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हिटलर के राज से भी भयानक न्यायशास्त्र

जर्मन संसद राइखस्टॉग में आगजनी की घटना 1933 में जर्मनी के एक उदारपंथी जनतंत्र से एक फासीवादी तानाशाही में तब्दील किए जाने के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना थी।
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जर्मन संसद राइखस्टॉग में आगजनी की घटना 1933 में जर्मनी के एक उदारपंथी जनतंत्र से एक फासीवादी तानाशाही में तब्दील किए जाने के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना थी।

राइखस्टॉग अग्निकांड और जर्मन न्यायपालिका

यह आग, जो संदेह था कि खुद नाजियों ने ही लगायी थी, झूठे ही कम्युनिस्टों के सिर मंढ दी गयी थी और इसे बहाना बनाकर कम्युनिस्टों के खिलाफ भीषण आतंक छेड़ दिया गया था। अनेक कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया गया था, जिनमें राइखस्टॉग में कम्युनिस्ट पार्टी के 81 प्रतिनिधियों (सांसदों) में से अनेक भी शामिल थे। नाजियों ने, जिन्हें इस समय तक संसद में बहुमत हासिल नहीं था, इस प्रकरण का इस्तेमाल ऐसे कदम थोपने के लिए किया था, जिन कदमों ने उन्हें पूर्ण सत्ता दिला दी और जर्मनी को एक फासीवादी राज्य में तब्दील कर दिया। राइखस्टॉग अग्निकांड के लिए जिन कम्युनिस्टों पर अभियोग लगाए गए और मुकद्दमा चलाया गया, उनमें ज्यॉर्जी दिमित्रोव भी शामिल थे, जो एक बल्गारियाई क्रांतिकारी थे, जो उस समय जर्मनी में मौजूद थे।

मुकदमे के दौरान दिमित्रोव ने, जिन्होंने अपने बचाव में जिरह खुद ही की थी, तत्कालीन जर्मन निजाम के उड्डयन मंत्री और हिटलर के दाएं हाथ, हर्मन गोरिंग से सवाल-जवाब करने या क्रॉस एक्जामिनेशन के अधिकार की मांग की थी और हालांकि इस मामले का जज खुद हिटलर ने छांटकर तय किया था, दिमित्रोव को यह अधिकार देना ही पड़ा। उसके बाद अदालत में दिमित्रोव और गोरिंग का जो आमना-सामना हुआ, वह तो एक लोकख्याति ही बन गया। गोरिंग के भीषण तथा धमकी भरे वक्तव्यों और उनका सामना करने में दिमित्रोव की शांत स्वर के बीच का जमीन-आसमान का अंतर खासतौर पर दर्ज करने वाला था। यहां तक कि नाजी राज में चल रही उक्त अदालत ने भी दिमित्रोव को आगजनी के आरोप से बरी कर दिया। आगे जाकर वह कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अध्यक्ष बने और उन्होंने 1935 में कोमिन्टर्न की सातवीं कांग्रेस में, फासीवाद के खिलाफ ‘‘संयुक्त मोर्चा’’ की रणनीति को सूत्रबद्घ किया था।

भारतीय अदालतों का आज का आचरण

अब जरा, नाजियों के पूर्ण सत्ता हासिल कर लेने के बाद के हालात में काम कर रही उस अदालत के आचरण की तुलना-जो बेशक वाइमर रिपब्लिक के दिनों के प्रभाव का प्रतिनिधित्व करता था, जब अदालतें स्वतंत्र हुआ करती थीं- भारतीय अदालतों के आज के आचरण से कर लीजिए, जिनका यह आचरण भी तब है जबकि फासीवादी तत्व अभी देश में पूर्ण सत्ता हासिल करने के तो आस-पास भी नहीं पहुंचे हैं। मैं व्यक्तिगत स्वतंत्रता से ही संबंधित मामलों की एकाध मिसालें देना चाहूंगा।

प्रोफेसर शोमा सेन को 5 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत दे दी गयी। तब तक वह भीमा-कोरेगांव केस में एक अभियुक्त के रूप में छह साल जेल में काट चुकी थीं। उन्हें जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ शब्दों में कहा कि उनके आतंकवाद के किन्हीं कृत्यों से या किसी आतंकवादी संगठन से जुड़े होने का, प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है। इसके बावजूद, उन्हें अपने जीवन के छह वर्ष जेल में बिताने पड़े। इससे दो बुनियादी प्रश्न उठते हैं। पहला तो यह कि क्या उन्हें बिना मुकदमा चलाए इतने लंबे अर्से तक जेल में बंद रखने के लिए और वह भी खुद सुप्रीम कोर्ट के अनुसार बिना किसी आधार के ही जेल में बंद रखने के लिए, सरकार की जिम्मेदारी तय नहीं की जानी चाहिए और इसलिए, उसे किसी प्रकार से सजा नहीं दी जानी चाहिए? दूसरा प्रश्न यह कि इन छह वर्षों के दौरान, विभिन्न अदालतें क्या कर रही थीं, जिन्होंने उन्हें जेल में सड़ते रहने दिया, जबकि ये अदालतें देश के संविधान के अंतर्गत इसके लिए कर्तव्यबद्घ थीं कि उनके मौलिक अधिकारों की हिफाजत करतीं?

एक विकृत न्यायशास्त्र

उनकी जमानत की याचिका पर सुनवाई के दौरान, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) द्वारा अदालत में यह रुख अपनाया गया था कि, ‘जमानत, अभियुक्त का अधिकार नहीं है’। इस प्रस्थापना को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह प्रस्थापना, भारतीय संविधान की धारा-21 का उल्लंघन करती है। लेकिन, अभियोजन पक्ष द्वारा ठीक यही जघन्य दलील दी गयी थी। जब हम इस दलील को, इस तथ्य के साथ जोड़कर देखते हैं कि शोमा सेन को छह साल तक गिरफ्तार कर के जेल में इसके बावजूद बंद कर के रखा गया था कि उनके किसी आतंकवादी कृत्य या आतंकवादी संगठन के साथ जुड़े होने का प्रथम दृष्टया कोई मामला ही नहीं है, तो हमें वर्तमान केंद्र सरकार एक उल्लेखनीय प्रस्थापना पेश करती नजर आती है। यह प्रस्थापना यह कहती है कि केंद्र सरकार, जिसके हाथ में एनआइए जैसी एजेंसियों का नियंत्रण है, अपनी मर्जी से किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है और जब तक उसका मन करे उसे जेल में बंद कर के रख सकती है, क्योंकि, ‘जमानत अभियुक्त का अधिकार तो है ही नहीं।’ यह पूरी तरह से न्यायशास्त्र के उस आधार का ही ठुकराया जाना है, जो यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष माना जाएगा, जब तक कि वह दोषी साबित नहीं हो जाता है। मोदी सरकार द्वारा जिस न्यायशास्त्र को थोपा जा रहा है, वह तो यही कहता नजर आता है कि चूंकि किसी दोषी बनाने वाले साक्ष्य के बिना ही किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है और कितने भी समय के लिए जेल में ठूंसा जा सकता है, इसलिए किसी भी व्यक्ति को तब तक दोषी मानकर चला जा सकता है, जब तक कि मुकदमे के जरिए वह निर्दोष साबित नहीं हो जाता है और हो सकता है कि उसका मुकदमा तो कभी शुरू ही नहीं हो।

सुप्रीम कोर्ट का शोमा सेन को जमानत दे देना एक बहुत ही अच्छी खबर है और यह अपने आप में तो अच्छी खबर है ही, इसलिए भी अच्छी खबर है कि यह खबर सरकार के विकृत न्यायशास्त्र के ठुकराए जाने की खबर है। फिर भी, उसे ठुकराए जाने को दो कारणों से अब भी अंतिम नहीं माना जा सकता है। पहली बात तो यह है कि यह ठुकराया जाना, देश की सबसे ऊंची अदालत के स्तर से तो आया है, लेकिन इससे निचले स्तर की न्यायपालिका को अब भी इस संबंध में पूरी तरह से संवेदनशील बनाया जाना बाकी है कि कार्यपालिका की ज्यादतियों से, व्यक्ति के अधिकारों की हिफाजत करे। दूसरे, आखिर में जाकर खुद एनआइए ने प्रोफेसर सेन की जमानत की याचिका पर अपनी आपत्तियों को यह कहते हुए वापस ले लिया था कि उसे पूछताछ के लिए अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी है। बेशक, एनआइए की यह दलील भी जितनी बेतुकी थी, उतनी ही संवेदनहीन भी थी। अब कोई ऐसा तो है नहीं है कि एनआइए उनसे कोई छह साल से पूछताछ ही कर रही थी या उसे अपनी जांच-पड़ताल की प्रक्रिया पूरी करने के लिए वाकई उनके जीवन के छह वर्ष चाहिए थे। ऐसा लगता है कि इस तरह की दलील का सहारा लिए जाने के पीछे मुख्य मकसद यही था कि अगर एनआइए के विरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट उन्हें जमानत दे देता, तो भविष्य में ऐसी ही स्थिति में फंसे दूसरे लोगों द्वारा भी अपनी जमानत की याचिकाओं में इसे नजीर बनाकर पेश किया जा सकता था। इसलिए, एनआइए द्वारा आखिरी क्षणों में उनकी जमानत पर अपनी आपत्तियां वापस लिए जाने से यह सवाल तो अनिर्णीत ही रह जाता है कि क्या न्यायपालिका या कम से कम निम्रतर न्यायपालिका, भविष्य में ऐसे मामलों में जमानत दे देगी या वह उस विकृत न्यायशास्त्र का ही साथ देती रहेगी, जिसकी प्रस्थापना वर्तमान सरकार द्वारा की जा रही है।

प्रबीर पुरकायस्थ का प्रकरण

प्रबीर पुरकायस्थ का प्रकरण, इस विकृत न्यायशास्त्र के व्यवहार का एक और उदाहरण है। केंद्र सरकार की एजेंसियों ने, दोषारोपणकारी साक्ष्यों की तलाश में प्रबीर के घर तथा दफ्तर पर लंबे समय तक छापामारी की थी, लेकिन कोई साक्ष्य खोजने में ये एजेंसियां विफल रही थीं। इसी बीच, न्यूयार्क टाइम्स ने 5 अगस्त 2023 को, एक अमेरिकी अरबपति पर, जो चीन में रहता है तथा विचारों से प्रगतिशील है और जो कथित रूप से दुनिया भर में अनेक वामपंथी संगठनों की आर्थिक मदद करता रहा है, जिनमें अमेरिका के युद्घ-विरोधी संगठन भी शामिल हैं, एक बहुत ही बेईमानी भरा और दोरंगी बातें करने वाला लेख छापा था। यह लेख इसलिए बेईमानी भरा तथा दोरंगी बातें करने वाला था कि इसमें न तो उक्त अरबपति के चीनी सरकार से जुड़े होने का कोई साक्ष्य दिया गया था और न ही सीधे-सीधे उसके किसी ऐसे संबंध का दावा ही किया गया था। इस लेख में किसी ठोस कानूनी गड़बड़ी तक का दावा नहीं किया गया था। इसके बजाए, इसमें तो सिर्फ इशारे किए गए थे। इसका मकसद तो अमेरिकी युद्घ-विरोधी ग्रुपों के खिलाफ एक मैकार्थीवादी विच-हांट शुरू कराना था और वह भी ऐसा कुछ भी छापे बिना ही, जिस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती हो। उस लेख में न्यूजक्लिक का महज चलताऊ तरीके से जिक्र किया गया है कि उसे भी, उक्त अरबपति से पैसा मिला था।

न्यूयार्क टाइम्स के शरारतपूर्ण मंसूबों को तब और बढ़ावा मिल गया, जब फ्लोरिडा से जुड़े दक्षिणपंथी सीनेटर, मार्को रूबियो ने अमेरिकी एटॉर्नी जनरल को चिनी लिखकर, अमेरिका के नौ युद्घविरोधी ग्रुपों की जांच कराए जाने की मांग की। लेकिन, इसका कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि इस तरह की कोई जांच शुरू करने के लिए कोई आधार ही नहीं था। और अमेरिकी प्रशासन भले ही दुनिया भर में मानवाधिकारों को पांवों तले रौंदता फिरता हो, खुद अमेरिका के नागरिकों के मानवाधिकारों के मामले में कहीं ज्यादा सावधान रहता है। इसके बावजूद, उसी लेख को बहाना बनाकर भारत में प्रबीर पुरकायस्थ और उनके एक और सहकर्मी को गिरफ्तार कर लिया गया। अपने नये-नये खोजे फासीवादी न्यायशास्त्र के साथ भारत सरकार ने ऐसे कदम उठाए, जो अमेरिका की साम्राज्यवादी सरकार तक से नहीं उठाए गए थे। हैरानी की बात नहीं है कि गिरफ्तारी के करीब छह महीने बाद जब प्रबीर के खिलाफ चार्जशीट तैयार की गयी, न्यूयार्क टाइम्स के उक्त लेख के परोक्ष इशारों को आरोप बनाकर दोहराने के अलावा उसमें सरकार की कोविड नीति की न्यूजक्लिक की आलोचना और किसान आंदोलन के प्रति उसके समर्थन को चार्ज शीट में इस तरह शामिल किया गया है, जैसे ये कोई कानूनन अपराध हों!
कार्यपालिका को संविधान को पांवों तले रौंदने से रोकें

अब तक तो भारतीय न्यायपालिका, हिटलर के राज के शुरूआती वर्षों में अपने जर्मन समकक्षों द्वारा अपनाए गए रुख के मुकाबले, कार्यपालिका के प्रति कहीं ज्यादा फिक्रमंद बनी रही है और इसके बावजूद फिक्रमंद बनी रही है कि यह कार्यपालिका, एक फासीवादी रास्ते पर चल रही है तथा एक जघन्य न्यायशास्त्र की प्रस्थापना कर रही है, जो भारतीय संविधान के ही खिलाफ जाता है। जर्मन न्यायपालिका ने हर्मन गोरिंग को क्रॉस एक्जामिनेशन के लिए एक गवाह के रूप में अदालत में बुलाकर और राइखस्टॉग में आगजनी के आरोपों से ज्यॉर्जी दिमित्रोव को बरी तक करने के जरिए, नाजियों के मंसूबों के रास्ते में बाधा डाली थी। बेशक, न्यायपालिका हिटलर के उभार को नहीं रोक सकी क्योंकि वह उसके हाथों में था भी नहीं। फिर भी उसने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां पूरी करने में कम से कम कुछ हिम्मत तो दिखाई थी। हम चाहते हैं कि भारतीय न्यायपालिका भी ऐसी ही हिम्मत दिखाए।

इस संदर्भ में विदेश में रहे अनेक जाने-माने विद्वानों तथा लेखकों द्वारा हाल ही में भारतीय शासन के अधिकारियों से तथा खासतौर पर न्यायपालिका से की गयी अपील खासतौर पर जरूरी हो जाती है। उन्होंने कार्यपालिका को भारतीय संविधान को पांवों तले रौंदने को रोकने की अपील की है। 

 

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