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क्यों महामारी के संकट में भी भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की मांग नहीं उठ रही है?

ऐसा संभव है कि कोरोना से निपटने के लिए किए जा रहे केंद्र और राज्य सरकारों के फ़ैसलों में कॉर्पोरेट हेल्थकेयर का गंभीर प्रभाव हो। 
कोरोना वायरस

यह बेहद आश्चर्यजनक है कि इस महामारी के दौर में भी भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को विकसित करने के लिए समर्थन की कोई बड़ी लहर नहीं है। बौद्धिक वर्ग का एक हिस्सा और उद्योग जगत के कुछ दिग्गजों ने स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर किए जाने के विचार का समर्थन किया है, लेकिन जिस तरह से यह मुद्दा आम जन में पकड़ नहीं बना पाया, वह बेहद हैरान करने वाला है। जबकि पूरी दुनिया में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा आज सबसे बड़ी मांग बन चुकी है, जिसे समाज के कई हिस्से जोर-शोर से उठा रहे हैं।

आख़िर भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर करने की मांग ने अब तक जोर क्यों नहीं पकड़ा? इसकी तीन वजह हो सकती हैं। जिन तबकों का सबसे ज़्यादा दांव पर लगा है, यह कामग़ार वर्ग के लोग:

(a) पूरी तरह अपने जिंदा रहने की कोशिशों में लगे हुए हैं। इसके चलते दूसरी सभी मांग प्राथमिकता में नहीं हैं।

(b) वह सार्वजनिक स्वास्थ्य से इतना त्रस्त हो चुके हैं कि उन्हें इससे तब तक मतलब नहीं रहता कि जब तक यह आखिरी उपाय न बचा हो।

(c) मौजूदा दौर में (कोरोना महामारी के दौर से पहले के वक़्त), ग़रीब लोग भी सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन और इन्हें चलाने के तरीके को देखते हुए सरकारी स्वास्थ्य संसाधनों का लाभ उठाना नहीं चाहते थे। जहां यह सुचारू है, वहां लोग इसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं और इससे खुश भी हैं। जहां ऐसा नहीं है, वहां लोग सार्वजनिक स्वास्थय ढांचे के इस्तेमाल से बचते हैं।

भले इस पर कितनी भी चर्चा हो, लेकिन स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाने की देश में कोई मांग नहीं है। यह मध्यमवर्गीय पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व वाला नज़रिया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा आखिरी उपाय के तौर पर काम में लिया जाता है। केवल आपात स्थिति और संकट में इसे याद किया जाता है और इस पर भार डाला जाता है।

यही वजह है कि कुछ प्रगतिशील राजनीतिक तबकों में केरल लोकप्रिय है। यह लोकप्रियता अब मीडिया के कुछ हिस्से तक भी पहुंची है, लेकिन यह उत्सुकतावश है, उसे अपनाने के संबंध में कुछ नहीं है। यहां तक कि केरल की भी निजी स्वास्थ्य क्षेत्र पर कुछ निर्भरता है। ऐसा केंद्र सरकार और पिछली राज्य सरकारों के वक़्त अपनाई गई नीतियों के चलते है। लेकिन अब वामपंथी सरकार को इससे निपटना है।

निजी उद्योगों की आवाज बनी बैठी केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों के भविष्य के एजेंडे में सार्वजनिक स्वास्थ्य कहीं नहीं है। सार्वजनिक स्वास्थ्य में आवंटन के नाम पर पूंजी के कुछ छींटे मारने की खानापूर्ति के अलावा किसी तरह के बड़े निवेश में रुचि नहीं है। बल्कि यह सरकारी आवंटन भी सार्वजनिक स्वास्थ्य पर न होकर सिर्फ़ ‘’स्वास्थ्य’’ पर होता है, इसमें निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए भी बड़ा हिस्सा शामिल होता है। महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मामले मुंबई में हैं। देश में सार्वजनिक ढांचे की असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण मुंबई है। यह आज भी गवाही दे रहा है कि हमने महामारी के दौर में क्या सीखा।

सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में अच्छे खर्च के चलते जिन राज्यों में कोरोना संक्रमण की स्थिति सुधर रही है, वहां भी अब सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा नहीं है, न ही इस ओर उनका ध्यान है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान न देने से मातृत्व और शिशु सेवा कार्यक्रम जैसी नियमित स्वास्थ्य सेवाओं पर भी असर पड़ रहा है। इस नजरंदाजी भरे रवैये की जो जांच और इस पर जो विमर्श होना चाहिए था, वह नदारद है।

ऐसा हो सकता है कि महामारी पर केंद्र और राज्य की फ़ैसलों में औद्योगिक कॉरपोरेट हेल्थकेयर का प्रभाव हो। किसी के भी ऐसा कहने की निश्चित वजह हो सकती हैं, आखिर सरकार काफ़ी अपारदर्शी ढंग से फ़ैसले ले रही है, ख़ासकर कमेटियों, टॉस्क फोर्स, सलाहकारी समूहों में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की अपारदर्शी भूमिका से किसी को भी ऐसा लग सकता है। कुछ अनौपचारिक सबूतों और मीडिया रिपोर्ट से समझ आता है कि निजी क्षेत्र महामारी से लड़ने के क्रम में मोर्चे पर नहीं आया, बल्कि इसके एक बड़े हिस्से ने गैर-कोरोना संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं से भी हाथ खींच लिए।

कॉरपोरेट हेल्थकेयर सेक्टर ने महामारी को अच्छाई के लिए काम करने के बजाए लाभ कमाने के एक मौके की तरह देखा। लॉकडॉउन के दो महीने बाद सरकार ने न-नुकुर करते हुए निजी अस्पतालों द्वारा कोरोना के इलाज़ में वसूली पर एक सीमा तय की। यह सीमा भी वेंटिलेटर के साथ वाले बेड के लिए एक दिन का 5000 से 9000 रुपये के बीच है। निजी अस्पताल जिस तरीके से दूसरे चार्ज लगाने में माहिर हैं, इससे मध्यमवर्ग के मरीज़ों को भी आख़िर में कमर तोड़ देने वाली कीमत चुकानी पड़ती है, ग़रीबों का तो यहां इलाज़ का सवाल ही पैदा नहीं होता। ऐसा समझ आता है कि केंद्र और राज्य सरकारें निजी क्षेत्र से उनके बिस्तरों का इस्तेमाल करने के लिए ताकत का इस्तेमाल करने के बजाए मोल-भाव करने में लगी हुई हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य आज जिस हालत में है, वह स्वास्थ्य पेशेवरों के एक बड़े हिस्से की जटिलता और दूसरे पेशेवरों की चुप्पी के बिना संभव नहीं था। स्वास्थ्य और नर्सिंग पेशेवरों का ध्यान महामारी के दौर में ठीक तौर पर सुरक्षा उपायों की कमी और उनके काम करने की खस्ता हालत पर रहा। लेकिन उनके बड़े अधिकारियों ने संकट की चरम स्थिति पर पहुंचने के बाद भी इन बातों को नहीं उठाया। इससे भारत में इस पेशे की जर्जर अवस्था का भी पता चलता है।

भारत में बाकी दुनिया ख़ासकर ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के देशों से बिलकुल उलटी स्थिति है। जो भी आदमी ख़बरों तक पहुंच रखता है, वह जानता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य में कटौती करने वाले देशों को इस महामारी के दौर में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। ब्रिटेन के एक हिस्से ने खुद की गलती मानी है और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की अनिवार्य भूमिका को स्वीकार किया है, जिसे किसी भी कीमत पर नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

कोरोना के बाद ब्रिटेन में निश्चित तौर पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं पर ज़्यादा जोर दिया जाएगा।  कई सालों तक निजी स्वास्थ्य सेवा के गुणगान करने के बाद मुख्य अर्थशास्त्रियों और नीति विशेषज्ञों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की अहमियत मानी है। इसका मतलब यह नहीं है कि बिना किसी गंभीर राजनीतिक लड़ाई के जल्द ही निजी क्षेत्र का स्वास्थ्य सेवाओं में प्रभुत्व या इस तरह की सेवाओं के लिए बनाया जाने वाला दबाव ख़त्म हो जाएगा। लेकिन इतना तय है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के खिलाफ़ और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के लिए राय बन रही है।

विडंबना यह है कि भारत में ऐसी राय बनाने का दबाव नहीं देखा जा रहा है। हम सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दुनिया के बढ़ते ध्यान की तारीफ़ करते हैं। लेकिन हम भारत के लिए इसकी अहमियत को नजरंदाज कर देते हैं। हमें इस पर बहुत साफ़ होना होगा। स्वास्थ्य पर बजट में कोई बड़ा उछाल आता है या नहीं, यह इस बात का लिटमस टेस्ट होगा कि हमने एक राष्ट्र के तौर पर इस महामारी से कुछ सीखा है या नहीं। इस उछाल के लिए संघर्ष और इस संघर्ष में अपने सभी संसाधनों का उपयोग भी देश की लोकतांत्रिक और प्रगतिशील राजनीतिक ताक़तों के लिए लिटमस टेस्ट होगा।

लेखक, चेन्नई स्थित क्लाइमेट चेंज, एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फ़ाउंडेशन में सीनियर फ़ेलो हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Pandemic Crisis Shows no Will to Push Public Healthcare in India

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