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काले लोगों की लड़ाई से भारत को सीख

बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक संस्थानों के छात्रों और कार्यकर्ताओं को आए दिन उठा लिया जा रहा है और उनके ऊपर बेरहम कानूनों को थोपा जा रहा है। इस बीच बीजेपी ने देश के विभिन्न हिस्सों से अनेकों प्रमुख दलित और मुस्लिम कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन से जुड़े लोगों, किसान यूनियनों और वकीलों को गिरफ़्तार कराने में कामयाबी हासिल कर ली है।
काले लोगों की लड़ाई से भारत को सीख
प्रतीकात्मक तस्वीर

इस तीन भाग की श्रंखला में, लेखिका की ओर से अमेरिका में चल रहे ब्लैक लाइव मैटर्स आन्दोलन की रोशनी में भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के बीच तुलनात्मक विश्लेषण किया जायेगा। इस लेख में लेखिका की ओर से जन-आंदोलनों में मौजूद लोकतान्त्रिक मूल्यों और उनके योजनाबद्ध तरीके से दमन के तौर-तरीकों पर रोशनी डालने का प्रयास किया जायेगा।  

मिनियापोलिस में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या संयुक्त राज्य अमेरिका में काले लोगों के खिलाफ किये जाने वाले हजारों अन्य अत्याचारों के मामलों के समान ही एक मामले के तौर पर देखा जाना चाहिए। अफ़्रीकी अमेरिकी नस्ल के लोगों को पुलिस द्वारा यहाँ पर नियमित तौर पर हिरासत में ले लेने का क्रम बना हुआ है। सार्वजनिक स्थलों पर उनकी गोली मारकर हत्या कर देना और तत्पश्चात बिना किसी आपराधिक मुकदमों के मामले को रफा-दफा कर देना यहाँ पर बेहद आम बात है। लेकिन इस बार एक के बाद एक तीन काले लोगों की हत्याओं, जिसमें जॉर्ज फ्लॉयड और ब्रेओंना टेलर की हत्या पुलिस के हाथों हुई थी और अह्मौद अर्बेरी की तीन गोरों समुदाय के लोगों द्वारा, ने भारी पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों और विद्रोह को सारे संयुक्त राज्य अमेरिका में बिखेर दिया है। पुलिसिया बर्बरता की इन लगातार चली आ रही घटनाओं के अतिरिक्त अमेरिका में काले , लातिनी और देशज कार्यकर्ताओं की साझा एकजुटता को नष्ट करने का एक लम्बा इतिहास रहा है। [1]

इस बीच अनेकों प्रतिष्ठित कार्यकर्ताओं को आजीवन कारावास की सजा हुई है और मैल्कम एक्स और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे बेहद लोकप्रिय नेताओं को काले  वर्चस्ववादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ा था। 1956 में ऍफ़बीआई के कोइंटेलप्रो (COINTELPRO) कार्यक्रम को खास तौर पर ध्यान में रखकर स्थापित किया था। इसका मुख्य काम ही था कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ यूएसए, सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी, पुएर्तो रिकन इंडिपेंडेंट मूवमेंट, द अमेरिकन इंडिपेंडेंट मूवमेंट, द ब्लैक पैंथर्स, द नेशन ऑफ़ इस्लाम और स्टूडेंट्स फॉर अ डेमोक्रेटिक सोसाइटी जैसे कई अन्य को चुनकर निशाना बनाना और योजनाबद्ध तरीके से ऐसे ग्रुपों को बदनाम करना। इस प्रकार की रणनीति पर आज भी काम चल रहा है और एफबीआई की आतंकवाद विरोधी शाखा काले  कार्यकर्ताओं और नागरिक अधिकार समूहों की गतिविधियों पर अपनी नजर गड़ाए हुए है [2]।

उम्मीद और बदलाव के लिए गुंजाईश

इतिहास पर यदि एक नजर दौडाएं तो हम पाते हैं कि गोरे  वर्चस्ववादियों के खिलाफ अनेकों विद्रोह आयोजित किये जाते रहे हैं, जोकि अपनेआप में अमेरिका में दमनकारी राज्य के तौर पर स्थापित रहे हैं। लेकिन मिनियापोलिस और अन्य शहरों के इस हालिया घटनाक्रम में जो देखने को मिला है वह काले, लातिनी और देशज मजदूर वर्ग की ओर से चलाए जा रहे दशकों पुराने सामुदायिक संगठनात्मक और राष्ट्रव्यापी विध्वंश के आन्दोलन की बदौलत हासिल हो सकी जीत है।[3] यह आन्दोलन आज के दिन राज्य के चरित्र को, इसकी नस्लवादी जड़ों और कमजोर समुदायों पर इसके प्रभाव को बढ़ाने में सफल रहे हैं। इस चेतना की बदौलत ही दसियों लाख उत्पीडित लोग एकजुट हो सके हैं, जिसमें सहयोगी भी शामिल हैं और वे मिलजुलकर इसे सीखने और इस दमन के चक्र को तोड़ने के लिए तैयार हैं।  

लगातार जारी इन ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शनों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्द राजनीतिक कार्यकर्त्ता प्रोफेसर एंजेला डेविस का कहना है “यह एक असाधारण क्षण है....यह एक ऐसा क्षण है जिसके बारे में मैंने कभी कल्पना भी नहीं कि थी कि मुझे इसका अनुभव प्राप्त हो सकेगा....जब ये विरोध प्रदर्शन फूटने शुरू हुए, तो मुझे अपनी ही कही वो बात याद आ गई जो मैं अक्सर कार्यकर्ताओं से उनके उत्साहवर्धन के लिए कहा करती थी। उस समय उन्हें अक्सर ऐसा लगता था कि वे लोग जो काम कर रहे हैं, उनसे आशातीत सफलता मिलने नहीं जा रही। मैं अक्सर उनसे कहा करती थी कि उन्हें अश्वेत संघर्षों को बेहद विस्तृत फलक पर देखने की आवश्यकता है। इसमें क्षणिक जीत से भी महत्वपूर्ण है भविष्य को मजबूत करना, संघर्षों के नए फलक की ओर देखना जिसे भावी पीढ़ी को सुपुर्द करने की जिम्मेदारी है।

लेकिन मैंने अक्सर कहा है कि किसी को नहीं पता कि परिस्थितियाँ कब अचानक से करवट बदल लेती हैं और हमें एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर देती हैं जैसा कि हम आज वर्तमान में होते देख रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में जो बड़ी तेजी से लोकप्रिय चेतना में बदलाव लाने का काम करती हैं और अचानक से हमें क्रन्तिकारी बदलावों की दिशा में मुड़ने का अवसर प्रदान करती हैं। यदि आप रोज-ब-रोज के कामों में नहीं लगे होते हैं तो जब ऐसे क्षण आते हैं तो ऐसे में हम ऐसे अवसरों को परिवर्तन में बदल पाने में चूक सकते हैं। [4]  

काले, लातिनी अमेरिकियों और देशज समुदायों के निकाय आज हिंसा के क्षेत्र बन चुके हैं और आगे भी ऐसा जारी रहने वाला है। लेकिन इस प्रकार के जीवंत जन आंदोलनों का अस्तित्व ही, वो चाहे स्वतःस्फूर्त हो या संगठित तौर पर इसे चलाया जा रहा हो, हमारे लिए आशा और विश्वास की जगह बनाने का काम करते हैं। संस्थाबद्ध नस्लवाद के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने के लिए, और राज्य को उसके पूर्वाग्रहों के प्रति जिम्मेदारी तय करने के लिए यह संघर्ष हमारे लिए अपरिहार्य बन जाता है।

भारतीय राज्य का जनता के आंदोलनों पर दमनकारी चक्र

ठीक इसी प्रकार से भारत में दमनात्मक कानूनों के तहत कार्यकर्ताओं की गैर-क़ानूनी हिरासत और प्रताड़ना का काम कोई नई परिघटना नहीं है। जैसा कि इतिहास से पता चलता है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(आईएनसी) ने भी अक्सर दलितों, आदिवासी कार्यकर्ताओं और कश्मीर में मुसलमानों को, जिन्होंने दशकों से राज्य में भूमि और अन्य मूल्यवान संसाधनों पर राज्य के आधिपत्य को चुनौती दी है जो इन समुदायों के स्वामित्व और संरक्षित हैं। आज हमारे पास एक से बढ़कर एक दमनात्मक कानून मौजूद हैं, जिन्हें वास्तव में देखें तो आईएनसी ने कानूनी जामा पहनाने का काम किया था। लेकिन पिछले 5 वर्षों के दौरान भारतीय जनता पार्टी की साम्प्रदायिक राजनीति की मुखालफत के चलते जिस तेजी के साथ कार्यकर्ताओं को एक रणनीतिक तौर पर गिरफ्तार किया जा रहा है, वह बेहद चिंताजनक है। इस हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार ने कानून को अमल में लाने वाली मशीनरी का एक विशेष सामुदायिक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हमले के तौर पर इस्तेमाल किया है वह किसी सोची समझी रणनीति के तहत समुदाय विशेष के पोग्रोम के समान है।

आयेदिन बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक संस्थानों से सम्बद्ध कार्यकर्ताओं और छात्रों को हिरासत में ले लिया जा रहा है। उनके खिलाफ बेहद भयावह गैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए), राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए), आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) एवं भारतीय दण्ड संहिता की अन्य दमनात्मक धाराओं के तहत जेलों में ठूंसा जा रहा है। कई महत्वपूर्ण दलित और मुस्लिम कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन के नेताओं, किसान यूनियन के नेताओं और वकीलों को देश के अलग-अलग कोनों से गिरफ्तार करने में बीजेपी कामयाब रही है।

जिस प्रकार से हजारों की संख्या में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ आंदोलनरत प्रदर्शनकारियों को एक के बाद एक हिरासत में लिया जा रहा है वह केवल कार्यकताओं की गिरफ्तारी तक ही सीमित नहीं रह गया है। इसके बजाय हाशिये पर खड़े इस समुदाय के आम नागरिकों तक को नहीं बक्शा जा रहा है। आमतौर पर इससे पहले इस प्रकार की निरंकुश सत्ता का स्वाद उत्तर पूर्वी भारत और जम्मू कश्मीर में कश्मीरी मुसलमानों तक को ही चखने को मिलता था। लेकिन अब इसी प्रकार की रणनीति को समूचे भारतवर्ष में अपनाया जा रहा है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने तो जैसे पुलिस को सैकड़ों गैर-न्यायिक हत्याओं की खुली छूट दे रखी है[5]। कई डिटेंशन केन्द्रों का निर्माण किया जा चुका है जिसमें लोगों को गिरफ्तार कर उनपर “अवैध मुस्लिम अप्रवासी” होने का आरोप मढ़ा जा रहा है। यहाँ तक कि कोविड-19 तक को भारत में साम्प्रदायिक रंग देने का काम किया गया, जिसके चलते मुस्लिमों के खिलाफ व्यापक पैमाने पर हमले और भेदभावपूर्ण व्यवहार देखने को मिले हैं।  

इस सबके अलावा तकरीबन सभी बड़े मीडिया चैनलों ने भी हाशिये पर रह रहे समुदायों के खिलाफ अभियान चलाकर हिन्दुत्ववादी राज्य के साम्प्रदायिक अजेंडा को प्रचारित प्रसारित करने में अपनी अहम भूमिका निभाई है। ऐसे अनेकों हिन्दू राष्ट्रवादी सतर्कता समूह हैं जो पुलिस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ये राष्ट्रवादी ग्रुप ठीक कु क्लुक्स क्लान और अन्य श्वेत वर्चस्ववादी निगरानी समूहों की तरह हैं जो अमेरिका में नस्लभेदी नीतियों को प्रश्रय देते आये हैं। इस सबके बावजूद इस राक्षसी सांप्रदायिक राजनीति और असंतोष के व्यवस्थित दमन को चुनौती देने के लिए भारत में ब्लैक लाइव्स मैटर जैसी कोई देशव्यापी कार्रवाई नहीं हो सकी है।

भारतीय लोकतंत्र में भारतीय मुसलमान

ये परिस्थितियाँ आपराधिक न्याय तंत्र के दुरुपयोग के संदर्भ में जमीनी स्तर पर भले ही एक जैसी लगें, लेकिन वे भिन्न इतिहासों से उपजी हैं। अमेरिका में अश्वेत समुदाय और देशज लोगों के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से नस्लभेद भारत में सदियों से चले आ रहे दलितों और आदिवासियों के खिलाफ जारी हिंसा को समझने के लिए एक उपयोगी मॉडल साबित हो सकते हैं। लेकिन औपनिवेशिक काल के बाद के भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जारी हिंसा को समझने के लिए अलग लेंस की जरूरत पड़ेगी। विभाजन के बाद से ही राज्य की पुलुसिया शक्ति में एक बदलाव देखने को मिलता है। कानून व्यवस्था को लागू कराने के मामले में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व में काफी गिरावट आ चुकी है।[6] इस बात को समझना काफी महत्वपूर्ण होगा कि वर्तमान भारत में मुसलमानों की हैसियत में जो गिरावट देखने को मिल रही है उसके पीछे पुलिस प्रशासन में कम प्रतिनिधित्व ही एकमात्र वजह नहीं है। इसकी वजह यह है कि उन्हें  विकास के हर सामाजिक मानदंडों के लिहाज से सबसे निचले स्तर पर धकेल दिया गया है, यहाँ तक कि दलितों (अनुसूचित जाति) और आदिवासियों (अनुसूचित जनजाति) जैसी अन्य उत्पीडित समूहों की तुलना में भी[7]।

निगरानी तंत्र के वैश्विक इतिहास पर यदि नजर डालें तो आप पायेंगे कि हमेशा से इसका रुख बहुसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा करना और बहुसंख्यक तबके की सम्पत्ति की हिफाजत करने का रहा है। अमेरिका में हिंसा की मुख्य प्रवत्ति के तौर पर श्वेत बनाम अश्वेत, श्वेत बनाम लातिनी, और श्वेत बनाम देशज लोग रहे हैं। लेकिन भारत में यह बहुआयामी रहा है क्योंकि यहाँ पर अनेकों जातियों की अपनी पहचान के साथ उपस्थिति रही है, जो कभी भी लोगों में विभाजन के प्रयासों को बहुआयामी सामुदायिकता और क्षेत्रीय जटिलताओं के चलते खत्म नहीं किया जा सकता। इन विभाजनों के बावजूद इनके बीच में जो एक चीज आम है वो है राज्य द्वारा पुलिस के जरिये अत्याचारों को जारी रखना और अल्पसंख्यकों की आबादी के अनुपात से कई गुना अधिक जेलों में उन्हें बंद रखने के आंकड़े।

लेखिका फुलब्राइट इंडिया की फेलो सदस्य हैं और आजकल फिलाडेल्फिया में रहती हैं। दृष्टिकोण व्यक्तिगत हैं।

[1] ब्रान्को मर्सटिक. द ऍफ़बीआई सीक्रेट वार. जेकोबीन
[2 ऐलिस स्पेरी. द एफबीआई स्पेंड्स अ लॉट ऑफ़ टाइम स्पायिंग ऑन ब्लैक अमेरिकनस. द इंटरसेप्ट.
[3]  व्हाट इस प्रिजन अबोलिशन? क्रिटिकल रेजिस्टेंस.
[4] अपराइजिंग एंड अबोलिशन: एंजेला डेविस ऑन मूवमेंट बिल्डिंग, “डीफण्ड द पुलिस” एंड व्हेर वी गो फ्रॉम हियर. डेमोक्रेसी नाउ.
[5] द वायर स्टाफ. यूएन राइट्स बॉडी ‘एक्सट्रीमली कंसर्नड’ अबाउट फेक एनकाउंटर्स इन योगी आदित्यनाथ’स यूपी. द वायर.
[6] शर्जील उस्मानी. चार्टिंग हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन मुस्लिम्स एंड द पुलिस: फ्रॉम ब्रिटिश एरा टू एएमयू वायलेंस, अ स्टोरी ऑफ़ इंजस्टिस. फर्स्टपोस्ट.
[7] मारिया थॉमस. इंडियास ग्रोथ स्टोरी इस लीविंग आउट इट्स मुस्लिम माइनॉरिटी. क्वार्टज़ इंडिया.

सौजन्य: द लीफलेट

 इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

India’s Lessons From The Black Abolitionists

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