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डियर प्रशांत, आपकी पॉलिटिक्स क्या है...?

डेमोक्रेसी को डेटाक्रेसी में बदल देने का आरोप प्रशांत किशोर अपने राजनैतिक वैचारिकी के जरिये ही दूर कर सकते है। उन्हें अपने पवित्र साध्य (बिहार विकास) के लिए साधनों के चुनाव में भी पवित्रता अपनानी होगी.
prashant kishor

28 जून की दोपहर, महात्मा गांधी की कर्मभूमी पूर्वी चंपारण में स्वघोषित महान चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके तकरीबन 50 लोगों के एक समूह से संवाद कर रहे थे। वे अपनी जन सुराज यात्रा के तहत बिहार के अलग-अलग जिलों में जा कर लोगों से मिल रहे हैं, बातें कर रहे हैं। बहरहाल, उक्त बैठक में, प्रशान्त किशोर ने एक बड़ी अहम् बात कही। उनका कहना था कि आज़ादी से पहले वाली कांग्रेस बड़ी लोकतांत्रिक थी और उसमें हर तरह के लोगों के लिए लिए गुंजाइश थी जो अपनी सहूलियत और क्षमता के हिसाब से आजादी की लड़ाई में योगदान दे रहे थे। मसलन, कोई अखबार निकाल रहा था, कोई अपने इलाके में प्रभात फेरी लगाता था, कोई धरना-प्रदर्शन करता था, कोई असेंबली में बम फेंकता था (हालांकि भगत सिंह कांग्रेस से जुड़े नहीं थे) आदि।

लेफ्ट-राईट-सेंटर

उनके इस विचार को सुनने के बाद, जब इन पंक्तियों के लेखक ने उनसे यह सवाल किया कि जिस तत्कालीन कांग्रेस के लोकतांत्रिक होने की वे बात कर रहे हैं, उसमें तो जिन्ना भी थे और पंडित मदन मोहन मालवीय भी, जो कांग्रेस में रहते हुए भी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष हुआ करते थे। ऐसे में, अगर आप उक्त लोकतांत्रिक कांग्रेस से प्रभावित है तो यह बताए कि आप अपने दल में ऐसे विचारों का समायोजन कैसे करेंगे? इस सवाल पर प्रशांत किशोर ने साफ़ कुछ नहीं कहा। अब यह कहना कि वे उस सवाल को समझ नहीं पाए तो गलत होगा, क्योंकि वे राजनीतिक रूप से अतिपरिपक्व व्यक्ति है, और जाहिर है कि इस सवाल का मकसद ये जानना था कि जब कभी भी प्रशांत किशोर राजनीति दल बनाएंगे तो उनकी “पॉलिटिक्स” क्या होगी, उनकी विचारधारा क्या होगी, वे राईट होंगे, वे लेफ्ट होंगे, वे सेंटर होंगे, वे राईट टू लेफ्ट होंगे या राईट टू सेंटर होंगे। और यह भी कि क्या वे अपनी पार्टी में वैसे लोगों को भी जगह देंगे जो उग्र राष्ट्रवाद के बहाने धार्मिक नफ़रत फैलाने में यकीन रखते है या जो विकास की बात करते हुए जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम पर हिंसा का समर्थन करते है?

विकास बनाम सांप्रदायिकता

हालांकि, उनका स्लोगन है, “सही लोग, सही सोच, सामूहिक प्रयास”। लेकिन सवाल है कि बिहार की 13 करोड़ आबादी में से सही लोग चुनने की प्रक्रिया क्या होगी? इसकी क्या गारंटी होगी या ऐसी कौन सी प्रक्रिया प्रशांत किशोर अपनाएंगे जिससे यह तय हो सके कि उनसे जुड़ने वाले लोग सांप्रदायिक विचार के न हो, धर्म या जाति के नाम पर घृणा फैलाने वाले न हो। यह सवाल (वैचारिकी का) शुरुआत में भले अर्थहीन समझा जाए लेकिन किसी राजनीतिक दल के क्रमिक विकास में यह महत्वपूर्ण हो जाता है। मसलन, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ कर दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविन्द केजरीवाल जब चुनाव के वक्त टीवी स्टूडियो में हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ने लगते है और 5 किलोमीटर दूर शाहीन बाग़ जाने से कतराते है, तब जा कर यह पता लगता है कि किसी राजनीतिक दल की विचारधारा (स्पष्ट विचारधारा) के होने के क्या मायने होते है?

जिस दौर में हर राजनीतिक दल बात सिर्फ “विकास” की करता हो, वहाँ प्रशांत किशोर भी बिहार बदलने या बिहार के समग्र विकास की बात करते है तो इसमें नया क्या है? उलटे,  महत्वपूर्ण तो यह हो जाता है कि आपका विकास कितना ज्यादा मानवीय चेहरा लिए हुए है। आपके विकास की अवधारणा में कितनी ज्यादा मानवता का समावेश है। अन्यथा, विकास तो इस देश में पिछले 8 साल से हो ही रहा है कि डॉलर 80 रूपये तक पहुँच गया लेकिन हुक्मरान है कि विकास का रथ थाम कर दो मिनट सोचने के लिए तैयार तक नहीं है। ऐसे में, यह भी सवाल है कि जिस सात निश्चय योजना की आधारशिला प्रशांत किशोर ने खुद बनाई थी, उसी में से नल जल योजना की आज जो हालत बिहार में है (खास कर शहरों में) उसे देख कर किसी को भी रोना आएगा। प्रशांत किशोर यह भलीभांति जानते होंगे कि विकास कोई जादू की छड़ी नहीं है जिसे घुमाया और विकास हो गया। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है। विकास एक इवोल्यूशनरी प्रोसेस है, जो होते-होते होती है। 75 साल में भारत अंतरिक्ष तक पहुंचा, तो कोई रातों रात नहीं पहुंचा, बल्कि इसमें वक्त लगा। क्रमिक गति से काम हुआ। लेकिन,  इस क्रमिक विकास प्रक्रिया की गति को जब-जब नुकसान पहुंचा है, जब-जब इसकी गति धीमी हुई है, उसके कारण जातीय-धार्मिक नफ़रत ही रहे हैं। तो सबसे अहम् यही कि प्रशांत किशोर अगर विकास की बात करते है तो विकास को थामने वाले कारकों (सांप्रदायिकता) का सामना कैसे करेंगे। यानी, प्रशांत किशोर अगर सचमुच बिहार विकास को लेकर गंभीर है तो उन्हें विकास के रोडमैप से पहले सामाजिक समरसता का रोडमैप ले कर सामने आना चाहिए। उस पर खुल कर बोलना चाहिए।

साध्य तो ठीक, साधन पवित्र होगा?

गांधी-गोडसे साथ नहीं चल सकते। प्रशांत किशोर ने कभी बिहार एनडीए के लिए यही बात कही थी। लेकिन गोडसे की विचारधारा से प्रभावित लोग गांधी के “जन सुराज” में कब घुसपैठ कर ले, इसे रोकने का मैकेनिज्म प्रशांत किशोर के पास है, फिलहाल ये  कहना मुश्किल है। इस वक्त वे सब से मिल रहे है। मिलना भी चाहिए। यहां तक कि विदेशों में बैठे 250 लोग, बकौल प्रशांत किशोर, बिहार विकास का रोडमैप बना रहे हैं। वे टेक्नोक्रेट होंगे लेकिन उनकी विचारधारा क्या है, वे किन विचारों के पोषक है, इसका खुलासा अभी तक उन्होंने नहीं किया है। तो महज गांधी-गोडसे साथ नहीं चल सकते, ऐसा कह देने भर से प्रशांत किशोर अपने आगामी राजनीतिक दल की शुचिता सुनिश्चित कर सकेंगे, मुश्किल है। डेमोक्रेसी को डेटाक्रेसी में बदल देने का जो आरोप प्रशांत किशोर के ऊपर है, उसे वे सिर्फ और सिर्फ अपने राजनैतिक वैचारिकी के जरिये ही दूर कर सकते है। यानी, उन्हें बिहार विकास (साध्य) के लिए अपने साधनों के चुनाव में भी पवित्रता अपनानी होगी। अन्यथा, कल को वोट पाने के लिए वह भी प्रेस कांफ्रेस में हनुमान चालीसा का पाठ करते नजर आ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।       

(इसमें लेखक के निजी विचार भी शामिल हैं।)

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