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भगत सिंह के चार क्रांतिकारी मुस्लिम साथी

आइए चार ऐसे मुस्लिम क्रांतिकारियों के बारे में जानते हैं, जो भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा स्थापित 'नौजवान भारत सभा' के प्रमुख सदस्य थे और कई बार क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जेल भी गए।
bhagat singh

मुसलमानों के संदर्भ में भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में एक सवाल समय-समय पर 'दक्षिणपंथी गलियारों' से उठता रहता है कि अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान को छोड़ कर क्या कोई और भी मुसलमान भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का हिस्सा बना? आम जनमानस में भी यह बात घर कर गई है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह धारणा सच है? जवाब है, बिल्कुल नहीं!

आइए चार ऐसे मुसलमान क्रांतिकारियों के बारे में जानते हैं, जो भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा स्थापित 'नौजवान भारत सभा' के प्रमुख सदस्य थे, और कई बार क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जेल भी गए। इन चारों क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी राम चंद्र (भगत सिंह के एक प्रमुख साथी) की एक दुर्लभ पुस्तक 'आइडियोलॉजी एंड बैटल क्राइस ऑफ़ इंडियन रेवोल्यूशनरिस' से ली गई है।

एहसान इलाही

एहसान इलाही नौजवान भारत सभा के प्रचार से प्रभावित हो कर साल 1928 में उसके सदस्य बने, और उत्साह के साथ सभा का काम करने लगे, जिसको देख कर उनको हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ (हिसप्रस) का सदस्य बना दिया गया। वो भगवती चरण वोहरा और धन्वंतरि के काफ़ी करीबी थे और भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना में उनको शामिल भी किया गया था, जो कि अंजाम तक नहीं पहुंच पाया। उनको नौजवान भारत सभा की तरफ से 'बाल भारत सभा' को संगठित करने का कार्यभार दिया गया था जिसको उन्होंने सफलतापूर्वक निभाया। उनके नेतृत्व में वर्तमान पंजाब और हरियाणा के कई हिस्सों में बाल भारत सभा का गठन किया गया। एहसान इलाही एक ज़बरदस्त प्रचारक थे। उन्होंने अपने दम पर नौजवान भारत सभा के एक पर्चे 'बसंत की भेंट' जिसमे भारत को क्रांतिकारी रास्ते से आज़ादी दिलाने की बात पर जोर था, का वितरण लाहौर में आयोजित बसंत पंचमी मेले में किया था। उन्होंने लाहौर षड्यंत्र में आरोपी क्रांतिकारियों के एक गुप्त बयान को छपवाने और बांटने का काम भी किया था।

संगठन में धन की लगातार कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने विदेश से धन इक्कठा करने की योजना भी बनाई थी, लेकिन जब तक वे कराची बंदरगाह पर पहुंचे तब तक जहाज रवाना हो चुका थी। जतिन दास की शहादत के बाद इलाही उनकी अर्थी के साथ लाहौर से कलकत्ता तक भी गए थे। एक खुफिया रिपोर्ट में अंग्रेज़ों की पुलिस ने एहसान इलाही के बारे में लिखा था: "यह व्यक्ति युवाओं को बिगाड़ने और हिंसा भड़काने वाला है लेकिन अपने भाषणों में नियंत्रण रखता है।"

आज़ादी के बाद एहसान इलाही पाकिस्तान में ही रहे और राजनीतिक कामों में लगे रहे जिसके कारण पाकिस्तान सरकार ने उनको परेशान करना शुरू कर दिया और उनके पीछे जासूस लगा दिए थे।

अहमद दीन

अहमद दीन का जन्म साल 1905 में अमृतसर के जलियाँवाला मोहल्ले में हुआ था। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भागीदारी से की, जिसके धीमा पड़ने के बाद वो कुछ समय तक अरहर पार्टी में भी रहे। उन्होंने नौजवान भारत सभा के एक प्रांतीय सम्मेलन में भाग लिया जिसमें भारत में ‘मज़दूर-किसान’ का राज कायम करने की बात कही गई । इस बात से प्रभावित हो कर उन्होंने संगठन की सदस्यता ले ली। हालांकि शुरुआत में वे सभा की, धर्मनिरपेक्षता और धर्म और राजनीति के अलग रखने की बात से सहज नहीं थे, लेकिन धीरे-धीरे उनका रुझान बदल गया। 16 दिसंबर 1928 को सभा ने काकोरी के शहीदों की याद में ‘काकोरी दिवस’ के नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन किया था जिसमे भाषण देने के जुर्म में अंग्रेज़ी पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया।

जेल में रहने के दौरान उन्होंने समाजवादी साहित्य का अध्ययन किया और धार्मिक कुरीतियों को नकारने लगे। जेल से बाहर आने के बाद वे सभा के कार्यों में पूरे उत्साह के साथ लग गए और धीरे-धीरे 'कीर्ति किसान पार्टी' के करीब आ गए। उनको 1940 में 'डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट' के तहत दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। जेल से रिहाई के बाद वे जय प्रकाश नारायण से प्रभावित हो कर कांग्रेस समाजवादी दल में शामिल हो गए। आज़ादी और विभाजन के बाद उनको पाकिस्तान में समाजवादी पार्टी बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई, लेकिन वहां के प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थितियों के कारण वे वापिस हिंदुस्तान आ गए। वे कुछ समय जमशेदपुर में मज़दूर राजनीति करने दौरान बीमार पड़ गए जिसके बाद वो दिल्ली आ गए जहां उनका निधन हुआ।

मुबारक सगर

मुबारक सगर का जन्म 20 फरवरी 1905 को गुरदासपुर जिले में हुआ था। अहमद दीन की तरह ही मुबारक सगर शुरुआत में खिलाफत आंदोलन से प्रभावित हुए और किसी इस्लामिक राष्ट्र जा कर वहां से सैनिक प्रशिक्षण ले कर वापिस हिंदुस्तान आना चाहते थे, लेकिन तीन-चार साल के प्रयत्न के बाद भी वो बाहर जाने में सफल नहीं हो पाए। साल 1929 में उन्होंने नौजवान भारत सभा के लाहौर में हुए सम्मेलन में हिस्सा लिया जिसके बाद सभा से प्रभावित हो कर वो सदस्य बन गए। उन्होंने कराची में सिंध नौजवान भारत सभा की स्थापना की। 1930 में नमक सत्याग्रह में हिस्सा लेने के कारण उनको एक साल की जेल भी हुई। जेल से छूटने के बाद वे पुनः सभा के कार्यों में लग गए। 1931 में उन्हें 'सिंध नौजवान भारत सभा' के सम्मेलन का सचिव बनाया गया जिसकी अध्यक्षता सुभाष चंद्र बोस ने की। कराची में राजनीतिक कार्यों की वजह से उनको वहां से अंग्रेज़ी सरकार ने निकाल दिया जिसके बाद वे लाहौर आ कर रहने लगे। साल 1934 में उनको दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया।

जेल से छूटने के बाद वे कीर्ति किसान पार्टी के करीब आ गए। उनको 1940 में 'डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट' के तहत तीसरी बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। जेल में वे 'कम्युनिस्ट कंसोलिडेशन' के सदस्य बन गए। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने कुछ समय तक रेलवे यूनियन में काम किया। अपने साथी अहमद दीन की तरह ही वो जय प्रकाश नारायण के प्रभाव में आये और उनको भी विभाजन के बाद पाकिस्तान में समाजवादी पार्टी बनाने का कार्यभार सौंपा गया। पाकिस्तान समाजवादी पार्टी के मुखपत्र 'समाजवाद' के वे संपादक थे। अहमद दीन की तरह ही वे कुछ दिनों बाद हिंदुस्तान आ गए।

मुबारक सगर का असली नाम मुबारक अली था। लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने अपने नाम से 'अली' हटा कर 'सगर' लगा लिया जो उनका साहित्यिक नाम था।

अब्दुल माजिद ख़ान

अब्दुल माजिद ख़ान का जन्म 1 दिसंबर सन 1902 को गुरदासपुर के बटाला नामक शहर में हुआ था। अब्दुल माजिद ख़ान ने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर कि उपाधि प्राप्त की थी। वे पंजाब छात्र संघ के पहले अध्यक्ष थे और 1928 में हुए छात्र सम्मेलन के स्वागत समिति के सभापति थे। अब्दुल माजिद अपने भाषणों में सांप्रदायिकता का कड़ा विरोध करते थे। वे भारत के विभाजन के ख़िलाफ़ थे और आज़ादी के बाद भारत आ कर बस गए। आगे चल कर उन्होंने कई देशों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

उन्होंने अपने जीवन-काल में कई किताबें भी लिखीं जिसमे प्रमुख 'कम्युनलिस्म इन इंडिया: इट्स ओरिजिन एंड ग्रोथ' है।

हम उपर्युक्त चार क्रांतिकारियों की छोटी जीवनियों में देख सकते हैं कि कैसे उन लोगों ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान अपनी पुराने विचारों को छोड़ नए विचारों को ग्रहण किया और देश को एक समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए लड़े। आज जब देश का सामाजिक ताना-बाना खतरे में है, उस वक़्त ज़रूरत है कि हम भारत की आज़ादी के आंदोलन की साझी शहादत-साझी संघर्ष के विरासत को बार-बार बोलें।

(हर्षवर्धन त्रिपाठी व अंकुर गोस्वामी, नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं।)

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