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कोविड-19 : दक्षिण ओडिशा में घरों में चलाई जा रहीं कक्षाएं, आंतरिक इलाक़े के जनजातीय बच्चों को मिल रही मदद

ओडिशा के कई इलाक़ों में, जो डिजिटल विभाजन में कमज़ोर पक्ष में हैं, इनमें लॉकडाउन की वज़ह से बच्चों की पढ़ाई पर बहुत गंभीर असर पड़ा है। लेकिन एक प्रोग्राम ऐसा है, जो इन क्षेत्रों में जनजातीय बच्चों को मदद पहुंचा रहा है।
ओडिशा

23 साल के कृष्णा वडाका लॉकडाउन से पहले अपने गांव तानकुपादर में एक किसान थे। तानकुपादर, ओडिशा के कालाहांडी जिले के लांजिगढ़ ब्लॉक की कुरली पंचायत में आता है। आज यह युवा ग्रेजुएट "ग्राम स्वयंसेवी शिक्षक (विलेज वॉलेंटियर टीचर)" की पहचान रखता है। वह अपने गांव के जनजातीय बच्चों को पढ़ाने के लिए सुबह और शाम दो घंटे खर्च करता है। कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बहुत लंबे वक़्त से स्कूल बंद हैं, इसलिए बच्चे भी कक्षा में आने के लिए आतुर हैं।

फोन पर वडाका ने बताया कि उनका पढ़ाने का तरीका पुराना चाक और डस्टर वाला नहीं है, बल्कि वे छात्रों को खेलने का पूरा मौका देते हैं। वह कहते हैं, "यह बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन नहीं खरीद सकते। मुझे खुशी है कि यह लोग घर पर भी अपनी शिक्षा को जारी रख पा रहे हैं। इन घंटों के दौरान मेरे गांव के बच्चे खेलने या यहां-वहां घूमने के बजाए पढ़ना पसंद करते हैं।" उनके स्कूल ने कई बच्चों को आकर्षित किया है, इन्हीं में से एक 12 साल की इंदुबती नानका हैं, जो तानकुपादर प्राथमिक विद्यालय में पांचवी कक्षा की छात्रा हैं।

हर दिन वह उसके गांव में घरों के भीतर लगने वाली कक्षाओं में किताबों के साथ कुछ पत्थर, फूल, पत्तियां और टहनियां लेकर आती है। वह जो सामान लेकर आती है, उसे TLM (टीचिंग लर्निंग मटेरियल- शिक्षण-पाठन सामग्री) कहते हैं, जिसका इस्तेमाल ग्राम स्वयंसेवी शिक्षक से अंकगणित और भाषा सीखने के लिए होता है। इंदुबती कहती हैं, "मैं इस सामग्री का इस्तेमाल जोड़ और घटाना सीखने के लिए करती हूं, मुझे स्लेट और चाक के साथ यह काम करने के बजाए इस सामग्री से जोड़-घटाना करना मजेदार लगता है।"

इंदुबती के माता-पिता उत्तरा और कंचन नानका यह देखकर खुश हैं कि उनकी बेटी पढ़ पा रही हैं और कक्षाओं में नियमित आने में दिलचस्पी ले रही है। कोरोना वायरस के चलते लगाए गए राष्ट्रव्यापी लॉ़कडाउन के बाद, ओडिशा के दूसरे दूरदराज के गांवों के बच्चों की ही तरह, इंदुबती भी लंबे वक़्त से स्कूल बंद होने के चलते नियमित कक्षाओं से वंचित हो गई थी। उसके दिन खेलते-कूदते या घर के काम में अपनी मां का हाथ बंटाते हुए गुजर रहे थे। उनके पिता उत्तरा कहते हैं, "हम अपनी बेटी के लिए स्मार्टफोन नहीं खरीद सकते, ऊपर से हम डिजिटली भी इतने जानकार नहीं हैं कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर सकें और उसे समझा सकें। हम उसकी शिक्षा में हो रहे नुकसान के चलते चिंतित थे।"

39 किलोमीटर दूर रायगढ़ जिले के बिस्सामकटक ब्लॉक में 10 साल के सनातन हिकाका ने लॉ़कडाउन के दौरान अपने माता-पिता की खेतों में मदद करने का विकल्प चुना। कुरुली पंचायत में लोग अन्ननास की कटाई में व्यस्त हैं, वे अप्रैल में इन्हें वेंडर्स को सौंपेंगे। ज़्यादा पैसा बनाने के लिए दो हाथों की और जरूरत थी, तो कई पालकों ने लॉकडाउन के दौरान अपने बच्चों को फल तोड़ने में हाथ बंटाने के लिए साथ ले लिया। सनातन के पिता दशरथ हिकाका कहते हैं, "हम जानते हैं कि हमारे बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है। चूंकि स्कूल बंद हैं, इसलिए हमने सोचा कि हम उन्हें यहां-वहां घूमने के बजाए काम में लगाए रखें।" ओडिशा के ज़्यादातर दूर-दराज के गांवों में, खासकर कंधमाल, कालाहांडी और रायगढ़ जिलों में जनजातीय बच्चे इंटरनेट कनेक्टिविटी, स्मार्टफोन और डिजिटल निरक्षरता के चलते जनजातीय बच्चे स्कूल से बाहर हो रहे हैं।

जनजातीय बच्चों तक पहुंच

जब लॉ़कडाउन लगाया गया और प्रवासियों ने वापस आना शुरू किया, तब ओडिशा के इन भीतरी इलाकों में मोजे से बनी गेंदों से खेलती हुए बच्चों, बकरी चराते हुई, खेतों में काम करते बच्चों या तालाबों में मछली पकड़ते बच्चों की तस्वीरें आम हो गईं। जैसे-जैसे लॉकडाउन आगे बढ़ता गया, OSEPA (ओडिशा स्कूल एजुकेशन प्रोग्राम अथॉरिटी) ने राज्य द्वारा संचालित स्कूलों के बच्चों तक पहुंचने के लिए ऑनलाइन क्लास लॉन्च कीं। लेकिन इन इलाकों के ज़्यादातर बच्चे उनसे अछूत रह गए।

लेकिन लिवोलिंक फॉउंडेशन ने जनजातीय बच्चों के लिए उनके घर के भीतर आधारित शिक्षण कार्यक्रम चलाया। लिवोलिंक टाटा ट्रस्ट की एक सहायक संस्था है, जो शिक्षा के क्षेत्र में काम करती है। लिवोलिंक के प्रोग्राम मैनेजर संतोष दास कहते हैं, "हम समझ सकते हैं कि जितने लंबे वक़्त तक स्कूल बंद रहेंगे, उतना ही ज़्यादा बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होगा। इस राज्य में डिजिटल विभाजन को देखते हुए ऑनलाइन कक्षाएं सही संभावना नहीं थीं। इसलिए मुख्य विचार यह अपनाया गया कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों और TLM का इस्तेमाल कर छात्रों को पढ़ाया जाए और अंकगणित के साथ भाषा में उनकी कुशलता को बढ़ाया जाए।" इन सात महीनों के दौरान इस कार्यक्रम में तीन ब्लॉक के 290 गांवों में 3 साल की उम्र से लेकर 14 साल की उम्र के बीच के 8 हजार से ज़्यादा बच्चों कवर किया गया है।

शिक्षण प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, "एक पंचायत के स्तर पर ग्रामीण स्वयंसेवियों द्वारा स्थानीय संसाधनों और TLM का उपयोग करते हुए बच्चों को शिक्षण देने में मदद करने के लिए "स्कूल इंप्रूवमेंट फेसिलिटेटर (स्कूल सुधार व्यवस्थाकर्ता)" को प्रशिक्षित किया गया।" इस कार्यक्रम का उद्देश्य कोविड-19 के दौरान बच्चों को अच्छे काम में लगाए रखना और उनके शिक्षण को महामारी के प्रोटोकॉल का पालन करते हुए जारी रखना था।

वह आगे कहते हैं, "जनजातीय बच्चे खुद को प्रकृति और अपने आसपास की चीजों से जल्दी जोड़ते हैं, इसलिए हमने तय किया कि TLMs के तौर पर स्थानीय संसाधनों का उपयोग किया जाए। ताकि उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए एक संबंध बनाया जा सके औऱ बुनियादी साक्षरता और अंकगणित के साथ-साथ कई दूसरे क्षेत्रों में उनके कौशल को प्रोत्साहन दिया जा सके। इस प्रक्रिया में छोटे बच्चों को "सकल मोटर कौशल (ग्रॉस मोटर स्किल)" और "परिष्कृत मोटर कौशल (फाइन मोटर स्किल)" को बेहतर करने का मौका मिलता है। सकल मोटर स्किल, किसी बच्चे द्वारा मांसपेशियों के ज़्यादा बड़े उपयोग (जैसे- दौड़ने, चलने, खेलने, कूदने आदि) को कहा जाता है। वहीं "फाइन मोटर स्किल" बच्चों द्वारा छोटे-छोटे काम, जैसे- अंगूठे से किसी चीज को उठाना, कलम पकड़ना आदि को कहा जाता है।

इस शैक्षणिक गतिविधि कार्यक्रम को क्लस्टर स्तर और ब्लॉक स्तर के शैक्षणिक अधिकारियों के साथ भी साझा किया जाता है, ताकि गांव के बच्चों को को जरूरी मदद मिल सके, यह मदद किताबों और अभ्यास सामग्री के रूप में होती है। क्योंकि कोविड-19 की शुरुआत से ही इन दूरदराज के गांवों के बच्चों के पास अध्ययन करने का कोई दूसरा तरीका नहीं है।

ग्रामीण लोगों के हाथ में व्यवस्था

घरों में आधारित कक्षाएं लगाने के पहले टीम ने घरों-घर जाकर बच्चों को कक्षाओं में भेजने के लिए राजी किया। शुरुआत में माता-पिता इस कार्यक्रम को लेकर आशंकित थे, लेकिन बाद में वे मान गए। हर गांव में एक कोविड सामुदायिक शैक्षणिक समूह बनाया गया, जिसमें सरपंच, SMC सदस्य, वार्ड मेंबर, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और गांव के कुछ शिक्षित लोग रहते हैं, इनका काम महामारी के दौरान इन कक्षाओं का प्रबंधन और ग्रामीण स्वयंसेवी का चयन है। कृष्णा वडाका को इसी प्रक्रिया के ज़रिए चुना गया था। 

दास कहते हैं, "हमने पाया कि कॉलेज बंद होने के बाद युवा घर वापस लौट आए हैं और यह युवा अपने गांव में बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गए। जब हम इन युवाओं के पास पहुंचे, तो वे हमारे प्रस्ताव से सहमत हो गए। यहां तक कि कई गांवों में शिक्षित युवा महिलाएं भी बच्चों को ग्रामीण स्वयंसेवी के तौर पर पढ़ाने के लिए आगे आईं।" दास के मुताबिक़ उन्होंने इस लिए गांव के ही युवाओं को प्राथमिकता दी ताकि बच्चों को उन्हीं की मातृभाषा में पढ़ाया जा सके।

यह घर आधारित कक्षाएं बच्चों के घरों, वरांडा, सामुदायिक क्षेत्रों या पेड़ों के नीचे रोज सुबह 8 बजे से 10 बजे तक और दोपहर में 3 बजे से 5 बजे तक लगाई जाती हैं। कुछ गांवों में, लगभग सभी बच्चे अलग-अलग बैचों में इन कक्षाओं में आ रहे हैं और सामाजिक दूरी की शर्तों का पालन भी कर रहे हैं। एक और ग्रामीण स्वयंसेवी शिक्षक जयंती हिकाका कहती हैं, "यह शैक्षणिक प्रक्रिया परीक्षोन्मुखी नहीं है, बल्कि यह खेल आधारित और गांव में उपलब्ध TLMs का उपयोग करने वाली मजेदार प्रक्रिया है। हम उन्हें वही सिखाते हैं, जिसमें उनकी रुचि होती है।"

चूंकि ज़्यादातर कक्षाएं खुले में लगाई जाती हैं, तो गांववाले और माता-पिता अपने बच्चों को देखने के लिए नियमित आते रहते हैं। उन्होंने भी दूसरे पालकों को अपने बच्चों को भेजने के लिए सहमत किया।  बिस्सामकटक के तिगिड़ी पंचायत की सरपंच मोहिनी मोहन कहती हैं, "ऐसी स्थिति में जब हमारे बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे थे, तब इन घरों पर लगाई जाने वाली कक्षाओं ने उन्हें अध्ययन से जोड़ने में मदद की। हम बाहरी लोगों को अपने गांव में नहीं आने दे रहे हैं। इसलिए हमारे गांव के ही युवा इन बच्चों को पढ़ा रहे हैं। कई माता-पिता अपनी लड़कियों को घरेलू काम में ना लगाकर इन कक्षाओं में भेज रहे हैं।"

कोविड-19 दिशा-निर्देशों का किया जा रहा है पालन

छात्र दिन की शुरुआत साबुन से हाथ धोकर करते हैं, इसके मास्क ठीक से पहनते हैं, फिर दरी पर शारीरिक दूरी का पालन करते हुए बैठते हैं। शुरुआती कुछ कक्षाओं में बच्चों को नए वायरस और उससे बचाव के तरीकों के बारे में बताया जाता है। इससे दिशा-निर्देशों का पालन करने में उन्हें मदद मिलती है। जिन छात्रों ने यह व्यवहार सीखा है, उन्होंने अपने मातापिता को भी अपना व्यवहार बदलने और घरों के साथ-साथ खेतों में भी इन चीजों को पालन करना सिखाया है। दस साल के शंकर कक्षा पांच में पढ़ते हैं। वे कहते हैं, "हमारे पास टेलिविजन या मोबाइल फोन नहीं है, जिससे हमें कोरोना वायरस से सुरक्षा के तरीकों के बारे में सीखने को मिलता। जब मैंने कक्षा में आना शुरू किया, तब मैंने यह सब सीखा और अपने माता-पिता को भी अपना व्यवहार बदलने का प्रशिक्षण दिया। अब हमारे परिवार, यहां तक कि हमारे पड़ोसी भी इनका पालन करते हैं और यह प्रक्रियाएं अब आदतों में शामिल हो चुकी हैं।"

टाटा ट्रस्ट के प्रदीप्ता सुंदरे कहते हैं, "जनजातीय गांवों के आंतरिक इलाकों में, जहां बच्चों में गंभीर स्तर पर डिजिटल विभाजन है, वहां घर में चलने वाली यह कक्षाएं उन्हें अपनी पढ़ाई और स्कूली प्रक्रिया से जोड़े रखने में मदद कर रही हैं, ताकि जब स्कूल खुलें, तब तुरंत वे उससे तालमेल बना सकें। इससे छात्रों को स्कूल छोड़ने से रोकने और कोविड द्वारा पैदा हुईं सामाजिक-मानसिक चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।"

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह विचार उनके निजी हैं।

 इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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