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बांग्लादेश में सांप्रदायिक हिंसा और आश्वस्त करती सरकार की ज़िम्मेदार पहल

हाल में जिस तरह से सांप्रदायिक हिंसा पर वहाँ की सरकार ज़िम्मेदारी से काम करते दिखलाई दे रही है उससे लगता है कि वह इस शांति और सद्भाव को बचाने की ईमानदार कोशिश कर रही है। ...अगर इस एक मामले में देखें तो बांग्लादेश हमें राह दिखा रहा है।
Bangladesh peace rally
ढाका: बांग्लादेश में दुर्गा पूजा उत्सव के दौरान हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा का विरोध करते और न्याय की मांग करते स्थानीय लोग। फोटो साभार: रॉयटर्स/मोहम्मद पोनीर हुसैन

साझा इतिहास से बना हमारा पड़ोसी देश बांग्लादेश इस समय सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से जूझ रहा है। ठीक वही मज़हबी साज़िशें जो औपनिवेशिक काल से इस उप महाद्वीप को मिली हैं आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी आजमाई जा रही हैं। एक मज़हब के लिए पवित्र ग्रंथ का अपमान, बेअदबी, वर्जित वस्तुओं का इस्तेमाल, देवी देवताओं का अपमान और ऐसी ही कई तरीके।

तब जब इस महाद्वीप के सभी देश स्वतंत्र व संप्रभु गणतन्त्र बन चुके हैं। जिन मुल्कों का इतिहास साझा हो, आज़ादी का संघर्ष साझा हो संस्कृति साझा हो उनकी नियति भी इस साझेपन के साथ लंबे समय तक एक सी बनी रहने के लिए अभिशप्त है। इन साज़िशों से न हिंदुस्तान अछूता है न पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश। हिंदुस्तान में एक बड़े तबके को इस बात पर हमेशा झूठा दर्प रहा है कि हम इन इन नए बने मुल्कों के जनक हैं। स्वघोषित बड़े भाई।

क्रिकेट जो छद्म राष्ट्रवाद का उन्मादी वातावरण पैदा करते रहा है, इस तरह की कुंठाएं खुलेआम ज़ाहिर करने का एक सर्वस्वीकृत मंच जैसा बन गया है। विश्व कप के दौरान या अन्यथा भी यह दर्प और अहंकार भारत के लोगों की तरफ से खुलकर व्यक्त होते रहता है।

इन सभी देशों का इतिहास जो भी रहा हो लेकिन आज के दौर का बांग्लादेश यह करते हुए दिखलाई दे रहा है। दुर्गा पूजा के दौरान हिन्दू मंदिरों में हुई तोड़-फोड़ और सांप्रदायिक दंगों सी निर्मित हुई स्थिति के मद्देनजर बांग्लादेश की सरकार, वहाँ की पुलिस, जांच एजेंसियां क्या कर रही हैं यह देखना सबसे ज़्यादा मौजू है।

‘अल्लाह के नाम’ पर बने देश में धर्म निरपेक्षता को लेकर लंबी कश्ममकश चली है और 2001 के बाद यह शब्द इसके संविधान में पुन: जोड़ दिया गया लेकिन उसे मजबूत बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों ने आत्मसात नहीं किया। आज दुनिया भर में जिस तरह से दक्षिणपंथ का उभार हुआ है उससे बांग्लादेश में जड़ें जमाये इन फिरकापरस्त ताकतों को भी उभार का मौका मिला है।

बीते एक सप्ताह में बांग्लादेश से जो खबरें आ रही हैं वह आश्वस्त करती हैं कि एक देश के तौर पर यह एक परिपक्व होने की तरफ जा रहा है। बांग्लादेश शांति और सहिष्णुता का स्वाद जानता है। कम समय में उसकी आर्थिक तरक्की के पीछे उनकी दुनिया से सामंजस्य बनाने की पहल का ही नतीजा है। हाल में जिस तरह से सांप्रदायिक हिंसा पर वहाँ की सरकार ज़िम्मेदारी से काम करते दिखलाई दे रही है उससे लगता है कि वह इस शांति और सद्भाव को बचाने की ईमानदार कोशिश कर रही है। फिलहाल ऐसा लग रहा है कि वहाँ की सरकार अल्पसंख्यकों की हिफाजत करने को अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी समझ रही है। और इसके लिए यह बहुसंख्यकों की रुसवाई का जोखिम उठाने तैयार है। यह देश अपने यहाँ बहुसंख्यकों की मनमानी को इसलिए बर्दाश्त करने से इंकार करना चाहता है क्योंकि यह देश के कानून के खिलाफ है। यह देश और इसके नागरिक अपनी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को लेकर चिंतित दिखलाई पड़ रहे हैं। निसंदेह विश्व बीरदारी का दबाव भी वहाँ की सरकार पर बन रहा है।

अब तक बांग्लादेश की सरकार ने चार हज़ार से ज़्यादा लोगों के नाम मुक़द्दमे दर्ज़ किए हैं। 71 लोगों की गिरफ्तारी की जा चुकी है। जिस व्यक्ति के जरिये साजिश रची गयी उसे चिह्नित कर गिरफ्तार भी कर लिया गया है। इतनी बड़ी तादात में जिन लोगों के खिलाफ मुक़द्दमे दर्ज़ हुए हैं उनमें बहुसंख्यक मुसलमानों की संख्या जाहिर तौर पर ज़्यादा है।

कानून में इंसाफ निहित है लेकिन कानून को लागू करने और कराने के लिए जिम्मेदार लोगों की तत्परता और इरादों से ही कानून अपना काम कर सकता है। यह संदेश बांग्लादेश देने की कोशिश कर रहा है। वहाँ रह रहे हिन्दू जो बांग्लादेश के नागरिक हैं, यह देश उन्हें इस बात की उलाहना नहीं दे रहा है कि तुम हिंदुस्तान क्यों नहीं चले जाते? उन्हें वह अपने देश में उतना ही नागरिक मान रहा है जितना वहाँ बसे मुसलमानों को। अगर साजिश किसी मुसलमान ने रची है तो कानून की निगाह में वो मुसलमान नहीं गुनहगार है। इसके उलट आज के हिंदुस्तान में जो हो रहा है उससे यह आश्वस्ति नहीं मिलती।

अभी बहुत वक़्त नहीं गुज़रा जब देश की राजधानी दिल्ली में बांग्लादेश से भी ज़्यादा बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए जिन्हें शुरू से माना गया कि ये प्रायोजित थे और अब खुद न्यायालय मान रहे हैं कि ये अचानक घटित नहीं हुआ बल्कि इसकी पूर्व तैयारी थी। हालांकि कोर्ट ने यह बताना ज़रूरी नहीं समझा कि अगर यह पूर्व नियोजित थे तो किसने किए लेकिन शायद उसे यह बतलाना इसलिए भी ज़रूरी नहीं लगा क्योंकि दिल्ली पुलिस की जांच पर वह लगातार टिप्पणियाँ कर रहा है। कोर्ट की टिप्पणियों और उसके द्वारा पूर्व नियोजित कहे जाने को अगर एक साथ रखकर समझें तो यह कतई स्पष्ट हो जाता है कि ये घटनाएँ भी पूर्व नियोजित भी थीं और उसके बाद पुलिस द्वारा की जा रही चयनित कार्यवाइयाँ भी न केवल पूर्व नियोजित हैं बल्कि सत्ता संरक्षित भी हैं। 

बांग्लादेश में जो घटित हो रहा है और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश हो रही है संभव है वह किसी बड़ी साजिश का हिस्सा हो लेकिन यह स्वीकार करने में हमें परहेज नहीं होना चाहिए एक पड़ोसी देश और साझा सांस्कृतिक विरासत होने के नाते हमारे देश में होने वाली घटनाओं का बुरा असर वहाँ भी पड़ सकता है।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 15 अक्टूबर 2021 को शायद यह बात  पहली दफा इस तल्खी के साथ कही है कि “भारत को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वहाँ कुछ ऐसी घटनाएँ न हों जिनका असर बांग्लादेश में हो”।

हालांकि बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिन्दू अल्पसंख्यकों के साथ हो रही ज़्यादतियों की खबरों लेकर एक सत्तारूढ़ दल ने हिंदुस्तान में सांप्रदायिक राजनीति को हमेशा हवा दी है। इस तरह की घटनाओं से ज़ाहिर इस विचारधारा को यह कहने का ठोस आधार मिलेगा कि पड़ोसी मुल्क में जहां मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज़्यादा है वहाँ हिंदुओं के साथ क्या क्या हो रहा है। शेख हसीना का इशारा शायद इसी तरफ रहा है।

बांग्लादेश में हुई इन वारदात का प्रसार हालांकि अभी भाजपा आईटीसेल और तमाम संचार माध्यमों का प्रमुख एजेंडा बना हुआ है। जो अपेक्षित भी है।

हिंसा किसी भी आधार पर स्वीकार्य नहीं है और चाहे वह सांप्रदायिक हो या फौजदारी की। वह चाहे राज्य संरक्षित और प्रायोजित हो या स्वत: स्फूर्त भड़की हो। उसे तत्काल रोकना और आगे वैसी परिस्थितियाँ न बनने देना किसी भी सत्ता और सरकार की लोकतन्त्र में प्राथमिक ज़िम्मेदारी है। अगर इस एक मामले में देखें तो बांग्लादेश हमें राह दिखा रहा है।

शेख हसीना के बयान का इशारा शायद हमारे देश के नागरिकता संशोधन कानून की तरफ भी है। जब यह कानून लाया जा रहा था तब जिस अंदाज़ में बार बार देश का गृह मंत्री संसद और संसद के बाहर पड़ोसी देशों के हिन्दू नागरिकों को असुरक्षित करार दे रहे थे। क्या वह जानते थे कि उनके ये गैर जिम्मेदाराना बयान किसी दूसरे संप्रभु देश का अपमान है। क्या हिन्दू नागरिक जो वहाँ अल्पसंख्यक हैं वाकई असुरक्षित हैं? और वो सब वाकई भारत आना चाहते हैं? किसी देश में कानून बनाना उस देश की सरकार का आंतरिक मामला और काम है क्या ज़रूरी है कि क़ानूनों को इस हद तक विभेदकारी बनाया जाये कि दूसरे देश की संप्रभुता और उसके आंतरिक मामलों का अपमान ही हो?

हालांकि इस तरह के बयानों के जरिये सत्तारूढ़ दल अपने असंवैधानिक कानून का बचाव कर रहे थे जिसकी मूल मंशा नागरिकता देने से ज़्यादा सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना था। आज देश के गृहमंत्री और भारतीय जनता पार्टी ज़रूर बांग्लादेश में सरकार द्वारा त्वरित कार्यवाइयों को देख रहे होंगे और उन्हें इस बात से आश्वस्ति भी मिल रही होगी कि किसी देश के नागरिकों और विशेष रूप से अल्पसंख्यकों के अधिकारों, जानोमाल की हिफाजत करना किसी सरकार की ज़िम्मेदारी कैसे है और उसे निभाने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए नहीं बल्कि उन्हें कानून के राज को कायम किया जाता है।

आज बांग्लादेश की सड़कों पर इसके बहुसंख्यक नागरिक, कलाकार, पत्रकार, लेखक, खिलाड़ी और आम नागरिक अपने देश के अल्पसंख्यक हमवतनों के लिए इंसाफ की मांग कर रहे हैं। वह अपने देश को सांप्रदायिकता के जहर से बचाने के लिए भी सड़कों पर हैं। उनके नारे हैं कि ‘बांग्लादेश की धरती को संप्रदायिकता के खून से रंगने को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा’।

देश के गृह मंत्री असदुज्जमन खान जिस आत्मविश्वास से यह कह पा रहे हैं कि ‘हमारे देश के नागरिक धार्मिक हैं न कि कट्टर उन्मादी’। यह कहते वक़्त उन्हें देश के नागरिकों का समर्थन मिल रहा है। यह देखना कितना सुखद अनुभव है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की अपनी पार्टी, आवामी लीग अल्पसंख्यक हिन्दू नागरिकों के लिए इंसाफ और सुरक्षा के लिए सड़कों पर है। क्या आज के हिंदुस्तान में यह संभव लगता है कि सत्तारूढ़ दल की पार्टी उसके खिलाफ यहाँ के अल्पसंख्यक मुसलमान नागरिकों के लिए इंसाफ की मांग करने सड़कों पर निकले? बल्कि हमने देखा है कि पूरी पार्टी और उसकी आनुषंगिक इकाइयां खुद हिंसा में लिप्त होती हैं और जो हिंसा की जगहों पर नहीं होते वो उसमें तमाम व्हाट्स एप और अन्य सोशल मीडिया के जरिये उन घटनाओं में शामिल होते हैं। ऐसी घटनाओं को लेकर पूरे देश में माहौल भड़काने के काम में मुस्तैद होते हैं।

पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया के निर्माण की साज़िशों को धता बताते हुए इस्लामिक देश मानवता और लोकतन्त्र की नयी नज़ीर लिख रहे हैं। इसका स्वागत होना चाहिए। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब फरवरी, 2020 में पाकिस्तान में ऐसी ही एक हिंसक झड़प के बाद खंडित हुए एक मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने एक मिसाल कायम की। इसके जरिये भारत के मौजूदा हालातों पर तंज़ भी किया गया कि हम हिंदुस्तान नहीं हैं जहां अल्पसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं और मान्यताओं का सम्मान न किया जाए।

क्या आज के हिंदुस्तान में इस बात का तसव्वुर भी किया जा सकता है कि किसी मस्जिद या चर्च के पुनर्निर्माण के लिए यहाँ कोई राजनैतिक या न्यायिक पहलकदमी हो?

इस घटना पर हिंदुस्तान की तथाकथित मुख्य धारा की लेकिन ‘कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया’ से अगर हम बांग्लादेश सरकार की इन कार्यवाहियों को समझने की कोशिश करें तो निराशा ही हाथ लगेगी। अधिकांश अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इन घटनाओं के जरिये केवल यह बताने की कोशिश हो रही है कि वहाँ हिंदुओं के साथ क्या हो रहा है। इन खबरों में कहीं भी यह देखने को नहीं मिल रहा है कि बांग्लादेश की सरकार, उसकी जांच एजेंसियां और आम नागरिक, प्रतिष्ठित लोग किस तरह से इस घटना की निंदा कर रहे हैं और अपने अल्पसंख्यक हमवतनों के साथ खड़े हो रहे हैं। उनके लिए इंसाफ की मांग कर रहे हैं। अपनी ही मजहब के दोषियों को लेकर सख्ती बरतने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं और विपक्ष सांप्रदायिक सौहाद्र और देश की धर्म निरपेक्ष बुनियाद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं।

यहाँ तक कि वहाँ जो अल्पसंख्यक हिन्दू हैं वो किस सहजता से अपने नागरिक अधिकारों का इस्तेमाल कर पा रहे हैं और जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है और हमें सिखाती है कि अब तक इन अल्पसंख्यक नागरिकों पर ही मुकद्दमें लादने और बार बार उत्पीड़ित करने की कोई कार्यवाई वहाँ नहीं हुई है जो हमारे यहाँ ऐसे मामलों में सबसे पहले किए जाने का चलन बन चुका है। 

(लेखक क़रीब डेढ़ दशक से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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