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बीजिंग विश्व महिला सम्मेलन के 25 वर्ष : कहां खड़े हैं हम?

आज हम एक ऐसे पड़ाव पर आ खड़े हुए हैं जहां महिलाओं को सबसे अधिक ज़रूरत है बराबरी के लिए आवाज़ उठाने की।
बीजिंग विश्व महिला सम्मेलन के 25 वर्ष : कहां खड़े हैं हम?
फोटो साभार: news.un.org

बीजिंग के चौथे विश्व महिला सम्मेलन को हुए अब 25 वर्ष पूरे हो गए। 4 से 15 सितम्बर तक विश्व के 189 देशों ने इस सम्मेलन में बहस-बातचीत कर बीजिंग डिक्लरेशन एण्ड प्लैटफॉर्म ऑफ ऐक्शन (Beijing Declaration and Platform of Action) को 15 सितम्बर को पारित किया था। यह इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि इस सम्मेलन में 17,000 महिलाओं ने सक्रिय हिस्सेदारी की, करीब 30,000 कार्यकर्ता व प्रतिनिधि उपस्थित हुए और भारत से भी 500 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। आज वक्त आ गया है कि हम मूल्यांकन करें कि 25 साल बाद महिलाएं आज कहां खड़ी हैं।

आज हम एक ऐसे पड़ाव पर आ खड़े हुए हैं जहां महिलाओं को सबसे अधिक जरूरत है बराबरी के लिए आवाज़ उठाने की। सबसे पहले तो 2020 में यू एन जनरल एसेम्ब्ली (UN General Assembly) ने इसी बात पर ज़ोर दिया है कि बीजिंग सम्मेलन की रजत जयंती को विश्व भर में मनाने के लिए 1 अक्टूबर को यू एन जेनरल एसेम्ब्ली की एक उच्च स्तरीय बैठक होगी। यह बैठक एसेम्ब्ली के 75वें सत्र के साथ-साथ आयोजित की जा रही है। इससे पहले, 21 जुलाई को हुई बहु-हितधारक सुनवाई (Multi -stakeholder  hearing) की रिपोर्ट जारी कर दी जा चुकी है, जिसका शीर्षक है ‘‘लैंगिक बराबरी हासिल करने की प्रक्रिया को तेज़ करना व समस्त महिलाओं और किशोरियों का सशक्तिकरण’’।

रिपोर्ट में सबसे पहले इस बात पर जोर दिया गया है कि कोविड-19 महामारी ने खुलासा किया है कि 25 वर्षों की मेहनत के बाद भी लैंगिक असमानताएं महिलाओं व लड़कियों के सतत सामाजिक-आर्थिक स्थिरता हासिल करने के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी हैं। महामारी की वजह से औरतों व बच्चियों पर हिंसा बढ़ी है और उनपर अवैतनिक घरेलू कार्य व देखभाल के काम का बोझ बढ़ गया है। परिवारों में पति द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। महिला श्रम शक्ति के अधिकार छीने जा रहे हैं तो उसके प्रति अन्याय बढ़ा है। बहुत सारी महिलाओं व बच्चों को विस्थापित होना पड़ा है क्योंकि उनका रोजगार समाप्त हो गया है। इस महामारी के दौर में एक और बात उजागर हुई है कि महिलाओं को मिल रही स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, खाद्य, वित्तीय व अन्य उत्पादक सम्पत्ति में भारी गैप है। यह भी पता लगा है कि विश्व भर में महिलाओं और लड़कियों को भारी आर्थिक असुरक्षा और संसाधनों के अभाव से जूझना पड़ रहा है। इसके अलावा उन्हें व्यापक बेरोज़गारी व जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी झेलना पड़ रहा है, जो उनके जीवन को और भी कठिन बना देता है। फिर, संस्थाबद्ध तथा ढांचागत लिंगवाद ने महिलाओं को वंचित रखा है।

इसके बावजूद महिला नेताओं ने संकट प्रबंधन में अपनी अग्रणी भूमिका स्वास्थ्य क्षेत्र से लेकर राष्ट्रीय खाद्य वितरण के क्षेत्र में बखूबी निभाई है। उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर फ्रंटलाइन वर्करों और मानवता के लिए काम करने वालों की भूमिका निभाई है। इसलिए उन्हें बराबरी और न्याय अवश्य मिलना चाहिये। कोविड-19 के प्रति हमारी प्रतिक्रिया में और इस महामारी से उबरने की प्रक्रिया में भी लैंगिक बराबरी और महिलाओं व लड़कियों के मानवाधिकारों को मूलभूत मुद्दा बनाना होगा।

इस बात का उल्लेख किया गया है कि यूएस से लेकर फिलिपीन्स, रूस, ब्राज़ील सहित कई देशों में सर्वसत्तावादी नेताओं का दबदबा है और ये पुरुष स्वाधिकार व वर्चस्व की विचारधारा की वकालत करते हैं और महिलाओं की आवाज़ को दबाते हैं तथा उनका सामाजिक अवमूल्यन करते हैं। यह सांस्कृतिक प्रतिक्षेप (cultural backlash), जिसका मकसद है आधी आबादी की क्षमता को खत्म करना, हमारे विकास को अवरुद्ध कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।

रिपोर्ट के दूसरे भाग में परिवर्तन के लिए 5 उत्तोलकों (levers) का उल्लेख है। वे हैं:

1. लैंगिक मापदंडों को दोबारा स्थापित करना, 2. कानून और व्यवहार के बीच अंतर को पाटना, 3.लैंगिक बराबरी के विरुद्ध प्रतिक्षेप का मुकाबला करना, 4. लोकतांत्रिक समावेश और जवाबदेही बढ़ाना, 5. तकनीक का प्रयोग करना

इस रिपोर्ट के तीसरे भाग में रणनीति तैयार करने के कुछ तरीके सुझाए गए हैं जिनके माध्यम से तमाम विषमताओं को दूर किया जा सकता है। ये सात स्तम्भ हैं:

1.महिलाओं के, खासकर जमीनी स्तर पर कार्यरत महिलाओं व संगठनों के समूहिक पहल को समर्थन दें

लइबीरिया की महिलाओं की हड़ताल, जलवायु परिवर्तन ऐक्टिविस्ट ग्रेटा थुनबर्ग के संघर्ष और ‘मीटू’ आंदोलन ने दिखाया है कि महिलाएं एकताबद्ध हो जाएं तो बड़े परिवर्तनों को अंजाम दे सकती हैं। पर महामारी के इस दौर ने उनके प्रयासों को प्रभावित किया है। दूसरी बात है कि स्थानीय स्तर पर ये महिलाएं अपने समुदाय की जरूरतों को बहुत बेहतर जानती हैं। पर उनकी पहुंच उच्च स्तर पर बैठे नीति-निर्धारकों तक नहीं है। इसलिए जरूरी है कि इन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, शान्ति वार्ताओं, विकास कार्यक्रमों और संसाधनों के आवंटन में शामिल किया जाए।

2. युवा नेतृत्व को पहचानें और उसे प्रोत्साहित करें

यह देखा जा रहा है कि युवा वर्ग में असीम संभावनाएं छिपी हुई हैं, पर उसे पहचाना नहीं जा रहा, न ही उन्हें सीखने और आगे बढ़ने के मौके दिये जा रहे। आज जरूरी हो गया है कि उनके सपने, उनकी आकांक्षाएं देश की नीतियों में प्रतिबिंबित हों। बदलाव की दिशा में युवाओं को अग्रिम पांत में खड़ा होना है तो उनपर निवेश बढ़ाना होगा। युवा वर्ग की ऊर्जा और अदम्य साहस को हमने कई कार्यवाहियों में देखा है, मस्लन जलवायु परिवर्तन के सवाल पर, लैंगिक हिंसा के प्रश्न पर या रंगभेद के सवाल पर। उन्हें प्रोत्साहित करना होगा कि वे राष्ट्रीय कार्यक्रमों को तैयार व लागू करें, वे युवाओं के सलाहकार समूहों का निर्माण करें और नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में हिस्सा लें।

3. न्याय के लिए अंतर्विषयक मांगों पर जोर दें

4.  शक्तिशाली पुरुषों और परंपरागत प्राधिकारियों को साथ लें

अभी भी पुरुष समाज में उच्च पदों पर काबिज हैं और शक्तिशाली भी हैं। यदि ये अपनी शक्ति का इस्तेमाल महिला हित व अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए करें तो महिलाओं के संघर्ष को बल मिलेगा। इसी तरह से समुदाय के सम्मानित नेताओं व धार्मिक नेताओं का समर्थन मिले तो समाज में महिला अधिकारों को मान्यता मिलने में आसानी होगी।

5. एक प्रमुख सहयोगी के रूप में निजी क्षेत्र को गतिशील बनाएं

6.  इक्विटी (equity) के लिए बहुपक्षीय समर्थन को बढ़ाएं और उसमें सुधार लाएं

सही मायने में कहा जाए तो पूरे विश्व को कोविड-19 महामारी और आर्थिक मंदी की वजह से भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लैंगिक असमानता खत्म करना किसी एक संगठन या एजेन्सी का का काम नहीं है। इसके लिए बहुपक्षीय समर्थन को बढ़ाना होगा। खासकर संयुक्त राष्ट्र को समग्र लैंगिक समानता वाले ढांचे विकसित करने और नीतियों को लागू करने के मामले में नेतृत्व करना होगा

7.बेहतर डाटा तक पहुंच का विस्तार करें

ग्लोबल हेल्थ 50/50 के एक सर्वे से पता चला है कि 106 में से 23 देशों के पास कोविड संक्रमण का लिंग-आधारित डाटा उपलब्ध नहीं है। यह भी देखा गया है कि अश्वेत, आदिवासी, गरीब और वृद्ध महिलाओं को हर तरह से अधिक परेशानी झेलनी पड़ती है। इसलिए गरीबी, जाति, उम्र, वैवाहिक स्थिति के अनुसार डाटा एकत्र किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। सेल्फ एम्प्लाएड विमेन्स ऐसोसिएशन ऑफ इंडिया (self-employed women’s association of India) की अध्यक्ष रीमा नानावति का कहना है कि यदि महिलाओं के पास यह डाटा उपलब्ध होगा तो वे अपने भविष्य की योजनाएं बेहतर तरीके से बनाएंगी और लागू भी कर सकेंगी।

रिपोर्ट में एक चौंकाने वाला आंकड़ा पेश किया गया कि 1995-2019 में श्रम शक्ति में हिस्सेदारी के मामले में वैश्विक लैंगिक विषमता 36 प्रतिशत के आसपास ही रही है। कोविड संक्रमण इसे और भी बढ़ा सकता है। मकिन्ज़ी ऐण्ड कम्पनी के एक मूल्यांकन के अनुसार यदि हम कामकाज में लैंगिक समानता हासिल कर लें तो ग्लोबल जीडीपी कम-से-कम 28 खरब डॉलर तक पहुंच सकता है। इस दौर में यूएस की महिलाएं भारी पैमाने पर बेरोजगार हुई हैं, पर काली महिलाओं (17 प्रतिशत) और लातिनी महिलाओं (19 प्रतिशत) की बेरोजगारी दर सबसे अधिक हैं। विकासशील देशों में अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। मध्य पूर्व के देशों और अफ्रीका में शिक्षा और रोजगार में कोई सामंजस्य नहीं है क्योंकि आर्थिक अवसरों में भारी कमी आई है। वैतनिक काम की बात करें तो पुरुषों की हिस्सेदारी महिलाओं से दुगुनी है। और, अवैतनिक काम में महिलाओं का हिस्सा पुरुषों की अपेक्षा तीन गुना है।

फिर यदि हम बिना शिक्षण, प्रशिक्षण और रोजगार वाली युवा महिलाओं को लें तो वे 2018 में वैश्विक स्तर पर 30 प्रतिशत थीं और पुरुष केवल 13 प्रतिशत थे। दक्षिण एशिया में ऐसी युवा महिलाएं 54 प्रतिशत हैं जबकि युवा पुरुष केवल 10 प्रतिशत हैं। सबसे बुरी स्थिति अफगानिस्तान, इराक और यमन की युवतियों की है-65 प्रतिशत से अधिक! माली, नाइजर और दक्षिण सुडान जैसे देशों में, जहां लड़कियों का स्कूल में दाखिला सबसे कम है, महामारी के कारण 40 लाख छात्राएं स्कूली शिक्षा से बाहर हो गई हैं। मलाला फंड का आंकलन है कि महामारी के चलते 1 करोड़ लड़कियां माध्यमिक शिक्षा से वंचित हो जाएंगी। और सबसे अधिक चिंता की बात है कि सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट के एक सर्वे से पता चला कि स्कूल के बाहर होने वाली लड़कियों पर लैंगिक हिंसा कई गुना बढ़ जाएगी।

दूसरी ओर कृषि क्षेत्र में, जहां महिलाओं के एक बड़े हिस्से को अनौपचारिक श्रम में लगाया जाता है, रोजगार 1995 में 41 प्रतिशत से 2019 में घटकर 27 प्रतिशत रह गया है। कोविड की वजह से महिला-रोजगार-प्रधान क्षेत्रों को भारी धक्का लगा है क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन जैसे कदम उठाए गए। इनमें खुदरा व्यापार, मॉल  और सौंदर्य उद्योग उल्लेखनीय हैं। दूसरी ओर महिला स्वास्थ्यकर्मी, सफाईकर्मी और ग्रोसरी स्टोर में काम करने वाली महिलाएं अपनी जान जोखिम में डालकर काम करने को बाध्य हैं।

महामारी की वजह से 118 देशों में मातृत्व मृत्यु दर में केवल 6 महीनों में 40 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी यानी 56,700 अधिक माताओं की मृत्यु होगी, क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं और बेरोजगारी के चलते खाद्य संकट बढ़ गया है। रिपोर्ट में कहा गया कि महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में बहुत कम देश 40 प्रतिशत तक पहुंच पाए। केवल 15 देशों में महिला शीर्ष स्थानों पर पहुंच सकी हैं पर यह संख्या 2018 के 18 देशों के आंकड़े से 3 कम है। अन्य उच्च पदों पर भी महिलाएं नाम-मात्र की हैं। जैसे यूएस में व्हाइट हाउस करोनावायरस टास्क फोर्स के 27 सदस्यों में 2 महिलाएं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोविड-19 आपातकालीन समिति में 31 सदस्य हैं जिनमें एक-तिहाई से कम महिलाएं हैं। युद्ध और संघर्ष के क्षेत्रों में महिलाओं को सबसे अधिक संकट औरतों को ही झेलना पड़ता है। फिर भी शान्ति प्रक्रियाओं और सुरक्षा-संबंधित मामलों में 9 प्रतिशत औरतें औपचारिक मध्यस्तता करती हैं और 2.4 प्रतिशत मध्यस्तता में प्रमुख भूमिका में होती हैं। जलवायु परिवर्तन भी महिलाओं के जमीन व प्राकृतिक संसाधनों पर हक को प्रभावित कर रहा है। इससे महिलाओं की आजीविका और खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ा है। यद्यपि महिलाएं पर्यावरण रक्षा और क्लाइमेट ऐडवोकेसी में अग्रणी रहीं, उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता। यूएनएफसीसीसी के तहत बने 15 संगठनों में से केवल क्योटो प्रटोकोल और पैरिस समझौते में लैंगिक बराबरी है।

यह उल्लेखनीय है कि आज विश्व स्तर पर महिलाओं पर बढ़ती हिंसा को मानवाधिकारों का हनन तथा शान्ति और सुरक्षा के लिए खतरा माना जा रहा है। यूएन सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध भी काफी हद तक हिंसा की रोकथाम में कारगर साबित हो सकते हैं, यदि उन्हें सही ढंग से लागू किया जाए। कट्टरपंथी संगठन, सर्वसत्तावादी सरकारों और पुरुषों की ओर से महिलाओं की बराबरी की लड़ाई के विरुद्ध प्रतिक्षेप आ रहा है। वे परंपरागत मूल्यों के नाम पर महिला आजादी का विरोध करते हैं। यह भी एक बड़ी चुनौती है।

यद्यपि रिपोर्ट ने महिलाओं को आगे बढ़ाने और सशक्त बनाने में सिविल सोसाइटी की भूमिका और सरकार तथा निजी संस्थाओं का जिक्र किया है, राजनीतिक दलों के महिला संगठनों, किसान व मजदूर संगठनों की भूमिका का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया, जबकि संसद में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की बात हो, निर्भया आन्दोलन रहा हो या देश भर में आदिवासियों, मजदूरों व किसानों व छात्रों के संघर्ष हों, इन्हें वाम दलों ने नेतृत्व दिया है और इन सभी में महिलाएं अग्रिम पांत में रही हैं।

भारत ने 2015 में बीजिंग डिक्लरेशन ऐण्ड प्लैटफॉर्म ऑफ एक्शन को देश में लागू करने के मामले में जो प्रगति की है, उसपर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है। कुछ उपलब्धियां जिन्हें गिनाया गया, वे थीं-महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की स्थापना, आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013, कार्यस्थल पर यौन हिंसा निरोधक कानून 2013, घरेलू हिंसा निरोधक कानून 2005, वर्मा रिपोर्ट के बाद आईपीसी में नई धाराएं, बाल विवाह निरोधक कानून 2006, पीसी ऐण्ड पीएनडीटी कानून में संशोधन, हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005, निजी कानून संशोधन अधिनियम 2010, पोक्सो अधिनियम 2012, महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु तमाम राष्ट्रीय योजनाएं, आईसीडीएस, जेंडर बजेटिंग, 2001 में महिला सशक्तिकरण के लिए बनी राष्ट्रीय नीति, स्टेटस ऑफ विमेन (status of women) पर उच्च-स्तरीय समिति आदि।

भारत में महिलाओं की प्रगति के रास्ते में जो प्रमुख बाधाएं स्वीकार कर गिनाई गई हैं उनमें परम्परागत रूढ़ियां, सामाजिक-सांस्कृतिक रोड़े, महिलाओं की निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति, महिलाओं के प्रति भेदभाव व उत्पीड़न, कानूनी जानकारी का अभाव तथा नीतियों व तंत्र के लागू न होने की समस्या। इसके अलावा गरीबी, निरक्षरता, रोजगार की समस्या, शिक्षण-प्रशिक्षण का अभाव, संपत्ति व संसाधनों पर अधिकार का न होना, मीडिया और सूचनाओं तक पहुंच का अभाव, बेटियों के प्रति भेदभाव, महिलाओं व बच्चियों पर हिंसा कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनपर तत्काल काबू पाया नहीं जा सका है। सरकार का वायदा है कि इन्हें कानूनों और योजनाओं के जरिये हस्तक्षेप कर हल करेगी। वैश्विक स्तर पर भी भारत अन्य देशों के साथ मिलकर महिला सशक्तिकरण की दिशा में काम कर रहा है। वह कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों में हस्ताक्षर भी कर चुका है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने लैंगिक विकास सूचकांक और लैंगिक सशक्तिकरण माप तैयार करने का कार्य भी 2007 में लिया था। एक तकनीकी सलाहकार समिति का निर्माण भी किया गया। पर यह सच्चाई है कि भारत लैंगिक विकास सूचकांक के मामले में 189 देशों के बीच 128वें स्थान पर था; केरल व महाराष्ट्र की स्थिति सबसे उन्नत थी जबकि बिहार व उत्तर प्रदेश की सबसे निम्न। लैंगिक बराबरी सूचकांक के मामले में भी भारत 129 देशों में 95वें स्थान पर था।

लैंगिक सशक्तिकरण के माप की जहां तक बात है, भारत 128वें स्थान पर था; आंध्र प्रदेश व हिमाचल प्रदेश के माप सबसे उन्नत व बिहार व ओडिशा के सबसे निम्न हैं। ये आंकड़े साबित करते हैं कि भारत अभी भी तमाम पहलकदमियों और योजनाओं के बावजूद काफी पीछे चल रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में भारत महिलाओं के लिए काफी असुरक्षित देश बन गया है; महिला, शान्ति व सुरक्षा सूचकांक के मामले में भारत का स्थान 167 देशों में 133वां रहा है। भारत का भूख सूचकांक उसे 117 देशों में 102वें स्थान पर पहुंचा चुका है, जो सन् 2000 की स्थिति से बेहतर तो है पर महिलाओं व बच्चों की स्थिति काफी बदतर है। 51.4 प्रतिशत महिलाएं रक्ताभाव से ग्रसित हैं और 1-5 वर्ष के बच्चों में 38.4 प्रतिशत बच्चे बौनेपन के शिकार हैं। भारत ने अपनी रिपोर्ट में लैंगिक असमानताओं की बात तो स्वीकार की है पर यह कहा कि भारत में कोई सशस्त्र संघर्ष नहीं चल रहा है। भारत में आफस्पा कानून के तहत और अनुच्छेद 370 के खत्में के बाद की स्थितियों पर बात होना जरूरी है क्योंकि इनके कारण महिलाओं के साथ जो उत्पीड़न हुआ है उसकी कल्पना करना मुश्किल है।

इसी तरह भूमि अधिग्रहण कानून से महिलाओं की जो तबाही हुई है और संघर्षों में उनका जो दमन हुआ है, उसपर भी चर्चा आवश्यक है। साथ ही यूएपीए के तहत हो रहे महिला एक्टिविस्टों के उत्पीड़न पर बातचीत भी जरूरी है।

बीजिंग सम्मेलन में जिन 12 प्रमुख बिंदुओं को चिन्हित कर विभिन्न देशों से रिपार्ट मांगी गई कि पिछले 20 वर्षों में इन बिंदुओं पर सरकार ने क्या काम किया, उनपर बहस होगी और 20 साल की उपलब्धियों का मूल्यांकन करते हुए कमजोरयों को पुनः चिन्हित किया जाएगा व आगे की दिशा तय की जाएगी। समस्त महिला संगठनों को इस रिपार्ट पर आंतरिक बहस करनी चाहिये और महत्वपूर्ण मुद्दों को चिह्नित करना चाहिये।

(कुमुदिनी पति एक महिला एक्टिविस्ट और स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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