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किसान मज़दूर आयोग ने किसानों का पूरा क़र्ज़ माफ़ करने की मांग की  

पी साईनाथ ने कहा कि ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बाद मोदी सरकार ने कई समितियां बनाई जिसमें नौकरशाह भरे हुए है जिसका कोई मतलब नहीं है। 
Farmers
साभार : पीटीआई

किसान मजदूर आयोग ने दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई एक प्रेस वार्ता में किसानों के सारे कर्ज़ को माफ़ करने की मांग की। किसान मजदूर आयोग की तरफ से मंगलवार को संवाददाताओं को संबोधित करने वालों में प्रमुख तौर पर प्रख्यात जर्नलिस्ट पी साईनाथ, किसान नेता हनान्न मोल्लाह, लेखक और एक्टिविस्ट नवसरण सिंह, अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव विजू कृषणन और खेत मजदूर संगठनों के नेता शामिल भी थे।     

पी साईनाथ ने कहा कि ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बाद मोदी सरकार ने कई समितियां बनाई जिसमें नौकरशाह भरे हुए है जिसका कोई मतलब नहीं है। उनका कहना था कि एक ऐसा आयोग गठित होना चाहिए जिसमें सभी वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हों, जिसमें किसान जिनके पास भूमि है, भूमिहीन किसान, बटाई पर खेती करने वाले किसान, महिला किसान, विस्थापित किसान, दलित किसान, आदिवासी किसान, मछली और मुर्गी पालने वाले किसान उनके संगठन आयोग में शामिल होने चाहिए। इसमें उन विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो किसान नहीं हैं लेकिन कृषि के मसलों पर जानकारी रखते हैं और किसानों और मजदूरों के प्रति चिंतित हैं।  

अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक ढवले ने कहा कि किसानों के सारे कर्ज़ माफ़ किया जाए। क्योंकि पिछले दस सालों में कर्ज़ की वजह से एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ये एनसीआरबी आंकड़े हैं। लेकिन किसानों के कर्ज़ अभी तक माफ़ नहीं किए गए हैं। जबकि इस सरकार ने बड़े कॉर्पोरेट के लिए 15 लाख करोड़ के कर्ज़ माफ़ किए हैं। उन्होंने आगे कहा कि आदिवासी किसानों के भूमि अधिकार को मान्यता दी जानी चाहिए, वन अधिकार कानून (एफआरए) को लागू किया जाए, वनाधिकार के तहत खारिज किये गये सभी मामलों की समीक्षा हो तथा भारतीय वन कानून, 1927 में किये गये कॉर्पोरेट पक्षीय संसोधनों को वापिस लिया जाए। उनका कहना था कि महिलाओं को किसान के रूप में मान्यता दी जाए और उन्हें भूमि का अधिकार प्रदान किया जाए और पट्टे की ज़मीन पर उनके पट्टेदारी के हकों को सुरक्षित किया जाए। 

अखिल भारतीय किसान सभा के माहासचिव विजू कृषणन ने कहा कि सरकार की नीतियों के चलते पिछले 30-32 सालों में 10 लाख से अधिक किसान, खेत मजदूर और कृषि से जुड़े अन्य लोगों ने आत्महत्या की है। 2014 के चुनाव के दौरान मोदी और भाजपा के नेताओं ने काफी लुभावने वायदे किए थे और कहा था कि 1990-91 से जो नीतियां कृषि क्षेत्र में लागू की गई उन्हें पलटने की बात की ताकि उनके पक्ष में एक चुनावी माहौल तैयार किया जा सके। इसके साथ यह भी कहा गया था कि यूपीए के समय स्वामीनाथन आयोग की जो सिफ़ारिशें आईं थीं उन्हें भी लागू किया जाएगा, और कहा गया कि किसान की उपज का उत्पादन के खर्च से डेढ़ गुना अधिक दाम दिया जाएगा। हम जब कृषि मंत्री से मिले तो उन्होंने कहा कि ये चुनावी वादे थे जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि ये बाज़ार को तबाह कर देंगे। विजू ने कहा कि हमारी मांगें सिर्फ नरेंद्र मोदी सरकार या भाजपा से नहीं है बल्कि हर उस राजनीतिक पार्टी से है जो सत्ता में बैठी है या भविष्य में सत्ता में आएगी। क्योंकि किसान-मजदूर विरोधी नीतियां आईएमएफ और डब्लूटीओ जैसे संस्थाओं के इशारों पर लागू की जाती हैं। तीन काले कृषि कानून भी बड़े कॉर्पोरेट के इशारों पर लाए गए थे। मनरेगा में 100 दिन का रोजगार देने की बात थी लेकिन 50 दिन का रोजगार भी नहीं मिल रहा है जबकि हमारी मांग 200 दिन का काम देना जरूरी है। 

डॉ नवशरन सिंह ने कहा कि “जिस तरह की वादाखिलाफ़ी हमने देखी है, उसके मद्देनजर महिलाओं के मुद्दे भी इसमें जोड़ना चाहती हूं। हमारे सरकार अक्सर किसानों और महिलाओं की गरीबी दूर करने के लिए बातें करती रहती है, लेकिन जितनी भी तकलीफ ग्रामीण भारत झेलता है उसका बड़ा हिस्सा महिला और महिला किसानों को झेलना पड़ता है।” उनके मुताबिक “जितनी भी कामकाज़ी महिलाएं हैं उनमें से 75 प्रतिशत महिलाएं कृषि में काम करती हैं। वे या तो किसान हैं या फिर खेतों में मजदूरी करती हैं। महिला कार्यबल का 80 फीसदी हिस्सा स्व-रोजगार में शामिल है जिन्हें कोई वेतन नहीं मिलता है। महिलाओं की केजुयल लेबर में 31 प्रतिशत से घट कर 19 प्रतिशत तक पहुंच गई है। नियमित रोज़गार में महिलाओं की भागीदारी पिछले 10 साल में जो 10 फीसदी थी वह वहीं की वहीं है। लेबर ब्यूरो महिलाओं के वेतन आंकड़ा जमा नहीं करता है। लेबर ब्यूरो ने अभी हाल ही में अपना आंकड़ा देकर कहा है कि पुरुषों के ग्रामीण वेतन में पिछले पांच सालों में 0.2 फीसदी बढ़ोतरी हुई है इसमें महिलाओं के आंकड़ें शामिल नहीं हैं।” 

इससे साफ़ ज़ाहिर है कि “सरकार की नीतियों में महिलाएं एक दम अदृश्य हैं। नवंबर 2023 का आंकड़ा है जिसे संसद के पटल पर रखा गया था कि 8.12 करोड़ किसान पीएम किसान योजना के लाभार्थी हैं जिसमें 6.27 पुरुष किसान हैं जोकि 77 फीसदी बैठता है और महिला किसान 1.83 करोड़ हैं। ऐसा क्यों है? जबकि 70 फीसदी महिलाएं कृषि के कार्यों में जुड़ी हुई हैं लेकिन इन किसानों के पास कुल भूमि 12.8 फीसदी ही है जिसका मतलब है बहुमत महिला किसान लाभार्थी योजनाओं से बाहर हैं जिसकी हमें फिक्र है। महिलाओं की ये स्थिति है और हमारी सरकार कह रही है कि हम महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए बड़े काम कर रहे हैं।” नवशरन ने कहा कि हर आंदोलन में महिलाएं सबसे आगे रहती है तो उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ क्यों नहीं मिलता है। महिलाओं की आवाज़ को बड़ी तेजी के साथ उठाने की जरूरत है ताकि उन्हें उनका हक़ मिल सके। 

संयुक्त किसान मोर्चा के संयोजक हन्नन मोल्लहा ने कहा कि, “किसान अपने अनुभव से सीखा है कि हमारी कठिनाइयों का कारण कृषि नीतियां हैं जो किसानों के पक्ष में नहीं हैं। किसी भी नीति का मतलब क्या होता है। उसका मक़सद मुद्दों को समझना और उन्हें हल करने के लिए नीतियों को बनाना। लेकिन आज़ादी के बाद से जो कृधी नीति बनी है उसने किसानों के संकट और अधिक बढ़ाया है। नव-उदरावादी नीतियों की वजह से यह संकट अब तीव्र हो गया है और सरकारें कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों के साथ आगे बढ़ रही हैं।” 

प्रेस वार्ता में मौजूद आयोग के अन्य सदस्यों ने भी अपनी बातें रखी और कृषि संकट तथा किसानों की दुर्गति के बारे में चिंताएं व्यक्त की। सभी वक्ताओं ने कहा कि “मोदी ने अपने 2014 के अभियान के दौरान वादा किया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करेंगे यानी एमएसपी उत्पादन की सी2 लागत से 50 फीसदी अधिक तय करेंगे (जिसमें भुगतान की गई लागत का योग, पारिवारिक श्रम का मूल्य, स्वामित्व वाली पूंजीगत संपत्ति के मूल्य पर ब्याज, पट्टे पर दी गई भूमि का किराए के रूप में किया गया भुगतान और स्वामित्व वाली भूमि का किराए का मूल्य शामिल है)। वास्तव में, मोदी सरकार ने उत्पादन की ए2+एफएल लागत से 50 फीसदी अधिक एमएसपी तय करके किसानों को मूर्ख बनाया, जहां स्वामित्व वाली पूंजीगत संपत्ति के मूल्य पर ब्याज, पट्टे पर दी गई भूमि के लिए भुगतान किया गया किराया और स्वामित्व वाली भूमि के किराये के मूल्य को इस गणना से बाहर रखा गया है।”

किसान नेताओं और आयोग के सदस्यों ने कहा कि ऐसी गलत पद्धति के कारण, जिन फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की जाती है, उनमें किसानों को लगभग 500-600 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान हो जाता है।

उन्होने कहा कि, “चूंकि चुनावी माहौल है इसलिए किसानों-मजदूरों के मुद्दों को आम जनता के भीतर ले जाना जरूरी है और यह प्रेस वार्ता इसका एक पहला कदम है। उनके मुताबिक किसानों और खेत मजदूरों के मुद्दों पर पूरे देश में अभियान चलाया जाएगा और किसानों के मुद्दों तरजीह दें की मांग की जाएगी।” 

महेश कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

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