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क्या है दिल्ली के सबसे बड़े कोविड अस्पताल का हाल

न थर्मल स्क्रीनिंग, न सोशल डिस्टन्सिंग का पालन : दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के हालात
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साभार : पत्रिका

देश में कोरोना संक्रमण तेज़ी से फैल रहा है, राजधानी दिल्ली में स्थिति पहले से बेहतर है लेकिन बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। भले ही केंद्र और राज्य सरकार संक्रमण पर कथित नियंत्रण के लिए अपनी-अपनी पीठ खुद थपथपा लें और अपने-अपने अस्पतालों का गुणगान कर लें लेकिन वास्तविक हालात क्या हैं, इसका पता आपको तब चलेगा जब आप दिल्ली के किसी सरकारी अस्पताल में क़दम रखेंगे।

यह ज़ाहिर बात है कि दिल्ली में पूरे देश के मुक़ाबले संक्रमण के मामले कम हो रहे हैं, और रिकवरी रेट भी यहाँ का बेहतर है, मगर क्या सरकारी अस्पताल कोरोना वायरस से लड़ने के लिए ज़रूरी सावधानी का पालन कर रहे हैं? क्या दिल्ली का डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल जोकि कोरोना वायरस के लिए डेडिकेटेड अस्पताल है, वहाँ सोशल डिस्टेन्सिंग या थर्मल स्क्रीनिंग हो रही है? क्या सरकारी अस्पताल का स्टाफ़ इस बीमारी को लेकर सक्रिय या गंभीर नज़र आ रहा है? इन सब सवालों का जवाब है नहीं!

जब से कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन का ऐलान हुआ था, उसी वक़्त से मैं एक स्वास्थ्य आपदा का हिस्सा रहा हूँ। यह स्वास्थ्य आपदा कोरोना वायरस की नहीं थी, बल्कि एक किडनी ट्रांसप्लांट की थी। इसी किडनी ट्रांसप्लांट के सिलसिले में मैंने दिल्ली के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल अपोलो हॉस्पिटल की कार्रवाई भी क़रीब से देखी। और यह कहने की मुझे शायद ज़रूरत नहीं है, कि अपोलो हॉस्पिटल में कोरोना को लेकर गंभीरता ज़्यादा है। मसलन गेट पर थर्मल स्क्रीनिंग, सामाजिक दूरी का पालन करता स्टाफ़ अपोलो में पूरी तरह से मौजूद है। देश के स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत को देखते हुए प्राइवेट अस्पताल की तुलना सरकारी अस्पताल से करना बेमानी सी बात है, मगर राम मनोहर लोहिया अस्पताल अपोलो का एकदम विपरीत नज़र आता है।

राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल केंद्र सरकार के अंडर आता है और उन सरकारी अस्पतालों में से है जहाँ शुरूआत से कोरोना वायरस की टेस्टिंग हो रही है। लेकिन कोरोना आने के 5 महीने बाद अगर उस अस्पताल की हालत देखी जाए, तो डर लगता है।

कहीं थर्मल स्क्रीनिंग नहीं

आरएमएल में मेन गेट से अंदर जाने से लेकर किसी भी डिपार्टमेंट में जाने तक, कहीं कोई थर्मल स्क्रीनिंग की सुविधा नहीं है। किसी भी विभाग में जाने से पहले गार्ड आपसे कुछ पूछ नहीं रहे हैं, न आपके हाथ सेनीटाइज़ करवा रहे हैं। ऐसे में कोरोना संक्रमण तो अलग बात है, आम बीमारियों का ख़तरा भी बढ़ा हुआ महसूस होता है।

लचर स्टाफ़, कोई गंभीरता नहीं

गार्ड से लेकर रिसेप्शन या नर्स तक, आरएमएल का कोई भी स्टाफ़ इस बीमारी को लेकर गंभीर नहीं दिख रहा है। ओपीडी में गार्ड आपस में यूँ बैठे रहते हैं मानों पार्क में चकल्लस करने के लिए बैठे हों। आप कहीं भी जाएँ, कुछ भी करें, मास्क लगाएँ या न लगाएँ; आपको कोई पूछने वाला नहीं है। हद तो तब हो जाती है, जब आपको रिसेप्शन पर बैठे लोग बिना मास्क के, एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए नज़र आते हैं।

ओपीडी में एक आम दिन

राम मनोहर लोहिया अस्पताल की ओपीडी फ़िलहाल 4 दिनों के लिए काम कर रही है। यहाँ दो टाइम स्लॉट हैं - सुबह 9 से दोपहर 1 और दोपहर 2 से शाम 6 बजे तक। सुबह के लिए 8 बजे से पर्चा बनना शुरू होता है और लोग क़रीब 8:15 से ओपीडी के बाहर जमा हो जाते हैं। ओपीडी के बाहर का हाल नीचे दी गई तस्वीर में दिखाया गया है। आप देखिये कि सिर्फ़ अंदर जाने के लिए कितने लोग खड़े हैं। इसके दोगुने लोग अंदर जा चुके हैं। यूं तो बाहर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा है, लेकिन अगर हो भी तो यहाँ सिर्फ़ इतनी ही जगह है कि महज़ 5 लोग 2 ग़ज़ की दूरी बना कर खड़े रह सकते हैं।

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इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि क़रीब 60 लोग इंतज़ार में खड़े हैं। इसी बीच लोग एक दूसरे को धक्का देने पर मजबूर हैं, मास्क उतार रहे हैं, और बीमार लोग खाँस भी रहे हैं। इसी दौरान बीच-बीच में मरीज़ स्ट्रेचर या व्हीलचेयर पर अंदर आते हैं, जिससे ओपीडी का दरवाज़ा खुलता है और अंदर जाने के लिये भगदड़ मचने लगती है।

स्टाफ़ की बात करें तो सुबह के स्टाफ़ में से ज़्यादातर ने पीपीई किट पहनी है, मगर उसमें से भी कुछ लोग लापरवाह हैं। और दोपहर में तो माहौल ऐसा है जैसे 40-50 लोग पार्क में पिकनिक पर आए हों।

ओपीडी के अंदर बड़ा हॉल है, जिसमें 10 कमरे हैं और इंतज़ार करने वाले मरीज़ों के लिये बेंच लगी हुई है। इन 10 कमरों में अलग-अलग विभाग के डॉक्टर और रेज़िडेंट डॉक्टर बैठते हैं। एक कमरे में, जो एक छोटा सा कैबिन है। उसमें 3 डॉक्टर के अलावा 3-4 मरीज़ रहते हैं। यानी एक समय पर एक छोटे से कमरे में 7 लोग जमा रहते हैं। ऐसे में संक्रमण फैलने के ख़तरे का अंदाज़ा लगाया ही जा सकता है कि कितना ज़्यादा है।

पूरे अस्पताल की आबोहवा में से गंभीरता नदारद है। जहाँ कोरोना के मरीज़ हैं, वहीं एम्बुलेंस स्टाफ़ के लोग बीड़ी पीते नज़र आते हैं। जहाँ कोरोना की टेस्टिंग हो रही है वहाँ तो भीड़भाड़ और तनाव का माहौल बेहद ज़्यादा है।

ये बातें मैंने सिर्फ़ एक दिन जा कर लिखी हैं। शायद यह दिन ही ख़राब हो। शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और उनके प्रतिनिधि एलजी साहब के ही दावे ठीक हों, और मेरी नज़र में ही खोट हो। शायद अस्पताल रोज़ ठीक से काम करता है, मगर इन दो दिनों में ही अस्त व्यस्त हो गया हो। यह सब हो सकता है, मगर हुआ नहीं है।

राम मनोहर लोहिया अस्पताल में फैली इस लापरवाही का ज़िम्मेदार कौन है? क्या वह मरीज़ जो अपनी जान जोखिम में डाल कर, मजबूरी में अपना इलाज करवाने आये हैं? या क्या वह स्टाफ़ ज़िम्मेदार है, जो कम तनख्वाह पर भी 12 घंटे काम कर रहा है, और जनता की मदद के लिये हर संभव प्रयास कर रहा है? इसका दोषी हम किसे बनाएंगे? क्या मोदी जी और हर्षवर्धन जी आरएमएल की इस हालत का भी प्रचार करेंगे?

और सिर्फ़ केंद्र ही नहीं राज्य सरकार के अधीन आने वाले अस्पतालों की तस्वीर भी कुछ अच्छी नहीं है। क्या केजरीवाल जी उनके बारे में भी जनता को अवगत कराएंगे।

देश में फैली महामारी की गंभीरता का अंदाज़ा सबको है, मगर सरकारों की लापरवाही और नज़रअंदाज़ी की वजह से माहौल यह है कि आम जनता भी मजबूरन लापरवाह हो रही है। आप ख़ुद सोचिये कि हर रोज़ इतने लोग मर रहे हैं, कोरोना वायरस से कितने संक्रमित हो रहे हैं। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें क्या कर रही है? प्रचार? झूठा प्रचार?

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