क्यों दिल्ली को दांडी मार्च जैसे आंदोलन की ज़रूरत है

हाल ही में संपन्न हुए दिल्ली के चुनावों में भाजपा की करारी हार काफ़ी महत्वपूर्ण है फिर चाहे राज्य का आकार कुछ भी हो, और संसद में उसका प्रतिनिधित्व करने लिए मामूली सीटें ही हों। एक केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जहां तक ताक़त या सत्ता का सवाल है - विशेष रूप से पुलिस – जो केंद्र सरकार के तहत आती है वह जीतने वाली पार्टी की ताक़त को ओर सीमित कर देती है।
फिर भी, दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है। यह वह जगह है जहां राजनयिक आते हैं, जहां पूरी की पूरी सत्ता केंद्रित है, और जहां मीडिया का बड़ा हिस्सा रहता है, उनके दफ़्तर मौजूद हैं। यह राष्ट्रीय चेतना के मामले में कहीं अधिक भूमिका निभाता है। भाजपा की चुनावी रणनीति के भीतर यह बात सबसे स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई। हालांकि कुछ पोस्टरों में नागरिक मुद्दों का जिक्र देखा गया परंतु उनमें से अधिकांश में दिल्ली के अलावा अन्य मुद्दों का ज़िक्र अधिक था। नोएडा से दिल्ली के रास्ते में पड़ने वाले फ्लाईओवर पर नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ विशाल पोस्टर लगाए गए थे, जिसमें तीन मुद्दों पर प्रकाश डाला गया था: जिसमें, अनुच्छेद 370 को ख़ारिज़ करना, ट्रिपल तलाक़ को आपराधिक घोषित करना, और असम में एनआरसी को लागू करना शामिल था।
इन मुद्दों के इर्द-गिर्द भाजपा ने अपने अभियान को काफ़ी ज़ोर-शोर से चलाया और टीवी चैनल और उसमें काम कर रहे पत्रकार, पत्रकारिता की बजाय भाजपा के भोंपू के रूप में नज़र आए। पोस्टर पर सामने और केंद्र में एक ही व्यक्ति था जिसकी तस्वीरों और टिप्पणियों को टीवी के कार्यक्रमों में दिखाया जा रहा था: और वे थे ख़ुद नरेंद्र मोदी।
देश के प्रधानमंत्री एक केंद्र प्रशासित शहर के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ भाजपा की तरफ़ से चुनाव अभियान चला रहे थे। और मज़े की बात है कि उनकी बड़े पैमाने पर हार हुई। दिल्ली राज्य विधानसभा में भाजपा पूरी तरह से कुचली गई क्योंकि उन्हेंं 70 में से केवल 8 सीटें मिली और आम आदमी पार्टी (आप) को बाक़ी सभी सीटें मिलीं।
यह हार इतनी शर्मनाक थी कि मोदी के पोस्टर बड़ी जल्दी ग़ायब हो गए हैं। इस चुनाव का यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण सबक है, कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को न केवल हराया जा सकता है, बल्कि उसका सफाया भी किया जा सकता है।
‘आप’ इसे बड़े पैमाने पर इसलिए कर पाई क्योंकि उसने दिल्ली की जनता को सेवाएं देने पर ध्यान केंद्रित किया था, जिसमें बिजली, सड़क, पानी की राजनीति पर उनका ध्यान केन्द्रित रहा। ‘आप’ ने ख़ुद सरकार द्वारा दी गई सेवाओं में छूट के अपने रिकॉर्ड पर ध्यान केंद्रित किया, क्योंकि वह अपनी जनता की ज़रूरतों के प्रति उत्तरदायी थी, पारदर्शी थी और भ्रष्टाचार मुक्त थी।
यह महत्वपूर्ण बात है, और भारत में शहरी राजनीति के भविष्य को भी दर्शाता है। केजरीवाल एक गौरवशाली महापौर हैं, जो कहते हैं कि हमें और अधिक सशक्त महापौरों की आवश्यकता है। न केवल वे डिलीवर कर सकते हैं, अगर उन्हेंं ठीक से प्रोत्साहित किया जाता है, तो वे सबसे अमीर राजनीतिक दल को हरा भी सकते हैं, जो मतदाताओं को उनके मुद्दों से विचलित करने की कोशिश करते हैं और जो उनकी सीधी चिंता नहीं करते है।
लेकिन इसी आप ‘आप’ पार्टी की विफलता या कहिए उसकी पहुंच के बाहर का मामला भी है। क्योंकि वे उच्च स्तर की राजनीति को चुनौती नहीं दे सकते है। बिजली, सड़क, पानी सभी बढ़िया मुद्दे हैं, लेकिन लोगों को क्या जिनकी नागरिकता छीन ली जाएगी और जिन्हें डिटेन्शन सेंटर में बिजली नहीं दी जाएगी, तो सड़क कहाँ जाएगी और पानी किसे परोसा जाएगा, ऐसा कुछ जो हठधर्मी और असंगत सरकार के हाथों असम में हुआ है।
केजरीवाल और ‘आप’ ने इन मुद्दों पर चर्चा करने से बिल्कुल इंकार कर दिया। उसने कश्मीर पर भाजपा की भयानक नीतियों का समर्थन कर दिया। जब छात्रों ने मुद्दों को उठाया और उन पर शातिराना हमला हुआ तो ‘आप’ सीन से ग़ायब थी। कांग्रेस ने अपने छात्रों को लामबंद किया, वामपंथी पार्टियां प्रमुखता से शामिल हुई। भीम आर्मी चीफ़, चंद्रशेखर आज़ाद की हाज़िरी शानदार थी। यहां तक कि दीपिका पादुकोण भी जेएनयू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन केजरीवाल ने सिर्फ एक ट्वीट से ही गुज़ारा कर लिया था।
गुमराह और कायरता की राजनीति तब अपने चरम पर पहुंच गई जब ‘आप’ ने शाहीन बाग़ की महिलाओं को सुझाव दिया कि वे दिल्ली के चुनावों के लिए अपने विरोध को छोड़ दें – जबकि ‘आप’ एक बार भी मुद्दों पर बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। जब लोग अपनी नागरिकता के सवाल को लेकर विरोध कर रहे हैं, उस पर यह सुझाव दे देना कि कुछ मुफ्त सेवाओं के बदले विरोध की राजनीति को छोड़ दिया जाए एक अपमानजनक सुझाव है।
फिर भी, हालांकि ‘आप’ ने दिल्ली के उन निवासियों और छात्रों को उनके रहम पर छोड़ दिया, जिन पर सचमुच में दिल्ली की सड़कों पर गोली दागी जा रही थी, इसलिए कि सत्ताधारी निज़ाम ने हत्या का आह्वान किया था, उन्हेंं लगता है कि उन्हेंं छोड़ा नहीं गया है। उस काम की भी कीमत है जिसे ‘आप’ कर रही थी - एक ऐसा शासन जिसके जरिए नफरत की राजनीति को बाहर रखा जा रहा था - भले ही वह इसके बारे में बोलने में सक्षम नहीं है।
सबसे बड़ा हंगामा तब हुआ जब भीड़ को उकसाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट अभियान के लिए आए। इससे तीव्र विषमता नहीं देखी जा सकती थी, और इसे लेकर दिल्ली के निवासियों के बीच प्रतिक्रिया की पूर्ण कमी थी जो अपने आप में चौंकाने वाली बात थी। यह पुष्टि करता है कि नफरत की राजनीति केवल बिष्ट जैसे लोगों को सशक्त बनाती है, जिनके पास यूपी जैसे राज्य में अवसर की कमी की और तबाही के बिना लोगों को स्थानांतरित करने की बहुत कम शक्ति है। ये नेता "सेवाओं का वितरण" नहीं कर सकते हैं, वे केवल नफ़रत का वितरण कर सकते है, और ये एक ऐसे एकमात्र नेता हैं जिनका भाजपा ने पोषण किया है। यदि कोई राज्य अपेक्षाकृत शालीनता से शासित हो सकता है, और उसके पास कुछ अवसर हैं – फिर वे अवसर चाहे कितने भी अनुचित हो - दिल्ली जहां आबादी कुछ हद तक सुरक्षित है।
लेकिन इस भलाई की भी एक सीमा है। यह सुरक्षा/इन्सुलेशन केवल स्थानीय स्तर पर काम करता है। यदि पार्टियां असम और कश्मीर जैसी जगहों पर तबाही वाली व्यापक नीतियों पर नज़र नही रखती हैं – तो वे सक्रिय रूप से उनकी पूरक की भूमिका निभाती हैं, और उन तबाही मचाने वाली नीतियों का विरोध करने वाले सिविल के लोगों के विरोध को कमज़ोर करती हैं, तो ऐसा कर वे केवल उस जहर को खिला रहे होंगे जो अंततः सापेक्ष स्थिरता के इन द्वीपों को डुबो देगा। जब दिल्ली की सीमा के बाहर उत्तर प्रदेश से गोली दागने के लिए एक युवक जामिया आया तो वह सबके लिए एक चेतावनी होनी चाहिए थी।
इन समस्याओं पर एक शुतुरमुर्ग की तरह का दृष्टिकोण किसी भी पार्टी को नहीं बचा पाएगा, अगर पार्टी उसका सामना नहीं करती है तो फिर उसने चाहे कितनी भी सेवाओं को लोगो के घर तक पहुंचाया हो, फिर चाहे वह कितना ही धर्मनिरपेक्ष क्यों न हो। यह हालात का मुक़ाबला करने से इनकार करना है। कम से कम यह अवसरवादी सांप्रदायिकता का एक रूप है जो केवल उन हथियारबंद कट्टरपंथियों को सशक्त बनाता है जिन्हें भाजपा ने देश भर में उतार दिया है।
जिस एक पार्टी ने कोशिश की और बीजेपी का मुक़ाबला किया वह कांग्रेस थी, लेकिन इसने चुपचाप ऐसा किया। ज़मीन पर प्रतिबद्धता के साथ तेज़ी से कुछ करने की ज़रूरत थी और जो हमले झेलने के लिए तैयार होते (यह कहना सही होगा कि कुछ नेताओं ने ऐसा किया भी), लेकिन कल्पना करें कि यदि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस अभियान को चलाया होता। सोचिए अगर इसे हमारे समय का जनमत संग्रह, दांडी मार्च बना दिया जाता। यहाँ एक ऐसी बड़ी सोच की जरूरत है जो इसे चुनौती दे सके - कुछ ऐसा जिसे जामिया, जेएनयू, शाहीन बाग कर रहे हैं। ज़ाहिर है, कांग्रेस अभी तक ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुई है।
दुर्भाग्य से कांग्रेस का बहुत लंबा इतिहास है, जिसमें उसकी अवसरवादी सांप्रदायिकता का लंबा और खूनी इतिहास रहा है। इसने ख़ुद ही संघ और गणराज्य के विध्वंसकारियों के लिए रास्ता तैयार किया है। क्या यह मौलिक रूप से बदल सकती है? इसके कुछ युवा नेता और कुछ शीर्ष नेता इस पर जोर दे रहे हैं, लेकिन इसमें बड़ी संख्या में वे लोग हैं जो लोग संरक्षण प्रणाली का उत्पाद हैं, और अपने स्वयं के संरक्षण नेटवर्क को बचाकर रखना चाहते हैं। साहस की राजनीति इसे चुनौती दे सकती है। क्या परिवर्तन करने वाले इसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं, जो अपने अतीत की विफलताओं का सामना कर सकें और उसे ख़ारिज़ करने का माद्दा रखते हों? मुझे नहीं पता। मुझे जो पता है वह कि इसकी सख्त जरूरत है।
इन चुनावों से हमें पता चल गया है कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट कितने समझौतापरस्त बन गए है। जब सत्ता पक्ष के राजनेता हत्या करने का आह्वान कर रहे थे, जब लोगों को धमकी दी जा रही थी, और शांतिपूर्ण, संवैधानिक विरोध प्रदर्शन करने वालों पर बंदूकें तानी जा रही थी और गोलीबारी की जा रही थे, इन संस्थानों ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। अपनी निष्क्रियता के चलते वे वर्तमान शासन की भयावहता को बढ़ावा दे रहे हैं और साथ-साथ लोकतांत्रिक गणराज्य के टूटने को बढ़ावा दे रहे हैं। मुख्यधारा की खबरों के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। इसका अधिकांश हिस्सा, विशेष रूप से टीवी समाचार, अपना समय खुले तौर पर संघ के लिए प्रचार और उसके लिए शोक में बिताते हैं।
इस सब में सबसे महत्वपूर्ण बात वह है जिसे अक्सर अनदेखा किया गया है। जबकि भाजपा ने एनआरसी और कश्मीर पर अभियान चलाया, इन दोनों क्षेत्रों में हुई तबाही पर कोई चर्चा नहीं हुई – और ‘आप’ ने भी चर्चा करने से इनकार कर दिया था, कांग्रेस ऐसा करने में असमर्थ थी और समाचार एजंसी इसे दिखाने से इंकार कर रहे थे। ये क्षेत्र आर्थिक रूप से तबाह हो चुके हैं, राजनीतिक उथल-पुथल में हैं, और नागरिकों (और सुरक्षा बलों) से बड़ी कीमत ली जा रही है। एक ऐसी राजनीति जो किसी की परवाह नहीं करती है, या दूसरों की देखभाल करने में असमर्थ है, वह राजनीति अपने साथी नागरिकों के बारे में आत्म-विनाश की राजनीति है।
यह तब सबसे स्पष्ट रूप से उभर कर आया जब जम्मू-कश्मीर के डीएसपी दविंदर सिंह को जनवरी में दो भारी हथियारों से लैस आतंकवादियों के साथ गिरफ्तार किया गया था। अगर उन आतंकवादियों ने जम्मू, या दिल्ली में, हमला किया होता तो वह विनाशकारी होता और इसमें कितनी जाने जाती। ये सब घटनाएँ दिल्ली चुनावों को सर्विस डिलीवरी के अलावा कुछ भी बना सकते थे।
इस राजनीति का सामना करना पड़ेगा, इसका सामना अब करना पड़ेगा, इससे पहले कि यह राजनीति हम सभी को नष्ट कर दे।
लेखक दिल्ली के रहने वाले हैं। उनके उपन्यास जिमी द टेररिस्ट को 2009 में ‘मैन एशियन लिटरेरी प्राइज़’ के लिए चुना गया था। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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