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‘AFFIRMATIVE ACTION’ रद्द: क्या अमेरिका में बढ़ रहा दक्षिणपंथी फ़ासीवाद का ख़तरा

वास्तव में अमेरिकी न्यायालय का योग्यता का तर्क उसी तरह का है,जिस प्रकार भारत में दलित पिछड़ों और जनजाति समाज को आरक्षण देने के संबंध में कहा जाता है।
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अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही अमेरिकी समाज में फासीवाद का‌ ख़तरा निरन्तर बढ़ रहा है। अब लगता है, कि इसने अमेरिकी न्यायपालिका को भी अपने नियंत्रण में ले लिया है। अभी हाल ही में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के दाख़िले में नस्ल और जातीयता के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण को ख़त्म कर दिया है।

अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से बीते कई दशकों से चली आ रही परम्परा टूट गई है। अमेरिका में नस्ल के आधार पर ब्लैक हिस्पैनिक व नेटिव अमेरिकियों के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय में दाख़िले के लिए अफर्मेटिव एक्शन (आरक्षण जैसी नीति) लागू था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने कहा,"लम्बे समय से विश्वविद्यालयों ने ग़लत तरीक़े से यह निष्कर्ष निकाला है,कि किसी व्यक्ति की पहचान की कसौटी चुनौतियाँ, निर्मित कौशल या सीखे गए सबक नहीं बल्कि उसकी त्वचा का रंग है। नस्ल और जातीयता के आधार पर कॉलेज में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती है, इससे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिभावान छात्रों के दाख़िले के अवसर कम होंगे। हमारा संवैधानिक इतिहास उस विकल्प को बर्दाश्त नहीं कर सकता।"

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के साथ ही इस पर प्रतिक्रियाएँ भी आने लगी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने इस फ़ैसले पर असहमति जताई है। व्हाइट हाउस ने जो बाइडन के हवाले से कहा है कि "उन्हें विविध पृष्ठभूमि और अनुभव वालों को सुनिश्चित करने की अपनी प्रतिबद्धता नहीं छोड़नी चाहिए,जो पूरे अमेरिका को प्रतिबिंबित करते हैं। कॉलेजों को उम्मीदवारों द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों से उबरने का मूल्यांकन करना चाहिए।"

जानकारों का कहना है कि अफर्मेटिव एक्शन की नीति को बदलने से ब्लैक और दूसरे समुदाय के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा तक पहुँच पाना कठिन हो जाएगा तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में श्वेत और एशियाई छात्रों का दबदबा कायम हो जाएगा।

कई विश्वविद्यालयों में अफर्मेटिव एक्शन की नीति को पहले ही ख़त्म कर दिया गया है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 1990 के दशक में ही यूनिवर्सिटी के भीतर कराए गए एक मतदान के बाद यह नीति ख़त्म कर दी गई थी। अमेरिकी मीडिया में छपे अध्ययनों के मुताबिक़ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के उस क़दम का प्रभाव तुरन्त देखा गया। वहाँ ब्लैक और लैटिन समुदाय (लैटिन अमेरिका से आए लोगों) के छात्रों की संख्या में भारी गिरावट आई। ख़ासकर ऐसा बर्कले और लॉस एंजिल्स में स्थित प्रसिद्ध कॉलेजों में देखने को मिला। अब वहाँ ज्यादातर श्वेत और एशियाई समुदायों के ही छात्र दिखाई देते हैं।

वास्तव में 2016 से ही अमेरिकी कोर्ट में दक्षिणपंथ का पलड़ा भारी हो गया था, इसमें तीन न्यायाधीश पिछली अफर्मेटिव एक्शन के प्रोग्राम के विरोध में थे। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में भी तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति के बाद से ही अमेरिकी न्यायपालिका की स्थिति पूरी तरह दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर मुड़ चुकी है, यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रम्प ने इस अदालती फ़ैसले को 'अमेरिकी इतिहास में एक महान दिन' करार दिया है।

अमेरिका में लंबे समय से विभिन्न उच्चतर शैक्षिणक संस्थानों में अफर्मेटिव एक्शन का समर्थन किया जाता रहा है। इसका उद्देश्य मात्र अमेरिकी समाज में नस्लीय गैर-बराबरी को कम करने और बहिष्करण को ख़त्म करने से नहीं बल्कि कार्यस्थलों में व्यापक दृष्टिकोण वाले टैलेंट पूल के समावेश को सुनिश्चित करने का प्रयास शामिल था।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर अमेरिकी सीनेटरों सहित विभिन्न सामाजिक समूहों से बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया आ रही है। पहली ब्लैक महिला जस्टिस ब्राउन जैक्सन ने इस आदेश पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखा है,"यह क़ानूनी आदेश दरार डालने वाला है और सभी के लिए रंग-अंधता की घोषणा करता है, लेकिन कानून द्वारा नस्ल को अप्रासंगिक मान लेने से जीवन में ऐसा नहीं हो जाता।"

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के साथ अपने पिछले जुड़ाव के कारण जस्टिस जैक्सन ने इस मामले में भाग नहीं लिया। वहीं कोर्ट में पहली हिस्पैनिक न्यायाधीश के रूप कार्यरत में सोनिया सोतोमयोर ने लिखा है,"यह निर्णय समान सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी को नष्ट कर देता है और शिक्षा में नस्लीय असमानता को और बढ़ाता है।" उन्होंने इस फैसले को दशकों की पूर्ववर्ती और महत्वपूर्ण प्रगति को पीछे ले जाने वाला बताया है।

एक देश के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने लंबा अन्तराल नस्ल के मुद्दों से जूझने में बिताया है। इसके लंबे इतिहास पर गौर करें तो यह ब्लैक की गुलामी का इतिहास है, जिसका समापन लंबे गृहयुद्ध के बाद ही हो सका था। 50 और 60 के दशक में चले नागरिक अधिकार आंदोलन और हाल के वर्षों में नस्लीय न्याय से संबंधित लोकप्रिय विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जिसमें बड़े पैमाने पर ब्लैक के ख़िलाफ़ पुलिसिया दमन और हत्याओं का सिलसिला दर्ज है।

न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक उसके द्वारा मई माह में किए गए एक सर्वेक्षण में 49% अमेरिकियों ने नस्लीय भेदभाव के मद्देनजर समाज में समानता को बढ़ाने को जरूरी मानते हुए अफर्मेटिव एक्शन कार्यक्रम को आवश्यक बताया था, जबकि 32% इससे असहमत थे और 19% लोगों की इस पर राय नहीं बन पाई थी।

रिपब्लिकन पार्टी के तमाम नेताओं की ओर से इस फ़ैसले को ऐतिहासिक बताया जा रहा है, और मेरिट-आधारित प्रवेश को न्यायपूर्ण फ़ैसला क़रार दिया जा रहा है।

पूर्व राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने पत्नी मिशेल ओबामा के ट्वीट को री-ट्वीट करते हुए लिखा है, "बेहतर न्यायपूर्ण समाज बनाने की दिशा में अफर्मेटिव एक्शन कभी भी मुकम्मल जवाब नहीं था, लेकिन उन छात्रों की पीढ़ियों के लिए जिन्हें अमेरिका के अधिकांश प्रमुख संस्थानों से पूर्व-नियोजित तरीके से बहिष्कृत रखा गया था- इसने हमें यह दिखाने का मौका दिया, कि हम मेज पर एक सीट की पात्रता से कहीं ज्यादा काबिल हैं। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के मद्देनजर समय आ गया है, कि अब हम अपने प्रयासों को दोगुना करें।"

वास्तव में अमेरिकी न्यायालय का योग्यता का तर्क उसी तरह का है,जिस प्रकार भारत में दलित पिछड़ों और जनजाति समाज को आरक्षण देने के संबंध में कहा जाता है। भारत में केन्द्रीय सत्ता में काबिज़ भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले ही से जाति के आधार पर आरक्षण का विरोधी रहा है तथा घुमा-फिराकर इसे समाप्त करने के मनसूबे बाँधता रहता है। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का तर्क भी इसी से निकलता है। अमेरिका में विश्वविद्यालय के अलावा प्राइवेट सेक्टर तथा ‌सरकारी ठेके आदि देने में भी ब्लैक और अन्य दमित जातियों को भी आरक्षण दिया जाता है, जिसे डाइवर्सिटी सिद्धांत कहा जाता है। शिक्षा जगत में आरक्षण समाप्त करने के बाद इस पर भी असर पड़ना लाज़मी है तथा भारत में भी विशेष रूप से आरक्षण नीति पर प्रभाव पड़ने की पूरी संभावना है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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