शिक्षा और भगवाकरण की राजनीति
मोदी सरकार के आने के बाद ही शिक्षा के भगवाकरण की कवायद शुरू कर दी गई है। दीनानाथ बत्रा की किताबों को गुजरात के स्कूलों पढाया जा ही रहा था और अब उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की तैयारी है। संघ के नेता मानव संसाधन मंत्री के साथ मुलाकात कर रहे हैं और भाजपा के नेता रोमिला थापर जैसे इतिहासकार की किताबों को जलाने की अपील। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इतिहास बदलने की तैयारी है और सांप्रदायिक तनाव को चरम पर ले जाने के लिए शिक्षा का सहारा लिया जा रहा। प्रधानमंत्री ने इन सभी मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। इस फेरबदल और भगवाकरण की कोशिश के बारे में और जानने के लिए न्यूज़क्लिक ने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक अपूर्वानंद से बात की।
अपूर्वानंद - एन डी ए की पहली सरकार और इस सरकार में अन्तर है, एक अन्तर तो ये ही है की भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत इस प्रकार से है, इसलिए इसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार कहना गलत नही होगा, दूसरा की ये सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की है घोषित रूप से, भारत के इतिहास में पहली बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने घोषणा करके चुनाव में हिस्सा लिया, पहली बार ये हुआ है की पूर्ण बहुमत में हैं, इस आत्मविश्वास को भी समझने की आवश्यकता है इसलिए पहले जो असुरक्षा थी इस राष्ट्रवाद में, आने के बाद, सत्ता में भी आने के बाद जो असुरक्षा थी वो अब नही है, अब एक तरह का आश्वासन है की हम सत्ता में पक्के तौर पर कम से कम पाँच साल हैं अगर आप इसे ध्यान में रखें की एन डी ए वन में जो दूसरे दल थे उनका दबाव ज्यादा था और उनपे भारतीय जनता पार्टी निर्भर थी इसलिए भारतीय जनता पार्टी को बहुत सारे समझौते करने थे जो अब बिलकुल नही है, बढ़ा हुए आत्मविश्वास एक ऐसा चेहरा पैदा कर रहा है जो चेहरा उदार है, जो चेहरा हरबड़ी में नही है, जिसमे इन्तमिनान है, आपने शिक्षा की बात की थी जहाँ तक गुजरात का प्रश्न है दीनानाथ बत्रा की गुजरात में छपी किताबों का सवाल है उसमे भी ये कहा जा सकता है रक्षात्मक तौर पे की ये अनिवार्य पाठ्य पुस्तकें नही हैं, जो पूरय पाठ्य पुस्तकें हैं उनको स्वेक्षित तौर पर पढ़ा जा सकता है, लेकिन ये भी साथ में कहना चाहिये कि वो गुजरात के करदाता के पैसों से छपी किताबें हैं और उन किताबों की कमज़ोरी ये नही है की वो एक विशेष प्रकार राष्ट्रवाद प्रचारित कर रही हैं बल्कि वो बौद्धिक मानठंडो पर ठहरती नही हैं। तो ये बच्चों के साथ बहुत भारी अन्याय है, अगर शिक्षा नीति का अनुमान करना हो तो राष्ट्रपति के अभिभाषण को अगर आप दुबारा देखें तो उसमे दो घोषणा हुई थी, एक तो हम नई शिक्षा नीति बनाएंगे और उसके लिए शिक्षा आयोग बनाएंगे , उस शिक्षा आयोग का काम कहाँ तक पहुँचा इसकी अभी तक कोई ख़बर नही है, इस बीच ध्यान रखना चाहिए की कम से कम उच्च शिक्षा को लेकर यसपाल समिति अपनी रिपोर्ट दे चुकी थी जिसे यूपीए ने खुद लागू करने में काफी कोताही बरती इसलिए वो अब मृतप्राय हो चुकी हैं, प्रासंगिक हैं, लेकिन मृतप्राय हो चुकी हैं, तो वो घोषणा जो शिक्षा आयोग की थी, वो चार घोषणा इन चार महीनों में आगे नही खिसकी एक इंच भी, दूसरी घोषणा जो इन्होने राष्ट्रपति के अभिभाषण में की जो आश्चर्यजनक थी बल्कि हास्यास्पद कह सकते हैं वो ये थी की केन्द्र सरकार मैसिव ऑनलाइन ओपन कोर्स तैयार करे, अब ये राष्ट्र की शिक्षा नीति की घोषणा में आप ये कहे की केन्द्र सरकार मूक्स तैयार करवाएगी, इससे ये पता चलता हैं की हमारी शिक्षा नीति के बारे में ही सोच बहुत खन्डित है और कमजोर समझ हैं क्यूंकि मूक्स एक छोटी सी चीज है, अगर आप ये कह रहे हैं की ऑनलाइन शिक्षा के द्वारा हम भारत की उच्च शिक्षा में जो अपेक्षाऐं हैं आने वाले छात्रों की, उनको पूरा करने की, तो इसका मतलब की आपका उच्च शिक्षा की समस्याओं से परिचय नही है, जो ज्यादातर राज्य के विद्यालय में फैला हुआ है, जो भारी शिक्षाकर्मियों की कमी से जूझ रहा है, जिसके शिक्षक शोध नही कर पाते क्यूंकि उनके पास पर्याप्त संसाधन नही हैं ना ही उनके पास समय है ना उन्हें छुट्टी मिल पाती है, और शिक्षण का दबाव एक तरह के औसतपन को उत्पादित करने के लिए उनको लगातार बाध्य करता रहता है। जिसमे हम श्रेष्टता के लिए, श्रेष्टता की आकांक्षा नही कर सकते। हमे ऐसा लगता है की हम औसत के आस पास पहुँच जाएं इसी में सब की तसल्ली है तो अगर आप नीति की बात कर रहे हैं तो कोई नीति मुझे दिखाई नही पड़ रही।
नकुल -अगर नीति ना भी आई हो अगर हम एक ब्रोडली अनुमान लगाये क्या किसी दिशा में जाते नजर आ रहे हैं ये लोग ?अभी जैसे शिक्षा दिवस के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बोला की वो बच्चों को अड्रेस करना चाहते हैं और शिक्षा दिवस पर शिक्षकों की कोई बात नही हुई, उस पूरे भाषण में और वो खुद शिक्षक बनकर बच्चों से बात करने लगे और कॉन्ट्राक्टुअल टीचिंग के बारे में कोई मैंशन नही, टीचिंग सुविधाओं के बारे में कोई मैंशन नही, सिर्फ ऊपरी स्तर पर पर दिल को बहलाने का भाषण दे दिया गया, तो आपको लग रहा है कि किसी भी दिशा में जा रही है ये सरकार ?
अपूर्वानंद-विडंबना ये है की ये वक़्तव्य लाल कृष्ण आडवाणी का था जो अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुके हैं, जिन्होंने कहा था की आपको झुकने को कहा जाता हैं और आप रेंग रहे हैं, अभी तो झुकने को कहा नही गया है, शिक्षक दिवस के दिन एक बयान आया आधिकारिक बयान, हमने किसी को नही कहा कि ये अनिवार्य है फिर भी सी बी एस सी और दूसरी संस्थाओं ने इसको लगभग अनिवार्य करते हुए परिपत्र जारी किये और स्कूलों ने, कई स्कूलों ने इसे अनिवार्य किया। इसको कहते हैं भय को आप आपने अन्दर समा लेते हैं और एक आज्ञाकारी जनता में आप तब्दील हो जाते हैं। यह घटना इतने कम समय में होगी यह घटना उन लोगों के साथ होगी जो सबसे ज्यादा शिक्षित हैं ,इत्तिफ़ाक से ये चीज़ दिखाई पड़ रही है उस वर्ग के बीच जो सबसे अधिक शिक्षित है, और एक तरह से उसके पास शक्ति है, लेकिन यह वर्ग सबसे ज्यादा आज्ञाकारी वर्ग के रूप में काम करने को तत्पर है, तो यह एक बड़ी दुर्घाटना हुई है। इस देश के साथ या आप ये कह सकते हैं की ये दुर्घाटना हो चुकी थी और हमें संभवतया इस प्रकाश की आवश्यकता थी या इतने गहन अंधेरे की आवश्कयता थी ताकि ये हमें दिखाई पड़ सके की हमारे साथ ये हो चुका है। दूसरा इसका अर्थ ये भी है की हमारे यहाँ सांस्थानिक संस्कृति बहुत कमज़ोर है या संस्थायें बहुत जर्जर अवस्था में हैं इसलिए वो उत्तर नही दे पाती और वो स्वयं आपना महत्व नही समझ पातीं।मसलन विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं , साहित्य अकादमी स्वायत्त हैं, इसलिए अगर सरकार कुछ कह भी रही है वह उसका अनुपालन न करें तो उसे कोई नुकसान नही होगा या वो एक स्टैण्ड ले सकती हैं, ऐसा उसके ख्याल में ही नही आता इसका अर्थ ये है की हर संस्था ने आपने आपको राज्य के संस्था के रूप के रूप में तब्दील कर दिया हैं और सरकारी संस्था में तब्दील कर दिया है जो बहुत चिन्ता का विषय है।
नकुल - ये डरावना माहौल जरूर है लेकिन जिस तरह से आपने कहा की जब ये दौर गुजर जायेगा अगर ये दौर गुजर जायेगा, बात ये है की एक निराशा का दौर भी हो सकता है ये, लेकिन कहीं ना कहीं इस के ख़िलाफ़ आप जो कह रहे हैं प्रतिरोध की आवाज़े दब रहीं हैं खत्म सी होती नज़र आ रहीं हैं ख़ासकर ऐसे तबके में जो सबसे ज्यादा शिक्षित हैं, जिससे प्रतिरोध की उम्मीद थी, लेकिन फिर भी आगे का रास्ता खासकर आप जो प्रगतिशील आन्दोलन प्रगतिशील विचारधारा के साथ जुड़े हुए हैं, आप आगे का क्या रास्ता देखते हैं यहाँ से ? खासकर प्रगतिशील आन्दोलन के लिए, क्यूंकि ऐसा तो नही है की हथियार डाल के हार मानी जा सकती है इस दौर में ?
अपूर्वानंद- सामूहिक पहल और संघर्ष इनमे आशा है, और आशा व्यक्तियों में भी है, शिक्षा में भी है, मुझे जो सबसे दिलचस्प चीज़ लगती है जिसपर अब तक किसी का ध्यान नही गया है पिछले डेढ़ वर्षों में हास्य की वापसी। मैं इसे रिटर्न ऑफ़ ह्यूमर कहता हूँ, सिर्फ सोशल मीडिया के हवाले से कह रहा हूँ, अगर आप सोशल मीडिया को देख लें तो इतने तरीकों से लोग मज़ाक उड़ा रहे हैं, व्यंग कर रहे हैं। तस्वीरों का सहारा ले रहे हैं,पोस्टरों का सहारा ले रहे हैं, स्केचेस का सहारा ले रहे हैं, किसी के शेर का सहारा ले रहे हैं, मुझे इतना हास्य की अभिव्यक्ति पहले नही दिखाई पड़ी। मुझे लग रहा था की समाज बहुत गंभीर हो गया है लेकिन इतना ज्यादा हास्य और व्यंग है अगर इसको इकठ्ठा ही कर लिया जाये तो आपने आपमें ही कई किताबें हो जायेंगीं। इनसे पता चलेगा की प्रतिक्रिया करने की, आपने आपको व्यक्त करने की, ये दो चीजें हैं जिनके आधार पर प्रतिरोध कर रहे हैं, तो मैं ये मानता हूँ की अगर एक देश में हँसने की क्षमता बची है इसका मतलब प्रतिरोध की संभावना ख़त्म नही हुई है, इसलिए मेरे लिए निराश होने का कोई कारण नही है। इसके आलावा कोई उपाय नही है की लोग बोलते रहें, आकेले बोलें, समूह में बोलें, विश्लेषण करें, अपनी बात बताएं। हालाँकि एक शोर है जो सुनने न दे लेकिन आवश्यक ये है की आप दर्ज करें।
नकुल - न्यूज़क्लिक पर आने के लिए आपका धन्यवाद और आगे भी ऐसे मुद्दों पर आपसे चर्चा होती रहेगी।
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