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COVID-19 : एक तरफ ज़मीनी रवैया, दूसरी तरफ़ सिर्फ़ दिखावा- दो देशों के अलग-अलग तरीक़े

न्यूयॉर्क राज्य का ध्यान सबवे कार को हर 24 घंटों में साफ़, असंक्रमित करने, एंटीबॉडी टेस्टिंग, फूड बैंक को 25 मिलियन डॉलर बांटने, अनाज को अधिशेष को इन फ़ूड बैंक तक पहुंचाने और असुरक्षित-वंचित तबक़ों को बचाने पर है, जबकि भारत जैसे ग़रीब देश में सुरक्षाबल फूल-वर्षा और बैंड बजाने जैसे महत्वहीन काम कर रहे हैं।
COVID-19
प्रतीकात्मक तस्वीर

पिछले रविवार को सुबह जागते ही मैंने कोरोना वायरस पर दो विरोधाभासी ख़बरें देखीं। एक तरफ़ भारतीय वायुसेना 'फ़्लाई पास्ट' में फूल बरसा रही थी और आर्मी बैंड कोरोना वायरस इलाज़ में लगे अस्पतालों के सामने प्रस्तुतियां दे रहा था। इस बीच नौसेना ने भी कोरोना योद्धाओं के सम्मान में शाम के वक़्त अपने जहाजों की लाइट्स जलाईं।

दूसरी ख़बर न्यूयॉर्क राज्य से थी। पहली पंक्ति में तैनात कोरोना योद्धाओं के लिए राज्य कुछ करने की योजना बना रहा था, खबर इसी के बारे में थी। न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्र्यू क्यूमो के मुताबिक, ''6 मई से NYC सबवे सिस्टम रात में एक बजे से पांच बजे के बीच चार घंटे के लिए बंद रहेगा। इस दौरान सबसे कम यात्री यात्रा करते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं किया गया। यह इसलिए किया जा रहा है ताकि MTA हर सबवे कार (मेट्रो ट्रेन) को प्रत्येक 24 घंटे में कीटाणुरहित कर सके। यह एक बड़ा काम है, लेकिन हम इस अभूतपूर्व काम को इसलिए कर रहे हैं ताकि जनता, ट्रांजिट वर्कर्स और हमारे जरूरी सेवाओं में लगे कर्मचारी सुरक्षित रह सकें। इन जरूरी सेवाओं में लगे कर्मचारियों ने समाज को सुचारू रखा है, यह लोग बहुत शानदार काम कर रहे हैं। हम यह करके ही दम लेंगे, क्योंकि हमें इसे करने की जरूरत है।''

न्यूयॉर्क ने एंटीबॉडी टेस्ट सर्वे भी करवा लिया है। ''टेस्ट के नतीज़ों से पता चला है कि राज्य की 12.3 फ़ीसदी आबादी कोरोना वायरस के संक्रमण का शिकार है।''

न्यूयॉर्क राज्य ने फूड बैंक्स को 25 मिलियन डॉलर देने की घोषणा भी की है। ''यह एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसके तहत न्यूयॉर्क राज्य का अधिशेष राज्य के 'फूड बैंक नेटवर्क' से जरूरतमंदों तक पहुंच सके।''

सबसे उत्तेजक प्रतिक्रिया यह रही: ''हमें अपने असुरक्षित समुदायों को बचाने की जरूरत है। सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपने काम से।'' राज्य 70 लाख कपड़े से बने मॉस्क न्यूयॉर्क के जरूरतमंदों और जरूरी सेवाओं में लगे कर्मचारियों को देगा। राहत भरी बात है कि मोर्चे पर तैनात कामग़ारों को भोजन कराने के लिए दान के ज़रिए 1.26 मिलियन डॉलर (तक़रीबन 9 करोड़ 56 लाख रुपये) रुपये इकट्ठे भी कर लिए गए हैं।

न्यूयॉर्क हमसे कई युग आगे है। उनके पास संसाधन हैं, दुनिया के सबसे बेहतरीन अस्पताल हैं, डॉक्टर हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। एक ऐसा देश, जो भारी-भरकम आर्थिक पैकेज दे सकता है। यहां तक कि डॉलर की प्रिटिंग भी कर सकता है, एक ऐसी सामाजिक पूंजी, जो हमसे पूरी तरह अलग है। कोविड-19 ने उनपर सबसे भारी हमला किया है। किस्मत की दया से भारत अब तक बचा है।

बावजूद इसके दोनों देशों द्वारा अपनाए गए तरीकों में विरोधाभास देखिए।

भारत ग़रीब है, नोटबंदी और खराब़ जीएसटी लागू करने के बाद से देश लगातार संघर्ष कर रहा है। महामारी ने इस समस्या को बहुत ज़्यादा बढ़ा दिया है। ग़रीब वर्ग इससे गहरी खाई में ढकेल दिया गया है। प्रवासी मज़दूरों का दुर्भाग्य पूरे देश में देखा जा रहा है। कंक्रीट मिक्सर से निकलते मज़दूरों की तस्वीरें सामने हैं। जैसे यह मज़दूर उस कंक्रीट से बेहतर नहीं हों, जिसे इस मिक्सर में गूंथा जाता है। यह दिल को छेदने वाली यादें हैं। इतना अमानवीय और इससे ज़्यादा भयावह क्या हो सकता है?

यह तस्वीरें लॉकडॉउन के तुरंत बाद बने हालातों की तस्वीरों के साथ बिलकुल सही बैठती हैं। तब हमने देखा था कि किस तरह लाखों मज़दूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने घरों की ओर लौट रहे थे, कुछ साइकिल से, तो कुछ साइकिल-गाड़ी में। बाकी पैदल ही चले जा रहे थे। फिर खबर आती है कि 16 प्रवासी मज़दूरों को औरंगाबाद में एक मालगाड़ी ने कुचल दिया। घटना की तस्वीरें आत्मा में नश्तर की तरह उतरती जाती हैं। नोटबंदी में जिस तरह की अव्यवस्था हुई, यह कुप्रबंधन लॉकडॉउन की वैसी ही याद है।

इसलिए भारतीय सुरक्षाबलों से उनके किरदार के बिलकुल उलट एक किस्म की नौटंकी करवाई गई। इसका नेतृत्व चीफ़ ऑफ डिफेंस स्टॉफ बिपिन रावत कर रहे थे, उनके साथ तीनों सेनाओं के मुखिया भी थे।

नौसेना के पूर्व प्रमुख और प्रतिष्ठित एडमिरल एल रामदास कहते हैं,''मज़दूर दिवस के दिन उस भयावह स्थिति का रत्ती भर भी जिक्र नहीं किया गया, जिसका सामना लाखों प्रवासी मज़दूर कर रहे हैं। यह लोग भूखे और बेरोज़गार हैं। घर जाने को बेकरार इन मज़दूरों ने पैदल ही चलना तय किया है, इनमें से कई की इन रास्तों पर मौत हो गई। यह चीज़ें सहूलियत प्राप्त लोगों की अंसवेदनशीलता और व्यवस्था के पहियों को चलाए रखने वाली एक बड़ी आबादी की तकलीफों और जख़्मों की निशानी हैं।''

सच्चाई यह है कि सशस्त्र बलों के पास बहुत बड़ा मानव संसाधन, साहस और नागरिक प्रशासन को मदद देने का अनुभव है। अगर सरकार और CDS कल्पनाशील होते, तो अपने अतुलनीय संसाधनों का इस्तेमाल ग़रीब प्रवासी मज़दूरों को घर पहुंचाने में लगा देते।

इसके बजाए हमने फूल बरसाने का प्रतीकात्मक रवैया देखा, जो दिखावटी, भड़कीला और गैरजरूरी था!

मुझे आश्चर्य है कि कैसे कोई सत्ता प्रमुख उस चीज़ पर दावा करता है, जो उसकी नहीं है। फूल बरसाना, मसीहा बनना या थाली बजाने को कोरोना के खिलाफ़ राष्ट्र का प्रतीकात्मक युद्ध बताना उनका काम नहीं है। सत्ता द्वारा अपनी अहम ऊर्जा का ऐसी महत्वहीन गतिविधियों पर बर्बाद किया जाना सही नहीं है। इसे नागरिक अधिकार से जोड़ना नहीं चाहिए। नागरिकों को अपने मुताबिक़ काम करने, खुशी मनाने या प्रशंसा करने का अधिकार है। लेकिन सांस्थानिक तौर पर कुछ ठोस करना सही होता और तब देश की सराहना मिलती।

मैं अमेरिका और भारत के विरोधभासी तरीकों की ओर वापस आता हूं, जिनका मैंने पहले जिक्र किया था। न्यूयॉर्क राज्य का ध्यान मेट्रो ट्रेनों को हर 24 घंटों में असंक्रमित करने, एंटीबॉडी टेस्टिंग, फूड बैंक को 25 मिलियन डॉलर बांटने, अनाज के अधिशेष को फूड बैंक तक पहुंचाने और असुरक्षित-वंचित तबकों को बचाने पर है, सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपने काम के ज़रिए ऐसा करने की कोशिश की जा रही है। राज्य सत्तर लाख मॉस्क का वितरण असुरक्षित नागरिकों और जरूरी सेवाओं में लगे कर्मचारियों के बीच करेगा।

लेकिन हमारे यहां सिर्फ भड़कीले ताम-झाम पर ध्यान है। सामान्य दौर में सशस्त्र बलों का बैंड बजाना और प्रतीकात्मक चीज़ों में सहयोग करना अनुचित माना जाता। महामारी के वक़्त ''जैसा पश्चिम ने कल किया, हम भी आज वैसा ही करेंगे'', ऐसा रवैया अपनाना चापलूसी भरा है। हमें पश्चिम की नकल उतारने की जरूरत नहीं है। कुछ मिनटों की फूल की बारिश, ताली बजाने या दिये जलाने की तरह है। आर्मी बैंड का अस्पतालों के पास संगीत बजाना थाली-बर्तन पीटने जैसा है। यह सामान्य बुद्धिमत्ता से उलटा है, एक ग़रीब देश महामारी के दौर में इन चीज़ों का वहन नहीं कर सकता।

फिर फूल बरसाने के दौरान कितनी जगहों पर सोशल डिस्टेंसिंग के प्रावधान को तोड़ा गया और गंदगी को साफ़ करने के लिए क्या-क्या किया गया, मैं यह नहीं बता सकता। लेकिन मैं सोचता हूं कि काश समर्थन के इस अंसगत तरीके पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बजाए, उन पैसों से ज़रूरतमंदों को मॉस्क दे दिए जाते। या प्रवासी मज़दूरों की ट्रेन का भाड़ा ही चुका लिया जाता।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19: A Tale of Two Approaches: Real and Tawdry

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