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CAA प्रदर्शन : उत्तरप्रदेश की ख़ास रिपोर्टों का एक समग्र ब्योरा

हाल के सप्ताहों में उत्तरप्रदेश में मुस्लिम आबादी को सरकारी बर्बरता, आगज़नी, तोड़फोड़, सांप्रदायिक प्रताड़ना और हत्याओं की मुहिम का शिकार होना पड़ा है।
CAA प्रदर्शन
तस्वीर सौजन्य : National Herald

हाल के दिनों में उत्तरप्रदेश की मुस्लिम आबादी को बर्बरता, आगजनी, तोड़फोड़, सांप्रदायिक प्रताड़ना और हत्याओं की सरकारी मुहिम का शिकार होना पड़ा है। प्रशासन के तमाम झूठ और इंटरनेट शटडाउन के चलते इन अत्याचारों के बारे में हम पूरी तरह पता नहीं लगा सकते। जानकारी लीक, खुलासों और नागरिक समूहों द्वारा बनाई गई रिपोर्ट समेत मौतों का बढ़ता आंकड़ा ही इस कट्टरता औऱ इसकी ज़िम्मेदार सरकार के पूरी तरह विफल होने की कहानी को बयां करता है।

15 दिसंबर को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस हमले को हमने कवर किया था। यहां न्यूज़क्लिक रिपोर्ट को पढ़ें। 9 दिसंबर के बाद यूनिवर्सिटी गेट पर आरएएफ़ की एक टुकड़ी की पोस्टिंग कर दी गई है। बता दें 9 दिसंबर को ही लोकसभा ने नागरिकता संशोधन विधेयक पास किया था। ऊपर से बिना शिक्षकों और छात्रों की जानकारी के कैंपस में धारा 144 लगा दी गई है। आख़िर किसी विरोध प्रदर्शन के पहले ही इस तरह के प्रतिबंधात्मक क़दम क्यों उठाए गए थे? यह क्या दर्शाते हैं? क्या केंद्र और राज्य सरकार जानती थीं कि एक अन्यायपूर्ण क़ानून बनाया गया है, जिसका विरोध किया जाएगा? या नागरिकता संशोधन विधेयक को पास करने के बाद जामिया और एएमयू को नष्ट करने की कोई साज़िश थी? क्या सरकार किसी आने वाले विवाद के लिए तैयारी कर रही थी या खुद एक विवाद को भड़का रही थी? सरकार का ग़ैर-क़ानूनी व्यवहार क्या दर्शाता है। क्या वह राष्ट्रव्यापी मुस्लिम विरोधी भावना के उमड़ने का अनुमान लगा रही थी, जैसा कश्मीर के विशेष दर्जे के ख़ात्मे के साथ हुआ था? कविता कृष्णन ने मुज़फ़्फरनगर और मेरठ से लौटकर बहुजन टीवी से बात की। उन्होंने बताया कि जिस तरीक़े से पीएसी, आरएएफ़ और पुलिस ने लोगों के घरों में घुसकर तोड़-फोड़ की है, उन स्थिति में आज उत्तरप्रदेश के हालात कश्मीर की याद दिलाते हैं। इन घरों में सिवाए दीवार के कुछ नहीं बचा। वर्दीधारियों ने मुस्लिमों से कहा कि यह सब तो होना ही था, नागरिकता के साथ-साथ उनकी संपत्ति भी छिन ही जाती। यहां देखिए इंटरव्यू।

यहाँ पिछले तीन हफ़्तों की न्यूज़ स्टोरीज़ हैं। इनमें एएमयू पर हमले से लेकर उत्तरप्रदेश में राज्य द्वारा आतंक फैलाने की घटनाएं शामिल हैं।

  • 19 दिसंबर को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ और संभल के प्रदर्शनकारियों से बदले की बात कही। इसी दिन राज्य भर में सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को भी ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया। इसके बाद पुलिस ने मुस्लिमों को आतंकित करना शुरू कर दिया। 23 दिसंबर को न्यूज़क्लिक की इस रिपोर्ट में एक पूर्व सिविल सर्वेंट और उनकी पत्नी के ऊपर रामपुर में हुए हमले की पुष्टि की गई। इसमें कुछ बेहद व्यथित करने वाले वीडियो औऱ अत्याचार की गवाहियां भी हैं, जो उस वक़्त तक साबित नहीं हो पाई थीं। इस रिपोर्ट में मुज़फ़्फरनगर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध के दौरान जिन लोगों पर तोड़फोड़ करने का शक था, उनकी संपत्ति नीलाम करने के योगी सरकार के फ़ैसले का भी ज़िक्र है। साथ ही एक्टिविस्ट सदफ़ जाफ़र की गिरफ़्तारी की भी बात का उल्लेख है। यह सभी तस्वीरें, आने वाले हफ़्तों में आई रिपोर्ट्स में ज़्यादा भयावह तरीक़े से सामने आईं। 

 

  • बेल मिलने के बाद सदफ़ जाफ़र ने बताया, ''उन लोगों ने मेरी पिटाई की। मुझे भद्दी-भद्दी गालियां दीं, जो आप लिख भी नहीं सकते। उन्होंने मुझे खाने और पानी से तक दूर रखा। मैं बीजेपी सरकार का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं, अब मैं जानती हूं कि कोई किस हद तक अमानवीय हो सकता है।'' आदित्यनाथ द्वारा बदले की बात कहने वाले दिन ही सदफ़ जाफ़र की गिरफ़्तारी हुई थी, इसके अगले तीन हफ़्तों तक वे जेल में थीं। जाफ़र के अनुभवों पर हफ़पोस्ट में बेतवा शर्मा का आर्टिकल पढ़िए। इसमें उन्होंने जाफ़र पर हुए शारीरिक और शाब्दिक अत्याचारों को बताया है। आर्टिकल में बताया है कि कैसे व्हाट्सएप का नफरत का जाल डॉक्टरों को तक प्रभावित करने में कामयाब रहा। कैसे सदफ़ ने इन सबसे जंग लड़ी। जाफ़र की रिहाई के दिन ही एक पूर्व आईपीएस और बीजेपी सरकार के आलोचक एस आर दारापुरी को भी बेल मिली। उन्होंने बताया, ''मैं 32 साल तक पुलिस में था। मैंने कभी इतनी क्रूरता नहीं देखी।''

 

  • कारवान-ए-मोहब्बत के इस वीडियो में हर्ष मंदर कहते हैं, ''उत्तरप्रदेश पुलिस को अपने पूर्वाग्रही नफ़रतों से प्रभावित होकर कार्रवाई करने का लाइसेंस मिला है।'' इस वीडियो में प्रदेश में पिछले तीन हफ़्तों के हालात के बारे में बताया गया है। इसमें मेरठ के कुख्यात एसपी अखिलेश नारायण सिंह द्वारा मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने की बात कहने से लेकर राज्य भर में पुलिस द्वारा घरों में घुसकर तोड़फोड़ की बर्बरताओं को दिखाया है। मंदर के मुताबिक़, ''पुलिस अब दंगाई है। आदित्यनाथ ने उत्तरप्रदेश को जिस तरीक़े का नेतृत्व दिया है और वो पुलिस से जो करवा रहे हैं, वह इंसानियत के खिलाफ अपराध हैं।''

 

  • ऐसी ही बहुत सारी कहानियां उत्तरप्रदेश के बिजनौर, मुज़फ़्फ़रनगर, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, अलीगढ़, बुलंदशहर, संभल, रामपुर, फ़िरोज़ाबाद, कानपुर नगर, लखनऊ, बहराइच, वाराणसी, मऊ और गोरखपुर जैसे 15 ज़िलों से आईं। इन्हें डॉक्यूमेंट किए जाने की ज़रूरत है, लेकिन यह काम राज्य संस्थानों द्वारा नहीं, बल्कि नागरिक समूहों द्वारा किया जाना चाहिए। अपूर्वानंद कहते हैं कि यह एक ''असामान्य'' सरकार है। वो बताते हैं कि अभी तक जनता द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन केवल क्षणिक तौर पर उभरे हैं। यह अभी भी आंदोलन नहीं हैं। नतीजा यह हुआ कि सरकार को अपनी लड़ाई का मौक़ा मिल गया, उन्होंने तेज़ी दिखाई और तय किया कि कैसे और किसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी है। जबकि विरोध प्रदर्शन प्रतिक्रियावादी हैं। क्या हमें इन्हें चुनौती देने के लिए प्रबंधित होने की ज़रूरत है? क्या यह नागरिक अवज्ञा की पुकार करता है? क्या हमें सरकार को पांच हज़ार लोगों की लिस्ट देकर कहना चाहिए कि यह वो लोग हैं, जो आपके क़ानूनों को नहीं मानेंगे? इसका मतलब होगा कि यह लोग आगे परिणाम भुगतने के लिए तैयार हैं।

 

  • 25 दिसंबर को हफ़पोस्ट में अमन सेठी ने यूपी पुलिस द्वारा बिजनौर में 13 से 17 साल की उम्र के कम से कम पांच बच्चों की गिरफ़्तारी पर रिपोर्ट छापी। बीस दिसंबर को बिजनौर की नगीना बसाहट से गिरफ़्तार किए गए 100 मुस्लिम लोगों में से क़रीब 22 के आसपास नाबालिग़ हो सकते हैं। बता दें नाबालिग़ बच्चों को पुलिस हिरासत में रखना या पीटना ग़ैर-क़ानूनी है। जो इन बच्चों ने बताया, वह तो और भी ज्यादा भयावह है। उन्हें लंबी यातनाएँ दी गईं। उनकी अनुभवों को पढ़िए। साथ ही बीस दिसंबर को पुलिस ने मुज़फ़्फ़रनगर के सदत हॉस्टल में भी छापा मारा, जहां बच्चों और शिक्षकों की पिटाई की गई। नाबालिग बच्चों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें बाद में यातनाएं दी गईं। इस मदरसे की स्थापना करने वाले 69 साल के मौलाना असद रज़ा हुसैनी को पिछले अगस्त में ही उपराष्ट्रपति ने सम्मानित किया था। लेकिन बीस दिसंबर को उन्हें और उनके बच्चों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने पुलिस द्वारा मौखिक और शारीरिक ज्यादतियों की बात की पुष्टि की है। जब हफ-पोस्ट रिपोर्टर अक्षय देशमाने ने मुज़फ़्फ़रनगर एसएसपी से पूछा कि बच्चों की पिटाई क्यों की गई, तो अधिकारी ने कहा, ''उनमें से किसी की भी पुलिस कस्टडी में पिटाई नहीं हुई।'' तीन माइनर और दस दूसरे छात्रों को तीन जनवरी को छोड़ा गया। इनके खिलाफ लगे सभी चार्ज भी वापस ले लिए गए। यह लोग जेल में अपनी आपबीती, पुलिस की कहानी से बहुत अलग बताते हैं। उनकी आपबीती यहां पढ़िए

 

  • जब सवाल उठते हैं तो पुलिस जनता को बरगलाती है। कविता कृष्णन, योगेंद्र यादव और रियाद आज़म द्वारा मेरठ में की गई ''तथ्य-खोज (फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग)'' को यहां पढ़ा जा सकता है। इसे 28 दिसंबर को सबरंग पर प्रकाशित किया गया था। इसमें 20 साल के आसिफ़ समेत दूसरे लोगों की मौत की घटनाएं दर्ज की गईं। आसिफ़ की मौत तब हुई थी, जब वे घर वापस लौट रहे थे। उनके परिवार को जैसे ही इसकी खबर मिली तो पहले पुलिस ने उन्हें शव ही नहीं देखने दिया। जैसे-तैसे शव मिलने के बाद आसिफ़ को अपने घर के पास वाले इलाके में नहीं दफ़नाने दिया गया। जब घर वाले मामले में एफ़आईआर कराने पहुंचे तो पुलिस ने इसे भी दर्ज नहीं किया। इसके बजाए मृत आसिफ़ के ऊपर ही मामला दर्ज कर दिया गया। उन्हें 20 दिसंबर को शहर में हुई हिंसा का मास्टरमाइंड बता दिया गया। उस दिन आसिफ़ समेत 6 लोग मारे गए थे।

 

  • एनडीटीवी के मुताबिक़, प्रदर्शन में 15 लोगों की मौत होने के बाद पहली बार पुलिस ने माना कि उन्होंने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई। 24 दिसंबर को सिविल सेवा की तैयारी करने वाले सुलेमान की गोली लगने से मौत हो गई थी। बिजनौर पुलिस ने इस मामले में गोली चलाने की बात क़बूल की थी। यह पुलिस द्वारा पहला क़बूलनामा था। चार जनवरी को सबरंग ने एनडीटीवी की एक और स्टोरी पर रिपोर्ट की। यह रिपोर्ट गोलियों से घायल हुए पुलिसवालों के ऊपर थी। जब प्रशासन से इस बारे में सवाल किया गया, तब भी कथित 57 घायल पुलिसवालों में से किसी का भी नाम या दूसरी जानकारी सामने नहीं आई। केवल मुज़फ़्फ़रनगर के एसपी सतपाल अंतिल ने एक फोटो दिखाया, ''जो गोली के घाव की तरह लग रहा था।'' इस रिपोर्ट को पढ़िए और प्रदर्शन स्थलों से बड़ी संख्या में बरामद किए गए कारतूसों के दावे को इससे जोड़कर देखिए। 

 

  • द हिंदू में 6 जनवरी को सुमंत सेन और नरेश सिंगारावेलू ने रिपोर्ट में बताया कि नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध प्रदर्शनों और उनपर पुलिस की कार्रवाई में मारे गए लोगों में से 70 फ़ीसदी उत्तरप्रदेश से हैं। यह दूसरे नंबर पर क़ाबिज़ असर (बीस फ़ीसदी) से काफ़ी ज़्यादा है। 27 दिसंबर को स्क्रॉल द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में 15 ज़िलों में हुई नागरिक मौतों का सिलसिलेवार ब्योरा है। रिपोर्ट में उन पुलिस वालों का जिक्र भी थी, जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर हमला करते हुए जय श्री राम चिल्ला रहे थे। थिएटर एक्टर और डॉयरेक्टर दीपक कबीर की गिरफ्तारी पर भी चर्चा है। कबीर को उस वक्त गिरफ्तार किया गया था, जब वे पुलिसिया दमन का शिकार हुए अपने दोस्तों की खोज कर रहे थे। रिपोर्ट में उन लोगों की भी बात है, जो लाठी लेकर पुलिस के साथ बिजनौर में मस्ज़िद से बाहर आते लोगों पर हमले के लिए निकले थे। यह बात एक वीडियो से संबंधित है, जिसमें बिजनौर के नाहातौर कस्बें में पुलिस एक बूढ़े आदमी को वैन के पीछे ले जाती हैं, पुलिसवाले फायरिंग करते हैं औऱ चीखते हुए कहते हैं कि एक-दो लोगों को मार दो।

 

  • आदित्यनाथ प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ आक्रामक हैं। वे किसी पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने या प्रदर्शन में भाग लेने के शक पर भी जुर्माना लगा रहे हैं। क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस कार्रवाई के निशाने पर मुस्लिम हैं? दो जनवरी को टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस तरह की कार्रवाई की वैधानिकता पर रिपोर्ट छापी थी। रिपोर्ट में उत्तरप्रदेश में सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की तुलना गुजरात के पाटीदार आंदोलन और हरियाणा में 2016 में हुए जाट आंदोलन से की गई थी। इन दोनों राज्यों में उस वक्त बीजेपी का शासन था। दूसरे मामले में राज्य सरकार ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट को बताया था कि 1800 से 2000 करोड़ रुपये की भरपाई आंदोलनकारियों से की जाएगी, लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया गया। यहां पढ़ें आर्टिकल

 

  • यहां 21 अगस्त, 2018 को छपी इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। यह रिपोर्ट 2007 में योगी आदित्यनाथ के ''नफ़रती भाषण पर मुक़दमे'' से जुड़ी थी। उस साल जनवरी में आदित्यनाथ कलेक्टर के प्रतिबंध के बावजूद गोरखपुर गए थे। उन्होंने वहां भड़काऊ भाषण दिया, जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंदुओं की हिंसा को जायज़ ठहराया था। इसके बाद उन्हें शांति भंग करने के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया था। इसके बाद हिंसा हुई, जिसमें कुछ ट्रेन, बसों, मस्जिदों और घरों को जला दिया गया। कम से कम 10 लोगों की उस हिंसा में मौत हुई थी। 15 दिन के बाद वे छूट गए थे। उत्तरप्रदेश में बीजेपी सरकार बनने के बाद कई दूसरे केसों की तरह, इस केस में भी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी। हाल में उनके ऊपर चल रहा एक हत्या का केस भी खारिज़ हो गया। यह केस 1999 में हेड कांस्टेबल सत्यप्रकाश यादव की हत्या का था। 17 जुलाई 2019 को एक स्पेशल कोर्ट ने योगी के ख़िलाफ़ इस केस को ख़ारिज कर दिया।

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