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असम फ़ॉरेन ट्रिब्यूनल ने बिना विचार किए विदेशी घोषित किया : हाई कोर्ट

मामले का संज्ञान लेते हुए, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि उन सभी मामलों को नए सिरे से सुना जाए।
Assam

गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने 19 सितंबर 2019 के अपने एक आदेश में एक उच्च न्यायालय की जांच रिपोर्ट का खुलासा किया, जिससे पता चलता है कि विदेशियों की पहचान करने के लिए बने ट्रिब्यूनल (FT) द्वारा घोषित विदेशियों में से कई भारतीय पाए गए हैं या उनके मामले में गंभीर त्रुटियां पाई गई हैं। एफ़टी को उन लोगों की नागरिकता पर राय ज़ाहिर करने के लिए ज़िम्मेदार माना गया है जिनकी राष्ट्रीयता पर सीमा पुलिस या फिर चुनाव आयोग को संदेह है।

यह पाया गया है कि कई मुक़दमों में, सुनाए गए फ़ैसले की प्रतियां ही ग़ायब हैं और कई मामलों मे तो पहले आदेश को ख़ारिज किए बिना दोहरा फ़ैसला सुना दिया गया है। केस की फ़ाइल में पहले के आदेश को ख़ारिज किए बिना एक ही मामले में दो निर्णय या दो फ़ैसले क़ानून की नज़र में आदेश नहीं माने जा सकते हैं। इस तरह की नोटिंग या ऑर्डर को एफ़टी द्वारा किसी संदर्भ में मामले को निपटाने वाले आदेश के रूप में नहीं माना जा सकता है। ट्रिब्यूनल के पीठासीन अधिकारी की मुहर और हस्ताक्षर के साथ एक ही राय दर्ज होनी चाहिए।

यह मामला तब प्रकाश में आया जब फ़ॉरेन ट्रिब्यूनल नंबर 4, मोरीगांव के एक सदस्य प्रभारी ने 23 अप्रैल, 2018 को असम सरकार, गृह और राजनीतिक विभाग के प्रधान सचिव को एक ई-मेल लिखा। इस पत्र को  रजिस्ट्रार (जुडल), गुवाहाटी उच्च न्यायालय को भी संलग्न किया गया था, जिसमें उल्लेख किया गया है कि 288 संदर्भ जिन्हें कि पहले सदस्य द्वारा निपटारा कर दिया गया था, लेकिन उन मामलों में उस सदस्य द्वारा हस्ताक्षरित विस्तृत राय का रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं है।

मामलों की दयनीय स्थिति की जानकारी मिलने के तुरंत बाद, उच्च न्यायालय ने 15 जून, 2018 को एक नोटिस जारी किया, और प्रमुख सचिव, गृह और राजनीतिक (B) विभाग, असम सरकार को उन 288 संदर्भों के केस रिकॉर्ड को ज़ब्त करने और उन्हें एक विस्तृत रिपोर्ट तथा संबंध संकलित रिकॉर्ड के साथ अदालत के समक्ष रखने को कहा।

असम सरकार के गृह और राजनीतिक विभाग के उप सचिव ने 3 अक्टूबर, 2018 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया कि 288 मामलों में से 50 मामलों को 21 फरवरी, 2018 को ज़ब्त कर लिया गया था। 19 सितंबर को दिए गए अपने आदेश में, उच्च न्यायालय ने वर्णन करते हुए जांच रिपोर्ट का विवरण दिया जो इस प्रकार है:

असम (सीमा) के “अतिरिक्त डी.जी.पी. के कार्यालय के विशेष सेल की उचित जांच करने के बाद ज़ब्त किए गए 50 मामलों में से 13 को भारतीय घोषित किया गया था, इस अदालत के समक्ष दायर रिट याचिका में राज्य स्तरीय स्क्रीनिंग कमेटी ने उनकी पहले ही सिफ़ारिश कर दी थी। इस तरह से 13 मामलों का केस रिकॉर्ड विशेष स्थायी वकील, गुवाहाटी उच्च न्यायालय को सौंप दिया गया। अब बचे बाक़ी 37 मामलों का जहां तक संबंध है, रिपोर्ट बताती है कि सभी मामले सही पाए गए। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि शेष 238 मामले के रिकॉर्ड में से, पुलिस अधीक्षक (सीमा), मोरीगांव ने 232 केस रिकॉर्ड को डी.जी.पी. (सीमा), असम के समक्ष रखा। अब तक की गई छानबीन में पता चला कि 232 मामलों के रिकॉर्ड में से 175 मामले बिल्कुल सही पाए गए हैं, जबकि शेष 57 मामलों में विसंगतियों की भरमार है।”

रिपोर्ट के अनुसार, विसंगतियों की प्रकृति निम्नलिखित श्रेणियों के अंतर्गत आती है: (ए) 11 मामलों में सुनाए गए फ़ैसले का रिकॉर्ड नहीं मिला, (बी) छह मामलों में आदेश की कॉपी के साथ अन्य कॉपी का मेल नही मिला (ग) पांच मामलों में दोहरे निर्णय थे, (डी) 32 मामलों में पहले फ़ैसले को ख़ारिज करने वाला आदेश नहीं मिला, (ई) दो मामलों में, कार्यवाही में विसंगति थी, (च) एक मामले का निपटारा नहीं किया गया था क्योंकि कार्यवाही समाप्त हो गई थी।

यह भी पता चला कि ज़ब्त किए गए मुक़दमों की वास्तविक संख्या 282 थी न कि 288, क्योंकि छह मामलों को दोहराया गया था।

चौंकाने वाली विसंगतियाँ

आदेश में कई चौंकाने वाली ग़लतियां पाई गई हैं। उदाहरण के लिए, रबींद्र चंदा [एफ़टी- (डी) 125/2015] के मामले को देखें, आवेदक का नाम रबींद्र चंदा सुपुत्र रिडाई चंदा के रूप में दर्ज किया गया है, लेकिन 18 जून, 2016 को दी गई राय में उनके पिता का नाम रूपचंद विश्वास दिया गया है। इसके अलावा, एक अन्य रहीमा ख़ातून नाम की महिला है जो किसी भी तरह से मामले से संबंधित नहीं है।

इसी तरह, मौ. पचार अली [एफ़टी- (डी) 51/2017] का मामला देखें, जिसमें कार्यवाह का नाम मौ. अनुवर हुसैन सुपुत्र अब्दुल रहमान को संदर्भ के रूप में दर्ज किया गया था। लेकिन 6 अप्रैल, 2018 को राय में दो अन्य नाम भी पाए जाते हैं – जिनका नाम रहीमा ख़ातून है और उनके पिता का नाम, रूप चंद बिस्वास दर्ज है, जो इस मामले से किसी भी रूप में संबंधित नहीं हैं।

11 मामलों में, फ़ैसले का कोई रिकॉर्ड ही नहीं है। जांच समिति ने अपने निष्कर्ष में टिप्पणी की कि, "रिकॉर्ड में कोई नाम दर्ज नहीं है।"

पांच मामलों में, कार्यवाही की नोटशीट में भारतीय घोषित किया गया है, लेकिन राय की प्रतियों में, उन्हें विदेशी घोषित किया गया है।

अन्य पाँच मामलों में भी एक ही मामले में दो राय पाई गईं।

जांच किए गए 32 मामलों में, पहले उन्हे बिना किसी सुनवाई के एकतरफा विदेशी घोषित कर दिया गया था, लेकिन बाद में उन्हें पहले के आदेश को ख़ारिज किए बिना भारतीय घोषित कर दिया गया।

एक मामले में, सदस्य ने कोई राय नहीं दी क्योंकि जिन पर कार्यवाही चल रही थी उनकी मृत्यु हो गई, जिससे उनका वंश ही संदिग्ध हो गया।

उच्च न्यायालय का आदेश

इन निष्कर्षों या कहें जांच के आधार पर, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अपना फ़ैसला सुनाया, “…केवल नोट-शीट पर नोट कर देना या उस आदेश को पारित करना जिसके संदर्भ को बिना विचार या बिना किसी तर्क जिसमें राय/निर्णय की अनुपस्थिति थी और वह भी पहले आदेश को ख़ारिज किए बिना ऐसा करना सही नहीं है। केस फ़ाइल में मौजूद पहला आदेश क़ानून की नज़र में कोई मायने नहीं रखता है। इस तरह की नोटिंग या आदेश को एक विदेशी ट्रिब्यूनल के सामने एक मामले के निपटारे के आदेश के रूप में नहीं माना जा सकता है। रिकॉर्ड में एक ही राय होनी चाहिए जिस पर ट्रिब्यूनल के पीठासीन अधिकारी की मुहर और हस्ताक्षर होने चाहिए। इसके अभाव में, इस तरह के संदर्भ का निपटान नहीं किया जा सकता है और इसे लंबित संदर्भ के रूप में माना जाना चाहिए, जिसे नए सिरे से सुना जाना होगा।”

इसलिए, फ़ॉरेन ट्रिब्यूनल नंबर 4, मोरीगांव के उपरोक्त सभी 57 संदर्भों में दिए गए 'निपटान के आदेश' क़ानून की नज़र में ग़ैर स्थाई हैं और इसलिए इन्हें सुनवाई के लिए एक तरफ़ कर दिया जाना चाहिए, जिन्हें तदानुसार किया जा चुका है। उपरोक्त सभी 57 संदर्भों को अब संबंधित चरणों से सुना जाएगा। ट्रिब्यूनल के सदस्य इन संदर्भों की सुनवाई के लिए ट्रिब्यूनल के नोटिस बोर्ड में उपरोक्त संदर्भों को सुनवाई की तारीख़ के साथ सूचीबद्ध करेंगे। कार्यवाही के लिए संदर्भों को ताज़ा नोटिस भी जारी किए जा सकते हैं।”

कोर्ट की अपेक्षा पर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा, “रिकॉर्ड को अलविदा कहने से पहले जिस तरह से सदस्य ने ख़ुद को संचालित किया हम उस तरीक़े पर अपनी निराशा व्यक्त करते हैं। उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। साधारण मामले में इस पर कुछ अनुशासनात्मक या अन्य कार्रवाई की जा सकती थी। लेकिन हम इसे फ़िलहाल यहीं पर छोड़ देते हैं।”

उच्च न्यायालय के पूरे आदेश को यहाँ पढ़ा जा सकता है।

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