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MSP और पीएम किसान ग्रांट का एलजेब्रा समझिए

पीएम किसान योजना के तहत किसानों को सालाना तौर पर 6000 रुपये की राशि खैरात/मदद के रूप में दी जाती है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य के कम होने से उन्हें उनकी क़ीमती फ़सलों से उचित कमाई नहीं हो पाती है।
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फ़ोटो : PTI

सरकार ने हाल ही में दो घोषणाएं के ज़रिए किसानों को संबोधित किया है - एक घोषणा के तहत इस वर्ष की खरीफ (मानसून) फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को अधिसूचित किया गया, जबकि दूसरी घोषणा में पीएम किसान योजना के तहत 11 करोड़ किसानों को 2.42 लाख करोड़ रुपये वितरित किए गए हैं। दोनों घोषणाएं किसानों की आय बढ़ाकर उनकी मदद करने के उपाय लगते हैं। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। एक तरफ, नरेंद्र मोदी सरकार 2014 में अपने वादे से बहुत कम एमएसपी तय कर रही है, और इस तरह किसानों को हजारों करोड़ रुपये से वंचित कर रही है। दूसरी ओर, यह किसानों को पीएम किसान योजना के तहत प्रति वर्ष 6,000 रुपये का अनुदान दे रही है। जैसा कि नीचे दिखाया गया है, अनुदान साल-दर-साल फसल आय से निरंतर नुकसान की भरपाई नहीं कर पाते हैं।

गणना से पता चलता है कि 2015-16 और 2022-23 के बीच, किसानों को चावल पर दी जा रही कम एमएसपी के कारण 2,37,427 करोड़ रुपये और गेहूं में कम एमएसपी के कारण 58,460 करोड़ रुपये से वंचित कर दिया गया है या उन्हे इसका नुकसान हुआ है। यह 2,95,887 करोड़, या लगभग 3 लाख करोड रुपये की कुल हानि को दर्शाता है। ध्यान दें कि यह गणना केवल दो प्रमुख स्टेपल फसलों की है। यदि अन्य 12 कृषि उत्पादों को इसमें जोड़ लिया जाए, जिन्हें संबंधित घोषित एमएसपी के ज़रिए खरीदा जाना है, तो नुकसान और बढ़ जाएगा। किसानों को जो नुकसान हुआ है, वह पीएम किसान योजना के तहत उन्हें दी जाने वाली राशि से कहीं ज्यादा है।

हानि/नुकसान 

2014 में, पीएम मोदी ने वादा किया था कि वह प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा दी गई सिफारिश को लागू करेंगे। आयोग ने सिफारिश की थी कि एमएसपी, उत्पादन की व्यापक लागत से 50 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए, जिसे कृषि वैज्ञानिकों ने सी2 फ़ार्मूले के रूप में दर्शाया है।

हालांकि, मोदी सरकार ने उत्पादन की संशोधित लागत के आधार पर एमएसपी की गणना के साथ एक आसान समझौता कर लिया है जिसमें कई महत्वपूर्ण घटक शामिल नहीं हैं और इसलिए इसमें सी2 की कमी नज़र आती है। इस संशोधित लागत में सभी इनपुट लागत (ए), आरोपित पारिवारिक श्रम (एफएल) लागत और कुछ अन्य मद शामिल हैं, लेकिन पूंजी परिव्यय, किराए आदि की लागत को छोड़ दिया गया है। एमएसपी की गणना उत्पादन की इस संशोधित लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर की जाती है।

सरकार द्वारा घोषित एमएसपी पर खरीदे गए चावल और गेहूं का ताजा मामला लेते हैं। 2022-23 में, चावल पर एमएसपी 2,040 रुपये प्रति क्विंटल (110 किलोग्राम) तय की गई थी। सरकार ने इस दर पर 534 लाख टन चावल की खरीद की थी। यह हमें उन किसानों का कुल रिटर्न की तस्वीर देता है, जिन्होंने सरकार को 1.09 लाख करोड़ रुपये का चावल बेचा था।

यदि यह चावल स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार सी2+50 प्रतिशत पर खरीदा जाता, तो इसकी कीमत क्या होती? कृषि मंत्रालय के तहत काम करने वाली संस्था, कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) द्वारा रिकॉर्ड की गई सी2 लागत को लेकर इसका जवाब मिल सकता है। यह 2022-23 में चावल पार सी2 लागत 1,805 रुपये प्रति क्विंटल आंकी गई है। अगर चावल पार एमएसपी सी2+50 प्रतिशत तय किया गया जाता तो इसे 1,805+903 रुपये यानी 2,708 रुपये होना चाहिए था। अगर सरकार इतनी ही मात्रा (534 लाख टन) इसी दर से चावल खरीदती तो किसानों को 1.5 लाख करोड़ रुपये मिलते।

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू होने पर किसानों को जो मिल सकता था और वास्तव में उन्हें जो मिला, उसमें 35,651 करोड़ रुपये का भारी अंतर है। और यह सिर्फ एक साल यानि 2022-23 का मामला है। अगर हर साल यही हिसाब लगाएं तो 2015-16 से 2022-23 के बीच धान के किसानों को कुल मिलाकर 2.37 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

गेहूं पर इसी तरह की गणना से पता चलता है कि 2015-16 और 2023-24 के बीच किसानों को 58,460 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

विस्तृत गणना के लिए नीचे देखें।

खुले बाज़ार में बेचने वाले किसानों को नुकसान ज्यादा है

इस बात की गणना करना मुश्किल है कि जो सरकार को बेचने में सक्षम नहीं हैं उन किसानों को कितना नुकसान हुआ है क्योंकि आमतौर पर उन्हें अपनी उपज के लिए एमएसपी से कम कीमत मिलती है। सरकार उपज का केवल एक अंश ही खरीदती है और एमएसपी की गारंटी केवल ऐसे लेनदेन के लिए ही होती है। उदाहरण के लिए, 2022-23 में, चावल का उत्पादन 1,355.4 एलएमटी (लाख मीट्रिक टन) अनुमानित था, लेकिन सरकारी खरीद सिर्फ 534 एलएमटी की थी। यह कुल उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है। शेष 60 प्रतिशत या तो किसानों ने खुद इस्तेमाल के लिए रखा या घोषित एमएसपी से कम कीमतों पर खुले बाजार में बेचा होगा। सीएसीपी की लगातार रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि ऐसा ही होता है।

खुले बाजार की कीमतों को निर्धारित करने वाले कारकों में से एक एमएसपी है। किसान और व्यापारी कीमतों में सौदेबाजी और समझौता करने के लिए एमएसपी स्तर को देखते हैं, हालांकि आमतौर पर व्यापारियों को इसे नीचे धकेलने में अधिक ताकत मिलती है। ज्यादातर किसान जो सरकारी एजेंसियों के बजाय व्यापारियों को बेचते हैं, वे छोटे हैं और उन्हें तुरंत नकदी की जरूरत होती है। इसलिए इनमें सौदेबाजी की ज्यादा ताकत नहीं होती है। उनके पास एकमात्र बैसाखी सरकार द्वारा तय की गई एमएसपी होती है।

इसलिए, निजी व्यापारियों को बेचने वाले किसानों के लिए भी कम एमएसपी, बिक्री मूल्य को कम कर देती है। इन बिक्री की मात्रा और उन्हें मिलने वाली कीमतें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती हैं और इन्हें ट्रैक या रिकॉर्ड करना मुश्किल होता है। लेकिन यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि कम एमएसपी खुले बाजार की कीमतों को कम करती है।

एमएसपी को कम रखकर सरकार न केवल अपने संसाधनों (जो वास्तव में सार्वजनिक संसाधन हैं!) पर बचत कर रही है, बल्कि यह पूरे के पूरे बड़े व्यापारी वर्ग को लाभ पहुंचा रही है, जो असहाय किसानों से कम कीमत पर खाद्यान्न खरीदता है।

सरकार किसानों को खैरात देने और उससे राजनीतिक-चुनावी लाभ कमाने के लिए एक योजना पर अपना पैसा खर्च करने को तैयार है, जो 'अन्नदाता' के प्रति उसकी चिंता और देखभाल के वादे के खिलाफ जाती है बजाए यह सुनिश्चित करने कि किसानों को व्यापारियों से या सरकार से ही बेहतर कीमत मिले।

परिशिष्ट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Dupe and Dole: The Algebra of MSP and PM KISAN Grants

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