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लद्दाख से सैन्य वापसी की बड़ी तस्वीर

17 जुलाई को भारत-चीन कोर कमांडर स्तर की बैठक के 16वें दौर में दोनों पक्षों में आम सहमति बनी और कहा गया कि सेनाओं के पीछे हटने की वास्तविक प्रक्रिया जो गुरुवार को शुरू हुई थी वह पूरी हो गई है।
Gogra

विदेश मंत्रालय ने भारत-चीन सीमावर्ती क्षेत्रों के पश्चिमी सेक्टर में एलएसी के साथ गोगरा-हॉटस्प्रिंग्स के क्षेत्र में सैनिकों की वापसी के संबंध में गुरुवार को अपनी ख़ामोशी भरी प्रेस विज्ञप्ति जारे की उस्म्ने एक ही वाक्य में सब समझाने का सही काम किया है।

विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता अरिंदम बागची ने शुक्रवार को अधिक जानकारी साझा की। मोटे तौर पर, 17 जुलाई को भारत-चीन कोर कमांडर स्तर की बैठक के 16वें दौर में बनी आम सहमति, जिसे दोनों पक्षों ने जताया और कहा कि सेनाओं के पीछे हटने की वास्तविक प्रक्रिया जो गुरुवार को शुरू हुई थी वह आज पूरी हो गई है। इसके निम्नलिखित प्रमुख तत्व ध्यान आकर्षित करते हैं:

  • दोनों पक्ष "इस क्षेत्र में चरणबद्ध, समन्वित और सत्यापित तरीके से भविष्य में किसी भी क्सिम की तैनाती नहीं करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के सैनिकों को अपने-अपने क्षेत्रों में वापसी करनी होगी।"
  • दोनों पक्ष, क्षेत्र में बनाए गए सभी अस्थायी ढांचों और अन्य संबद्ध बुनियादी ढांचे को "तोड़ देंगे और जिसे पारस्परिक रूप से दोनों तरफ से सत्यापित किया जाएगा।"
  • "दोनों पक्षों द्वारा क्षेत्र में भू-स्थिति को टकराव से पहले की अवधि में बहाल किया जाएगा।"
  • "समझौता यह सुनिश्चित करता है कि दोनों पक्ष क्षेत्र में एलएसी का कड़ाई से पालन करेंगे और उसका सम्मान करेंगे, और यह कि यथास्थिति में एकतरफा परिवर्तन नहीं होगा।" 
  • साथ ही, दोनों पक्ष "बातचीत को आगे बढ़ाएंगे और एलएसी के साथ शेष मुद्दों को हल करेंगे और भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में शांति और अमन बहाल करेंगे।"

सीधे शब्दों में कहें तो क्षेत्र में एकतरफा लाभ उठाने के मामले में किसी भी "मिशन" का दोनों पक्षों द्वारा कोई प्रयास नहीं किया जाएगा। दो साल पहले जिस गतिरोध की शुरुआत हुई थी, उस पर दो अलग-अलग नेरेटिव्स को देखते हुए यह बेहद महत्वपूर्ण है। "यथास्थिति" को कैसे समझा जाना है, यह अभी सार्वजनिक डोमेन में नहीं है, लेकिन संभवतः, यह आपसी संतुष्टि के लिए है।

दृढ़ता और यथार्थवाद (दोनों तरफ से) के एक विवेकपूर्ण मिश्रण ने इस समझौते को संभव बनाया है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 4 सितंबर को इस बारे में घरेलू जनता की राय को स्पष्ट रूप से याद दिलाया, जबकि चार दिन बाद चीन के साथ संयुक्त रूप से सेना की वापासी की घोषणा का मसौदा तैयार किया जा रहा था।

उससे केवल चार दिन पहले ही यानि 30 अगस्त को, जयशंकर ने कहा था कि एशिया का अधिकांश भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि निकट भविष्य में दोनों देशों के बीच संबंध कैसे विकसित होते हैं, और संबंधों को एक सकारात्मक पटरी पर लौटने के लिए, उन्हें आपसी संबंधों पर आधारित होना चाहिए। जो संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हित पर आधारित हों, वे यहाँ स्पष्ट रूप से चीन को कर रहे थे।

दुर्भाग्य से, कुछ भारतीय टिप्पणीकार इस घटना को अगले सप्ताह समरकंद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच संभावित बैठक से जोड़कर देख रहें हैं और हाल के महीनों में जो कुछ भी कहा उससे इसके महत्व को कम कर दिया है। यह कहा गया कि, अगर समरकंद में कोई बैठक होने जा रही है, तो सेना की वापसी वास्तव में रचनात्मक चर्चा का एक मंच प्रदान करेगा। विश्व व्यवस्था में वर्तमान बेहद परिवर्तनकारी अवधि में एलएसी के साथ शांति और सौहार्द बनाए रखने में दोनों सरकारों का दांव लगा है। चीन के लिए ताइवान जलडमरूमध्य में युद्ध और शांति के मुद्दे सर्वोच्च प्राथमिकता हैं।

जहां तक भारत का संबंध है, नई भू-राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल समायोजन का एक महत्वपूर्ण दौर आने वाला है, जो रूस और चीन के खिलाफ विश्व समुदाय के ध्रुवीकरण के पश्चिम के प्रयासों से उपजी इसकी रणनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्र विदेश नीतियों के लिए कठिन चुनौतियां प्रस्तुत करता है।

भारत और चीन दोनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कठिन और प्रतिकूल माहौल में आर्थिक विकास और विकास के अपने-अपने रुख को आगे बढ़ाने के बड़े महत्व को समझते हैं। भारत की बात करें तो हमारे विश्लेषक शांतिपूर्ण और शांत सीमा और देश की समग्र आर्थिक स्थिति के बीच सह-संबंध को दरकिनार करना पसंद करते हैं - या तो अज्ञानता के कारण या अपने चीन विरोधी खोखले विचार-विमर्श के साथ ऐसा करना पसंद करते हैं।

यूक्रेन युद्ध से ऊर्जा और अन्य कच्चे माल की बढ़ती लागत, वैश्विक मुद्रास्फीति में वृद्धि कर रही है, जबकि एक तेजी से आक्रामक यूएस फेड अपनी नीतियों को सख्त कर रहा है, और अपनी बैलेंस शीट को हल्का कर रहा है। मुद्रा और विदेशी मुद्रा की चिंताएं कम हो सकती हैं। ब्रिक्स देशों के बीच एक समाशोधन प्रणाली बनाने का समय आ गया है। भारत का मौजूदा विदेशी मुद्रा भंडार अक्टूबर 2020 के बाद से अपने सबसे निचले स्तर पर है। भारत के इक्विटी और ऋण बाजारों से लगातार विदेशी प्रवाह से भी रुपये पर असर पड़ा है।

भारत-चीन संबंधों में लगातार पश्चिमी हस्तक्षेप चल रहा है और यह तथ्य कि सरकार ने चीन के साथ द्विपक्षीय ट्रैक को पटरी पर ले आई है, पश्चिम को यह पसंद नहीं आने वाला है। मौलिक रूप से, विरोधाभास यह है कि भारत के बिना, चीन के खिलाफ कोई "इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटेजी" नहीं काम करेगी।

हाल ही में एक भारतीय समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में, ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री और चीन पर एक प्रशंसित बाज़, केविन रुड ने सवाल उठाया जो पश्चिमी दिमाग को सबसे ज्यादा परेशान करता है: "आखिरकार भारत क्या करता है, अगर चीन एकतरफा सीमा विवाद को हल करले ता है, वाइस ही जैसे कि गोर्बाचेव ने 1989 में सोवियत संघ के भीतर रूसी संघ के साथ किया था?"

रुड ने दोहराया, "यदि सीमा का समाधान हो जाता है, और भारत और चीन और रूस परस्पर अवसर का इस्तेमाल करते हुए एक विशाल बाजार में तब्दील हो सकते हैं, तो भारत चीन के उदय के मामले में क्या करेगा?" ऐसे परिदृश्य में, रुड को भारत के लिए केवल एक द्विआधारी विकल्प दिखाई दे रहा था: कि भरता को या तो चीन के साथ "फायदेमंद स्थिति" या चीन के साथ "संतुलन" बनाना चाहिए।

रुड को यह देखकर बहुत निराशा हुई होगी कि कोई तीसरा रास्ता भी हो सकता है। चीन वास्तव में किसी के साथ "फायदेमंद स्थिति" की उम्मीद नहीं कर रहा है। इसका डीएनए भारत के समान है - सामरिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए राष्ट्रीय हितों की खोज (यहां तक ​​कि अपने साथी रूस के संबंध में भी वह ऐसा ही कर रहा है)।

चीन इस बात से संतुष्ट है कि भारत अपनी सामरिक स्वायत्तता को संजोए हुए है। इसकी अपेक्षा केवल यह है कि भारत शत्रुतापूर्ण नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका के साथ गठबंधन न करे। यह भी बिल्कुल समझ में आता है।

चीन के साथ आम सहमति का कोई भी पक्ष क्षेत्रीय लाभ हासिल करने की कोशिश नहीं है बल्कि वह उससे अधिक है जिसकी आज उम्मीद की जा सकती है और जब तक भारतीय राय समझौता की भावना में सीमा प्रश्न के निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाधान को स्वीकार न कर ले,  तब किसी भी समझौते की भावना कम है।

विशेष रूप से, चीनी टिप्पणीकारों ने मार्च-अप्रैल में विदेश मंत्री जयशंकर की जोरदार टिप्पणी की सराहना की है, जिसमें रूस से भारत की तेल खरीद को राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने की बात कही गई है। निश्चित रूप से, भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के इस तरह के रुख ने चीन के साथ विभिन्न स्तरों पर चल रही बातचीत में एक अनुकूल माहौल बनाया है, जिससे गोगरा-हॉटस्प्रिंग्स में सेना की वापसी हुई है। फिर से, चीनी टिप्पणीकार इस बात की सराहना कर रहे थे कि जयशंकर ने 16 अगस्त को थाईलैंड में "इंडियाज विजन ऑफ द इंडो-पैसिफिक" पर अपने भाषण के बाद प्रश्नोत्तर के दौरान एशियाई शताब्दी की नायाब अवधारणा को पेश किया था। 

गौरतलब है कि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने तीन दिन बाद 19 अगस्त को सकारात्मक शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त की: “जैसा कि एक चीनी नेता ने कहा, “जब तक चीन और भारत विकसित नहीं होंगे, तब तक कोई एशियाई सदी नहीं होगी। कोई भी वास्तविक एशिया-प्रशांत सदी या एशियाई सदी तब तक नहीं आ सकती जब तक चीन, भारत और अन्य पड़ोसी देश विकसित नहीं हो जाते हैं। चीन और भारत दो प्राचीन सभ्यताएं हैं, दो प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाएं और दो पड़ोसी देश हैं। मतभेदों की तुलना में हमारे कहीं अधिक सामान्य हित हैं। दोनों पक्षों के पास एक-दूसरे को कमतर आंकने के बजाय एक-दूसरे को सफल बनाने में मदद करने की बुद्धि और क्षमता है। हम आशा करते हैं कि भारतीय पक्ष चीन के साथ हमारे नेताओं के बीच महत्वपूर्ण सामान्य समझ पर कार्रवाई करने के लिए काम करेगा, अर्थात "चीन और भारत एक-दूसरे के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि सहयोग में भागीदारी और विकास ही ऐसे  अवसर हैं", जो चीन-भारत संबंधों को वापस पटरी पर लाएंगे जो जल्द से जल्द स्थिर विकास लाएगा और चीन, भारत और हमारे साथी विकासशील देशों के सामान्य हितों की रक्षा करेगा। 

उभरती विश्व व्यवस्था में चीन और भारत के कई समान हित हैं। केवल तीन दिन पहले, व्लादिवोस्तोक में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम प्लेनरी में पीएम की टिप्पणी ने आर्कटिक (जहां चीन भी एक भागीदार है) और उत्तरी समुद्री मार्ग (जहां चीन भी एक हितधारक है) में रूस के साथ काम करने की भारत की रुचि का संकेत दिया है।

वैसे, एक नए युग और वैश्विक सतत विकास में प्रवेश करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर रूस-चीन संयुक्त वक्तव्य (फरवरी 4, 2022) दोनों देशों के बारे में "आर्कटिक के सतत विकास के लिए व्यावहारिक सहयोग को लगातार तेज करने" की बोली बोलता है ताकि "आर्कटिक मार्गों का विकास और इस्तेमाल किया जा सके।"

यह जताने का कोई प्रयोगसिद्ध साक्ष्य नहीं है कि चीन ने आर्कटिक या रूसी सुदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया या पश्चिम एशिया में भारत के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया है। लद्दाख में सेना की वापसी से उम्मीद है कि द्विपक्षीय संबंधों को बहाल किया जा सकता है, खासकर आर्थिक क्षेत्र में तो ऐसा किया जा सकता है। भारत को अपनी रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सतर्क रहना चाहिए इस पर कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन इसके बारे में पागल होना या ज़ेनोफोबिक दृष्टिकोण में फंसना बेकार और अंततः दुर्बल करने वाला होगा।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Big Picture of Disengagement in Ladakh

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