य को अब क़ानून और इंसाफ़ के नाम पर ग़ैर-मामूली और सनसनीख़ेज क़दम उठाने की "गुंजाइश" दिख गयी है या इसकी उसे उम्मीद हो गयी है। अर्नब की गिरफ़्तारी को लेकर नेट पर सक्रिय सामान्य लोगों के बीच का उल्लास ऐसी कार्रवाई के सार्वजनिक समर्थन का एक पैमाना है। इस तरह के उल्लास ज़ाहिर करने से यह साफ़ हो जाता है कि भाजपा के समर्थक केवल वही नहीं हैं, जो एक ताक़तवर देश की इच्छा रखते हैं। ऐसा लगता है कि बहुत से लोग ऐसा ही चाहते हैं,यानी एक ऐसा राज्य,जिसे कुछ भी करते हुए देखा जाये, इससे तबतक कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनके कुछ भी का क्या मतलब होता है, जबतक कि राज्य सख़्त और आक्रमक नहीं होता।

अर्नब की गिरफ़्तारी को लेकर समस्या यह नहीं है कि अर्नब किसी मुकदमे को झेलेंगे या एक पत्रकार के तौर पर तबतक काम नहीं कर पायेंगे, जब तक कि उन्हें हिरासत रखा जाता है। (गुरुवार दोपहर को होने वाली पहली सुनवाई में उन्हें जमानत मिलने की उम्मीद थी,लेकिन नहीं मिल पायी)। समस्या यह है कि जिस तरह से अर्नब आत्ममुग्ध रहे हैं- अपने मद में चूर रहे हैं,कुछ लोग इसके बावजूद अर्नब को उसी श्रेणी की सेलिब्रिटी में रख रहे हैं, जिस श्रेणी में वे लोग हैं,जो वास्तव में गणतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। असली पत्रकारों और कार्यकर्ताओं की अहमियत को तब तुच्छ कर दिया जाता है,  जब स्टेट उन्हें गिरफ़्तार करके या उनपर मुकदमे चलाकर अर्नब को भी उसी श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। अगर, आज असली पत्रकारिता को इस गिरफ़्तारी से कमज़ोर किया जाता है, तो आने वाले दिनों में वास्तविक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को तुच्छ साबित करते हुए उनके लिए बोलने के आधार ही ख़त्म हो जायेंगे। ऐसा इसलिए,क्योंकि अर्नब की गिरफ़्तारी का संदेश ही यही है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपके कार्य की प्रकृति क्या है; स्टेट आप पर जब चाहे नकेल कस सकता है।

अर्नब को गिरफ़्तार करके महाराष्ट्र सरकार पीड़ित और अभियुक्तों के बीच के अंतर को ख़त्म कर रही है। दो महीने पहले सुशांत सिंह राजपूत मामले में अर्नब, भाजपा और उसके समर्थकों की तरफ़ से खुलकर ऐसा हाहाकार मचाया गया था कि सुशांत की मौत के लिए अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को दोषी ठहराये जाने को लेकर कई तरह की थियरी गढ़ दी गयी थीं। पहले उन्होंने कहा था कि राजपूत का सही तरीक़े से ‘ख़्याल’ नहीं रखा गया था,बल्कि राजपूत को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाया गया था। आख़िरकार रिया पर उकसावे का आरोप नहीं लगा, बल्कि राज्य ने रिया को वैसे भी गिरफ़्तार कर लिया और उन पर कथित तौर पर गांज़े की खरीद करने का आरोप लगा दिया गया।

ठीक उसी तरह,अर्नब पर पहली बार टीआरपी घोटाले का आरोप लगाया गया और उसके बाद उनके ख़िलाफ़ आत्महत्या के एक पुराने मामले को फिर से खोल दिया गया। नतीजतन, रिया और अर्नब अब एक ही श्रेणी में आ गये हैं। इन दोनों को कथित रूप से अंजाम दिये जाने के आरोपों को छोड़कर किसी और चीज़ को लेकर मुकदमे का सामना करना पड़ रहा है। अर्नब की गिरफ़्तारी की आलोचना करने वालों के जवाब में महाराष्ट्र सरकार ने कहा है कि क़ानून अपना काम करेगा। लेकिन,आपराधिक मामलों में तो अपराध की प्रकृति ही नतीजे को तय करती है। दूसरे शब्दों में, आत्महत्या के लिए उकसाने को साबित कर पाना कुख़्तात तौर पर बेहद मुश्किल रहा है।

अगर ऐसा नहीं होता, तो राज्य सरकारों ने उन बैंक कर्मचारियों को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया, जिनकी किसानों से अवैतनिक ऋण को वापस लेने की कोशिशों की वजह से हज़ारों आत्महत्यायें हुईं हैं ? किसान की आत्महत्याओं के लगातार चलते सिलसिले के बाद महाराष्ट्र सरकार ने साहूकारों और बैंकों के एजेंटों के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं की ? इतने लोगों को लॉकडाउन के दौरान मज़दूरी से वंचित किया जा रहा है, समय पर उन्हें भुगतान नहीं किया जा रहा है या पूरी मज़दूरी से ही वंचित किया जा रहा है। इस तरह की परेशानियों को झेल रहे कामगारों की आत्महत्याओं के भी कई उदाहरण मौजूद हैं। सवाल है कि अगर अर्नब और रिया ने किसी को अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने को लेकर उकसाया है, तो क्या बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने क़र्ज़ लेने वालों को आत्महत्या के लिए नहीं उकसाया  है ?

यहां तक कि बीजेपी और शिवसेना-कांग्रेस के बीच का फ़र्क़ भी ख़त्म हो रहा है।अगर कोई बीजेपी की सरकार, पार्टी या उसकी नीतियों का विरोध करता है,तो भाजपा के नेता, ख़ास तौर पर शीर्ष नेतृत्व परेशान हो जाते हैं। फिर भी रिया और अर्नब को लेकर एक तरह सोचना इसलिए ठीक नहीं है,क्योंकि क़ानून और इंसाफ़ को लेकर उनके अनुभव अलग-अलग रहे हैं। रिया को एक शातिर सोशल मीडिया अभियान और साइबर-बुलिंग का सामना करना पड़ा है। रिया की गिरफ़्तारी के पक्ष में एक माहौल बनाया गया था, हालांकि रिया को उनके अपराध के लिए गिरफ़्तार नहीं किया गया था,जिसके लिए उनकी लानत-मलानत की गयी थी। इसके बावजूद,सत्ता में बैठा कोई भी शख़्स उनके लिए खड़ा नहीं हुआ था। दूसरी ओर, केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह सहित मोदी मंत्रिमंडल में शामिल कई बड़े नाम अर्नब के लिए खड़े थे।

इसमें कहां शक है कि अर्नब ने पत्रकारिता को शर्मसार किया है, लेकिन चूंकि उनकी पत्रकारिता महाराष्ट्र सरकार के मामले में कटघरे में नहीं है, ऐसे में ऐसा लगता है जैसे कि कोई भी जेल जा सकता है, कोई भी सुरक्षित नहीं है। नागरिकों के ख़िलाफ़ आपराधिक क़ानूनों का इस्तेमाल करते हुए राज्य ने ख़ुद को सशक्त बना लिया है, यह इसकी तमाम कार्रवाइयों में दिखती है,चाहे ये कार्रवाई गढ़चिरौली में आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता के मामले हों या भीमा कोरेगांव में एक अहम वर्षगांठ के अवसर के समारोह का मामला हो।

अगर महाराष्ट्र सरकार को अर्नब के टीवी शो की भाषा नफ़रत फ़ैलाने वाली लगी थी, तो वह भारतीय दंड संहिता की धारा 153A का इस्तेमाल कर सकती थी, जो शत्रुता, घृणा, सामंजस्य को नुकसान पहुंचाने और इसी तरह की गड़बड़ी को बढ़ावा देते वालों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होती है। इसे लेकर भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) का रुख़ भी किया जा सकता था। दूसरे शब्दों में, राज्य के पास प्रेस को नियंत्रित करने की शक्तियां तो हैं, लेकिन शायद इन शक्तियों का इस्तेमाल अप्रभावी तौर पर ही देखा जाता है, क्योंकि पीसीआई अधिनियम पुलिस को किसी पत्रकार को उठा लेने और गिरफ़्तार करने की अनुमति नहीं देता है। मगर,ऐसे राज्य के लिए सख़्त उपाय ज़रूरी हैं,जो शक्तिशाली दिखना चाहता है।

जनता के एक वर्ग ने हिंसा का मज़ा लेना शुरू कर दिया है और अपनी भावनायें खो दी हैं- बदला लेने वाला कोई राष्ट्र क्रोध, दु:ख, उदासी, अन्याय, क्रूरता के बीच अंतर कर पाने में असमर्थ हो जाता है।स्टेट आईपीसी और उसके विभिन्न उपवर्गों के 511 वर्गों में से किसी एक या दूसरे वर्ग की धारा में लोगों या समूहों को आरोपित करके भ्रम को बढ़ावा देता है। हाल के हाई-प्रोफ़ाइल मामलों से तो ऐसा ही कुछ लगता है। दिल्ली दंगा मामले ऐसे फ़ोन रिकॉर्ड से अटे पड़े है,जो छात्रों को षड्यंत्रकारियों की तरह दिखाते हैं, भीमा कोरेगांव मामला (अपनी ही तरह का अलग मामला) किसी अपराध को अंजाम देने के लिए एक डिज़ाइन किये जाने वाले मामले का संकेत देता है और अर्नब का मामला उसी उकासावे के आरोप पर वापस आ जाता है। जब विशिष्ट अपराधों के बजाय रिया के मामले में उकसावे का मामला आपराधिक मुकदमों का विषय बन जाता है, तो यह सिद्धांत की हार हो जाती है कि सौ दोषी भले ही बच जाय,लेकिन किसी एक निर्दोष को पीड़ित नहीं होने दिया जाय।

सच है कि अर्नब के लिए घूम-फिरकर बात वहीं आ गयी है। महीनों पहले, अर्नब उन चिट्ठियों को टीवी के पर्दे पर फ़्लैश कर रहे थे, जो कथित रूप से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गये थे, जिसमें प्रधानमंत्री की हत्या की किसी "साजिश" को रेखांकित किया गया था। इसके बावजूद, कोई यह तर्क तो दे ही सकता है कि इस तरह की पत्रकारिता का हिसाब-किताब बराबर करने वाला राज्य-तंत्र सचमुच नहीं बदला है। मुंबई पुलिस के मौजूदा आयुक्त,परमबीर सिंह को ही लें, जो उन लोगों के लिए एक आइकन बन गये हैं, जो अर्नब की परेशानी से खुश़ हो रहे हैं। जब जनवरी,2018 में भीमा कोरेगांव मामले दर्ज किये गये थे, तो यही परमबीर सिंह महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (क़ानून और व्यवस्था) हुआ करते थे। ऐसे में वह उन वरिष्ठ अधिकारियों में से एक थे, जिनकी निगरानी में उस मामले में गिरफ़्तारियां हुईं थीं और इस मामले की पूरी निगरानी उनकी ही देखरेख में की गयी थी।

भीमा कोरेगांव मामले में दो प्राथमिकी दर्ज की गयी थी, पहली प्राथमिकी 2 जनवरी 2018 को पुणे (पिंपरी) ग्रामीण पुलिस द्वारा दर्ज हुई थी। इस एफ़आईआर में दक्षिणपंथी नेताओं-मिलिंद एकबोटे और संभाजी राव भिड़े के नाम दर्ज थे। छह दिन बाद विश्राम बाग़ पुलिस स्टेशन (पुणे सिटी) ने एक और प्राथमिकी दर्ज की थी। दो साल से पिंपरी का मामला धूल फांक रहा है, जबकि विश्राम बाग़ का मामला एक ऐसे विशाल षड्यंत्र में बदल दिया गया है, जिसमें तक़रीबन आधे भारत के शीर्ष मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बंद कर दिया गया है।

महाराष्ट्र में परमबीर सिंह को नायक बनाने से पहले जनता को सबसे पहले इस न्याय प्रणाली पर विचार करना चाहिए। परमबीर सिंह ने 31 अगस्त 2018 को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी, जिसमें भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार कुछ कार्यकर्ताओं का माओवादी के साथ संपर्क के "सुबूत" का ख़ुलासा किया गया था। इसकी भारी आलोचना हुई थी। जब महाराष्ट्र पुलिस द्वारा कथित रूप से उस अपराध का दोष मढ़ने वाला कोई भी दस्तावेज़ अदालत के सामने नहीं पेश कर सकी थी, तो इससे और विवाद पैदा हो गया था। लेकिन,अब यक़ीनन, भीमा कोरेगांव के तरीकों का अनुसरण अर्नब मामले में किया जा रहा है: मुंबई पुलिस ने पहले तो एक टीआरपी घोटाले के लिए एफ़आईआर दर्ज की थी, इसके बाद रायगढ़ से पुलिस उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ़्तार करने आ गयी।

इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में अल्पमत के फ़ैसले से भीमा कोरेगांव मामले को "विशेष जांच दल की नियुक्ति के लिए उचित मामला" क़रार दिया। हालात से यह साफ़ नहीं होता है कि “महाराष्ट्र पुलिस ने मौजूदा मामले में निष्पक्ष और तटस्थ जांच एजेंसी के रूप में काम किया भी है या नहीं”। इस क़ानूनी राय के बाद पिछली भाजपा-शिवसेना शासन वाली राज्य सरकार ने भीमा कोरेगांव जांच की फिर से कराने के लिए एक एसआईटी पर विचार किया था। लेकिन,केंद्र सरकार ने इस मामले को राष्ट्रीय जांच प्राधिकरण को सौंपकर इस मामले को अपने नियंत्रण में ले लिया था। अब महाराष्ट्र सरकार एक और जांच पर विचार कर रही है, ऐसे में यह मामला क़ानूनी लिहाज़ से एक खींचतान में उलझकर रह जाने वाला मामला बन गया है। जो बात मायने रखती है,वह यह है कि केंद्र और राज्य के बीच की राजनीतिक लड़ाई में अर्नब या रिया या कार्यकर्ता किस तरह मोहरे बनकर रह जाते हैं। निर्दयी सत्ता के इस प्रतिस्पर्धी प्रदर्शन में अर्नब को आरोपित किया जायेगा, रिया को जेल होगी, और असहमति रखने वालों का भी दमन किया जायेगा।

तेज़ाबी ज़बान के लिहाज़ से कोई भी अर्नब और उनके टीवी चैनल को चुनौती नहीं दे सकता है। उन्होंने एक बार कहा था "वेटिकन" (सोनिया गांधी की तरफ़ इशारा करते हुए) ख़ुश हो रहा होगा कि एक भीड़ ने इस राज्य के एक हिंदू तपस्वी को मार डाला है। उन्होंने सुशांत राजपूत प्रकरण के दौरान ठाकरे और बॉलीवुड स्टार,सलमान ख़ान को खुली चुनौती दी थी, और भला-बुरा कहा था। लेकिन,मामला महज़ किसी पत्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नहीं है। मीडिया में कई लोग यह महसूस करते हैं कि उनकी गिरफ़्तारी का समर्थन करना पूरे मीडिया को कमज़ोर करेगा। यह मामला पत्रकारों को बहुत बुरी तरह से आघात पहुंचाने वाली राजनीतिक लड़ाई में तब्दील हो जायेगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Arnab’s Sensational Arrest Will Hurt Real Dissent

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