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आज भी प्रासंगिक है जतिन दास की शहादत

जतिन-दा ने राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए अपनी जान दी लेकिन आज एक शताब्दी बाद भी हमारे देश में राजनैतिक और सामान्य बंदियों की हालत भयावह है।
जतिन दास की शहादत

अपने दौर के सबसे प्रसिद्ध राजनैतिक बंदी, भगत सिंह के साथी, 63 दिनों की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद अपनी जान देने वाले क्रांतिकारी जतिन दास (उर्फ़ यतीन्द्रनाथ दास) की शहादत आज 91 साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है। जतिन-दा ने राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए अपनी जान दी लेकिन आज एक शताब्दी बाद भी हमारे देश में राजनैतिक और सामान्य बंदियों की हालत भयावह है। एक सर्वे के अनुसार हमारी जेलों में सबसे अधिक संख्या दलितों, मुस्लिमों और आदिवासियों की है—जनसँख्या में उनके अनुपात से बहुत-बहुत ज़्यादा। राजनैतिक बंदियों के हालात किसी से छिपे नहीं हैं—चाहें वो दिल्ली विश्वविद्यालय के विकलांग प्रोफेसर जी एन साईबाबा हो या प्रसिद्ध तेलुगु कवि अस्सी वर्षीय वरवर राव या वरिष्ठ सामजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज। जिस प्रकार औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार राजद्रोह, रोलट एक्ट और मार्शल लॉ जैसे काले कानूनों का इस्तेमाल करती थी वैसे ही आज की सरकार उसी राजद्रोह के कानून और UAPA, AFSPA, NSA जैसे अन्य काले कानूनों का इस्तेमाल करती है। ऐसे में जतिन-दा और उनके साथियों का बहादुराना संघर्ष हमारे लिए वाकई प्रेरणादायक सिद्ध हो सकता है। 

जतिन दास का जन्म एवं बाल्यकाल

जतिन-दा का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था। जब वे मात्र नौ साल के थे, उनकी माता का देहांत हो गया। उनके पिता बंकिम बिहारी दास एक शिक्षित एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। सन् 1920 में गांधीजी के आह्वान पर युवा जतिन असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। वे इस आन्दोलन में जेल भी गए लेकिन जब वे जेल से छूटे तो उन्होंने देखा कि गांधीजी ने चौरी-चौरा काण्ड के नाम पर आन्दोलन वापस ले लिया है। जतिन को ठगा-सा महसूस हुआ।

क्रांतिकारी आन्दोलन में प्रवेश    

असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद पुराने क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छेड़ने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक गुप्त संगठन स्थापित किया जिसका नाम था: हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए)। जतिन इसकी कलकत्ता शाखा में शामिल हो गए। उन्होंने शचीन-दा के मशहूर पर्चे- ‘दी रेवोलूशनरी’ की छपाई और वितरण में पूरा सहयोग दिया। ‘दी रेवोलूशनरी’ पर्चे को एक साथ पूरे देश में बांटा गया। इसमें लिखा था-

“क्रांतिकारी पार्टी का फौरी उद्देश्य एक संगठित और सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराना और एक फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ इंडिया स्थापित करना है... इस रिपब्लिक का आधार सार्वभौमिक मताधिकार होगा तथा इसमें ऐसी व्यवस्था कायम की जायेगी जिससे मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा...रेलवे, यातायात, दूरसंचार, खनिज संसाधन, बड़े उद्योग-धंधों, इस्पात एवं जहाज़-निर्माण का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा... मतदाताओं को चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार दिया जायेगा जिसके बिना लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं... पार्टी का लक्ष्य राष्ट्रीय न होकर अंतर्राष्ट्रीय है...भारत की स्वतंत्रता के बाद ये ऐसी विश्व व्यवस्था के लिए प्रयासरत रहेगी जिसमे हर राष्ट्र के हितों की रक्षा हो सके...”   

जतिन ने राजनैतिक डकैतियों द्वारा एचआरए के लिए धन भी एकत्रित किया। अंत में बंगाल आर्डिनेंस नामक एक काले कानून की मदद से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध जतिन ने 21 दिन की भूख हड़ताल की जिसमें उनकी जीत हुई। बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया।

भगत सिंह से भेंट

सन् 1928 में उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई और सिंह ने उन्हें नवगठित दल—हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन—के लिए बम बनाने को तैयार कर लिया। इन्हीं बमों को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने मजदूर-विरोधी विधेयकों के विरोध में 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेंबली में फेंका। जतिन-दा समेत कई क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए और उनपर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ चला। लाहौर जेल में क्रांतिकारियों के साथ बहुत दुर्व्यवहार हुआ और उन्हें चोर-डकैतों की तरह सामान्य अपराधियों के साथ रखा गया। उन्हें सड़ा-गला खाना, पहनने के लिए मैले-कुचले कपड़े दिए गए और पढ़ने के लिए किताबें या अखबार देने से मना कर दिया गया।

भगत सिंह, जतिन दास एवं साथियों से इसे अपने मूलभूत अधिकारों का हनन माना और मांग की कि उनके साथ राजनैतिक बंदियों जैसा सलूक किया जाए। उन्हें खाने लायक खाना, पहनने लायक कपड़े, पढ़ने के लिए अखबार और किताबें, रहने के लिए साफ़ सुथरी जगह दी जाए तथा उनसे जबरदस्ती काम न करवाया जाए। सिंह और दत्त ने इन मांगों को लेकर भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। शुरू में जतिन-दा ने इसका विरोध किया क्यूंकि उनका अपना अनुभव था कि भूख हड़ताल बहुत कठिन संघर्ष होता है और इसमें बिना जान दिए जीत संभव नहीं है। लेकिन जब सर्वसम्मति से क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल करने का फैसला किया तो 13 जुलाई, 1929 को जतिन-दा भी इसमें कूद पड़े।    

ऐतिहासिक भूख हड़ताल

इस भूख हड़ताल की चर्चा सारे देश में फ़ैल गयी और दुनिया के कई हिस्सों से इन क्रांतिवीरों को समर्थन मिला। दस दिन के अन्दर इन लोगों की हालत खराब होने लगी। अब सरकार जोर-जबरदस्ती पर उतर आई। जेल के डॉक्टर ने बलशाली पुलिसवालों की मदद से जबरदस्ती क्रांतिकारियों की नाक में रबड़ की नली डालकर दूध पिलाना शुरू कर दिया। लेकिन जतिन-दा समेत सभी साथियों ने बहुत वीरतापूर्वक इसका भी सामना किया और हाथापाई के द्वारा अधिक दूध को अपने पेट में जाने नहीं दिया। 26 जुलाई को आठ-दस आदमियों ने जतिन को दबोच लिया और नली के सहारे पेट में दूध डालना शुरू किया। दूध पेट की बजाये फेफड़ों में चला गया और जतिन-दा छटपटा उठे। उनके साथियों ने बहुत हल्ला किया लेकिन जब डॉक्टर पूरे आधे घंटे बाद दवाई लेकर आया तो जतिन ने दवाई लेने से साफ़-साफ़ मन कर दिया। वे दृढ़ता से अपने साथियों से बोले- “अब मैं उनकी पकड़ में नहीं आऊंगा।”      

सरकार ने अभियुक्तों की गैरहाजिरी में ही उनपर मुकदमा चलाने का मनमाना फैसला किया। जतिन-दा और शिव वर्मा की हालत दिन-पे-दिन बिगड़ती जा रही थी। क्रांतिकारियों की बहादुरी के किस्से जेल से बाहर पहुँच रहे थे और राजनैतिक बंदियों के अधिकार एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। कांग्रेसी नेताओं के बार-बार आह्वान करने पर भी जतिन-दा व उनके साथियों ने अपनी भूख हड़ताल नहीं तोड़ी। मजबूरन सरकार ने एक कमेटी का गठन किया लेकिन भूख हड़ताल जारी रही। भगत सिंह के कहने पर भी जतिन-दा ने दवाई नहीं ली। सरकार उनकी सशर्त ज़मानत के लिए तैयार हो गयी लेकिन स्वाभिमानी जतिन ने इस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया। धीरे-धीरे उनके बोलने और देखने की शक्ति भी चली गयी।

जामे-शहादत

फिर आया 13 सितम्बर का दिन। जतिन दास की भूख हड़ताल को 63 दिन हो गए थे। पूरे देश की नज़रें उनपर थीं। उन्होंने अपने छोटे भाई किरन और साथी विजय कुमार सिन्हा से ‘एकला चलो रे’ गाने का अनुरोध किया। दोनों ने आँखों में आंसू लिए इस वीर योद्धा की इच्छा का सम्मान किया। दोपहर 1 बजकर 5 मिनट पर जतिन-दा ने अंतिम सांस ली। इस महान शहीद के सम्मान में पूरे पंजाब में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए और उनके पार्थिव शरीर को ट्रेन से उनके छोटे भाई कलकत्ता लेकर आये। रास्ते भर में हजारों की संख्या में हर स्टेशन पर जनता ने अपने महानायक को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। जतिन-दा के दाह संस्कार में डेढ़ लाख लोग शामिल हुए! सुभाषचन्द्र बोस ने बहुत ही भावुकतापूर्वक देश के इस सिपाही को अंतिम सलामी दी। जतिन-दास की शहादत ने बंगाल ही नहीं पूरे भारत में क्रान्ति की आग को फैला दिया।

संघर्ष अभी जारी है

जतिन-दा की शहादत से ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और उसने जांच कमेटी के काम को तेज़ कर दिया। राष्ट्रीय नेताओं की अपील को मानते हुए क्रांतिकारियों ने अपनी भूख हड़ताल स्थगित कर दी। लेकिन सरकार ने धोखा दिया और भगत सिंह और साथियों ने पुनः फरवरी 1930 में अनशन शुरू कर दिया। सरकार एक और जतिन दास नहीं चाहती थी। उसने समझौते की राह पकड़ी। हालांकि उसने ‘राजनैतिक बंदी’ की श्रेणी को फिर भी नहीं माना लेकिन सभी बंदियों को सामाजिक हैसियत के आधार पर ‘ए’ और ‘बी’ क्लास में विभाजित कर दिया।

राजनैतिक बंदियों के अधिकारों की लड़ाई आज भी जारी है। हाल ही में भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर रावण को जेल में प्रताड़ित करने की खबरें आई थीं। अखिल गोगोई, शरजील इमाम, गौतम नवलखा जैसे एक्टिविस्टों के साथ भी बहुत बुरा सलूक किया गया। मानवाधिकार संगठनों ने राजनैतिक बंदियों को ‘ज़मीर के बंदी’ (Prisoners of Conscience) का नाम दिया है यानी वे लोग जो अपने विचारों के कारण सज़ा काट रहे हैं। जतिन-दा और उनके साथियों के संघर्षों से प्रेरणा लेते हुए हमें सभी राजनैतिक बंदियों की बिना शर्त रिहाई और सभी काले कानूनों को रद्द करने की लड़ाई को और तेज़ करना चाहिए। कवि लॉवेल के ये शब्द इस संघर्ष में हमारा मार्गदर्शन करेंगे—

“क्या सच्ची स्वाधीनता

सिर्फ यह है की हम अपनी जंजीरें तोड़ दें

और यह भुला दें कि

हम पर मानवता का क़र्ज़ है?

नहीं, सच्ची स्वाधीनता है उन जंजीरों को काटना

जो हमारे बन्धु पहने हुए हैं

और तन-मन से

अन्यों को स्वाधीन करने का प्रयास करना” 

(कविता मलविंदर जीत सिंह वढ़ेच के सौजन्य से)

(लेखक जेएनयू के शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगता हैं।)     

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