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महंगाई एक ऐसा टैक्स है जिसे सरकार बिना किसी क़ानून के ज़रिए लगाती है!

पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ना यानी महंगाई का ऐसा जाल बुनना, जिसमें सरकारों और उद्योगपतियों की कमाई होती है।
महंगाई

पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ती हैं तो लोगों की बहस का हिस्सा महज पेट्रोल और डीजल की महंगाई ही होती है। लोग अर्थव्यवस्था की चक्रीय गति को नहीं भांप पाते हैं। नहीं समझ पाते हैं कि जब वह अपनी मोटरसाइकिल में ₹100 की पेट्रोल का भुगतान कर रहे होते हैं तो इसका असर उन सभी सामानों और सेवाओं पर पड़ता है, जिन सामानों और सेवाओं से पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस जुड़े हुए हैं।

पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने की वजह से परिवहन की लागत बढ़ती है। इंडियन फाउंडेशन फॉर ट्रांसपोर्ट रिसर्च ट्रेनिंग के मुताबिक फरवरी में डीजल की कीमतों के बढ़ने के बाद ट्रक के भाड़े में तकरीबन 8 से 10 फ़ीसदी का इजाफा हुआ है। जब परिवहन का लागत बड़ा हो तो आप सोच सकते हैं कितने तरह के सामानों और सेवाओं की लागत बढ़ गई होगी।

बस के किराया से लेकर दूध फल सब्जी सब पर इसका असर पड़ा है। अपने आस-पास ही देखा जाए तो कई तरह के सामानों और कीमतों पर बढ़ोतरी दिख जाएगी। परिवहन का खर्च बढ़ने की वजह से हर तरह के उद्योग धंधे के उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई है।

इसके अलावा दुनिया भर में लॉकडाउन हटने के बाद कई तरह के आधारभूत धातुओं की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई है। मसलन कॉपर की कीमत पिछले 10 साल में सबसे अधिक ऊंचाई पर आ गई है। स्टील की कीमतें बढ़ी हैं। पिछले साल जून के महीने से लेकर अब तक स्टील की कीमतों में 45 फीसद बढ़ोतरी हुई है। कच्चा माल महंगा होने की वजह से टाटा मोटर्स, मारुति, महिंद्रा एंड महिंद्रा समेत कई तरह की कंपनियों ने कार और दुपहिया गाड़ियों की कीमतें बढ़ाई हैं।

खुदरा महंगाई के आंकड़ों की ताक-झांक करने पर पता चलता है कि रबड़ कागज, प्लास्टिक, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्सनल केयर सेगमेंट से जुड़े सामान और सेवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है।

लेकिन यह सारी महंगाई सरकारी आंकड़ों में नहीं दिखती है। इसकी बड़ी वजह यह है कि कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स नापने के पैमाने में तकरीबन 45 फीसद से अधिक भारंश खाद्य पदार्थों का होता है। जानकारों का कहना है कि कच्चा तेल पेट्रोल डीजल का कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स में कोई सीधा भारांश नहीं होता है। यह ट्रांसपोर्ट कम्युनिकेशन के अंतर्गत आते हैं। जिनका कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स में भार तकरीबन साढ़े आठ फ़ीसदी के आस पास होता है। इसीलिए महंगाई होने के बावजूद भी सरकारी आंकड़ों से महंगाई नहीं दिखाई देती है।

यही हाल कॉपर स्टील और दूसरे तरह के आधारभूत धातुओं का भी है। इनका भी  भरांश कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स के अंतर्गत नहीं होता। इसलिए इनसे जुड़ी महंगाई भी महंगाई के आंकड़ों में नहीं दिख पाती। मतलब महंगाई है और महंगाई का बोझ भी आम जनता सहन कर रही है। लेकिन सरकारी आंकड़ों में नहीं दिखाई दे रहे हैं।

कई सारे सिद्धांतकार मानते हैं कि अर्थव्यवस्था का एक मूलभूत सिद्धांत यह भी है कि धीमी दर वाली महंगाई अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद रहती है। उत्पादन होता रहे, लोगों में सामान और सेवाएं खरीदने की ललक हो, वह खरीदारी करते रहें।  उत्पादन खपत में बदलता रहे तो इस दशा में महंगाई को अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा माना जाता है। तकनीकी भाषा में कहा जाए तो डिमांड पुल इन्फ्लेशन अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए अच्छे पहिए की तरह काम करता है। लेकिन मौजूदा समय में यही नहीं हो रहा है। यह समय डिमांड पुल इन्फ्लेशन का नहीं है, बल्कि कॉस्ट पुश इन्फ्लेशन का है।

साधारण शब्दों में समझा जाए तो यह कि अर्थव्यवस्था मंदी से गुजर रही है। लोगों की अच्छी कमाई नहीं हो रही है। लोगों की क्रय शक्ति कमजोर हुई है। लोगों के बीच मांग नहीं है। लेकिन फिर भी महंगाई बढ़ रही है। यह महंगाई सामानों और सेवाओं की लागत बढ़ने की वजह से बढ़ रही है। इसलिए इसे कॉस्ट पुल इन्फ्लेशन कहा जाता है।

इस महंगाई पर अर्थव्यवस्था के सिद्धांतकारों का मानना है कि यह महंगाई सामान और सेवाओं के लागत बढ़ने की वजह से होती है। इस लागत के बढ़ने का मतलब यह नहीं होता की उत्पादन में लगे मजदूरों को अच्छी मजदूरी मिल रही है। लागत इसलिए बढ़ी है क्योंकि दूसरी वजह लागत बढ़ने के लिए जिम्मेदार होते हैं। जैसे सरकार का पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ा देना। जिनकी भूमिका अधिकतर उद्योग धंधे में परिवहन की वजह से हमेशा रहती है।

इस महंगाई से अमीर मालिक और अधिक अमीर होते चले जाते हैं। और गरीब उपभोक्ता और अधिक गरीब। इस पूरी प्रक्रिया के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार सरकार की नीतियां होती हैं।

मंदी, बेरोजगारी और मांग की घनघोर कमी के बावजूद भारत सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर लगातार टैक्स बढ़ाया है। टैक्स की इस बढ़ोतरी की वजह से ही पेट्रोल ₹100 प्रति लीटर की दर तक पहुंच गया। इस पर कोई कमी नहीं की गई। पेट्रोल को भी वस्तु एवं सेवा कर के अंदर लाने की बात वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम में की गई है। लेकिन पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क के जरिए जितनी राशि भारत सरकार को मिल रही है, भारत सरकार उसे ऐसे ही छोड़ दे, ऐसा सोचना पचता नहीं है।

यानी भारत सरकार अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की उसी उक्ति पर चल रही है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जिसे सरकार बिना किसी कानून के जरिए लगाती है।

भारत सरकार इस सिद्धांत को नियम की तरह अपना रही है। टैक्स लगा रही है, पेट्रोल डीजल और ईंधन की कीमत बढ़ रही हैं। इनकी कीमत बढ़ने से उद्योग धंधों की लागत बढ़ रही है। लागत बढ़ने की वजह से कीमत बढ़ रही हैं। और कीमत के बढ़ने का मतलब है कि आम लोगों के लिए महंगाई की मार बढ़ रही है। इसलिए लागत वाली महंगाई, महंगाई के कुनबे में सबसे बुरी महंगाई के तौर पर जानी जाती है।

जब लागत बढ़ रही है तो जाहिर है कि वस्तुओं और सामानों की कीमतें भी बढ़ेंगी। जब कीमतें बढ़ेंगी तो जाहिर है जीएसटी के अंदर इनसे ज्यादा कर भी वसूला जाएगा। इस तरह से ऐसी महंगाई से सरकार के पास पैसा पहुंचता है और जनता पर बोझ बढ़ता है।

मंदी के हालात तकरीबन पिछले साल भर से बने हुए हैं। इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड का कहना है कि प्रति व्यक्ति आय को 2020 तक लौटने में भारत को अभी 2024 तक इंतजार करना पड़ेगा। यानी अर्थव्यवस्था की गति आने वाले समय में भी धीमी ही रहने वाली है।

ऐसे हालात में जब उत्पादन और सेवाओं के लागत बढ़ने की वजह से महंगाई बढ़ती है तो इससे अर्थव्यवस्था में एक तरह का कुचक्र पैदा होता है। सरकार तो टैक्स बढ़ाती है लेकिन टैक्स का भुगतान आम लोगों को करना पड़ता है। बीच में मौजूद कंपनियां इस पर कुछ भी नहीं कहती हैं। कीमतों के आम लोगों के जरिए भरपाई होने के चलते उद्योग धंधे और कंपनियों को बढ़ी हुई कीमतों का नुकसान कम झेलना पड़ता है। बल्कि इसी समय मुनाफाखोरी भी बढ़ती है। कंपनियों की भी कमाई बढ़ती है।

अभी हाल फिलहाल की खबर है कि जीएसटी की दर कम हो जाने के बावजूद भी नेस्ले और पतंजलि जैसी कई बड़ी कंपनियों ने कीमत नहीं घटाई। उपभोक्ताओं को राहत नहीं दी है। यानी मुनाफाखोरी की। मुनाफाखोरी को रोकने के लिए बनी संस्था एंटी प्रॉफिटियरिंग अथॉरिटी ने इन कंपनियों पर तकरीबन 17 करोड़ रुपए का जुर्माना लगा दिया। यह कंपनियां अदालतों में इन मामलों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इन कंपनियों की राय है की मुनाफाखोरी का प्रावधान हटा देना चाहिए।

यानी कंपनियां कह रही हैं कि सरकारी नियमों के अदल-बदल से होने वाले नफा नुकसान का किस तरह से समायोजन करना है इस पर फैसला करने का हक कंपनियों पर छोड़ देना चाहिए। ताकि वह जो मर्जी सो कर सकें।

इस तरह से देखा जाए तो उस समय जब लोगों की क्रय शक्ति कमजोर हो, अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही हो, बहुत बड़ी आबादी के पास रोजगार न हो तब पेट्रोल डीजल पर टैक्स पर टैक्स लगाने की वजह से सरकार की कमाई तो होती ही है। साथ ही साथ अमीरों को भी कमाने का बड़ा मौका मिल जाता है और कई तरह से आम आदमी के जीवन के खर्चे पर इसका बुरा असर पड़ता है। जिसकी पहचान सरकारी आंकड़ों में भी नहीं हो पाती।

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