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ख़बरों के आगे-पीछे : वीआईपी सुरक्षा के ज़रिए सहयोगियों का तुष्टिकरण

अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है। वहीं मायावती के भतीजे आकाश आनंद को भी वाई श्रेणी की सुरक्षा दी गई है। 
Anupriya
फोटो साभार : ईटी

आम आदमी का जीवन भले ही कितना भी असुरक्षित हो, लेकिन देश के हर हिस्से में बड़ी संख्या में कई ऐसे छोटे-बड़े नेता मिल जाएंगे, जिन्हें वीआईपी स्तर की सुरक्षा मिली हुई है। केंद्र की भाजपा सरकार ने अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोगियों को खुले हाथ से अलग-अलग श्रेणियों की सुरक्षा बांटी है। यही नहीं, भाजपा के भी कई नेताओं को सुरक्षा देकर उनका कद बढ़ाया गया है। 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद तो भाजपा ने पश्चिम बंगाल में जीते अपने सभी 75 विधायकों को केंद्रीय सुरक्षा बलों की सुरक्षा मुहैया करा दी थी। इसी तरह महाराष्ट्र में शिव सेना और एनसीपी टूटने के बाद उनके टूटे हुए धड़ों के कई नेताओं को सुरक्षा दी गई। हाल ही में दो नेताओं को मिली सुरक्षा चर्चा का विषय है। अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है। केंद्रीय मंत्रियों को मिलने वाली सुरक्षा उन्हें पहले से प्राप्त थी लेकिन उसे अपग्रेड किया गया है। बताया जा रहा है कि इस बार लोकसभा चुनाव में वे दो की बजाय तीन सीट मांग रही थी लेकिन एक अतिरिक्त सीट के बजाय उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा देकर संतुष्ट किया गया दूसरी दिलचस्प बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के भतीजे आकाश आनंद को भी वाई श्रेणी की सुरक्षा दी गई है। मायावती ने हाल ही में उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है और साथ ही विपक्षी गठबंधन से दूर रहने का ऐलान भी किया है।

भारत अब लोकतंत्र नहीं रहा! 

अंतरराष्ट्रीय संस्था- वेराइटी ऑफ डेमोक्रेसीज (वी-डेम) ने दोहराया है कि भारत अब लोकतंत्र नहीं है। उसने भारत को निर्वाचित अधिनायकतंत्र की श्रेणी में 2018 में ही रख दिया था। उसके बाद से वी-डेम के सूचकांक में भारत का दर्ज़ा और गिरा ही है। इस बीच लोकतंत्र की सूरत पर रिपोर्ट तैयार करने वाली अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस भारत को आजाद देशों की श्रेणी से गिराकर उसे आंशिक आजादी वाले देशों की श्रेणी में रख चुकी है। वी-डेम ने इस वर्ष अपने सूचकांक में 179 देशों के बीच भारत को 104वें पायदान पर रखा गया है। संस्था ने कहा है- ''2013 के बाद भारत में तानाशाही प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है।’’ इस तरह वह उन देशों में शामिल हो गया है, जहां हाल के समय में तानाशाही सबसे तेजी से बढ़ी है और भारतीय लोकतंत्र उस जगह पहुंच गया है, जहां 1975 में था- यानी जब देश में इमरजेंसी लागू हुई थी। वी-डेम ने कहा है कि इस समय दुनिया में तानाशाही प्रवृत्ति बढ़ने की लहर आई हुई है। यह प्रक्रिया 42 देशो में चल रही है, जहां की कुल आबादी दो अरब 80 करोड़ है- यानी जहां दुनिया की कुल आबादी का 35 प्रतिशत हिस्सा रहता है। दुनिया की 18 फीसदी आबादी भारत में है। इस तरह जो आबादी बढ़ रही तानाशाही प्रवृत्ति वाले देशों में है, उनका आधा हिस्सा भारत में मौजूद है। भारत की वर्तमान सरकार ऐसी रिपोर्टों को भारत विरोधी सोच से प्रेरित करार देती है। मगर यह बात याद रखनी चाहिए कि भारत की पहचान अगर एक लोकतांत्रिक देश की बनी, तो वह उन पैमानों पर बेहतर सूरत की वजह से ही बनी, जिनको लेकर वी-डेम या फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाएं सूचकांक बनाती हैं। वैसे भी जो बातें ये संस्थाएं कह रही हैं, वैसा ही अनुभव बहुत सारे भारतवासियों का भी है।

रक्षा क्षेत्र में आत्म निर्भरता के ढोल की पोल

सरकार की ओर से पिछले कुछ सालों से लगातार यह दावा किया जा रहा है कि भारत हथियारों के मामले में आत्म-निर्भरता की दिशा में सिर्फ आगे ही नहीं बढ़ा है, बल्कि अब वह महत्वपूर्ण हथियारों का निर्यात भी कर रहा है। ऐसे दावों की हकीकत जाने बगैर मीडिया भी बढ़-चढ़ कर सरकार के सुर में सुर मिलाने लगता है। ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि 2019 से 2023 के दौरान उसके पहले की पांच साल की अवधि (2014-18) की तुलना में हथियारों के भारत के अपने आयात में 4.7 फीसदी इजाफा कैसे हो गया? स्वीडन की संस्था स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) ने इस बार अपनी रिपोर्ट में हथियारों के कारोबार के पांच साल के ट्रेंड पर रोशनी डाली है। रिपोर्ट बताती है कि 2019-23 की अवधि में भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बना रहा। गौरतलब है कि इस साल एक फरवरी को 2024-25 के लिए पेश भारत के अंतरिम बजट में रक्षा मंत्रालय को 6.2 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया। इसमें नई खरीदारियों के लिए 1.72 लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं। यह पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 5.78 प्रतिशत ज्यादा है। अब सवाल है कि क्या देश में ऐसी रक्षा कंपनियां हैं, जो भारतीय सेना की जरूरतों के लायक हथियार, सैन्य उपकरण और गोला-बारूद की बिक्री कर पाएं? हाल के दशकों में रक्षा उत्पादन क्षेत्र के निजीकरण का खूब प्रचार हुआ है। कई बड़े उद्योगपतियों ने इस क्षेत्र में कदम रखा है। मगर हकीकत यह है कि हथियारों के मामले में विदेशी कंपनियों पर भारत की निर्भरता बनी हुई है। 

राजनीतिक रैलियों में रैम्प की संस्कृति

राजनीतिक दलों की रैलियों-जनसभाओं और फैशन परेड के रैम्प वॉक में जमीन आसमान का अंतर होता है। रैम्प वॉक सीमित दर्शकों के लिए बंद कमरे में होते हैं, जबकि रैलियां सार्वजनिक होती हैं। लेकिन इन दिनों राजनीतिक दलों की रैलियों में रैम्प वॉक का चलन बढ़ता दिखाई दे रहा है। जब से राजनीतिक दलों ने इवेंट मैनेज करने वाली कंपनियों से मदद लेना शुरू किया है तब से इसका प्रचलन बढ़ा है। नेताओं की बड़ी रैलियों में मंच के आगे बड़े बड़े रैम्प बनाए जा रहे हैं, जिन पर नेता एक सिरे से दूसरे सिरे तक वॉक करते हैं। पहले यह काम मंच पर ही किया जाता था। हाल की दो रैलियों में यह देखने को मिला है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी की रैली की, जिसमें मंच के आगे एक रैम्प बनाया गया, जिस पर ममता ने सभी उम्मीदवारों के साथ रैम्प वॉक किया। आगे-आगे ममता और उनके पीछे सारे उम्मीदवार एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलते रहे और रैम्प के दोनों ओर खड़े लोग नारे लगाते रहे। इसी तरह भाजपा और तेलुगू देशम पार्टी का गठबंधन होने के बाद आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने अपनी ताकत दिखाने के लिए अपनी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस की रैली की तो उसमें उन्होंने भी एक रैम्प बनवाया, जिस पर वे घूम-घूम कर लोगों को संबोधित करते रहे। वैसे यह प्रयोग पिछले दिनों मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी किया था। 

अब्दुल्ला परिवार फिर भाजपा के खेमे में?

जम्मू कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की पार्टी एक बार फिर भाजपा की सहयोगी बन सकती है। पिछले कुछ दिनों के दौरान नेशनल कांफ्रेंस की राजनीति को देखने से लग रहा है कि भाजपा से उसकी दूरी कम हुई है। गौरतलब है कि फारूक और उमर अब्दुल्ला ने ही राज्य में गुपकर एलायंस की पहल की थी और भाजपा विरोधी पार्टियों को एक मंच पर इकट्ठा किया था। लेकिन अब नेशनल कांफ्रेंस उससे दूर हो गई है। एक तरह से उसने विपक्षी गठबंधन को तोड़ दिया है। नेशनल कांफ्रेंस ने जम्मू कश्मीर और लद्दाख की छह लोकसभा सीटों के लिए एकतरफा तरीके से फैसला किया है। साथ ही उमर अब्दुल्ला ने विपक्षी नेताओं को नसीहत देते हुए कहा है कि वे नरेंद्र मोदी पर निजी हमला न करें, क्योंकि इससे मोदी को ही फायदा मिलता है। फारूक अब्दुल्ला की पार्टी ने कहा है कि कश्मीर की घाटी की तीन सीटों- श्रीनगर, बारामूला और अनंतनाग से उनका उम्मीदवार चुनाव लड़ेगा। यानी कांग्रेस और पीडीपी के लिए घाटी में एक भी सीट नहीं छोड़ी जाएगी। कांग्रेस को तो पहले ही बाहर कर दिया गया था लेकिन कहा जा रहा था कि दो सीटों पर नेशनल कांफ्रेंस और एक सीट पर पीडीपी लड़ेगी, जबकि जम्मू की दो सीटें कांग्रेस को मिलेगी। लेकिन अब घाटी की तीनों सीटों पर नेशनल कांफ्रेंस के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद राज्य में तीनों पार्टियों का गठबंधन खत्म हो गया है। अगर तीनों पार्टियां हर सीट पर चुनाव लड़ती है तो उसका फायदा भाजपा को मिल सकता है।

कितने पूर्व मुख्यमंत्री सांसद बनेंगे? 

लोकसभा की 370 सीट जीतने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए भाजपा इस बार पूरे देश में अपने मजबूत नेताओं को चुनाव लड़ा रही है। इस सिलसिले में प्रदेश की राजनीति में ही सक्रिय रहे नेताओं और पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है। आमतौर पर पूर्व मुख्यमंत्री सांसद बनते हैं और उनकी पार्टी की केंद्र में सरकार बनने पर वे मंत्री भी बनते है। बहरहाल, भाजपा ने अभी तक 267 उम्मीदवारों की घोषणा की है, जिसमें उसने आधा दर्जन से ज्यादा पूर्व मुख्यमंत्रियों को मैदान में उतारा है। हालांकि दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के टिकट कटे भी हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री डीवी सदानंद गौड़ा को इस बार टिकट नहीं मिला है। पिछली बार चुनाव जीते झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को फिर से टिकट दिया गया है। असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल राज्यसभा सदस्य हैं। इस बार पार्टी ने उन्हें लोकसभा चुनाव में उतारा है। ये दोनों पूर्व मुख्यमंत्री केंद्र सरकार में मंत्री हैं। इनके अलावा पांच और पूर्व मुख्यमंत्रियों को टिकट दिया गया है। राज्यसभा सदस्य और त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लब देब और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस बार चुनाव लड़ रहे हैं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के दो दिन बाद ही मनोहर लाल खट्टर के नाम का भी ऐलान हो गया। उधर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को भी पार्टी ने चुनाव में उतारा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी इस बार लोकसभा का टिकट मिला है। 

भाजपा काट रही है विवादित नेताओं के टिकट

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा अपने उम्मीदवारों के चयन में खूब सावधानी बरत रही है। पार्टी ने पहली सूची में कई विवादित नेताओं को बेटिकट किया। अक्सर अपने बयानों से विवादों में रहने वाली भोपाल की सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और संसद के अंदर बसपा सांसद दानिश अली पर विवादित टिप्पणी करने वाले रमेश विधूड़ी को बेटिकट किया। एक सांसद का कथित अश्लील वीडियो वायरल होते ही उससे उम्मीदवारी छिनी तो एक भोजपुरी अभिनेता और गायक के अश्लील गानों का विवाद उठने पर उसे भी चुनाव मैदान से हटा लिया। यह सिलसिला दूसरी सूची में भी जारी रहा। भाजपा ने 72 उम्मीदवारों की दूसरी सूची में कर्नाटक के दो ऐसे सांसदों का टिकट काटा है, जो पिछले कुछ दिनों से किसी न किसी कारण से विवादों में घिरे रहे थे और उनकी वजह से पार्टी को बैकफुट पर आना पड़ा। पार्टी ने इस बार कर्नाटक से अपने सांसद प्रताप सिम्हा की टिकट काट दी। पिछले दिनों वे इस बात को लेकर विवाद में आए थे कि उनकी सिफारिश पर उन लोगों का संसद का प्रवेश पत्र बना था, जिन्होंने संसद भवन के अंदर विरोध प्रदर्शन किया था। दो लोगों ने तो संसद की दर्शक दीर्घा से सदन के अंदर छलांग लगा दी थी और धुआं छोड़ा था। बाद में उन्हें गिरफ्तार किया गया। गौरतलब है कि इस सिलसिले में प्रताप सिम्हा पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसी तरह लोकसभा चुनाव में 370 सीटें जीत कर संविधान बदलने का बयान देने वाले भाजपा सांसद अनंत हेगड़े का टिकट भी कट गया है। उनके इस बयान पर भाजपा ने उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था। 

प्रकाश आंबेडकर की शर्त कौन मानेगा?

महाराष्ट्र में चुनावी लड़ाई का पाला खींच गया है। एक तरफ कांग्रेस, उद्धव ठाकरे की शिव सेना और शरद पवार एनसीपी का गठबंधन है तो दूसरी ओर भाजपा, एकनाथ शिंदे की शिव सेना और अजित पवार की एनसीपी का गठबंधन है। पहले गठबंधन में यानी महा विकास अघाड़ी में उद्धव ठाकरे की जिम्मेदारी प्रकाश आंबेडकर को संभालने की है तो शेतकरी नेता राजू शेट्टी को संभालने का जिम्मा शरद पवार का है। उद्धव ठाकरे ने वंचित बहुजन अघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर को दो सीटें देने का वादा किया था। वे सीट बंटवारे के लिए हुई बैठकों में शामिल भी हुए थे। लेकिन अभी तक फैसला नहीं हो पाया है। बताया जा रहा है कि उन्होंने महाविकास अघाड़ी के नेताओं के सामने ऐसी शर्त रख दी, जिसे मानने को कोई तैयार नहीं है। प्रकाश आंबेडकर चाहते हैं कि गठबंधन में सीट बंटवारे की फाइनल घोषणा से पहले सारे नेता लिखित वादा करें कि वे चुनाव के बाद भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। उनकी इस शर्त से खास तौर से शरद पवार और उद्धव ठाकरे गुट के नेता हैरान हैं। राजनीति में इस तरह का लिखित वादा कौन कर सकता है। इसीलिए उद्धव ठाकरे गुट ने इससे इनकार कर दिया। संजय राउत ने तो इसे फालतू का आइडिया बताया। हालांकि शरद पवार गुट के जितेंद्र अव्हाड इसके लिए तैयार हो गए। लेकिन ज्यादातर नेता इसका विरोध कर रहे हैं।

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