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बीड़ी कारोबार शरीर को बर्बाद कर देता है, मगर सवाल यह है बीड़ी मजदूर जाएं तो जाएं कहां?

मध्यप्रदेश का सागर जिला जिसे बीड़ी उद्योग का घर कहा जाता है, वहां बीड़ी कारोबार नशा से बढ़कर गरीब आवाम की रोजी-रोटी का सहारा है। उन्हें बीड़ी कारोबार से बाहर निकालकर गरिमा पूर्ण जीवन मुहैया करवाने के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है। उल्टे सरकार के प्रतिनिधि बीड़ी कार्ड बनवाने के नाम पर बीड़ी मजदूरों को लूट रहे हैं।
beedi worker

भारत में मध्यप्रदेश को तेन्दूपत्ता की प्रचुर उपलब्धता के कारण बीड़ी उद्योग का प्रमुख केंद्र माना जाता है। प्रदेश में 1904 में बीड़ी उद्योग प्रारंभ हुआ था। तब से यह उद्योग़ मुख्य रूप से गरीब परिवारों की रोजी-रोटी का जरिया बना हुआ है। बीड़ी का काम बहुतायत आबादी में महिलाएं करती है। इस समय लगभग मध्यप्रदेश में 280 बड़े बीड़ी केन्द्र है, जिनके सहारे बीड़ी उद्योग चल रहा है।

कोरोना संकट के इस दौर में बहुत से लघु उद्योग चौपट हो गये है और श्रमिकों के सिर पर बेरोजगारी मंडरा रही है। ऐसे में बीड़ी उद्योग और बीड़ी श्रमिकों की क्या दशा है? इसका जायजा लेने हम मध्यप्रदेश के सागर जिले पहुंचे जिसे मध्यप्रदेश में बीड़ी उद्योग का ‘घर‘ माना जाता है। सागर जिला सिर्फ एक जिला नहीं बल्कि एक संभाग भी है। यहां पर बीड़ी उद्योग से बड़ा और इसके अलावा कोई विशेष उद्योग नहीं है, इसलिए आज भी यहां के अधिकांशः श्रमिक बीड़ी उद्योग पर आलंबित है।

बीड़ी श्रमिकों पर बात करने से पहले सबसे पहले यह जानते हैं कि बीड़ी बनती कैसे है? बीड़ी बनाने के लिए सबसे पहले तेंदूपत्ता तोड़ने पहाड़ों पर जाना पड़ता है। फिर तेंदूपत्ते को तोड़कर तकरीबन 70-100 पत्तों को गड्डियां के रूप में बांधकर कुछ दिन धूप में सूखाया जाता है। फिर पत्तों के सूखने के बाद उन्हें पानी में भिगोकर आयताकार आकार में काटा जाता है। तब फिर कच्ची तंबाकू में पत्ते को लपेटकर उसकी नोंक को धागे से बांध दिया जाता है। ऐसे एक बीड़ी तैयार होती है।

सागर के सुरखी क्षेत्र अंतर्गत हम बेरसला गांव पहुंचे, जो रानगिर के तेंदूपत्ता हेतु प्रसिध्द पहाड़ से सटा हुआ है। वहां हमने कुछ बीड़ी श्रमिकों से मुलाकात की। उनसे पूछा कि आपका बीड़ी का रोजगार कैसा चल रहा है और इससे कितनी कमाई हो जाती है? तब वहां बीड़ी बांझते हुए मौजूद भारतीबाई जिनकी उम्र 74 वर्ष है जबाव देते हुए कहती है कि बीड़ी के काम में दिन-प्रतिदिन गिरावट आती जा रही है। अब से 15-20 साल पहले गांव में एक हफ्ते में 7-8 लाख बीड़ी बनती थी पर अब हफ्ते में 4-5 लाख बीड़ी बनती है। आगे वह कहती है कि दिन में ज्यादातर बीड़ी मजदूर 700 से लेकर 1000 हजार बीड़ी ही बना पाते है। यदि वह खुद की पत्ती की बीड़ी बनाते है तब उन्हें दिन में 80 से 120 रुपये मिल जाते है और यदि वह बीएस, बीआर ब्रान्च द्वारा दी गयी पत्ती की बीड़ी बनाते है तब उन्हें 50 से 80 रुपये ही मिलते है। आगे वह कहती है मैं इस उम्र में दिन में 500 से 700 बीड़ी ही बना पाती हूं।

फिर हमने सवाल किया कि बीड़ी के काम में गिरावट क्यों आती जा रही है? तब भारतीबाई कहती है कि पहले लोग बीड़ी ज्यादा पीते थे। तब बीड़ी का जमाना था। मगर आज लोग सिगरेट ज्यादा पी रहे, उसका चलन है इसलिए बीड़ी के काम में गिरावट आ गई है। इसी सवाल के जबाव में वहां मौजूद तारारानी कहती है कि गुटखा के चलन से भी बीड़ी के धंधे में कमीं आयी है। वहीं बेरसला से सटे उदयपुरा गांव के बीड़ी सट्टेदार लाल सिंह इस प्रश्न के जबाव में कहते है कि सरकार ने बीड़ी के आयात-निर्यात पर टैक्स इतना बढ़ा दिया है कि यदि मध्यप्रदेश से हमारी बीड़ी दिल्ली जाती है तो बीड़ी की आधी कीमत टैक्स के रूप में चली जाती है। वहीं गांव में आज भी 1 रुपये की 5 बीड़ी मिलती है। ऐसे में बीड़ी उद्योग में लागत ज्यादा लग रही है। मुनाफा कम हो रहा है। जिससे बीड़ी उद्योग का स्तर दिन-प्रतिदिन गिर रहा है।

आगे हमने प्रश्न किया कि बीड़ी के अलावा आप लोगों  के लिए और कौन सा रोजगार का साधन है? और सरकार ने रोजगार की क्या व्यवस्था की है? तब वहां मौजूद राजरानी कहती है कि बीड़ी के अलावा हम लोगों के पास रोजी-रोटी चलाने के लिए कोई और रोजगार नहीं है। न सरकार हमारे लिए कोई उचित रोजगार की व्यवस्था कर पायी है। सरकार हमारी खबर सिर्फ वोट लेने के समय लेती है। इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए गौरीशंकर कहते है कि गांव में कुछ लोगों के पास थोड़ी सी जमीन भी है जिससे वह खेती कर के भी गुजारा चला लेते है। कुछ लोग दिल्ली, बंबई रोजगार के लिए निकल जाते है। तब हमने पूछा आपको क्या सागर में रोजगार नहीं मिलता है? तब गौरीशंकर कहते है कि सागर में बमुश्किल से 200 रुपये की बेलदारी मिलती है, जिसमें से सागर आने-जाने में 80 रुपये किराया लग जाता है ऐसे में बचे पैसे से खर्च ही चल पाता है।

आगे हमने सवाल किया कि जिस तरह से बीड़ी के काम में गिरावट आ रही है, ऐसे में आने वाले समय में यदि बीड़ी उद्योग बंद हो जाता है, तब आप गुजर-बसर कैसे चलाएगें? इसका जबाव देते हुए वहां मौजूद टीकाराम कहते है अगर बीड़ी उद्योग बंद हो गया तो हम जैसे लोगों की भूख से मरने की नौबत आ जायेगी। आगे मानसिंह कहते है कि यदि बीड़ी उद्योग बंद होता है तब सरकार हमको दूसरे रोजगार की व्यवस्था करे।

आगे चलते हुए जब हमने गांव में अंदर की ओर प्रवेश किया तब वहां हमें एक घर के आंगन में कुछ नौजवान बीड़ी बनाते हुए नजर आए। जैसे हम उनकेे समीप पहुंचे तब उनका हालचाल जानते हुए हमने पूछा कि आप लोगों में से बीड़ी कार्ड किसका बना हुआ है और सरकार ने बीड़ी उद्योग के लिए क्या सहायता की है? तब वहां उपस्थित प्रशांत कहते है कि बीड़ी कार्ड बनवाने के नाम पर पास के पिपरिया गांव के महराज कहे जाने वाले व्यक्ति ने यह कहकर हमारे गांव के हर व्यक्ति से 2000 रुपये जमा करवाए कि आप लोगों को बीड़ी कार्ड से सरकारी योजना का लाभ मिलेगा। लेकिन ज्यादातर लोगों के बीड़ी कार्ड आए नहीं है और कुछ लोगों के बीड़ी कार्ड आए तो वह नकली है। फिर हमने जब पूछा कि क्या आप लोगों ने इस मामले की पुलिस से शिकायत की?

तब वहां मौजूद अभय इसका उत्तर देते हुए कहते कि हां हमने पुलिस से इस मामले में शिकायत की और पुलिस महराज की तलाश कर रही है, मगर महराज फरार चल रहे है।

आगे प्रमोद बीड़ी कार्ड के संबंध में कहते है कि बीड़ी कार्ड न होने से हम लोगों को सरकारी राशन नहीं मिलता है। जब राशन लेने जाते है तब वहां हमको यह कहकर लौटा दिया जाता है कि आपका बीड़ी कार्ड नहीं है। फिर वीरेन्द्र कहते कि मेरा बीड़ी कार्ड नहीं बना जिससे मैं सरकारी राशन कार्ड भी नहीं बनवा पा रहूं। राशन कार्ड बनवाने के लिए बीड़ी कार्ड की फोटोकॉफी जमा की जाती है।

आगे पानबाई जिनकी उम्र 85 वर्ष है। वह कहती है कि मुझे 60 साल से ज्यादा समय बीड़ी बनाते हुए हो चुका है लेकिन मेरा बीड़ी कार्ड अभी तक नहीं बना जिसकी वजह से मुझे पेंशन भी नहीं मिलती है। इन सभी की प्रतिक्रियाओं को सुनने बाद हमने पुनः पूछा कि क्या आप लोग बीड़ी कार्ड बनवाने कभी जिला बीड़ी केन्द्र गये है? तब प्रदीप कहते है कि हां हम लोग जिला बीड़ी केन्द्र बीड़ी कार्ड बनवाने गये थे और ज्यादातर लोगों ने दस्तावेज भी जमा किए लेकिन बीड़ी कार्ड अभी तक नहीं बना। वहीं पानबाई ने कहा कि मैनें कई बार बीड़ी कार्ड बनवाने के लिए कागजात जमा किए है लेकिन बीड़ी कार्ड बना ही नहीं।

जब हम गांव में आगे की ओर गये तब पुलिया के पास छोटेलाल तेंदू पत्ते काटते हुए मिले और उनसे हमने बीड़ी के काम-काज पर बात करते हुए सवाल किया कि पहले के मुकाबले अब की बीड़ी में क्या अंतर है और इससे आपका खर्च कितना प्रभावित हो रहा है?

तब छोटेलाल बताते है कि आज से 15 साल पहले दिन भर बीड़ी बनाने से हम 1 लीटर खाने का तेल खरीद लेते थे लेकिन आज 2 दिन बीड़ी बनाते है तब 1 लीटर तेल आता है। फिर वहीं मौजूद देवी कहते है कि 2012 में 1000 बीड़ी बनाने पर 100 रुपये मिलते थे, मगर 10 साल बाद मौजूदा वक्त में हजार बीड़ी पर सिर्फ 20 रुपये ही बढ़े है।

हमने अगला प्रश्न किया कि इतनी कम आय में आप अपने बच्चों को कैसे पढ़ाते है? तब देवी कहते है कि गांव में 5 वीं तक सरकारी स्कूल है, जिसमें बच्चों की फीस नहीं लगती है। उसके बाद पास के गांव मोकलपुर जहां 12 वीं तक स्कूल है, वहां बच्चे पढ़ने जाते है। आगे वह कहते है मेरे दो बच्चे है जो 9 वीं तक पढ़ पाए है इसके आगे पैसे की कमी से उन्हें पढ़ाने की हमारी गुंजाइश नहीं पड़ी। छोटेलाल इस संबंध में कहते है कि गांव के लोग अपने बच्चों को वहीं तक पढ़ाते है.

जहां तक पैसा नहीं लगता जब पैसा लगने लगता है तो बच्चों को आगे नहीं पढ़ा पाते है। ऐसे में गांव में गिने-चुने बच्चे ही है जो कॉलेज तक पहुंच पाए है।फिर इसके बाद हमने सवाल किया कि आप लोगों को तेंदूपत्ता तोड़ने से लेकर बीड़ी बनाने तक सबसे ज्यादा क्या परेशानियां आती है? तब छोटेलाल जबाव देते हुए कहते है कि हमारे गांव बेरसला से रानगिर का जंगल़ 10 किमीं से ज्यादा दूर है। जहां पर वाहन नहीं जा पाते है। ऐसे में ज्यादातर लोग तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए जंगल आधी रात करीब 2 बजे से पैदल ही जाते है और सुबह लगभग 12 बजे घर आ पाते है। फिर देवी बताते है कि  बीड़ी बनाने से सबसे ज्यादा आखों पर असर पड़ता है। वे कहते है। मेरी उम्र 43 साल है। मैं 20 साल से बीड़ी बना रहा हूं जिससे तम्बाकू के धांस के कारण अब मुझे आंखों से कम दिखाई देने लगा है। उन्होनें आगे कहा कि गांव में ऐसे कई लोग है, जिनको बीड़ी बनाने से कम उम्र में ही आंखों से कम दिखाई देने लगा है।

इसके बाद अंत में हमने प्रश्न किया कि गांव मेंं बीड़ी कितने लोग पीते है और बीड़ी का नशा करने से स्वास्थ्य संबंधी क्या समस्याएं आती है? तब इस सवाल का उत्तर देते हुए छोटेलाल कहते है कि गांव में अधिकतर लोग बीड़ी पीते है। चार लोगों की बैठक से लेकर सुअवसर तक पर बीड़ी पीने के लिए देना हमारे आस-पास के क्षेत्र का रिवाज है। आगे वह कहते है कि चोरी-छिपे 12 साल तक की उम्र के बच्चे भी बीड़ी पीते है। मगर यहां की महिलाएं बीड़ी नहीं पीती है।

इसी सवाल के जबाव में जगदीश कहते है कि बीड़ी से कैसर, फैफड़े और टीबी जैसी अन्य बीमारियां होती है। वहीं देवी कहते है कि बीड़ी पीने से खांसी जैसी समस्या होना तो आम है और बीड़ी के ज्यादा नशे से इंसान के अंदर का खून जलने लगता है। ऐसे में बहुत से लोगों का शरीर काला भी पढ़ जाता है। यदि हम आंकडों को देखे तब टोबैको नामक जर्नल की रिसर्च से पता चलता है कि बीड़ी पीने से देश की इकोनॉमी को सालाना तकरीबन 80 लाख करोड़ की क्षति होती है। वहीं वालंटरी ऑफ इंडिया के शोध से ज्ञात होता है कि सालाना 6 लाख लोग बीड़ी पीने से मरते है।

विचारणीय है कि बीड़ी एक नशा है जिससे देश को जन-धन की क्षति होती है। लेकिन इस बात को बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता है कि नशा से बढ़कर बीड़ी आज भी गरीब आवाम की रोजी-रोटी का सहारा है, जिससे बीड़ी श्रमिक दिन में 80 से 100 रुपये कमा रहे है। ऐसे में उनसे दो-दो हजार रुपये बीड़ी कार्ड बनवाने के नाम पर ऐठे जा रहे है। और तो और बीड़ी कार्ड न होने से इन श्रमिकों को सरकारी राशन भी नहीं दिया जा रहा है। जबकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि सरकारी राशन लेने के लिए बीड़ी कार्ड की दरकार है। बीड़ी कार्ड न होने से किसी का राशन कार्ड नहीं बना, तो किसी को पेंशन नहीं मिलती है।

इससे स्पष्ट तौर पर ज्ञात हो रहा है कि ऐसे अशिक्षत श्रमिक न अपने अधिकारों को जानते है और न अधिकारों का लाभ ले पा रहे है। बल्कि अधिकारों से वह आज भी महरूम है। मगर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मुफलिस श्रमिकों की ऐसी स्थिति कब तक रहेगी? क्यों सरकार ऐसे लोगों के लिए कोई पुख्ता कदम नहीं उठाती?

( सतीश भारतीय स्वतंत्र पत्रकार है) 

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