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ग्रामीण भारत में कोरोना-12 : कटाई ना कर पाने की वजह से लातूर के किसानों की फसलें सड़ रही हैं

जैसे ही बाज़ारों में फसलों की बिक्री शुरू होगी, तब ज़रूरी नहीं कि किसानों को अच्छे दाम भी मिलें, वहीं दूसरी ओर उपभाक्ताओं को खाद्य पदार्थों के लिए पहले से कहीं ऊँचे दाम चुकाने होंगे।
ग्रामीण भारत में कोरोना
प्रतीकात्मक चित्र. सौजन्य: डेक्कन हेराल्ड

यह एक जारी श्रृंखला की 12वीं रिपोर्ट है जो कोविड-19 से संबंधित नीतियों के चलते ग्रामीण भारत के जीवन पर पड़ रहे प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है जो भारत के विभिन्न हिस्सों में बसे गाँवों के अध्ययन के संचालन में जुटे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख सूचना प्रदाताओं के साथ की जाने वाली टेलीफोन वार्ताओं के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में पड़ने वाले जिले लातूर के दो गाँवों में बसे लोगों के जीवन और उनकी आजीविका पर कोविड-19 महामारी और देशव्यापी तालाबंदी से पड़ रहे असर को दर्शाया गया है, जिन्हें अपने काम का नुकसान झेलना पड़ रहा है। कई किसानों को भारी नुकसान होने जा रहा है क्योंकि वे अपनी पूरी तरह से पक चुकी फसल को काट पाने में असमर्थ हैं, जो कि इस भयानक गर्मी में झुलस रही है।

लातूरवाड़ी और वाज़गाँव (बदले हुए नाम हैं) महाराष्ट्र के मराठवाड़ा मंडल में पड़ने वाले लातूर जिले के दो गाँव हैं। ये गाँव मुख्यतया खेतिहर इलाके में पड़ते हैं, और आसपास में कोई औद्योगिक या शहरी केंद्र नहीं है। इस वजह से इन दोनों ही गाँवों के लोगों की आजीविका का प्राथमिक स्रोत खेतीबाड़ी पर निर्भर है।

लातूरवाड़ी एक छोटा गाँव है जिसकी आबादी 1,500 से 1,700 के बीच होगी। निकटतम राजमार्ग यहाँ से करीब 14 किमी की दूरी पर है और यातायात की हालत खस्ता होने के साथ-साथ फोन की कनेक्टिविटी भी काफी खराब है। इसके विपरीत वाज़गाँव तुलनात्मक तौर पर एक बड़ा गाँव है और राजनीतिक तौर पर काफी मायने रखता है। इसकी आबादी 7,000 से 8,000 के बीच है और निकटतम राजमार्ग यहाँ से से पाँच किमी की दूरी पर है। लातूरवाडी और वाजगाँव गाँवों के बीच की दूरी एक दूसरे से करीब 35 किमी से अधिक की होगी। लातूर जिला जहाँ लगातार सूखा पड़ने के चलते पानी के घोर संकट का सामना करने के लिए जाना जाता है, उसकी तुलना में इस ब्लॉक की स्थिति इस मामले में थोड़ी सी ठीक है। यहाँ सिंचाई के लिए बाँध जैसे (छोटे या बड़े) किसी भी प्रकार के सार्वजनिक स्रोत मौजूद नहीं हैं लेकिन सिंचाई के लिए कुछ तालाब अवश्य हैं। इसके अलावा निजी तौर पर सिंचाई के भी कुछ साधन हैं जैसे कि बोरवेल और निजी खेतों में कुछ लोगों के पास सिंचाई के लिए पारंपरिक कुएँ हैं।

इन गाँवों में भारी मात्रा में रोजगार के लिए मुंबई, पुणे और महाराष्ट्र के अन्य शहरी केंद्रों में पलायन दिखता है। इन लोगों को काम-धाम मुख्य तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में मिल सका है जिसमें छोटे निजी उद्यमों में दिहाड़ी मजदूर के रूप में केन्द्रित हैं, जबकि काफी छोटे स्तर पर ये प्लेटफार्म इकॉनमी से जुड़ सके हैं। स्कूलों, कॉलेजों और कार्यालयों में हो चुकी राज्यव्यापी बंदी की वजह से लॉकडाउन से पिछले हफ्ते ही ये प्रवासी भारी संख्या में गांवों में वापस लौट चुके थे। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लागू किये जाने से तीन दिन पहले ही  19 मार्च के दिन ब्लॉक स्तर पर सभी आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को अनिवार्य तौर पर कोविड-19 पर आयोजित एक कार्यशाला में भागीदारी के लिए कह दिया गया था। इस कार्यशाला में उन्हें बीमारी के लक्षणों के बारे में प्रशिक्षण दिया गया और क्या जरुरी सावधानी बरती जानी चाहिए, इसके बारे में भी बताया गया था। उनसे कहा गया कि वे सभी गाँव के सभी घरों में सर्वेक्षण कर पता लगायें कि किन-किन घरों में हाल के दिनों में प्रवासी बाहर से आकर लौटे थे।

उनकी रिपोर्टों को फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को भेज दिया गया, जिसने प्रवासियों में लक्षणों की जाँच के लिए एक डॉक्टर को गाँव में भेजा। इसके अलावा आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी दी गई कि वे इन प्रवासियों पर कम से कम दो हफ़्तों के लिए निगरानी बनाए रखें, ताकि उनके अंदर आ रहे किसी भी प्रकार के लक्षणों की मालूमात हो सके। अग्रिम मोर्चे पर देखभाल में लगे हुए कर्मियों में प्रमुखता से महिलाएं कार्यरत हैं जिनकी ग्रामीण इलाकों में घर-घर जाकर आवश्यक सार्वजनिक कल्याण सेवाओं की डिलीवरी की जिम्मेदारी है। इसके अलावा भी राज्य द्वारा यदि कुछ भी करने के लिए कहा जाता है, तो उसे पूरा करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं पर होती है, जिसमें कोविड-19 के प्रसार की निगरानी करने में मदद करना भी शामिल है। साथ ही बताते चलें कि उन्हें अक्टूबर 2018 में घोषित वेतन में बढ़ोतरी की घोषणा को हकीकत में भुगतान किये जाने का इन्तजार है, जबकि हकीकत तो ये है कि जो पुरानी तनख्वाह है, उसके भुगतान तक में देरी (कई बार कई-कई महीनों की देरी) हो जाती है। लातूर में अभी तक कोविड-19 का कोई मामला सामने नहीं आया है, सिवाय उन आठ यात्रियों के जो आंध्र प्रदेश के थे और इस जिले से होकर गुजर रहे थे, और जिनका वर्तमान में उपचार चल रहा है।

लातूरवाड़ी

इस गाँव में लगभग 200-300 घर हैं, और औसतन हर परिवार के पास आठ से लेकर दस एकड़ जमीन का मालिकाना है। बड़े किसान काफी कम संख्या में हैं, और उनके बीच भी जो सबसे बड़ी जोत का परिवार है उसके पास भी 20-22 एकड़ से अधिक की जमीन नहीं है। जैसा कि मराठवाड़ा के इलाके में पिछले साल से हो रहा है, पिछले खरीफ की फसल की पैदावार भी इस क्षेत्र में बेहद खराब रही थी, क्योंकि मानसून में बेहद कम बारिश हुई या कहीं-कहीं तो हुई ही नहीं थी। हालाँकि सितंबर के अंत और नवंबर के बीच की अवधि में बीच-बीच में बारिश की बौछार हो जाने से रबी की फसल भरपूर हुई थी। किसानों ने सितंबर में सोयाबीन (एक नकदी फसल) की बुवाई की, अन्यथा यह खरीफ की पैदावार मानी जाती है, जिसे दिसंबर तक काट लिया गया था। हालांकि जनवरी की शुरुआत में ही चीन में कोविड-19 के आगमन के साथ ही सोयाबीन की कीमतों में गिरावट आनी शुरू हो चुकी थी, जो कि इस उत्पाद का सबसे बड़ा खरीदार माना जाता है। जिसके चलते अधिकांश सोयाबीन का स्टॉक बिक ही नहीं पाया, क्योंकि किसानों को उम्मीद थी कि आगे जाकर इसकी कीमतें बढ़ेंगी।

रबी की फसल में जीवन निर्वाह के लिए फसलें उगाई जाती हैं, जैसे कि जोन्धले (ज्वार की एक पारंपरिक किस्म, जो यहाँ के इलाके का एक मुख्य खाद्य पदार्थ है), गेहूं (किसानों के एक छोटे वर्ग द्वारा) और हरभरे (उर्फ चना या चना दाल) की खेती देखने को मिलती है। लेकिन फरवरी के अंत में बेमौसम बारिश और तेज अंधड़ की वजह से इस क्षेत्र में फसलों को कुछ नुकसान पहुंचा था, जिसके लिए किसान राज्य से फसल के हर्जाने की मांग कर रहे थे।

इन फसलों की कटाई शुरू ही हुई थी कि भारत में कोविड-19 के कारण लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। हालाँकि लॉकडाउन के दौरान भी यहाँ पर कटाई का काम होता रहा और वर्तमान में दाने और भूसी को अलग करने का काम पूरा होने जा रहा है। इस फसल का एक बड़ा हिस्सा किसानों द्वारा घरेलू खपत के लिए अलग रख दिया जाता है, जबकि लगभग एक तिहाई से लेकर पांचवां हिस्सा मजदूरों को फसल की रखवाली (ज्वार) या कटाई और दंवाई (छोला चना) के रूप में दे दिया जाता है। जो बच जाएगा उसे बेचने के लिए बाजार एक बार फिर से खुलने का इन्तजार करना होगा। जबकि इसके अलावा सोयाबीन का स्टॉक पहले से ही बिकने के लिए पड़ा हुआ है।

इसके अलावा किसानों के एक छोटे से वर्ग ने जिसके पास सिंचाई के साधन मौजूद हैं (चाहे जिस भी भी रूप में) एक तिहाई हिस्से में (गर्मियों के लिहाज से) फसल की बुआई कर रखी है। इनमें से ज्यादातर सब्जियां और कुछ फल हैं, जिनमें लटकने वाली फलियाँ, भिंडी, टमाटर, ककड़ी, और खरबूजे आदि शामिल हैं। लेकिन इन फसलों के खरीदारों की कमी और कृषि उपज मंडियों तक इन्हें ने ले जा सकने के चलते ये फसलें खेतों में ही बर्बाद हो रही हैं। इनमें से अपेक्षाकृत एक बड़े किसान ने जिसने अपने खेत में ककड़ी बो रखी थी, गाँव में एक ट्रक किराये पर लाया और गाँव में मौजूद मजदूरों की मदद से माल लदवाकर यहाँ से सात किमी दूर शहर भिजवा दिया था।

लेकिन रास्ते में पुलिस ने ट्रक रोककर वापस गाँव की ओर मोड़ने के आदेश दे दिए, नतीजे के तौर पर सारी उपज को गाँव की ओर जाने वाली सड़क के किनारे फिंकवाना पड़ा। गर्मियों की शेष फसलें खेतों में छोड़ दी गई हैं, जहां वे मराठवाड़ा की भीषण गर्मी में या तो मुरझा रही हैं या सड़ रही हैं। अधिकांश किसानों ने अगले फसल चक्र की तैयारी के लिए अपने परिवार के सभी लोगों को जुटाकर (ताकि मजदूरी न देनी पड़े) खेतों को खाली करने का काम शुरू कर दिया है। एक किसान जिसने अपने कुल दस एकड़ खेत में से दो एकड़ में सब्जी उगाई थी, का अनुमान है कि उसे अपनी लागत में करीब 20-25,000 रुपये का नुकसान हुआ है और करीब 50,000 रुपये का जो फायदा सोच रखा था, उसका घाटा हुआ है। जबकि यह रकम उसके खरीफ की फसल के वित्तपोषण के लिए बेहद आवश्यक थी।

पिछली खरीफ और रबी के सीजन का माल स्टॉक में पड़े होने के साथ-साथ गर्मी की फसल में जो नुकसान झेलना पड़ा है उससे आगामी खरीफ के सीजन पर अच्छा ख़ासा असर पड़ने जा रहा है, जबकि बारिश से पहले इसके खराब होने का मौका था। इन झटकों से सबसे पहले किसानों की जेब में नकदी मुद्रा का संकट पैदा हो चुका है, और खेतों को अगली फसल के लायक तैयार करने, खेत में इस्तेमाल में लाये जाने वाली वस्तुओं की खरीद और मजदूरी चुका सकने की उनकी क्षमता पर असर पड़ेगा। जैसे ही बाजारों में फिर से फसल की बिक्री शुरू होती है, जरूरी नहीं कि किसानों को इसके अच्छे दाम भी मिलें, जबकि इसके उपभोक्ताओं को खाद्य उत्पादों के लिए पहले से अधिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। मॉनसून के आने तक ज्यादातर खेत बंजर ही पड़े रहेंगे।

लॉकडाउन के कारण खेती के औजार और मशीनों की मरम्मत में भी परेशानी हो रही है, क्योंकि जरुरी कल पुर्जे और मिस्त्री उपलब्ध नहीं हैं। इसके अलावा ये भी देखना होगा कि बाजार जब एक बार फिर से खुलते हैं और सप्लाई चैन अपनी पूरी क्षमता से काम करना शुरू कर देती है तो खरीफ के सीजन के लिए इस्तेमाल में आने वाले साधनों की आपूर्ति कम पड़ सकती है। और यह सब निश्चित रूप से उन बकाया पुराने कर्जो से अलग है जो मराठवाड़ा क्षेत्र के किसानों ने लगातार वर्षों में पड़ने वाले सूखे और फसल बर्बादी के चलते अर्जित किये हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा उठाये गए विमुद्रीकरण (नोटबंदी) और जीएसटी के क़दमों ने कृषि अर्थव्यस्था पर जो चोट पहुँचाई है, उसे भी जोड़कर देखा जाना चाहिए।

जहाँ तक लातूरवाड़ी में बेहद छोटी जोत के किसानों और भूमिहीन मजदूरों (करीब 35% से 40% गाँव के लोग) का प्रश्न है तो उन्हें मार्च महीने में तो काम मिल गया था, जबकि कुछ को तो खेतीबाड़ी के काम में जरूरत थी इसलिये अप्रैल के मध्य तक रोजगार मिला है। लेकिन इनमें से जो लोग कुशल श्रमिक हैं, जोकि अधिकतर पुरुष दलित एवम अन्य निम्न जातियों से आते हैं, के पास कोई काम उपलब्ध नहीं था। ये लोग आम तौर पर भवन निर्माण, चिनाई, खुदाई, पेंटिंग, ड्राइविंग इत्यादि से जुड़े हैं, और घर पर ही खाली बैठे हैं। इन खेत मजदूरों के लिए अप्रत्याशित राहत की बात यह है कि गर्मी के सीजन की जो सब्जियाँ और फल खेतों में पड़ी-पड़ी बर्बाद हो रही थीं, उसे मुफ्त में ले सकते हैं। लेकिन चूँकि इस उपज की शैल्फ लाइफ कम दिनों की ही है, इसलिये बेहद कम समय तक ही ये सब चल सकेगा। महाराष्ट्र राज्य सरकार ने अपने 11 अप्रैल की घोषणा में अप्रैल के अंत तक के लिए लॉकडाउन को बढ़ा दिया है। अगर जल्द ही आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू नहीं होती हैं तो इनमें से अधिकतर परिवार इसके भयानक परिणामों को साफ़ देख पा रहे हैं।

गाँव में मनरेगा से जुड़ा कोई काम उपलब्ध नहीं है, और भवन निर्माण सामग्री की आपूर्ति बाधित होने के कारण सरकारी आवास योजनाओं के तहत निर्माण कार्य में भी गतिरोध बना हुआ है। राज्य द्वारा गरीबों के कल्याण हेतु जो उपाय आरंभ किये गए हैं उसमें सभी जन धन खातों में 500 रुपये का सीधा हस्तांतरण, और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत लाभार्थियों के लिए तीन महीने तक के लिए मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर शामिल हैं। जहाँ एक ओर गांव में मौजूद मजदूरों की खाद्य सुरक्षा की स्थिति डांवाडोल है, वहीँ विभिन्न उपायों के जरिये प्रवासियों का गाँव में आने का क्रम बना हुआ है। इनमें से कई लोगों का पैदल चलकर, बीच-बीच में मोटरसाइकिल पर मदद माँगकर, आवश्यक वस्तुओं को ढो रहे ट्रकों में छिपकर वापस आने का सिलसिला जारी है।

यह गाँव करीब 15-17 किलोमीटर दूर स्थित ब्लॉक से एकमात्र राज्य परिवहन बस सेवा से जुड़ा है, जो दिन में दो बार गाँव से ब्लॉक का चक्कर काटती है, एक बार सुबह और एक बार शाम को। लॉकडाउन के दौरान इन सभी राज्य परिवहन की सेवाओं को बंद कर दिया गया है, इसलिए लोगों को निजी परिवहन पर ही निर्भर रहना पड़ता है, मुख्यतया दोपहिया वाहनों पर। स्थानीय स्तर पर पेट्रोल की आपूर्ति भी कम है। बाजार यहाँ से सात किमी दूर है और इसके खुलने का समय सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे तक का है। जनता कर्फ्यू के दिन गाँव के सभी अड्डों पर (लोगों के समूह के इकट्ठा होने की जगह) और नालियों में कीटाणुनाशक का छिड़काव किया गया था। दूध और राशन का प्रावधान पहले की ही तरह जारी है। निकटतम एटीएम की सुविधा बाजार में है, और बैंक से लेन-देन की सुविधा ब्लॉक में मौजूद है। हर दूसरे दिन गाँव में पुलिस का राउंड लगता है। शुक्र है कि गाँव में निगरानी का काम कड़ाई से नहीं चल रहा है क्योंकि एक तो यह गाँव आबादी के लिहाज से छोटा है और उसी अनुपात में कृषि कार्य होने के कारण गाँव से आवाजाही काफी कम है।

वाज़गाँव 

खेती के लिहाज से यह समृद्ध और अच्छीखासी शोहरत वाला गाँव है। यहाँ पर कई किसान हैं जिनके पास करीब 100-200 एकड़ तक जमीनें हैं। यहां की प्रमुख फसल टमाटर है जिसके कारण पूरे ब्लॉक में यह गाँव टमाटर के लिए एक प्रमुख थोक आपूर्ति का बिंदु है। लगभग 10 से 15 व्यापारी साल भर 200-250 बिहारी प्रवासी मजदूरों को यहाँ खाद्य उपज की लोडिंग और अनलोडिंग के काम के लिए रखते हैं। इस बार टमाटर की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है, क्योंकि कोई बिक्री नहीं हो पा रही है। टमाटर की खेती से जुड़े लोगों को 1.5-2 लाख तक का नुकसान उठाना पड़ा है। ब्लॉक के साथ-साथ जिले के बाजार से नजदीक पर होने के कारण और निजी स्तर पर  सिंचाई की सुविधाओं के अपेक्षाकृत व्यापक प्रसार को देखते हुए इस गाँव में व्यापक पैमाने पर बागवानी खेती (फल और सब्जियाँ) का काम होते देखा जा सकता है।

लेकिन गांव के आकार और इसकी प्रसिद्धि के चलते यहाँ पर लगातार पुलिस का सख्त पहरा भी बना हुआ है। दिन में वे रोज दो बार यहाँ का राउंड मारते हैं और यदि किसी को सड़क पर देख लिया तो उसकी ठुकाई करने से नहीं चूकते। इसका नतीजा ये हुआ है कि गाँव की सारी आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ चुकी हैं। गुजर-बसर के लिए उगाई गई ज्वार और चने की फसलें कटने के लिए खेतों में तैयार खड़ी हैं, लेकिन पुलिस मजदूरों को काम पर नहीं जाने दे रही है। किसानों के साथ-साथ इसने विशेष तौर पर गाँव के खेत मजदूरों (और आस-पड़ोस के गावों के मजदूरों) के लिए संकट खड़ा कर दिया है। क्योंकि जब वे काम पर ही नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या? यह सब जानते हुए भी गाँव के बड़े किसान मुफ्त राशन या सामुदायिक रसोई के माध्यम से मजदूरों को किसी प्रकार से राहत प्रदान करने के लिए तैयार नहीं हैं।

मनरेगा या सरकारी आवास योजना में भी कोई काम नहीं चल रहा है। गाँव में एक एटीएम है, लेकिन जब से इसमें कैश खत्म हुआ है, इसे दोबारा भरने के लिए कोई नहीं आया है। यहां के जन-धन खाताधारकों के खातों में भी 500 रुपये आ चुके हैं, लेकिन उज्जवला योजना में बिचौलिये ने इन लाभार्थियों से राहत के बदले में पैसा ऐंठ रहे हैं। वहीँ पिछले महीने पीडीएस स्कीम के तहत राशन की आपूर्ति की गई थी, लेकिन कीमतों या राशन की मात्रा में कोई छूट नहीं दी गई थी, जबकि दूध की आपूर्ति बंद कर दी गई है। स्वास्थ्य उप-केंद्र हमेशा की तरह चल रहा है।

जहाँ तक बाहर से आये बिहारी प्रवासी मजदूरों का प्रश्न है तो इस सम्बन्ध में तलाथी ने (ग्राम राजस्व अधिकारी) ग्राम पंचायत को एक पत्र लिखा था जिसमें मजदूरों को छुट्टी देने के लिए कहा था। लॉकडाउन की घोषणा के बाद से ही मजदूर वहां से जाने लगे थे, लेकिन परिवहन की कोई व्यवस्था न होने के कारण लौटकर वापस आ गए। गाँव के कुछ दलित नेताओं ने काम छोड़ने से पहले इस सम्बन्ध में हस्तक्षेप करने की कोशिश की, और उनके लौटकर आ जाने पर जिला कलेक्टर से अनुरोध किया था कि मजदूरों के यहाँ से जाने के लिए परिवहन की सुविधा मुहैय्या कराई जाये। इसके बाद जिलाधिकारी ने पंचायत को इन मजदूरों के लिए भोजन उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे।

हालांकि पंचायत ने अभी तक इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया है। लेकिन इस बीच पंचायत इस बात पर राजी हो गई है कि मजदूर अपने कार्यस्थल पर ही रह सकते हैं, अर्थात गाँव के बाहरी इलाके में, जो टमाटर की ढुलाई वाला पॉइंट है। इन मजदूरों को अपने भोजन बनाने और खाने का जुगाड़ खुद ही करना पड़ रहा है। गाँव के अधिकांश दिहाड़ी मजदूरों के साथ-साथ प्रवासी बिहारी मजदूर भी उधारी पर दुकानों से खरीदारी करके और खेतों से सब्जियां इकट्ठा कर किसी तरह खुद को जिन्दा रखे हुए हैं। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो ये दोनों ही तरीके, एक या दो हफ़्तों से अधिक कारगर नहीं होने जा रहे हैं।

लेखिका ब्रिटेन के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में राष्ट्रमंडल डॉक्टरेट विद्वान हैं। वे दिसंबर 2019 से उपरोक्त क्षेत्र में एक मानवप्रजातिविज्ञान पर अध्ययन कर रही हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

COVID-19 in Rural India-XII: Unable to Harvest, Latur Farmers Forced to Let Standing Crop Rot

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