मुझे अगले नवरात्रों से ख़ौफ़ क्यों लगता है
द्विवार्षिक (कुछ के लिए त्रैमासिक) यह स्नेह का प्रदर्शन हो सकता है जिसे बेतरतीब ढंग से चुन जाता है, लेकिन संख्यात्मक रूप से प्रतिबंधित, लड़कियों के प्रति प्यार और चिंता दिखाई देती है और विशेष रूप से समाज के गरीब वर्गों के प्रति, जो चिंता और स्नेह बमुश्किल से एक या दो दिन चलता है।
ईश्वर से डरने वाले लाखों हिंदुओं में से अधिकांश, जिन्होंने विभिन्न डिग्री में, इन थोड़ी अभिभूत यौवन का उभार आने से पहले वाली लड़कियों पर, पितृसत्तात्मक मूल्यों को 'सामान्य' मान कर थोपते हैं, जिसमें कुप्रथा और भ्रूण हत्या भी 'ठीक' उन्हे लगती है।
छोटों बच्चों को भी, जिन्हे कुछ घंटों के लिए देवता बना लिया जाता है, इसके बाद वे अपनी घनी झोपड़ियों में लौट आते हैं, जहां उनका अस्तित्व लगातार अनिश्चितता के घेरे में रहता है।
किशोर अवस्था आने से पहले की लड़कियों को साक्षात देवी या देवी के अवतार के रूप में पूजा करने करने के बाद, उनके अधिकांश भक्त केवल एक राजनीतिक नारे के रूप में, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ को केवल शब्दों में तोते की तरह से रटते हैं। जिसमें कन्या शक्ति या बालिका शक्ति केवल जुमला या लफ्फाजी लगती है।
कोई गलती न हो, भक्ति का यह कर्मकांड – युवा कन्याओं के पैर धोने और उन्हें एक साफ कपड़े से पोंछने की प्रथा - विशेष रूप से आर्थिक और सामाजिक हाशिये पर रहने वालों के लिए नियमित रूप से वर्ग शोषण के मामले में समाज का पछतावा का कार्य नहीं है। इसके बजाय, इसे इच्छाओं की प्राप्ति का मार्ग माना जाता है।
एक 'विश्वसनीय' वेबसाइट में एक धार्मिक-अनुष्ठान-व्याख्याकर्ता से मैंने एक ऐसे मामले पर लिखने से पहले पढ़ा जिसमें 'विश्वास की बात' शामिल है – यहाँ मैं गलत होने की हिम्मत नहीं करता हूँ – जो कहता है, "ऐसा माना जाता है कि नवरात्रों के दौरान हवन किया जाता है जिससे कन्या पूजन करने से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।
अधिकतम आधे घंटे की अवधि के लिए, यह एक विश्वास की दुनिया में पलायन है जो कॉलोनियों में मौजूद है जहां से उन्हें आमतौर पर 'जरूरत' नहीं होने पर दूर कर दिया जाता है।
नवरात्र ही एकमात्र ऐसे समय होते हैं जब उन्हें लुभाया जाता है और भले ही एक छोटी लड़की जो अपने सूखे बालों से बंधे गुलाबी रिबन के साथ धैर्य से बाहर इंतज़ार करती है, क्योंकि उसके पास एक पेट है जो अब अधिक इंतज़ार नहीं कर सकता है, घर की महिला अभी भी एक अतिरिक्त निवाला खाने का प्रयास करती है।
वह संभवत: न्यूटन के गति के तीसरे नियम से प्रेरित है - एक या दो अतिरिक्त निवालों का मतलब है कि परिवार के खजाने कुछ अधिक आने वाला है। क्या कभी-कभी भिक्षा देने के अलावा, बदले में उनसे कुछ भी उम्मीद किए बिना, कोई गरीब तबके के किसी व्यक्ति को क्या कोई कुछ देता है?
निःसंदेह, नौ दिनों की इस नवरात्रि की अवधि, और आने वाले समय में, उनका आत्म-संयम से कोई लेना-देना नहीं है। इसके विपरीत, यह दूसरों पर लागू करने के हिंसक रूपों के बारे में है, विशेष रूप से उन पर जिन्हे समाज में 'दूसरा' माना जाता है।
इस साल भारत के जिस हिस्से में मैं रहता हूं, वहां उपस्थिति दर्ज करने का कार्य अधिक युद्धरत था - उत्तर प्रदेश, जो अब नव-विजयीवाद का निवास स्थान बन गया है।
मैं जिस समाज में रहता हूं, उसमें यह एक वास्तविक घटना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है - बहुसंख्यकवादी भावनाओं को 'आहत' करने के डर से इन मामलों से निश्चित नहीं होना चाहिए। फिर भी, यह निश्चित रूप से कहीं न कहीं यह हुआ है और कुछ नहीं बल्कि एक व्हाट्सएप संदेश के ज़रीए यह शुरू हुआ है।
आरडब्ल्यूए (रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन) के ज्ञापन में कहा गया कि दिन भर चलने वाले मंत्रों का आठ दिनों तक जप किया जाएगा और नौवें दिन के समापन से पहले आयोजन स्थल को सोसाइटी के आठ टावरों के कॉमन रूम से हटा कर ठीक बीच वाली आम जगह में स्थानांतरित कर दिया जाएगा।
लगभग एक पोस्टस्क्रिप्ट के रूप में, जिसे कि शुरू में भुला दिया गया था, एक पोस्ट के ज़रिए सूचित गया किया कि मंत्रोच्चार को एक साथ आंतरिक ऑडियो सिस्टम पर रिले किया जाएगा जिसे आपातकालीन संदेशों को रिले करने करने के लिए हाई-राइज़ बिल्डिंग में इस्तेमाल किया जाता है।
लाउडस्पीकर की राजनीति में यह एक नया मोड़ है जिसने कई दंगों को उकसाया है लेकिन अब इसे स्थानीय 'प्रशासन' की आधिकारिक मंजूरी मिल गई है। कोई भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं करता है कि क्योंकि ऐसा करने पर उनसे वापस सवाल किया जाएगा – कि क्या आपने तब विरोध किया था जब पास की मस्जिद से अज़ान आती है?
सवाल के जवाब में सवाल करने वाले चौक में आपका स्वागत है जहां प्रमुख बहुसंख्यक समुदाय के हर निजी धार्मिक अनुष्ठान को सार्वजनिक रूप से दिखाया जाता है और उनके बारे में सवाल पूछने वालों को 'उनमें’ से एक के रूप में लेबल किया जाता है।
यह सब उचित है, मुझे लगता है, क्योंकि राष्ट्र, लंबे समय से खतरे का सामना कर रहा है।
कहीं और नहीं बल्कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में धार्मिक पवित्रता को वास्तव में 'गंभीर' खतरा है, जहां कम्युनिस्ट संस्थापकों की संतानों ने रविवार को रात के खाने में मांसाहारी व्यंजन परोसा। टूक ये है की आखिर मांस खाने से लोगों के भीतरा से 'जानवर' को 'बाहर' लाता है और अगर हमेशा नहीं तो कम से कम नवरात्रों के दौरान मांसाहार को मना कर देना चाहिए।
उसी दिन, रामनवमी के दिन भी, पुलिस ने पुणे में एक नास्तिक सम्मेलन को दी गई अनुमति वापस ले ली थी। पिछले छह वर्षों से इसे शांतिपूर्वक आयोजित करने के बावजूद, आयोजक, शहीद भगत सिंह विचारमंच को सूचित किया गया कि सम्मेलन के दौरान व्यक्त किए गए विचारों से 'आस्तिकों की भावनाएं' आहत हो सकती हैं इसलिए आपकी अनुमति रद्द की जाती है।
गुजरात और मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा का प्रकोप फैला हुआ है, जहां अगले 20 महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कई जगहों पर, इसमें मांस एक मसला था - और इसके कारण जुलूस निकाले जा रहे हैं।
इस वर्ष, मैंने अपने चारों ओर नवरात्रों को मनाने के लिए अधिक जोर देखा। इसके कारणों की तलाश करना मुश्किल नहीं है। हाल के राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों के मद्देनजर विजयी होने की लहर साफ देखी जा सकती है।
पिछले साल पीईडब्लू की रिपोर्ट में कहा गया था कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को उत्तरी राज्यों में 68 प्रतिशत हिंदुओं का समर्थन प्राप्त था, जबकि मध्य क्षेत्र में, यह 65 प्रतिशत था।
उत्तर प्रदेश में मांस की दुकानों को बंद करने के लिए 'हां औपचारिक आदेश है, या नहीं है' भले ही सुर्खियों में रहा हो, लेकिन पड़ोस के किराने के सामान की अलमारियों से अंडो का गायब हो जाना कोई नई घटना नहीं है।
अल्पसंख्यकों के लिए निर्देशों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यह सब सत्ता के बारे में है और 'दूसरे' के व्यवहार के हर रूप को नियंत्रित करने और नियंत्रित करने की स्थिति में है, (यूपी में मुसलमान पढ़ें) - वे क्या पहनते हैं और खाते हैं, जहां वे प्रार्थना करते हैं, और किनके साथ उन्हें रोमांटिक रिश्ते बनाने की अनुमति है (यहां तक कि सामाजिक और प्लेटोनिक)।
यदि यह इस्लामोफोबिया नहीं है, लेकिन मुसलमानों के प्रति संदेह और/या नापसंदगी ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में भाजपा को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दल के रूप में उभरने में मदद की है। लेकिन बीजेपी ने विद्वेष को भड़काया है और 'हमारा' और 'उनका', या 'हम' और 'उन्हें', विभाजन की कथा को राजनीतिक रूप से सही बना दिया है।
भीड़ को अब अखबारों की सुर्खियों में स्थानीय ट्रेनों या दूरदराज के इलाकों में काम करने के रूप में रिपोर्ट नहीं किया जाता है। अब हम इस भीड़ के सदस्यों के साथ रहते हैं और कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं, एक ही लिफ्ट का उपयोग करते हैं, एक ही डिपार्टमेंटल स्टोर में खरीदारी करते हैं और एक ही उच्च-मध्यम वर्ग के स्थान को साझा करते हैं।
इसलिए मुझे अगले नवरात्रों से ख़ौफ़ लगता है।
लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक ‘द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया’ है। उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स शामिल हैं। उन्हे @NilanjanUdwin पर ट्वीट किया जा सकता है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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