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अतुल अंजानः हिंदी क्षेत्र के लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता

अतुल कुमार अंजान भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के राष्ट्रीय सचिव तथा अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव थे। 3 मई की सुबह लखनऊ में उनका निधन हो गया। 
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भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में हिंदी क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक अतुल कुमार अंजान का 3 मई की सुबह लखनऊ में निधन हो गया।  वे 70 वर्ष के थे और लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थे। जनवरी माह में ‘एम्स’, नई दिल्ली के बाद से वे लखनऊ के एक अस्पताल में इलाजरत थे।

अतुल कुमार अंजान भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई) के राष्ट्रीय सचिव तथा अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव थे। किसान सभा से उनका जुड़ाव 1997 से ही रहा था। किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए बने स्वामीनाथन आयोग में किसानों की ओर से वे इकलौते प्रतिनिधि थे। उनके पिता ए.पी. सिंह लखनऊ के चर्चित चिकित्सक थे तथा उनका जुड़ाव भगत सिंह के  क्रांतिकारी संगठन हिंदस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन  से था जबकि श्वसुर इंद्रदीप सिन्हा चर्चित कम्युनिस्ट नेता  और 1967 की बिहार के  पहली गैर-कांग्रेसी मंत्रिमंडल मंडल में भूराजस्व मंत्री रहे थे।  इंद्रदीप सिन्हा का गहरा जुड़ाव किसान आंदोलन में लोकाख्यान बन चुके क्रांतिकारी नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती से भी था। 

अधिकांश लोग अतुल कुमार अंजान को उत्तर प्रदेश के वासी के रूप में जानते थे पर उनका जन्म बिहार के बांका जिले में हुआ था। लेकिन उनकी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश में थी। 1978 में वे लखनऊ विश्वविद्यालय  छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए। इस पद पर वे चार दफा जीते।  लखनऊ विश्वविद्यालय में नारा लगा करता था 'मेरी जान/ तेरी जान /अतुल अंजान/ अतुल अंजान।

हिंदी  इलाके के किसी प्रमुख विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर किसी कम्युनिस्ट का जीतना कोई सामान्य बात न थी। 1979 में  वे ऑल इंडिया स्टुडेंट फेडेरशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। 

यह  अतुल अंजान के करिश्माई व्यक्त्वि का कमाल था जिसने उन्हें न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे भारत का नेता बना दिया। हिंदी इलाके में वे खास तौर पर लोकप्रिय थे। बिहार के लगभग हर जिले में अतुल कुमार अंजान को  बुलाया जाता था। अपने मोहक व प्रभावशाली अंदाज से उन्होंने युवाओं की कई पीढ़ियों को वाम आंदोलन की ओर आकर्षित किया। अतुल अंजान का हिंदी साहित्य से गहरा जुड़ाव था, पुरानी हिंदी फिल्मों के वे शौकीन थे।

लगभग अस्सी के दशक तक कम्युनिस्टों के सशक्त प्रभाव वाले घोसी लोकसभा से चार दफा उन्होंने चुनाव लड़ा पर सफलता नहीं मिली। बिना किसी सदन के सदस्य बने  और बगैर पार्टी के महासचिव पद पर रहे भी वे इतने लंबे वक्त तक चर्चित नेता बने रहे। उन्हें जैसी लोकप्रियता मिली वह दुर्लभ है। कई बार उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। 

भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में अधिकांशतः दक्षिण के नेता हावी रहे हैं। हिंदी इलाके की बात करें तो सी.पी.आई के पहले महासचिव पी.सी. जोशी के बाद सर्वाधिक प्रसिद्ध चेहरा रहे अतुल अंजान। हिंदी क्षेत्र में पूरे वाम आंदोलन में उस कद का कोई नेता न था।  कम्युनिस्ट आंदोलन के अधिकांश नेताओं को  कामचलाऊ हिंदी में भाषण देने  की आदत रही है।  प्रवाहमान और  सुगम  हिंदी में बोलने वाले अतुल अंजान सरीखा नेता, विशेषकर हिंदी भाषा में, लगभग नहीं के बराबर है।  

जब भी उनका भाषण शुरू होता आमलोग उन्हें सुनने के लिए एकत्र हो जाते। अपने भाषणों में मुहावरों, लोकोक्तियों और आख्यानों के सहारे आसानी  लोगों के बीच अपनी पैठ बना लेते। 

अपने भाषणों में वे  कम्युनिस्ट आंदोलन के समक्ष  मौजूद दो प्रमुख चुनौतियों - नवउदारवादी आर्थिक नीतियां और सांप्रदायिकता- को चिन्हित करना नहीं भूलते। तात्कालिक कार्यनीतियों के बीच वैज्ञानिक समाजवाद के लक्ष्य को ओझल नहीं होने देने संबंधी हिदायतें दिया करते।  युवाओं को स्वाधीनता आंदोलन की विरासत और मार्क्सवादी दर्शन से अवगत होने की सलाह दिया करते। बौद्धिक और वैचारिक अभियान को और अधिक संजीदगी से लेने चलाने की वकालत , खासकर युवाओं के बीच, किया करते।   पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से उन्होंने कई पुराने क्लासिक पुस्तकों का पुनः प्रकाशन कराया। 

टेलीविजन  पर अक्सर उन्हें वामपक्ष के तरफदारी करते देखा जा सकता था। एंकरों को समझाने और कई बार झिड़की देने की हिम्मत अतुल अंजान  को ही थी।  

उनका स्वास्थ्य पिछले कुछ वर्षों से गिरता जा रहा था। 

पिछले दिनों  मृत्युशय्या से वाम आंदोलन का यह  प्रख्यात गीत गाते हुए उनका वीडियो आया।

 'तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी के गीत में यक़ीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर' । 

हम सबों के जेहन में यही उनकी अंतिम छवि है।

'स्वर्ग' को ज़मीन पर उतारने के लिए आजीवन प्रयासरत रहने वाले नेता थे अतुल अंजान।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और वाम आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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