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मोदी के 10 साल: सरकारी स्कूलों की संख्या घटी, शिक्षकों की कमी बनी रही

भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए निज़ाम के तहत पिछले एक दशक में संबंधित विभागों के बजटीय आवंटन में कटौती हुई है, सरकारी स्कूलों की संख्या घटी है, शिक्षकों की कमी बनी रही और सकल नामांकन अनुपात यानी कुल दाख़िले में गिरावट सहित अन्य चीज़ें देखी गई हैं।
NEP
फाइल फोटो

नई दिल्ली: जब 2014 में सत्ता में आने के बाद, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने शिक्षा में चार चांद लगाने का वादा किया था - इसने लड़कियों पर विशेष ध्यान देने के वादे के साथ "समान अवसर" का वादा किया था, जिसे "सर्वोच्च प्राथमिकता" दी गई, ताकि शिक्षकों और शोधकर्ताओं की भारी कमी को दूर किया जा सके, और अन्य बातों के अलावा यह भी वादा किया कि शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी सार्वजनिक ख़र्च किया जाएगा। 

मोदी सरकार के एक दशक के शासन में, पाठ्यपुस्तकों, विशेष रूप से इतिहास और राजनीति विज्ञान की सामग्री को हिंदुत्व के नेरेटिव के मुताबिक़ बदलने में सबसे सक्रिय कदम देखे गए हैं, जिससे शिक्षा तक पहुंच में एक बड़ा अंतर आ गया है, खासकर वंचित तबकों के लिए शिक्षा हासिल करना कठिन हो गया है। 

शिक्षा के क्षेत्र में मोदी सरकार द्वारा किए गए वादों और जमीनी हकीकत का अंदाजा लगाने के लिए फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी नेटवर्क इंडिया (FAN-India) ने एक 'एजुकेशन रिपोर्ट कार्ड-2014-24' जारी किया है जो नागरिक समाज संगठनों, यूनियनों, जन-आंदोलनों और संबंधित नागरिकों का समूह है।

रिपोर्ट कार्ड में कहा गया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के अनुसार, हाल के वर्षों में सरकारी स्कूलों का एकीकरण बढ़ गया है, जिससे शिक्षा का अधिकार अधिनियम का उद्देश्य ही विफल हो गया है।

“केवल 2023 में, देश भर में 4000 से अधिक स्कूलों का विलय कर दिया गया, जिससे कई बच्चे प्रभावित हुए हैं। महाराष्ट्र ने स्कूलों के विलय की घोषणा की, जिससे लगभग 2 लाख बच्चे प्रभावित हुए हैं, जबकि ओडिशा ने 7,478 स्कूल बंद कर दिए हैं। इसके अलावा, मध्य प्रदेश ने 35,000 स्कूलों को 16,000 संस्थानों में विलय करने का प्रस्ताव दिया है। ये कार्रवाइयां, विशेष रूप से दूरदराज के इलाकों में, शिक्षा की पहुंच और शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुपालन के बारे में चिंताएं बढ़ाती हैं। 

मोदी सरकार के "शिक्षा तक पहुंच" में सुधार के वादे के विपरीत, हक़ीक़त यह है कि "2018-19 और 2021-22 के बीच, भारत में स्कूलों की कुल संख्या 61,885 कम हो गई है, जो 15,51,000 से घटकर 14,89,115 हो गई है। सबसे बड़ी गिरावट केंद्र और राज्य सरकार के स्कूलों में देखी गई, जहां 61,361 स्कूल बंद हुए हैं।''

सरकारी स्कूलों की संख्या में कमी के साथ-साथ निजी स्कूलों की संख्या में भी वृद्धि हुई है, जिससे वंचित तबकों के लिए शिक्षा हासिल करना एक बड़ा सवाल बन गया है।

2014-15 में, देश भर में 11,07,118 सरकारी स्कूल और 83,402 सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल थे। 2021-22 में इन स्कूलों की संख्या घटकर क्रमश: 10, 22, 386 और 82,480 हो गई है। दूसरी ओर, 2014-15 में निजी स्कूलों की संख्या 2,88,164 थी, और 2021-22 में यह बढ़कर 3,35,844 हो गई है, जिसमें 47,680 की वृद्धि दर्ज की गई है।

शिक्षकों की भारी कमी की बात करते हुए, एफएएन-इंडिया की रिपोर्ट में एक संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि राज्य स्तर पर स्वीकृत 62.71 लाख पदों में से 10 लाख पद खाली पड़े हैं। यह उन अभ्यर्थियों द्वारा किए गए विभिन्न आंदोलनों की रिपोर्टों से स्पष्ट है, जिन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में नियुक्ति पत्र के इंतज़ार में शिक्षक नौकरियों के लिए आवेदन किया था और परीक्षा पास की थी।

सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) पर, एफएएन-इंडिया रिपोर्ट कार्ड में प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक तक सभी स्तरों पर कमी पाई गई है। इसमें कहा गया है कि प्राथमिक स्तर पर जीईआर 103.39 घटकर उच्च माध्यमिक स्तर पर 57.56 हो गया है।

सबसे बुरी मार वंचित तबकों – जैसे अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अल्पसंख्यकों पर पड़ी है।

रिपोर्ट कार्ड में कहा गया है कि, अनुसूचित जाति के लिए, जीईआर प्राथमिक स्तर पर 113.1, माध्यमिक स्तर पर 84.91 और उच्च माध्यमिक स्तर पर 61.49 से कम हो गया है, जबकि अनुसूचित जनजाति के लिए, यह कम था, प्राथमिक स्तर पर 106.5 से माध्यमिक स्तर पर 78.06 और उच्च माध्यमिक स्तर पर मात्र 52.02 रह गया है।

इसमें कहा गया है, “2022 में, एसटी, एससी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कक्षा 1-8 के लिए प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति शैक्षणिक वर्ष 2022-23 में बंद कर दी गई थी।” 

इससे भी बुरी बात यह है कि उच्च शिक्षा में इन वर्गों के लिए विभिन्न छात्रवृत्तियां बंद कर दी गईं हैं। उदाहरण के लिए, 2022 में, मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय फ़ेलोशिप पर रोक लगा दी थी, जिससे उन्हें एम.फिल, पीएचडी आदि जैसी उच्च शिक्षा हासिल करने में मदद मिलती थी।

इसमें कहा गया है कि पेशेवर और तकनीकी पाठ्यक्रमों के लिए मेरिट-कम-मीन्स छात्रवृत्ति भी 2013-14 में 243 करोड़ रुपये से घटकर 2024-25 में केवल 33.80 करोड़ रुपये रह गई है।

उच्च शिक्षा में मामलों की खेदजनक स्थिति पर एक और टिप्पणी में, रिपोर्ट कार्ड ने लोकसभा में सरकार के जवाब पर एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सभी शिक्षण पदों में से 33 फीसदी पद खाली पड़े थे, जबकि 40 फीसदी शिक्षण पद आईआईटी में और 31.6 फीसदी और आईआईएम में खाली हैं।

शिक्षा पर खर्च बढ़ाने के मोदी सरकार के वादे को लेकर रिपोर्ट कार्ड कहता है कि कुल बजट परिव्यय के हिस्से के रूप में स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के लिए आवंटन, 2013-14 में 3.16 फीसदी से लगभग आधा होकर 2024-25 में केवल 1.53 फीसदी गया है। 

इसमें कहा गया है कि, "कुल बजट परिव्यय के हिस्से के रूप में उच्च शिक्षा विभाग के लिए आवंटन 2013-14 में 1.6 फीसदी से घटकर 2024-25 में 1 फीसदी हो गया है।" 

10 वर्षों में मोदी सरकार के एकमात्र सक्रिय कदम के रूप में शिक्षा का भगवाकरण दर्ज़ किया गया है जिसके बारे में बात करते हुए, एफएएन-इंडिया रिपोर्ट कार्ड में पाठ्यक्रम में विभिन्न बदलावों को नोट किया गया है, जैसे कि महात्मा गांधी की हत्या में हिंदुत्व संगठनों की भूमिका पर अध्याय और पैराग्राफ को हटाना, उसके बाद प्रतिबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की, एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों से 2002 में गुजरात सांप्रदायिक नरसंहार का संदर्भ हटाया गया है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि, “मुग़ल काल और भारत के मुस्लिम शासकों से संबंधित सामग्री को काफी कम कर दिया गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित समकालीन भारत में सामाजिक आंदोलनों में विकसित होने वाले विरोध प्रदर्शनों को रेखांकित करने वाले तीन अध्याय राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से 6 से 12 तक हटा दिए गए हैं। जाति भेदभाव, दलित कार्यकर्ताओं और कवियों के लेखन और धार्मिक सद्भाव से संबंधित विषयों पर पाठ हटा दिए गए हैं।''

याद करें कि 2023 में, एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश सकलानी को संबोधित एक पत्र में, जो पाठ्यपुस्तक विकास समिति का हिस्सा थे, लगभग 33 शिक्षाविदों ने वर्तमान पाठ्यपुस्तकों से उनके नाम हटाने की मांग की थी। यह कदम राजनीतिक वैज्ञानिकों योगेन्द्र यादव और सुहास पलशिकर द्वारा खुद को "तर्कसंगत" राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से अलग करने के कुछ ही दिनों बाद आया है।

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