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दिल्ली-एनसीआर में बिहार के 80 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों की आमदनी शून्य हुई

क़रीब 87 प्रतिशत श्रमिकों ने कहा कि अप्रैल-मई के महीने में उनके पास न तो कोई नौकरी थी और अपने परिवारों को खिलाने के लिए न ही पर्याप्त कमाई करने का कोई ज़रिया था। यह बातें 24 मार्च को कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए अचानक किए गए लॉकडाउन के प्रभाव पर किए गए एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में दर्ज की गई हैं।
दिल्ली-एनसीआर में बिहार के 80 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों की आमदनी शून्य हुई

24 मार्च को अचानक किए गए लॉकडाउन की घोषणा के तीन महीने बाद, दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बिहार के प्रवासी श्रमिकों के सामने नौकरियों को लेकर अत्यधिक निराशा और असुरक्षा देखने को मिली, करीब 87 प्रतिशत श्रमिकों ने कहा कि उनके पास किसी भी तरह की कोई नौकरी नहीं थी और न ही पर्याप्त कमाई कर पाने का कोई सुराग था ताकि वे अपने परिवारों का पेट भर सके, इन सब तथ्यों का पता कोविड-19 के खतरे के मद्देनजर घोषित देशव्यापी तालाबंदी के प्रभाव पर किए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट से चला। जून के महीने में बिहार से दिल्ली-एनसीआर में काम करने वाले 310 प्रवासी परिवारों का टेलीफोनिक सर्वेक्षण किया गया जिसमें 1,586 लोगों ने भाग लिया था।

बिहार के ये प्रवासी श्रमिकों गहरे वित्तीय संकट और अनिश्चित भविष्य का समाना कर रहे थे। इस तथ्य का इस बात से चलता है कि 80 प्रतिशत से अधिक परिवारों ने कहा है कि अप्रैल और मई के महीनों के दौरान उनकी आय शून्य हो गई थी, जबकि 87 प्रतिशत उत्तरदाताओं (श्रमिकों) ने बताया कि अगले छह माह में उनकी भविष्य की आय "बेहद अनिश्चित" है क्योंकि वे अब भी बेरोजगार हैं।

कुल 48 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि वे लॉकडाउन के दौरान कुछ आय अर्जित में कामयाब रहे, लेकिन, उनकी औसत आय लॉकडाउन के पहले की आय की तुलना में लगभग आधी ( यानि करीब 56 प्रतिशत) हो गई थी। नतीजतन, इन परिवारों के बहुमत हिस्से का औसत मासिक खर्च लॉकडाउन के पहले के खर्च का आधा ( यानि 48 प्रतिशत) हो गया था।

70 प्रतिशत से अधिक उत्तरदाताओं (श्रमिकों) ने कहा कि वे चाहते थे कि शहरी क्षेत्रों में भी मनरेगा जैसी रोजगार की योजना हो, वह भी बढ़ी हुई मजदूरी दरों के साथ-साथ ही उनमें से कुछ (30 प्रतिशत) ने कहा कि उनके पास पहले से ही मनरेगा (ग्रामीण नौकरी गारंटी योजना) जॉब कार्ड हैं।

उत्तरदाताओं (श्रमिकों) में मूल रूप से अररिया, औरंगाबाद, बेगूसराय, बेतिया, भागलपुर, चंपारण, छपरा, दरभंगा, हाजीपुर, मधुबनी, मोतिहारी, पटना, रोहतास, सहरसा, समस्तीपुर, सासाराम, सीतामढ़ी और सीवान जिले से शामिल थे और सभी दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा आदि में काम कर रहे थे।

सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 70 प्रतिशत से अधिक परिवारों को जन धन खातों में कोई पैसा नहीं मिला है, और 90 प्रतिशत परिवारों ने यह भी बताया कि पीएम गरीब कल्याण योजना की घोषणा के तीन महीने बाद भी उन्हें कोई मुफ्त गैस सिलेंडर नहीं मिला है।

बढ़ती महामारी के डर के बीच, 96 प्रतिशत परिवारों ने कोविड-19 के संक्रामण के अलावा कुछ अन्य बीमारियों से ग्रस्त सदस्यों के बारे में भी सूचना दी, उन्होने बताया कि लॉकडाउन के कारण इन रोगियों के इलाज में गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।

संयोग से, पीएम गरीब कल्याण योजना की घोषणा के माध्यम से लॉकडाउन के कारण गरीबों को हुई परेशानियों के मद्देनजर कुछ राहत प्रदान करने के लिए तीन ठोस वादे किए थे। ये थे- जन-धन बैंक खातों में तीन महीने के लिए 500 रुपये का भुगतान, मुफ्त राशन, मुफ्त गैस सिलेंडर।

हालांकि, सर्वेक्षण की रपट लिखने वाले लेखकों ने पाया कि 14 प्रतिशत परिवारों को मुफ्त राशन नहीं मिला, 72 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उन्हें 500 रुपए का कोई नकद हस्तांतरण नहीं मिला है और 89 प्रतिशत परिवारों ने लॉकडाउन के तीन महीने बितने के बाद भी मुफ्त गैस सिलेंडर नहीं मिलने की सूचना दी है। इस तरह की विकट स्थिति, केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इन योजनाओं को अधिक गंभीरता और कुशलपूर्वक लागू करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

सर्वेक्षण के दौरान किए गए टेलीफोन कॉलों प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवारों की निराशाजनक और सरकार द्वारा उन्हे त्यागने की स्थिति काफी स्पष्ट थी, जिनमें से अधिकांश श्रमिक जीवित रहने के लिए बुनियादी मदद मांग रहे थे, जैसे कि राशन, घर का किराया, दवा और किसी भी सरकारी एजेंसी के माध्यम से न्यूनतम नकद सहायता।

अधिकांश श्रमिक जो अभी भी दिल्ली-एनसीआर में रह रहे थे, ने कहा कि वे अभी भी अपने मूल स्थानों यानि गावों में वापस जाने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए, यह समय की जरूरत है, कि सरकार उन्हें अंतिम उपाय के तौर पर (शहरी रोजगार गारंटी) के माध्यम से कुछ रोजगार दे, कुछ नकद दे और मुफ्त भोजन के साथ-साथ सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं भी मुहैया कराए।

सर्वेक्षण का विवरण

हालांकि सर्वेक्षण नमूना कोई प्रतिनिधि नमूना नहीं हो सकता है, लेकिन यह जरूर जमीनी हक़ीक़त की तरफ काफी हद तक इशारा करता है।

सर्वेक्षण में शामिल प्रवासी परिवारों में 198 हिंदू परिवार थे और 112 मुस्लिम परिवार थे। नौ अनुसूचित जनजाति, 40 अनुसूचित जाति, 148 अन्य पिछड़ा वर्ग और 113 परिवार अन्य जाति की पृष्ठभूमि से थे।

जहां तक उत्तरदाताओं (श्रमिकों) की शैक्षिक पृष्ठभूमि का सवाल है, तीन स्नातक थे, 119 ऐसे थे जो कक्षा 10 पास कर चुके थे, जबकि 170 स्कूल और मदरसा ड्रॉप-आउट थे और नमूने में 18 निरक्षर उत्तरदाता भी थे।

उत्तरदाता (श्रमिक) विभिन्न व्यावसायिक पृष्ठभूमि से थे, जिनमें कारखाने के श्रमिक, दैनिक वेतन भोगी, गृहिणियां, सब्जी विक्रेता, कपड़ा श्रमिक, इलेक्ट्रीशियन, ऑटोमोबाइल मैकेनिक, ड्राइवर, फेरीवाले, दुकान के रखवाले आदि शामिल थे। इनके घरों की औसत मासिक कमाई लॉकडाउन से पहले प्रति माह 12,000 रुपये से थोड़ी अधिक थी। हमारे नमूना घरों के परिवार का औसत आकार पांच से थोड़ा अधिक था, जिसमें परिवार में दो से 10 सदस्य तक थे। लॉकडाउन से पहले इन परिवारों की प्रति व्यक्ति आय 600 रुपए से लेकर 17,500 रुपए प्रति माह थी, जो 2,650 रुपए प्रति माह की औसत बैठती है।

इन लोगों का वर्गीय परिप्रेक्ष्य बेहद दिलचस्प है। यदि लॉकडाउन से पहले की स्थिति में इन 293 परिवारों के प्रति व्यक्ति आय के आधार पर मोटे तौर पर पांच समान समूहों में विभाजित करें तो हम देखते हैं कि जनसंख्या के गरीब वर्ग के लिए व्यय का संकुचन तुलनात्मक रूप से समृद्ध वर्गों की तुलना में अपेक्षाकृत काफी कम है। चूंकि, लोगों का गरीब तबका अधिकतर उपभोगता वाली वस्तुओं पर खर्च करता है, इसलिए उनके लिए उन खर्चों में कटौती करना आसान नहीं था। 310 ( यानि 79 प्रतिशत) में से कुल 245 उत्तरदाता (श्रमिक) लॉकडाउन के कारण कर्ज़ में डूब गए थे।

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स्रोत: आर्वेक्षण डाटा

कुल मिलाकर, सर्वेक्षण में पाया गया कि दिल्ली-एनसीआर में बिहारी प्रवासी श्रमिकों की स्थिति काफी निराशाजनक है, जो निराशा और परित्याग की स्थिति में रह रहे हैं। अचानक लॉकडाउन  की घोषणा से प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा, इस तथ्य को रेखांकित करती है कि भारतीय आबादी का यह विशाल वर्ग आज सबसे कमजोर तबके में से एक है, क्योंकि वे न तो घर रहे और न ही घाट के। उनके साथ उनके अपने ही गांवों और कस्बों में बाहरी लोगों के समान व्यवहार किया जा रहा है, और उन जगहों पर उनके लिए कोई काम भी नहीं है जहां वे अब तक काम कर रहे थे। वास्तव में, प्रवासी श्रमिक आज सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से आबादी के सबसे वंचित तबके में से हैं। इसलिए, समय की जरूरत है कि उन्हें अंतिम उपाय के रूप में  कुछ रोजगार, नकद हस्तांतरण और मुफ्त भोजन के साथ-साथ सस्ती स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। आशा है, कि दुनिया का सबसे बड़ा संघीय लोकतंत्र उनके मुद्दों को जल्द ही संबोधित करेगा।

सुरोजित दास, सेंटर फ़ॉर इकोनॉमिक स्टडीज़ एंड प्लानिंग, जेएनयू, दिल्ली में सहायक प्रोफ़ेसर हैं, और एमयू फ़ारूख़ मास जर्नल के प्रबंध संपादक हैं।

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