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किताब: भीमा कोरेगांव, नाभिदर्शना, कब्बन मिर्ज़ा से गुज़रते हुए

कोई अगर मुझसे पूछे कि उषा राय के इस नये कविता संग्रह की ख़ासियत क्या है, तो मेरा जवाब होगाः आवारगी और आज़ादी से प्यार, और प्रेम, करुणा और मानवता को बचाने की ललक।
Bhima Koregaon

‘भीमा कोरेगांव देशद्रोह नहीं

कोई घाव नहीं बिच्छू का कर्म नहीं

यह मनुष्यता के सम्मान का स्वरूप है

भीमा कोरेगांव नये भारत का प्रारूप है.’

            - उषा राय, ‘भीमा कोरेगांव’ कविता में

 

हिंदी साहित्य समाज का अच्छा-ख़ासा हिस्सा जब भीमा कोरेगांव का नाम लेने से भी हिचकता है, तब कवि-कहानीकार उषा राय (जन्म 1963) अपना दूसरा कविता संग्रह ‘भीमा कोरेगांव और अन्य कविताएं’ (2023) शीर्षक से ले आयी हैं। मौजूदा सत्तारूढ़ हिंदुत्व फ़ासीवादी दौर में यह साहस का काम है।

यह कविता संग्रह न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली से छपा है। एक सौ चार पेज की किताब में 46 कविताएं हैं, जो 2019 से 2023 के बीच लिखी गयीं।

संग्रह में शामिल ‘भीमा कोरेगांव’ शीर्षक कविता में उषा राय भीमा कोरेगांव को देशद्रोह मानने से साफ़ इनकार करती हैं। वह इसे ‘नये भारत का प्रारूप’ कहती हैं। यह साहसिक राजनीतिक कथन है, जो भीमा कोरेगांव के इर्द-गिर्द बुने गये ज़हरीले सरकारी आख्यान को चुनौती देता है। (याद करिये भीमा कोरेगांव-16—BK-16—का मामला।) यह कविता ब्राह्मणी सामंतवाद पर हमला करती है। इसमें नये भारत का सपना कौंधता है।

इस कविता में भीमा कोरेगांव का सौंदर्यपरक आख्यान रचा गया है, जो कवि के राजनीतिक विवेक और काव्य विवेक से हमारा परिचय कराता है। जहां तक मेरी जानकारी है, भीमा कोरेगांव पर हिंदी में शायद यह पहली कविता है। (ठीक उसी तरह, जिस तरह शोभा सिंह की कविता ‘अर्द्ध विधवा’ कश्मीर पर—कश्मीर की आधा बेवा औरतों (half widows) पर—हिंदी में लिखी गयी शायद पहली कविता है।)

‘भीमा कोरेगांव’ कविता में उषा राय ने 1 जनवरी 1818 की लड़ाई (भीमा कोरेगांव की लड़ाई) और 1857 की लड़ाई के बीच अंतःसूत्र तलाशने की कोशिश की है। इस पर बहस हो सकती हैं, अलग राय हो सकती है, लेकिन इस महत्वपूर्ण बिंदु पर ग़ौर किया जाना चाहिए।

‘भीमा कोरेगांव’ विशिष्ट कविता है—राजनीतिक सुंदरता और काव्यात्मक सुंदरता के लिहाज से। इसके बिंब और प्रतीक गहरे और तरल हैं। इसे सार्वजनिक तौर पर पढ़ा जाना चाहिए।

‘भीमा कोरेगांव और अन्य कविताएं’ संग्रह कवि के साहस और बेबाकी से हमें रूबरू कराता है। संग्रह की कविताओं में स्वतंत्रचेता, ख़ुदमुख़्तार स्त्री की आमद दिखायी देती है। यह स्त्री वाम की ओर झुकी हुई है, सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक और मनुस्मृति-विरोधी है, उसे आवारगी से प्यार है, उसे बराबर प्रेम की तलाश है, वह अपनी यौन आकांक्षा और स्वतंत्र यौनिकता की दावेदारी को लेकर क्षमाप्रार्थी नहीं है, वह सेंसुअस और इरोटिक है, वह हिंदुत्व की पॉलिटिक्स की मुख़ालफ़त करती है। उषा राय नफ़रत के दौर में प्रेम की पैरवी करनेवाली कवि हैं। सेंसुअस या इरोटिक प्रेम उनके लिए वर्जित विषय नहीं है।

संग्रह में कई अच्छी, सुंदर, चोट करनेवाली कविताएं हैं: ‘नाभिदर्शना’, ‘कब्बन मिर्ज़ा’, ‘माजुली’, ‘शिरीष’, ‘लव जेहाद पर सुनो मां’, ‘मनुस्मृति’, ‘महोख चिड़िया से’, ‘आशिक़ी के इतिहास में’, ‘मेहल चूमते हुए’, ‘रो लो ज़रा’, ‘तेंदुआ’ (लंबी कविता), ‘आग से गुज़रती हवाएं’ (लंबी कविता), आदि।

उषा राय की कविता ‘नाभिदर्शना’ का मिज़ाज एकदम अलग है। इसमें स्त्री यौनिकता और सेंसुअलिटी बड़े सहज, संवेदनशील ढंग से व्यक्त हुई है। इसमें नये ढंग के बिंब हैं। यह इरोटिक कविता है। एक स्त्री जो अपनी यौन चाहत ठीक से समझ नहीं पाती, उसे वह अपने पुरुष मित्र से डायलॉग करते हुए समझने और उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश करती है। यह कविता इस ओर भी संकेत करती है कि एक स्त्री के साथ रहने का सलीका पुरुष को आना चाहिए। इस कविता में स्त्री की यौन चाहत का पाखंडीकरण/अध्यात्मीकरण नहीं किया गया है, और इस वजह से यह अलग से चमकती है।

क्या आपको कब्बन मिर्ज़ा की याद है? सिर्फ़ एक हिंदी फ़िल्म (रज़िया सुल्तान, 1983) में सिर्फ़ दो गीत गाकर अति प्रसिद्ध हो जानेवाले—और उतनी ही तेज़ी से गुमनाम हो जानेवाले—अद्भुत गायक कब्बन मिर्ज़ा पर ‘कब्बन मिर्ज़ा को सुनते हुए’ शीर्षक से, उषा राय ने हृदयस्पर्शी कविता लिखी है। यह कब्बन मिर्ज़ा को फिर से जीवन देती है। कब्बन के गाये गीतों में प्रेम के दर्द और दुश्वारियों की जो गहरी तड़प से भरी गूंज रही है, उसे उषा ने आज के संदर्भ में कविता में सहजता के साथ रखा है। कवि ने प्रेम की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए इन शब्दों के साथ कविता ख़त्म की हैः ‘कब्बन मिर्ज़ा!! तुम्हें सुनते हुए/बस यही समझ में आया कि/प्रेम के सिवा कोई चारा नहीं।’

‘प्रेम के सिवा कोई चारा नहीं’—यह एक प्रकार से उषा राय के कवि कर्म का प्रस्थान बिंदु है। उनके पहले कविता संग्रह ‘सुहैल मेरे दोस्त’ (2018) में इसकी भरपूर झलक थी, और इनका दूसरा कविता संग्रह ‘भीमा कोरेगांव...’ भी इसकी तस्दीक करता है।

चलते-चलते उषा की कविता ‘महोख चिड़िया से’ का ज़िक्र करना ज़रूरी है। यह स्त्री की आज़ादी की ख़्वाहिश का प्रतीक बन गयी है, जिसमें आवारगी (आवारागर्दी) की चाहत घुली-मिली है। इस अर्थ में यह ध्यान देने लायक कविता है—स्त्री की आवारागर्दी के पक्ष में, महोख चिड़िया को उषा ‘वाम की ओर झुकी हुई स्त्री’ के रूप में देखती हैं और कहती हैः ‘ओ मेरी सोनचिरैया!/मुझे तुम्हारी आवारगी से प्यार है।’ उषा की कविताओं में प्यार और चाहत (desire) के कई रंग-रूप हैं।

उषा की दोनों लंबी कविताओं पर अलग से, कुछ विस्तार से बातचीत की ज़रूरत है। इसकी यहां गुंजाइश नहीं है।

कोई अगर मुझसे पूछे कि उषा राय के इस नये कविता संग्रह की ख़ासियत क्या है, तो मेरा जवाब होगाः आवारगी और आज़ादी से प्यार, और प्रेम, करुणा और मानवता को बचाने की ललक।

(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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