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यूपी: आख़िर ''ग़रीबी' बड़ा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है? 

उत्तर प्रदेश में 37.78 फ़ीसदी आबादी ग़रीब है। इसके अलावा प्रदेश की 60 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी के पास बेसिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद ग़रीबी सूचकांक की चर्चा जाति, जिन्ना, हिंदू, मुसलमान और तालिबान की तरह होती नहीं दिखाई दे रही।
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Image courtesy : TOI

नीति आयोग की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश, भारत का तीसरा सबसे ग़रीब राज्य है। इस रिपोर्ट में पहले स्थान पर बिहार और दूसरे स्थान पर झारखंड है। यानी ग़रीबी में उत्तर प्रदेश का मुक़ाबला बिहार और झारखंड जैसे राज्य से है। उत्तर प्रदेश में अगले तीन महीने में चुनाव होने वाले हैं। बावजूद इसके ग़रीबी सूचकांक की चर्चा जाति, जिन्ना, हिंदू, मुसलमान और तालिबान की तरह नहीं हो रही है, पार्टियाँ केवल ट्वीट करे जा रही हैं। बात-बात पर सरकार को घेरने वाला विपक्ष, इस मामले में सरकार को कोई प्रतिक्रिया देने पर मजबूर नहीं कर पाया, तो वहीं सरकार ने भी इसे लगभग नज़रअंदाज़ ही कर दिया। आख़िर इसकी वजह क्या है? क्यों गरीबी को न तो विपक्षी दल मुद्दा बना रहे हैं और न ही सरकार सफाई दे रही है?

बता दें कि नेशनल मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स (MPI) नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की 2015-16 की रिपोर्ट पर आधारित है। यानी ये रिपोर्ट उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के कार्यकाल के बारे में नहीं बल्कि अखिलेश सरकार के कार्यकाल की गवाही दे रही हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि उत्तर प्रदेश में 37.78 फ़ीसदी आबादी ग़रीब है। इसके अलावा प्रदेश के 71 ज़िलों में 64 ज़िले ऐसे हैं जहाँ का 'मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स' राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है।

क्या है पूरा मामला?

जनसंख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा राज्य है और ग़रीबी सूचकांक में तीसरे नंबर पर है। रिपोर्ट ये भी कहती है कि ग़रीबी के मामले कमोबेश हर ज़िले का एक जैसा ही हाल है। रिपोर्ट के मुताबिक़ खाना बनाने के लिए ईंधन की बात हो या फिर सैनिटेशन की सुविधा या फिर रहने के लिए घर- तीनों इंडिकेटर्स पर उत्तर प्रदेश की स्थिति दूसरे राज्यों के मुकाबले ज़्यादा ख़राब है। उत्तर प्रदेश की 60 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी को ये तीनों बेसिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति देखें तो सत्ता में अदल बदल कर हर बार राजनीतिक दल घूम फिर कर आते-जाते रहते हैं। कभी कांग्रेस तो कभी बीएसपी, कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बीजेपी। ऐसे में अगर कोई राजनीतिक दल अगर 'ग़रीबी' को मुद्दा बनाती है, तो जीतने पर उस दिशा में उन्हें उतना काम भी करना पड़ेगा। 38 फ़ीसदी आबादी का ग़रीब होना बहुत बड़ा आँकड़ा है। इसे ठीक करने के लिए मेहनत भी लगेगी। लेकिन सभी राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं भी कम नहीं है। कोई इससे साथ बहुत दिन तक जुड़ के काम नहीं कर सकता।

बीजेपी के भीतर से ही उठ रही है आवाज़!

यूपी से बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने मंगलवार, 30 नवंबर को देश में बेरोज़गारी, बढ़ती महँगाई और कर्ज़ में डूबी जनता के लिए केंद्र सरकार के नीतिगत फैसलों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा। इस आर्टिकल में वरुण गांधी ने लिखा कि नवंबर की शुरुआत में तीन परेशान करने वाली रिपोर्ट सामने आई। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर में लगभग 5.46 मिलियन भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी। युवाओं का बेरोजगारी दर 2020-21 में 28.26 प्रतिशत रहा जबकि 2016-17 में यह 15.66 प्रतिशत ही था। अगस्त 2021 के अनुसार रोजगार के लिए योग्य युवाओं में से लगभग 33 प्रतिशत बेरोजगार ही थे। यह सब एक ऐसे दौर में हुआ जब असंगठित क्षेत्र अर्थव्यवस्था के लिए एक बैक अप था।

इसके अलावा वरुण गांधी ने यह भी लिखा कि भारत में बड़े पैमाने पर फिर से गरीबी लौट आई है। 150 रुपये से भी प्रतिदिन कम कमाने वाले गरीब भारतीयों की संख्या 134 मिलियन हो गई जो 2020 में 59 मिलियन था। मिडिल क्लास का आंकड़ा भी घट रहा है। साल 2020 में मिडिल क्लास 99 मिलियन हुआ करता था लेकिन 2021 में यह आंकड़ा 66 मिलियन हो गया है। यह सब उस दौर में हो रहा है जहां काफी आर्थिक असमानता है और भारत के शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के पास कुल 73 प्रतिशत संपत्ति है।

वरुण गांंधी के इस लेख की सोशल मीडिया पर भी खूब चर्चा हुई और कई लोगों ने तो ये तक कह दिया कि जो काम विपक्ष को करना चाहिए वो वरुण कर रहे हैं। हाल ही में यूपी टीईटी के पेपर लीक मामले में भी वरुण ने योगी सरकार पर सवाल उठाए थे, इसके अलावा रेलवे भर्ती परीक्षा को लेकर भी वो मोदी सरकार से जवाब मांग चुके हैं।

आख़िर ग़रीबी बड़ा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है?

वैसे उत्तर प्रदेश के ये ग़रीबी के आँकड़े कोरोना काल से पहले के हैं। जब कोई महामारी नहीं थी। अगर उस वक़्त ये हाल था तो इस वक्त 2021 में जाहिर है कि स्थिति और बदतर ही हुई होगी। हालांकि कई राजनितिक जानकारों का मानना है कि यहां गरीबी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, इसकी दो बड़ी वजहे हैं। पहली मानसिकता है, यहां लोग ग़रीबी को अपने भाग्य से जोड़ कर देखते हैं। लोगों को लगता है कि ग़रीबी के लिए वो ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। इसलिए इसे दुरुस्त करना लोगों का काम है। इसलिए सरकार से सब ठीक करने की कोई माँग नहीं करता, न ही सरकार को जिम्मेदार मानता है।

दूसरी प्रमुख वजह 'इंस्टेंट नूडल्स' है यानी आज जनता के बीच चुनाव के ठीक पहले 'फ्री बी' यानी मुफ़्त उपहार की घोषणा कर चुनाव जीतने का जमाना है। इसलिए जनता को लोन माफ़ी, मुफ़्त लैपटॉप, मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली, पेंशन जैसी योजनाएँ भाने लगी है। और शायद यही कारण है कि चुनावी साल में सरकार भी जनता के लिए कुछ ज्यादा ही उदार हो जाती है। इसका ताज़ा उदाहरण यूपीटीईटी है। पेपर लीक होने के तुरंत बाद ही मुख्यमंत्री ने एक ही महीने में दोबारा पेपर कराने की घोषणा उसी दिन कर दी। ऐसे तो कौन ही किसी परीक्षा की खोज़ खबर लेता है।

इन सब बातों के बाद भी कई लोगों का मानना है कि इस बार के चुनाव में महँगाई एक मुद्दा रहेगी। फिर वो गैस, तेल के बढ़े हुए दाम ही क्यों ना हो। युवा बेरोज़गारी से दुखी हैं, कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं। वहीं खेती- किसानी की मौसम की मार के शिकार हुए हैं। ऊपर से आए दिन हत्या, लूट, बलात्कार की बड़ी-बड़ी खबरें सुर्खियां बनी ही रहती हैं। ऐसे में सिर्फ हिंदुत्व का कार्ड या राम मंदिर से दोबारा बीजेपी को जीत मिल जाए ये इतना आसान नहीं होने वाला।

गौरतलब है कि देश के आज़ाद होने के बाद से ही गरीबी एक बड़ी चुनौती रही है। 1971 में जब विपक्ष ने इंदिरा हटाओ का नारा दिया तो कांग्रेस ने इसका जवाब 'गरीबी हटाओ' से दिया। जिसके बाद इंदिरा जीत गईं और उनकी इस जीत में उनके 'गरीबी हटाओ' नारे का बहुत बड़ा योगदान भी रहा। हालांकि अब 'ग़रीबी हटाओ' के नारे के पचास साल बाद 2021 तक ग़रीबी नहीं हटी है। लेकिन सरकार और विपक्ष का प्रथमिकताएं और मुद्दे दोनों बदल गए हैं। जो नारा 1971 में किसी पार्टी की जीत-हार तय कर पाया था, आज वो चुनावी दंगल से बाहर है। और इसका बड़ा कारण देश में जातीय ध्रुवीकरण, सांप्रदायिकता का एंगल और मुफ्त का व्यापार है, जो कहीं न कहीं सभी पार्टियों को एक ही कटघरे में खड़ा करती हैं।

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