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ब्याज की दरों में कटौती किस के हित में?

ब्याज की नीतिगत दरों में 50 बेसिस पाइंट यानी आधा फीसद की ‘‘बड़ी’’ कटौती के अपने कदम से, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर, रघुराम राजन ने सब को आश्चर्यचकित कर दिया है।

कटौती और उसका मकसद

रिजर्व बैंक से ऋण लेने पर बैंकों पर लगाए जाने वाले ब्याज की दर या रेपो रेट, घटाकर 6.75 फीसद कर दी गयी है और रिजर्व बैंक में अपनी जमा के लिए बैंकों को दिए जाने वाले ब्याज की दर यानी रिवर्स रेपो रेट घटाकर 5.75 फीसद कर दी गयी है। इस कटौती के पीछे विचार सिर्फ इतना नहीं है कि इस तरह ऋण लेने वालों पर लगाया जाने वाला ब्याज घट जाएगा बल्कि इसके पीछे मंशा यह है कि बैंकों को इसके लिए बढ़ावा दिया जाए कि बड़ी मात्रा में नकदी के भंडार अपने पास रखने के बजाए, कहीं ज्यादा ऋण बांटें।

यह आश्चर्यजनक इसलिए है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर साहब अभी हाल तक नीतिगत ब्याज दरों में कटौती करने के दबाव का इस आधार पर मुकाबला करते आए थे कि  ऋण सस्ते होने से मुद्राफीति बढ़ सकती है। हालांकि, मुद्रास्फीति की दर अपेक्षाकृत नीची चल रही है, फिर भी रिजर्व बैंक की ओर से यह दलील दी जा रही थी कि मुद्रास्फीति में यह कमी तो कुछ विशेष परिस्थितियों की वजह से आयी है (जैसे अन्तराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम में कमी) और इस स्थिति में मुद्रास्फीति के बढऩे की काफी संभावनाएं बनी हुई हैं। इसलिए, रिजर्व बैंक की नजरों में उपयुक्त नीति यही थी कि मांग तथा वृद्धि को उत्प्रेरित करने के बजाए, मुद्रास्फीति को बढऩे से रोकने पर ही ज्यादा ध्यान दिया जाए।

इस तर्क के विपरीत, ब्याज की दरों में ताजा कटौती का मकसद, अब वह हासिल हो पाता है या नहीं दूसरी बात है, कहीं भिन्न और बिल्कुल स्पष्ट है। इस कटौती का यही मकसद है कि सस्ती तरलता तक पहुंच बढ़ायी जाए ताकि ऋण से संचालित निवेशों और ऐसी ही आवास की खरीदों व उपभोग को बढ़ावा दिया जाए, जिससे आर्थिक वृद्धि में तेजी लायी जा सके। इसलिए, साफ तौर पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने अपना नजरिया बदल लिया है और अब वह भी यह मानने के लिए तैयार हो गए हैं कि मुद्रास्फीति नहीं, वृद्धि ही मुख्य चुनौती है जिससे दो-चार होने की जरूरत है। बेशक, यह तो सही है कि अगस्त में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की सालाना दर (पिछले साल अगस्त के मुकाबले में) 3.66 फीसद ही थी, जिसे रिजर्व बैंक के ‘‘लक्षित’’ दायरे में ही कहा जाएगा। लेकिन, सचाई यह है मुद्रास्फीति की दर में गिरावट तो पहले से ही चली आ रही थी और इस साल के खराब मानसून से तो खाद्य मुद्रास्फीति के भडक़ने की ही संभावनाएं बढ़ गयी हैं। इस तरह, रिजर्व बैंक के गवर्नर ने इस मुद्दे पर अपने विचार वाकई बदल लिए लगते हैं।

नाटकीय पल्टी

पुन:, केंद्रीय बैंक तथा सरकार की तुलनात्मक भूमिकाओं के मुद्दे पर राजन के बहुत पक्के विचार लगते थे। उनका यह मानना नजर आता था कि रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति को निशाने बनाने पर ही अपना ध्यान लगाना चाहिए, जबकि सरकार को ही आर्थिक वृद्धि की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए। इसके लिए सरकार को उसे विनियमन का सहारा लेकर निवेश के रास्ते की ‘‘बाधाएं’’ दूर करनी चाहिए और राजकोषीय घाटे में कमी के अपने लक्ष्य हासिल करने के जरिए, एक स्थिर वृहदार्थिक वातावरण सनिश्चित करना चाहिए। अब यह सब भी बदल गया है। विचारों की साफ-साफ पल्टी मारते हुए, रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अब अपने मुद्रानीति वक्तव्य में यह माना है कि अब अब वक्त आ गया है कि मांग में नयी जान डाली जाए और कहा है कि रिजर्व बैंक की ओर से इसका इशारा कि वह मौद्रिक उत्प्रेरण मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्घ है, निवेश तथा वृद्धि में नये प्राण फूंकने का काम करेगा। इसीलिए, उन्होंने अब यह दलील दी है कि, ‘‘रिजर्व बैंक ने, नीतिगत दर में 50 बेसिस पाइंट की कटौती कर, नीतिगत कार्रवाई को आगे जोत दिया है।

रिजर्व बैंक के परिप्रेक्ष्य में इस नाटकीय बदलाव और उसके नीतिगत रुख में इस बदलाव को इसी के संकेत के रूप में देखा जाएगा कि रिजर्व बैंक ने सरकार के उस आग्रह के साथ समझौता कर लिया है या उसके सामने हथियार डाल दिए हैं, जिसे वित्त मंत्री अरुण जेटली तथा उनकी टीम द्वारा स्वर दिया जाता रहा था। उनका आग्रह यही रहा है कि वृद्धि को उत्प्रेरित करने के लिए, मौद्रिक उत्प्रेरण जरूरी है। यहां उत्प्रेरण से आशय सिर्फ पूंजी जुटाने पर आने वाली लागत में इस तरह होने वाली कमी के निवेश पर पडऩे वाले प्रत्यक्ष प्रभाव तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में अगर मांग सुस्त हो तो निवेश, ब्याज की दरों के प्रति काफी उदासीन बने रह सकते हैं। इसलिए, ब्याज की दरों में कटौती के आग्रह के पीछे असली मंशा परिवारों के लिए, कार्पोरेटों के लिए तथा दूसरे सभी आर्थिक एजेंटों के लिए, कर्ज लेना और खर्च करना अपेक्षाकृत सस्ता कर देने की है। असल में मूल विचार यह है कि भारत को फिर से उस रणनीति की पटरी लाया जाए, जहां ऋण-आधारित संसाधन से संचालित मांग, आर्थिक वृद्धि को उत्पे्ररित करने लगे।

राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों से ग्रस्तता

इस तरह की मुद्रा में यह धारणा निहित है कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर, जो पहले के मुकाबले कम होते हुए भी, अपने आप में ऊंची ही माना जाएगी, भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं करती है। इसीलिए, रिजर्व बैंक के गवर्नर के वक्तव्य में इसका जिक्र किया गया है कि, ‘‘अब भी औद्योगिक उत्पादन क्षमता का उपयोग निचले स्तर पर है’’ और इसकी जरूरत है कि बढ़ी हुई घरेलू मांग, ‘‘कमजोर पड़ती वैश्विक मांग की भरपाई करे।’’ रिजर्व बैंक के गवर्नर तो इससे भी आगे चले जाते हैं और यह कहते हुए राजकोषीय उत्प्रेरण की वकालत करते हैं कि, ‘‘सडक़ों, बंदरगाहों तथा अंतत: रेलवे पर सार्वजनिक खर्चा...निर्माण को कुछ बढ़ावा दे सकता है’’ और यह भी वित्त आयोग की सिफारिशों का लागू किया जाना (जो मांग को उत्प्रेरित करेगा), तब तक मुद्रास्फीतिकारी नहीं होगा जब तक राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पूरे होते हैं।

बहरहाल, राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों से यह ग्रस्तता ही सरकार के लिए गले का फंदा साबित होने जा रही है। अब इतना तो तय है कि यह सरकार अपने बढ़ाए जाने वाले खर्चों के लिए वित्त जुटाने के लिए, प्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी करने के जरिए कोई अतिरिक्त राजस्व नहीं जुटाने जा रही है। ऐसे में, राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों के खूंटे से बंधे रहते हुए, अगर मिसाल के तौर पर ढांचागत क्षेत्र पर सरकारी खर्चे में कोई बढ़ोतरी की भी जाती है, तो इसका अर्थ सरकारी खर्चे से उत्पेरित होने वाली वृद्धि के गठन में ही फेरबदल होना होगा, न कि  इस वृद्धि के आकार में कोई बदलाव। लेकिन, आज की परिस्थितियों में जो जरूरत इस वृद्धि के आकार में बढ़ोतरी की है, न कि सिर्फ इसके गठन में बदलाव की। यह इसलिए और भी सच है कि इसके साक्ष्य मौजूद हैं कि इस समय आर्थिक वृद्धि के लिए राजकोषीय उत्प्रेरण की जरूरत है न कि मौद्रिक उत्प्रेरण की।

इसलिए, यह उम्मीद करना कि अर्थव्यवस्था में सिर्फ इसलिए नयी जान पड़ जाएगी कि रिजर्व बैंक ने ब्याज की दरों में कटौती कर दी है, मन के मोदक खाना होगा। वास्तव में हाल के दौर में एक समस्या यह सामने आ रही है कि भारत के बैंक, जो डूबे हुए कर्जों के विशाल अनुपात की अपनी समस्या से निपटने तथा अपनी बैलेंस शीटों को सुधारने की कोशिशों में लगे हुए हैं, न सिर्फ पहले की तरह ऋण देने के प्रति अनिच्छुक हैं बल्कि ब्याज की दरों में किसी भी कटौती (या अपनी पूंजी के खर्चे में कमी) के लाभ का कोई उल्लेखनीय हिस्सा अपने ग्राहकों तक पहुंचने देने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

फिर भी अच्छे नहीं हैं आसार

कुल मिलाकर यह कि रघुराम राजन का यह ‘‘हैरान करने वाला’’ कदम भी, अपना उद्देश्य शायद ही पूरा कर पाएगा यानी आर्थिक वृद्धि में नयी जान नहीं डाल पाएगा। उनका यह कदम सिर्फ इतना करेगा कि इसका संकेत दे रहा होगा कि भारतीय रिजर्व बैंक भी इसे पहचानता है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरा मुद्रास्फीति की ओर से नहीं है बल्कि आर्थिक संकुचन की ओर से है और इन हालात में घटती मुद्रास्फीति तथा घटती मांग का योग, दीवालों की नौबत ला सकता है। अगर ऐसा होना शुरू हो गया तो मांग और भी बैठ जाएगी और अर्थव्यवस्था के दुष्चक्र में फंस जाएगी।

राजन चूंकि यह नहीं चाहते थे कि उन्हें ऐसे हालात पैदा होने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए, उन्होंने अपना विचारधारात्मक झुकाव छोड़ दिया है और अपना नीति संबंधी रुख बदल लिया है। लेकिन, उनके ऐसा करने मे अचरज करने की कोई बात भी नहीं है। इससे पहले भी रघुराम राजन, विवाद के दोनों पक्षों के साथ होने के संकेत देने की अपनी सामथ्र्य का प्रदर्शन कर चुके हैं। बेशक, जैक्सन होल के अपने भाषण के चलते कुछ लोग उन्हें ऐसा व्यक्ति मानने लगे हैं जो विनियमन से उत्प्रेरित वित्तीय विकास के प्रति सावधानी का रुख रखते हैं और इससे भी बढक़र यह कि वह ऐसे शख्श हैं जिन्होंने इसकी ‘‘भविष्यवाणी’’ की थी कि विनियमन के परिणाम अमरीका में 2008 के वित्तीय संकट जैसा संकट भडक़ा सकते हैं। लेकिन भारत में तो, उनकी अध्यक्षता में गठित वित्तीय क्षेत्र में सुधार संबंधी कमेटी का गठन किया गया, जिसने विश्व संकट के बीचौ-बीच अपनी रिपोर्ट दे थी, इस रिपोर्ट में वित्तीय क्षेत्र में गहरे तथा विशद विनियमन तथा वित्तीय क्षेत्र के विस्तार की ही सिफारिशें की गयी थीं। लेकिन, जो शख्श अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में शोध निदेशक रहा हो, उससे इसके सिवा और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? फिर भी राजन ने यह तो सुनिश्चित किया ही है कि अब तक उनकी ख्याति सबसे ज्यादा जैक्सन होल के उनके संबोधन से ही प्रभावित रही है। 

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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