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राजस्थान चुनाव : भीलवाड़ा का हज़ारों करोड़ों का कपड़ा उद्योग इन मज़दूरों के लिए नर्क जैसा है

भीलवाड़ा के कपड़ा उद्योग से जुड़े शहरी ग़रीबों को किसी भी उम्मीदवार के घोषणापत्र में जगह नहीं मिल पाई है।
rajasthan
टेक्सटाइल मिल के अंदर जो स्पष्ट रूप से नज़र आता है वह यह कि मज़दूरों की तुलना में मशीनें कितनी अधिक हैं।

कपड़ा नगरी, भीलवाड़ा में श्रमिकों के सामने एक प्रणालीगत, सामान्यीकृत, दमनकारी कार्य संस्कृति है। जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी में तरक्की होती है, नौकरियों की गुंजाइश कम होती जाती है और उस पर शहर में मानक मानदंड यह है कि श्रमिकों को प्रतिदिन 12 घंटे काम करना पड़ता है। 

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राज्य ने कमर कस ली है और सभी उम्मीदवार अपने मतदाताओं को लुभाने के तरीके ढूंढने में लगे हुए हैं। भीलवाड़ा शहर में, शहर के कपड़ा उद्योग से जुड़े शहरी गरीबों को किसी भी उम्मीदवार के घोषणापत्र में जगह नहीं मिल पाई है।

इलाके के मौजूदा विधायक भाजपा के विट्ठल शंकर हैं, और उनके विरोध में निर्दलीय उम्मीदवार अशोक कोठारी हैं, जो एक व्यापारी हैं और लोग उन्हें 'गौ सेवक' कहते हैं। इलाके में वोट पाने के लिए धर्म, जाति और गायों की रक्षा जितना गर्म विषय बन गया है, कपड़ा श्रमिकों के पास चुप रहने या रोने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

नागरिकों के वर्तमान पसंदीदा कोठारी, खुद दो कारखानों के मालिक हैं और तीसरे का निर्माण कर रहे हैं। जब रिपोर्टर ने उनसे इलाके के मजदूरों की स्थिति और चुनाव जीतने पर उम्मीदवार क्या करेगा, इस बारे में पूछा तो कोठारी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। 

उन्होंने सिर्फ इतना कहा, ''हम मजदूरों के साथ बैठेंगे और उनकी समस्याओं को समझेंगे।''

जबकि उम्मीदवार ने एक हल्का सा दावा किया कि वे दशकों से इस उद्योग में है, और इस बात की थोड़ी भी संभावना नहीं है कि वे इस बात से अनजान हो कि उनके साथ क्या हो रहा है। यहां तक कि उनके चुनावी वादे के पैम्फलेट में भी उनके मजदूरों के लिए कोई जगह नहीं है जो उनके लिए पैसा कमाते हैं।

मध्य प्रदेश के रहने वाले बब्लू सिंह (उम्र 35 वर्ष) करीब 10 साल पहले नौकरी की तलाश में इस शहर में आए थे। वे दो महीने पहले तक सबसे लंबे समय तक बजाज एंटरप्राइजेज नाम की एक ही कंपनी में काम कर रहे थे, कंपनी के मालिक नवनीत बजाज ने कथित तौर पर उनका वेतन बढ़ाने से इनकार कर दिया था। बब्लू सिंह एक वरिष्ठ ऑपरेटर हैं और उनके तहत लगभग 16 कर्मचारी काम करते हैं। श्रमिकों को प्रतिदिन 470 रुपये वेतन मिलता है और बाजार की महंगाई को देखते हुए उनकी एकमात्र मांग इसे 500 रुपये करने की थी।

बब्लू सिंह को परेशान किया गया, धमकाया गया और उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।

"वे मुझ पर उन मजदूरों/कर्मचारियों को वापस बुलाने के लिए दबाव डालते रहे, जिन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार के कारण काम करने से इनकार कर दिया था। जब मैंने उनकी बात नहीं मानी, तो मुझे भी कंपनी छोड़ने को कहा गया। सिंह ने बताया कि, मैं सहमत हो गया और अपना बोनस और बकाया वेतन मांगा। उन्होने मुझे मेरा बकाया वेतन नहीं दिया, बल्कि मुझसे कहा कि अगर मैं मजदूरों/कर्मचारियों को लाए बिना नौकरी छोड़ दूंगा तो मुझे 5,00,000 रुपये देने होंगे।''

मामला तब का है जब सिंह कंपनी में शामिल हुए थे; उसने मालिक से अग्रिम राशि ली थी, और राशि का भुगतान उनके वेतन से मासिक तौर पर कटना था। अब बकाया राशि करीब 60 हजार रुपये बची है। लेकिन मालिक उसे पूरी रकम चुकाने को कह रहे हैं। यह शख्स गिड़गिड़ाता रहा लेकिन उसे फैक्ट्री से बाहर निकाल दिया गया। इससे दुखी होकर, 35 वर्षीय व्यक्ति ने न्याय पाने का फैसला किया और श्रम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, लेकिन यहां भी उसके लिए चीजें नहीं बदलीं। मालिक बब्लू सिंह से पैसा वसूलने के लिए उसके अकाउंट से वसूली करने के लिए 1,60,000 रुपये का चेक जमा करते रहे। कर्मचारी के खाते में पैसे नहीं होने के कारण चेक दो बार बाउंस हो चुका है।

भीलवाड़ा के कपड़ा उद्योग ने करोड़पति मालिक तो पैदा किए लेकिन श्रमिकों के लिए बुरे सपने पैदा किए हैं। करघों में 75,000 से अधिक मजदूर काम करते हैं, और उद्योग का कुल वार्षिक निर्यात 1,300 करोड़ रुपये है। इस इलाके में 400 से अधिक विनिर्माण इकाइयाँ हैं। अकेले भीलवाड़ा जिला, राज्य के 44 प्रतिशत सूत के उत्पादन की क्षमता रखता है।

सिंह का मामला और उनके साथ जो व्यवहार किया गया उसका कोई अंत नहीं है। जब उसने दूसरी कंपनी में नौकरी तलाशने की कोशिश की, तो शातिर मालिक ने कथित तौर पर कंपनी में उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया और कुछ समय तक उसे कोई काम नहीं मिला।

"उसने मुझे धमकी दी कि में उस पैसे को वापस कर दूं, जिन्हे मैंने कभी नहीं लिया था, और अगर मैंने उनकी बात नहीं मानी तो वह मेरे परिवार को मार डालेगा।"

न्यूज़क्लिक की मुलाक़ात सोनू से हुई, जिन्हें एक 'पहलवान' माना जाता है, जो इन बड़े उद्योग हितधारकों के लिए काम करते हैं और जो भी मजदूर आवाज़ उठाने की कोशिश करता है, उसे पहले धमकियाँ मिलती हैं और उसके बाद पिटाई होती है।

"हमारा काम सरल है। अगर कोई मजदूर शिकायत करता है या कहता है कि वह जो दिया जा रहा है उसे बर्दाश्त नहीं करेगा, तो हम पहले उसे एक कमरे में ले जाते हैं और उसे पीछे हटने की धमकी देते हैं। अगर वे फिर भी नहीं मानते हैं, तो हम उनके घर जाते हैं और उन्हें तब तक पीटते हैं जब तक वे हार नहीं मान लेते हैं।"

जहां तक रोज़ के काम का सवाल है, कपड़ा केंद्र, सबसे लंबे समय से, अपने श्रमिकों से प्रतिदिन 12 घंटे काम करा रहा है और बदले में उन्हें कोड़ी के दाम मिलते हैं। ज़ुल्म पर लगाम लगाने की पहली ही कड़ी कमज़ोर है। जबकि जिले में आठ श्रम निरीक्षक होने चाहिए लेकिन वर्तमान में केवल दो ही हैं जो मजदूरों की काम की परिस्थितियों की निरंतर जांच करने में विफल रहते हैं।

जब लोगों ने लगतार उत्पीड़न देखा तो, कई मजदूरों ने उद्योग छोड़ दिया। ऐसे ही एक शख्स का नमा नरेश मराठा हैं। 

"मैं बिना किसी खास आय के एक ही दिनचर्या के होने से वह थक गया था। हमसे बोनस का वादा किया गया था लेकिन कभी नहीं दिया गया। हमारा वेतन वर्षों तक ठहराव पर है, और प्रतिदिन 20-30 रुपये की मामूली राशि से बढ़ाने के लिए, हमें लड़ना पड़ता है लेकिन बाद में ता चलता है कि अगले ही दिन से फैक्ट्री के दरवाजे हमारे लिए बंद हो गए हैं।''

यदि धमकियां और न्याय की कमी काफी नहीं थी, तो उत्पादन बढ़ाने में मदद करने वाली नई तकनीक ने श्रमिकों के लिए नई समस्याएं पैदा कर दी हैं। गणेश गेहलोत करघे के श्रमिकों में से एक हैं; वे उन मुख्य मशीनों पर काम करते हैं जो देश में बेहतरीन सामग्री का उत्पादन करती हैं।

गणेश ने कारखाने में काम करते हुए अपनी एक आंख खो दी और उसे कोई मुआवजा नहीं दिया गया।

"पहले, अगर छह मशीनें होती थीं तो उन पर छह मजदूर काम करते थे। अब, नई मशीनों के साथ, जबकि बहुत काम करना होता है, कंपनियों ने अनुपात को पूरी तरह से उलट दिया है। हर छह मशीनों के लिए, केवल एक मजदूर है। केवल एक चीज जो समान रहती है वह है आठ घंटे के आधार पर हमारा वेतन, जबकि हमें प्रतिदिन 12 घंटे काम करने को कहा जाता है।''

एयर जेट नामक एक और मशीन है, जिसका इस्तेमाल कपास को रिफाइन/परिष्कृत करने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में, बहुत अधिक धूल निकलती है, इतनी अधिक कि यह मजदूरों के गले और फेफड़ों को जाम कर देती है।

"हम ज्यादा कुछ नहीं मांगते, लेकिन कम से कम इतना तो किया जा सकता है कि एयर जेट पर काम करने के बाद हमें कुछ गुड़ मिल जाए। वहां मिनटों तक काम करने से भी हमारा दम घुट जाता है। हममें से कई लोगों को सांस संबंधी समस्याएं हैं और हमारा जीवन काल घट रहा है। "

करघे के अंदर इन श्रमिकों की सुरक्षा पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। वहां काम करते हुए गहलोत की एक आंख चली गई लेकिन उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया। एयर जेट पर काम करने वालों को मास्क भी नहीं दिया जाता है और वे लगातार खतरे में काम करते हैं।

न्यूज़क्लिक ने छह कारखानों में श्रमिकों का साक्षात्कार लिया, और वहां के किसी भी मजदूर को ईएसआई कार्ड और पीएफ की अनिवार्य सुरक्षा नहीं दी गई है, जो उनका जीवन थोड़ा अधिक सुरक्षित बना सकता था। जहां पर गहलोत काम करते हैं, वहां पीएफ तो कटता है, लेकिन मालिक और मज़दूर दोनों का अंशदान मज़दूर के वेतन से लिया जाता है।

यह शहर जिस काम के लिए प्रसिद्ध माना जाता है, उस काम की परिस्थितियों को देखते हुए यह उन बुनियादी मानदंडों को पूरा नहीं करता है। उम्मीदवार, चुनावों को धर्म-युद्ध कहते हैं, नागरिकों को उपदेश देते हैं कि जीवन का मतलब धर्म के अलावा कुछ नहीं है, जबकि मजदूरों की बात अनसुनी कर दी जाती है। इनमें से कई श्रमिक प्रवासी हैं और अंततः इन उद्योगपतियों के लिए सस्ते श्रम का चारा बन जाते हैं जो उनकी समस्याओं से लाभ कमाते हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Rajasthan Elections: Bhilwara's Textile Industry, Worth Thousands of Crores, is a Living Hell for its Workers

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