राजस्थान: तथाकथित सुधारों की प्रयोगशाला
केंद्र में राजनैतिक बदलाव के बाद लगातार आर्थिक सुधारों के नाम पर काफी हलचल देखने को मिली है। जिसके तहत सरकार ने अनेक क्षेत्रों में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने और नियमों में बदलाव की मानो झड़ी सी लगा दी। रक्षा क्षेत्र में ४९ और रेलवे में बुनियादी ढांचे को विकसित करने हेतु १०० प्रतिशत विदेशी निवेश को मंज़ूरी, उदहारण के तौर पर हमारे सामने मौजूद हैं । साथ ही केंद्र सरकार ने अपरेंटिसशिप अधिनियम, फैक्ट्री लॉ और इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट में बड़े बदलाव किए हैं जो मुख्यतः मज़दूर विरोधी हैं और साथ ही बड़े पूंजीपतियों को लाभ पहुचाने वाले भी। पर यह बदलाव अचानक लाए गए हैं, यह मान लेना सरासर गलत होगा। इन “तथाकथित” सुधारों की प्रयोगशाला काफ़ी पहले राजस्थान की भाजपा सरकार द्वारा तैयार कर ली गई थी । आज केंद्र जो भी बदलाव कर रहा है, वह तो मात्र उस रूपरेखा का सरल अनुसरण है । इस पूरी योजना को सुनियोजित ढंग से अमल में लाया गया जिसकी शुरुआत मूलभूत क्षेत्रों में बदलाव लाकर की गई।
मजदूरों के लिए अच्छे दिन कहाँ?
प्राथमिक क्षेत्र और बदलाव
आर्थिक सुधार के नाम पर सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रह रहे व्यक्तियों को मिलने वाले खाद्य पदार्थों पर छूट को कम कर दिया है। पहले हर परिवार को जहाँ 35 किलो राशन १ रूपए प्रति किलो के हिसाब से मिलता था, अब २५ किलो राशन २ रूपए के मूल्य पर मिलेगा। परिणामस्वरुप लगभग 38 लाख व्यक्ति इससे प्रभावित होंगे। साथ ही गेहूं और धान पर प्रति क्विंटल मिल रहे १५० रूपए के बोनस को भी बंद करने का फैसला लिया गया है। ताजुब की बात यह है कि एक तरफ जब ३० लाख टन से अधिक अनाज खुले स्थानों में पड़ा सड़ रहा है, सरकार बचाव कदम के तौर पर ऐसे जन-विरोधी फैसले ले रही है । साथ ही यह भी सुनने में आया है कि राजस्थान की भाजपा सरकार शिक्षा के क्षेत्र में अमूलचूक परिवर्तन लाने की तैयारी कर रही है, जिसमे २८,००० प्राथमिक विद्यालयों को बंद करना शामिल है। इस प्रक्रिया से इन विद्यालयों में काम कर रहे ५०,००० से अधिक “विद्यार्थी मित्र” को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ेगा । अंतर्विरोध तो मानो इस सरकार के लिए आम बात है, एक तरफ ये नए रोजगार लाने की बात कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ मौजूद नौकरियां ख़त्म भी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही । राजस्थान सरकारी शैक्षणिक संस्थानों के मामले में पहले से ही काफी पीछे था। निजी संस्थानों की ऊँची फीस वैसे ही बहुमत की पहुँच के बाहर होती है, और अब इन सरकारी संस्थानों का बंद होना, इस वर्ग के लिए दोहरी मार सिद्ध होगा। अगर इन सभी “सुधारों” को गौर से देखा जाए, तो यह सरकार द्वारा सार्वजनिक व्यय में कटौती की ओर संकेत करते हैं ।
देश की आर्थिक नीतियों में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की क्या जगह?
पुराने कानून, “नए सुधार”
हाल ही में केंद्र सरकार ने “अच्छे दिन” लाने के लिए नीतियों में जो अनेक बदलाव किए हैं उनकी शुरुआत राजस्थान में कुछ महीने पहले ही हो गई थी । फिर चाहे वह अपरेंटिसशिप अधिनियम में किए गए बदलाव हो या फैक्ट्री लॉ में । श्रम कानूनों में सबसे बड़ा बदलाव लाते हुए राजस्थान सरकार ने छंटनी की सीमा १०० से बढाकर ३०० कर दी है। अर्थात पहले किसी भी कारखाने के मालिक को १०० से अधिक मज़दूरों को नौकरी से हटाने के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी, जो संख्या 3०० कर दी गई है। सरल शब्दों में कहा जाए तो मज़दूरों की चट भर्ती और पट छंटनी। एक तरफ यह बदलाव जहाँ कारखाना मालिकों को खुली छूट देगा कि वे जब चाहे मज़दूरों को काम से निकाल सकें, वहीँ दूसरी तरफ यह मज़दूरों को भी कारखाना मालिक की हर बात मानने पर मजबूर करेगा। फिर वो न्यूनतम वेतन से कम पर काम करने का आदेश ही क्यूँ न हो। साथ ही अपरेंटिसशिप अधिनियम में बदलाव लाते हुए भाजपा सरकार ने खुद शासन को यह ताकत दे दी है कि वह निर्धारित कर सके किस कारखाने में कितने व्यक्ति प्रशिक्षण लेंगे। साथ ही उन्होंने अनेक और क्षेत्रों को भी खोल दिया है जहाँ अपरेंटिस भर्ती किए जा सकते हैं। अब कारखानों के मालिक अनेक श्रमिक अपरेंटिस के नाम पर रख सकते हैं , जिनका वेतन सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन होगा। मतलब कम दाम में कुशल कारीगर। और तो और अगर यह संख्या २५० से ऊपर जाती है तो इस वेतन का ५०% सरकार देगी। इस तरह एक तीर से दो निशाने लगाये जा रहें हैं। एक तरफ पूंजीपतियों का मुनाफ़ा बढेगा, दूसरी तरफ सरकार कम खर्च करके नए रोजगार उपलब्ध कराने का दंभ भी भर सकेगी। और भी अनेक बदलाव इस शासनकाल में लाए गए हैं जिसमे कॉन्ट्रैक्ट श्रम कानून के तहत उन्ही कंपनियां को लाना जहाँ मजदूरों की संख्या ५० से अधिक है भी शामिल है । अभी यह संख्या २० है।
प्रतिरोध के स्वर का दमन
इन बदलावों के साथ, राजस्थान सरकार ने प्रतिरोध के स्वर दबाने के भी कदम उठाये थे, जो अब केंद्र सरकार अपना रही है। इसमें मज़दूर संगठनो के दायरे को सीमित करना भी शामिल है। जहाँ पहले कोई भी संगठन बनाने के लिए उस कारखाने के १५% मज़दूरों की ज़रूरत होती थी, वही अब ये सीमा ३० % कर दी गई है। इस “सुधार” के बाद श्रमिको के पास संगठन बनाने की ताकत कम हो जाएगी और परिणामस्वरुप न तो वे न्यूनतम वेतन मांग सकेंगे, न ही मूलभूत सुविधाएँ। ध्यान दिया जाए तो क्रमशः एक तरफ फ़ैक्ट्री मालिकों को अधिक छूट और दूसरी तरफ श्रमिको के अधिकारों का हनन साफ़ देखने को मिल रहा है।
अगर एनएसएसओ के आकड़ें पे ध्यान दिया जाए तो राजस्थान में हर १००० में से ९५७ मज़दूर सुरक्षित रोज़गार नहीं पा रहे और ९८८ मजदूर भुगतान की छुट्टी पाने का अधिकार भी नहीं रखता ।अगर अभी हालात इतने दयनीय हैं तो इन सुधारो के बाद के हालात का अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा। अब यही सुधार “अच्छे दिनों “ की कल्पना को पूरा करने के लिए केंद्र में भी लागु किए जा रहे हैं। पर यह “अच्छे दिन” मेहनतकश वर्ग के लिए तो नही ही हैं, यह बात पूरी तरह साफ़ है ।
डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।
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