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ग्रामीण भारत में कोरोना-24: बिहार में फसल की कटाई जारी, लेकिन किसान ख़रीद को लेकर चिंतित

कई किसानों के पास भंडारण की सुविधा नहीं है और वैसे उपज भी अधिक नहीं है, इसलिए वे स्थानीय व्यपारियों को ही सारा गेहूं बेचते रहे हैं। लेकिन इस बार इन व्यापारियों ने भी किसानों से संपर्क नहीं साधा है।
ग्रामीण भारत
गेहूं की कटाई का काम जारी है।

यह इस श्रृंखला की 24वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत में जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ रहे असर की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में कई विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। यह रिपोर्ट बिहार के कटिहार ज़िले के कुरैथा गांव में किसानों और खेतिहर मज़दूरों पर देशव्यापी लॉकडाउन से पड़ रहे प्रभावों का वर्णन करती है। हालांकि प्रवासी कामगार और दिहाड़ी मज़दूरों का काम बंद है, लेकिन आवश्यक वस्तुओं के क़ीमतों में बढ़ोत्तरी ने ग्रामीणों के तकलीफों में इज़ाफ़़ा किया है।

बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले गांवों में से एक बिहार का कुरैथा गांव है। यह गांव कमला नदी के नजदीक बसा है जो आगे चलकर कोशी से मिलती है, यह वह नदी है जो हर साल राज्य के उत्तरी हिस्से को बाढ़ से तबाह करती आई है। ज़िला मुख्यालय कटिहार से इस गांव की दूरी लगभग 15 किमी पर है। गांव में तक़रीबन 900 परिवार हैं, जिनमें से महत्वपूर्ण हिस्सा अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) का है। भारत की 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इस गांव की 86% आबादी सीधे तौर पर खेतीबाड़ी पर निर्भर है, वो चाहे कृषक के रूप में हो या फिर खेतिहर मज़दूर हों। इस गांव के लगभग सभी किसान छोटे और सीमांत जोतों के मालिक हैं। कृषि भूखंड आम तौर पर आकार में छोटे हैं और ज़मीन भी असमतल है।

हाल के वर्षों में इस गांव को बाढ़ का सामना करना पड़ा है जिसके कारण भारी पैमाने पर खरीफ की फसलों को नुकसान पहुंचता रहा है। इसलिए जो परिवार खेती पर निर्भर हैं, उनके लिए रबी की फसलें जीवनदायनी साबित होती हैं। अभी फिलहाल खेतों में मक्का और गेहूं की फसल खड़ी है। कुछ किसानों ने ज़मीन के एक छोटे से हिस्से पर गरमा धान (ग्रीष्मकालीन धान) बो रखा है। गांव में निचले स्तर पर पड़ने वाली ज़मीनों का उपयोग मखाने (पानी की फसल) की खेती के उत्पादन में किया जाता है। एक व्यक्ति ने बताया कि मक्के के पौधों में फलियां निकल आईं हैं और मई तक फसल कटने के लिए तैयार हो जाएगी। मक्के की फसल कटाई से पहले दो चक्र में इसमें पानी और यूरिया देने की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन लॉकडाउन की वजह से किसानों को यूरिया जैसी खाद ख़रीद पाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। खाद विक्रेताओं की ओर से यूरिया खाद को इसकी वास्तविक क़ीमत से 10-20% ऊंचे दामों पर बेचा जा रहा है। इस रिपोर्ट के लिए बात करने वाले सभी व्यक्ति अपने मक्के के खेतों में परिवार के श्रमिक भी लगाते हैं। ग्रीष्मकालीन धान की पौध फिलहाल अभी छोटी है, जो जून तक कटने के लिए तैयार हो जाएगी।

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मखाने की खेती (बाएं)। मक्के की फसल की बालियों में फलियां लगनी शुरू हो चुकी हैं जो मई तक कटने के लिए तैयार हो जाएगी। (दाएं)

गांव में गेहूं की कटाई शुरू हो चुकी है। सभी किसान गेहूं की कटाई हाथ से ही करते हैं। बातचीत में सभी व्यक्ति ने बताया कि वे सभी लोग अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर गेहूं के खेत में काम कर रहे हैं। जब वे अपनी गेहूं की फसल काट लेंगे तो इसके बाद वे लोग दूसरों के खेतों में फसल कटाई के काम में लग जाएंगे। अभी तक तो लॉकडाउन से खेतीबाड़ी के काम में कोई दिक्कत नहीं आई है, लेकिन किसान ज़्यादा चिंतित गेंहूं की बिकवाली को लेकर हैं। जब इस बाबत सवाल पूछा गया कि यदि केंद्र ने लॉकडाउन को आगे बढाने का फैसला लिया तो क्या होगा, तो एक व्यक्ति का कहना था कि "मोदी जी भले ही लॉकडाउन बढ़ा दें लेकिन हमारा गेहूं खरीद लें।" आगे बोलते हुए उन्होंने बताया कि बहुत से किसानों के पास फसल के भंडारण करके रख सकने की क्षमता नहीं है और उपज भी अधिक नहीं है; इसलिए वे स्थानीय व्यापारियों से गेहूं बेच देते हैं। उनका अनुमान है कि स्थानीय व्यापारी औने-पौने दामों में गेहूं ख़रीद लेंगे और जमा कर लेंगे, क्योंकि इन व्यापारियों के पास भी छोटे गोदाम ही हैं। हालांकि पिछले वर्षों के विपरीत अभी तक स्थानीय व्यापारियों ने गेहूं की ख़रीद के लिए किसानों से संपर्क नहीं साधा है।

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गेहूं कटाई का काम जारी

गांव में कई रिक्शा चालक, दिहाड़ी मज़दूर और किराने की दूकान में काम करने वाले लोग हैं जिनके पास अब काम नहीं रही, और लॉकडाउन के कारण वे अपने काम पर नहीं जा पा रहे हैं। जिन लोगों से इंटरव्यू लिए गए उनमें दो प्रवासी मज़दूर भी शामिल थे, जो हाल ही में नई दिल्ली और सूरत से लौटे थे। एक व्यक्ति सूरत के कपड़ा मिल में काम कर रहे थे। वह होली मनाने के लिए गांव आए थे। जबकि दूसरा व्यक्ति नई दिल्ली में कंस्ट्रक्शन मज़दूर के बतौर काम कर रहे थे। उन्होंने जनता कर्फ्यू (22 मार्च) के दिन ही दिल्ली छोड़ दी थी, क्योंकि उसे कहीं न कहीं इस बात का आभास हो गया था कि ये कर्फ्यू आगे भी बढ़ सकती है। हालांकि उन्हें ट्रेन नहीं मिल सकी, इसलिए वो पहले यूपी बॉर्डर पहुंचे और फिर कई वाहनों की अदला-बदली कर किसी तरह मुंगेर और फिर कटिहार पहुंचे। उनका कहना है कि जब पीएम ने जनता कर्फ्यू की घोषणा की, तो उन्हें और उनके साथ काम करने वाले मज़दूरों ने अंदाज़ा लगा लिया कि हो न हो ये लॉकडाउन लंबा खिंच सकता है। जनता कर्फ्यू की घोषणा के बाद से वैसे भी उनके पास कोई काम नहीं रह गया था और दिहाड़ी मज़दूर के रूप में उनके लिए बिना काम और पैसे के दिल्ली में रहना काफी मुश्किल होता। वर्तमान में ये प्रवासी मज़दूर गांव में भी बिना किसी काम के रह रहे हैं।

अधिकांश आवश्यक खाद्य सामग्री के लिए गांव के बाज़ार पर निर्भर हैं। जैसे ही लॉकडाउन की शुरुआत हुई थी, आवश्यक खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में जबर्दस्त उछाल देखने को मिला। इसके चलते ही ज़िला प्रशासन ने आवश्यक वस्तुओं की अधिकतम थोक और खुदरा क़ीमतों को सूचीबद्ध करते हुए एक रेट चार्ट जारी किया था। हालांकि प्रशासन की ओर से की गई सक्रिय पहल क़दमी के बावजूद ग्रामीण ऊंची दरों पर सामान ख़रीदने एक लिए मजबूर हैं।

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नीचे दी गई तालिका कुरैथा गांव में आवश्यक खाद्य पदार्थों की क़ीमतों को दर्शाती है।

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उधर गांव में दूध की क़ीमत कम हो गई है। लॉकडाउन के शुरूआती दो-तीन दिनों के बाद से दूधवाले मुंहमांगे दामों पर दूध बेचने लगे थे। कुरैथा गांव के कई दुग्ध विक्रेता गांव और कटिहार बाज़ार की मिठाई की दुकानों पर दूध बेचते थे। मिठाई की दुकानें पूरी तरह से बंद हो जाने के बाद दूध की मांग में भारी कमी आ गई थी, इसलिए दूध की क़ीमतों पर असर पड़ा है। एक व्यक्ति ने बताया कि दुग्ध उत्पादकों ने अब दूध में से वसा अलग करने का काम शुरू कर दिया है। ये दुग्ध विक्रेता अब वसा और बिना वसा वाला दूध अलग से बेच रहे हैं। वसा रहित दूध जो पहले 30-35 रुपये प्रति लीटर तक में उपलब्ध था, अब 20-25 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा जा रहा है।

एक व्यक्ति ने बताया कि गांव में पुलिस की गश्त भी बढ़ गई है। पुलिस तत्परता से लॉकडाउन को सफल बनाने का काम रही है, लेकिन ये आदेश मात्र आर्थिक गतिविधियों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। गांव में लोगों का एक घर से दूसरे घर पर आने-जाने का सिलसिला नहीं थमा है। गांव में सब्जी, किराने और खाद की दुकानों के अलावा सभी दुकानें बंद हैं।

संक्षेप में कहें तो खेतिहर परिवारों को दो मामलों में फौरी राहत की ज़रूरत आन पड़ी है और वह है उचित मूल्य पर गेहूं की ख़रीद हो सके और खाद के दामों पर लगाम लग सके। इसके अलावा जो परिवार मज़दूरी पर आश्रित हैं, उन्हें नियमित तौर पर खाद्यान्य और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के साथ-साथ गांव के भीतर किसी तरह के ग़ैर-खेतिहर कार्य की आवश्यकता है। एक व्यक्ति ने बताया कि गांव में मनरेगा स्कीम पर काम नहीं हो रहा है। बेरोज़गारी में वृद्धि के मद्देनजर, इस स्कीम के तहत काम करना मददगार साबित होगा। हालांकि दुग्ध उत्पादकों ने अपने नुकसान को कम करने का अनोखा रास्ता ढूंढ निकाला है, लेकिन उनके लिए मदद की गुंजाइश बनाई जा सकती है। दुग्ध उत्पादकों के नुकसान को सहकारी समितियों की मदद से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच दुग्ध आपूर्ति की व्यवस्था को स्थापित करने के माध्यम से कम किया जा सकता है।

[यह रिपोर्ट 30 मार्च से लेकर 10 अप्रैल के बीच हुई तीन सीमान्त किसानों, तीन काश्तकारों/ खेतिहर मज़दूरों और दो प्रवासी मज़दूरों के साथ टेलीफोन पर हुई बातचीत के आधार पर तैयार की गई है।]

लेखक नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में शोधार्थी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XXIV: Harvesting Underway But Farmers Worried Over Procurement in Bihar

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