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कश्मीर में दर्द की अथाह दुनिया के बीच गुजरता बच्चों का बचपन

कश्मीर में ऐसे कई बच्चे हैं जो आज जीवन भर के लिए अपंग बने रहने के लिए मजबूर हैं, जिनमें से सैकड़ों पेलेट शॉट-गन की चपेट में आ जाने की वजह से हमेशा के लिए अंधे हो चुके हैं।
कश्मीर
(25 जून 2020 के दिन दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा जिले के त्राल इलाके में एक उग्रवाद-विरोधी अभियान के लिए तैनात सशस्त्र बल के वाहनों को निहारता एक बच्चा) तस्वीर: कामरान यूसुफ़/न्यूज़क्लिक

श्रीनगर : उत्तर कश्मीर के सोपोर इलाके में सड़क किनारे गोली मारकर मार दिए गए अपने बेजान दादा के शरीर के उपर बैठे चार वर्षीय बच्चे की तस्वीर को सबने देखा होगा, यह तस्वीर अपने आप में कश्मीर में बच्चों को किन भयावह परिस्थितियों के बीच से गुजरना पड़ रहा है, उसकी एक बानगी मात्र है।

उस घुटनों के बल चलने वाले नन्हें बच्चे के 65 वर्षीय दादा बशीर अहमद खान, बुधवार की सुबह कथित तौर पर आतंकवादियों द्वारा अर्धसैनिक बलों पर किये गए हमले के बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के एक जवान के साथ मौत का शिकार हुए थे। घटना के तत्काल बाद ही जम्मू-कश्मीर पुलिस ने सोशल मीडिया पर इस बेहद झकझोर कर रख देने वाली तस्वीर को साझा किया था, जिसमें यह दावा किया गया था कि बच्चे को बचा लिया गया है। इस तस्वीर को  साझा करने के पीछे का मकसद इस बात पर जोर देने का हो सकता है कि इस क्षेत्र में उग्रवाद और हिंसा के चलते कैसे-कैसे दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

हालांकि एक छोटे से मासूम बच्चे की त्रासदी को भुनाने को लेकर पुलिस ने कई हलकों से गुस्से को आमंत्रित किया है, जिसमें कई लोगों ने अपनी नाराजगी इस बात को लेकर जाहिर की है कि जिन परिस्थितियों के बीच इस तस्वीर को पुलिस अपने हक में इस्तेमाल कर रही है, वह काफी आपत्तिजनक होने के साथ-साथ बाल कानूनों के उल्लंघन से भी जुड़ा मसला है।

इन सबके बावजूद इतना तो तय है कि यह इस तथ्य को साबित करने में सहायक सिद्ध हुआ है कि अशांत कश्मीर में बच्चे किस प्रकार से मानसिक आघातों के बीच बड़े हो रहे हैं।

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 (अपने तीन बच्चों सहित एक परिवार 4 मई, 2020 को पुलवामा के बेघपोरा गाँव में हो रही गोलाबारी के दौरान अपने घर में बचने की कोशिश में लगे हुए। यह मुठभेड़ आख़िरकार हिजबुल मुजाहिदीन के शीर्ष कमांडर रियाज नाइकू और उसके सहयोगी की हत्या के साथ जाकर समाप्त हुई)। तस्वीर: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

इस साल कोरोनावायरस महामारी के प्रकोप के बावजूद देश के इस हिस्से में हिंसात्मक घटनाओं में बढ़ोत्तरी देखने को मिली है, जिसमें पाया गया है कि उग्रवादी हमले बढ़े हैं और उग्रवादियों और सरकारी बलों के बीच की मुठभेड़ों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी देखी गई है।

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(चित्र: पुलवामा के त्राल गाँव में एक पुलिसकर्मी की बंदूक को हाथ में लेते हुए एक बच्चा जिसे मुठभेड़ स्थल से पुलिस हिफाजत में निकालकर लाया गया है, जहाँ 25 जून, 2020 को आतंकवादियों और सरकारी सैन्य बलों के बीच उस दौरान गोलाबारी जारी थी।) चित्र: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

श्रीनगर आधारित जम्मू एंड कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी (जेकेसीसीएस) अधिकार समूह के अनुसार, जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित क्षेत्र में संघर्ष-संबंधी हिंसा के चलते पहले छह महीनों में 229 मौतें हुईं, जिनमें से 32 लोग आम नागरिक थे। इनमें मारे गए लोगों में कम से कम तीन बच्चे और दो महिलाएं शामिल थीं जबकि दर्जनों लोग घायल थे।

इससे पहले 25 जून के दिन दक्षिणी कश्मीर के बिजबेहरा इलाके में एक आतंकवादी हमले के दौरान चार वर्षीय निहान भट की "क्रॉस-फायरिंग" में मौत हो गई थी। निहान की मौत तब हुई थी, जब वह अपने पिता मोहम्मद यासीन भट के साथ जा रहा था।

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(उग्रवादी हमलों के दौरान अपने चार वर्षीय बेटे की मौत के कुछ दिनों के बाद मोहम्मद यासीन भट 28 जून, 2020 के दिन दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम में अपने बेटे निहान की तस्वीर दिखाते हुए) चित्र: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

1989 में कश्मीर में शुरू हुए इस हथियारबंद विद्रोह को आज तीन दशक से अधिक का समय बीत चुका है, और इस हिंसा और इससे जुडी कई अन्य वारदातों में, जिसमें से कई हिंसा के मामलों को सरकारी सैन्य बलों द्वारा संचालित किया गया था, में महिलाओं और बच्चों सहित दसियों हजार लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। 2003 से लेकर 2018 के बीच में जेकेसीसीएस की एक रिपोर्ट ‘आतंक के साए में: जम्मू कश्मीर के बच्चों पर हिंसा का पड़ता प्रभाव’ के अनुसार,  कुल 318 बच्चे मारे जा चुके हैं। और जिन्होंने इस अपराध को अंजाम दिया है, उनमें से अभी तक किसी को भी उनके अपराधों की सजा नहीं हुई है।

इस बात को तकरीबन एक दशक से अधिक का समय बीत चुका है जब 11 जून 2010 को जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा छोड़े गए आंसूगैस के गोले की चपेट में आ जाने आने की वजह से 17 वर्षीय तुफैल मट्टू की मौत हो गई थी। पिता मोहम्मद अशरफ मट्टू द्वारा वर्षों लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ने के बावजूद आजतक उसके हत्यारों को आरोपी नहीं बनाया जा सका है। मट्टू ने अपने बेटे की 10वीं पुण्यतिथि पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा था “हर कश्मीरी के पास बताने के लिए खुद की एक दर्दनाक कहानी मौजूद है। मैं इसका जीता-जागता प्रमाण हूं; मैंने उन सभी को बेनकाब कर डाला है, और वे ये लड़ाई हार चुके हैं क्योंकि वे सच्चाई का सामना नहीं कर सकते है और इसी वजह से वे न्याय दे पाने में असमर्थ हैं।”

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(मोहम्मद अशरफ मट्टू 11 जून, 2020 के दिन श्रीनगर के शहीद मरगुज़र (शहीदों के कब्रिस्तान) में तुफैल मट्टू की 10वीं पुण्यतिथि के मौके पर बेटे की कब्र पर फूल चढ़ाते हुये। तस्वीर: कामरान यूसुफ /न्यूज़क्लिक

पुलिस के बयान के अनुसार वर्ष 2020 की पहली छमाही के दौरान कश्मीर घाटी में तकरीबन 120 आतंकवादी मारे जा चुके थे। इनमें से अधिकांश आतंकी स्थानीय थे और जो 11 विदेशी पाए गए उनके बारे में माना जा रहा है कि वे पाकिस्तानी थे। आतंकवादियों के खिलाफ जब कभी कार्यवाही की जाती है तो अक्सर मुठभेड़ स्थलों के आस-पास के घर बुरी तरह से ध्वस्त हो जाते हैं। इससे पहले 19 मई के दिन श्रीनगर के डाउनटाउन इलाके में इसी प्रकार के एक अभियान के दौरान तकरीबन दो दर्जन घरों को नेस्तनाबूद कर दिया गया था, जबकि उन घरों में रहने वाले परिवार निराश्रित छोड़ दिए गए थे।इस प्रकार के अभियानों के दौरान समूचे कश्मीर में न जाने कितने घरों को नष्ट होना पड़ा है, जिसके चलते अनेकों परिवारों को जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं को बेघरबार कर डाला है।

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(8 जून, 2020 को दक्षिणी कश्मीर के शोपियां के पिंजुरा गाँव में आतंकियों के साथ हुई एक मुठभेड़ के दौरान ध्वस्त हो चुके एक घर के भीतर का मुआयना करता हुआ एक लड़का। इस जवाबी हमले की कार्रवाई के दौरान दो घर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके थे, और नतीजे के तौर पर चार आतंकवादी मार गिराए गए थे।) चित्र: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

मानवाधिकार संरक्षण से जुड़े खुर्रम परवेज का कहना था कि कश्मीर में बच्चों पर हिंसा और संघर्ष के दो मुख्य पहलू उभरकर सामने आते हैं। “पहला यह है कि बच्चे खुद इसके भुक्तभोगी हैं। जबकि इसका दूसरा पहलू यह है कि सोपोर जैसी घटना की तरह बच्चे हिंसा के प्रत्यक्ष गवाह होते हैं, और इन दोनों ही कारणों से उनपर बेहद विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है”। खुर्रम आगे कहते हैं कि किसी भी समाज के लिए यह कोई सामान्य बात नहीं है, जहाँ बच्चों के आस-पास हिंसा का वातावरण बना हुआ हो।उनके अनुसार “न चाहते हुए भी यह स्थिति बच्चों को उनकी अपनी पहचान, राजनीति एवं अन्य मुद्दों के बारे में सोचने के लिए बाध्य करती है। और इन सब वजहों के चलते हिंसा की घटना उनके लिए सामान्य और स्वीकार्य बन जाती है.”

इस पुरस्कार-विजेता कार्यकर्ता का कहना था कि आज इंटरनेट के जमाने में ये चुनौतियाँ कई गुना बढ़ चुकी हैं, और आज के दिन इन बच्चों के माता-पिता इस बात से अनजान हैं कि इन चुनौतियों से वे कैसे निपटें।

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(21 मई, 2020 को दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों द्वारा मारे गए पुलिसकर्मी अनूप सिंह के किशोर पुत्र अपने पिता की हत्या पर शोकाकुल अवस्था में। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार वर्ष 2020 में अब तक 30 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान हताहत हो चुके हैं)। तस्वीर: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

इस इलाके में रहने वाले कई बच्चे अब हमेशा-हमेशा के लिए विकलांग हो चुके हैं, जिनमें से सैकड़ों पेलेट शॉटगन के छर्रे लगने के बाद पूरी तरह से अंधे हो चुके हैं। 2016 के दौरान हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद से भड़के विरोध प्रदर्शनों के चलते भारी संख्या में कश्मीरी युवाओं  जिनमें छोटे बच्चे तक शामिल हैं, की कम से कम एक या दोनों आँखों की रोशनी जा चुकी है। इस साल कई बच्चे पेलेट गन से जारी हिंसा के चलते जख्मी हुए थे, और इसमें वे बच्चे भी शामिल हैं जिनके आगे का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय हो चुका है।

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(28 मई, 2020 को दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा इलाके के अपने गाँव में सरकारी सैन्य बलों द्वारा चलाई गई गोलियों से छलनी होने के बाद शाहिद अपने करीमाबाद स्थित घर पर। फिलहाल इस आठ वर्षीय बच्चे की एक आँख का इलाज जारी है, जो अपने माता-पिता की शादी के 15 सालों के बाद जाकर कहीं पैदा हो सका था। लेकिन अभी भी इस बात को यकीन से नहीं कहा जा सकता है कि वह एक बार फिर पूरी तरह ठीक से देख सकता है)। तस्वीर: कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

कश्मीर में मौजूद मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने समय-समय पर इस बात को दोहराया है कि इस लगातार जारी संघर्ष ने यहाँ के लोगों-विशेषकर बच्चों के जीवन पर जो असर डाला है वह अपनेआप विनाशकारी प्रभावों को जन्म देने वाला साबित हो रहा है।डॉ. शोएब श्रीनगर के जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल (जेएलएनएम) अस्पताल में न्यूरोसाइकलिस्ट कंसलटेंट के तौर ओअर कार्यरत हैं। उन्होंने कहा कि मानस पर किसी भी प्रकार का प्रारंभिक मनोवैज्ञानिक आघात का असर लंबे समय तक जारी रहता है।

न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में डॉ. शोएब ने बताया "कुछ ख़ास मामलों में मरीजों में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) जैसी गड़बड़ी पैदा होने लगती है, और पिछले 20 वर्षों से भी ज्यादा समय से जारी हिंसा एवं अन्य मनोवैज्ञानिक विकारों के चलते यहाँ पर अवसाद और पीटीएसडी के मामलों में बढ़ोत्तरी देखने को मिली है।"

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(3 जुलाई, 2020 को श्रीनगर के मालबाग इलाके में आतंकवादियों और सरकारी सैन्य बलों के बीच चली मुठभेड़ के बाद एक घर के बाहर खड़ा एक लड़का। शहर के इस बाहरी इलाके में मुठभेड़ के दौरान एक आतंकवादी और सीआरपीएफ के एक जवान की मौत हुई थी)।

घाटी में लगातार बनी मानसिक आघात की स्थिति की वजह से ऐसा है, डॉ. शोएब बताते हैं कि हमारे नौजवानों में आजकल आक्रमकता पहले से काफी ज्यादा बढ़ चुकी है। वे आगे कहते हैं “यह सिर्फ व्यक्तिगत तौर पर ही हमें प्रभावित नहीं कर रहा है, बल्कि समूचा समाज इसकी गिरफ्त में आ चुका है। इस बात में कोई शक नहीं कि अशांति के इस दौर ने जम्मू-कश्मीर में जीवन के प्रत्येक पहलू पर अपना असर छोड़ा है।”

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 (परवीना अपने किशोरावस्था में प्रवेश कर चुके बेटे की तस्वीर को दिखाते हुए, जिसे श्रीनगर शहर में नोवगाम इलाके में 7 जनवरी 2020 को पुलिस की गाड़ी मारकर चली गई थी। तहसीन अपनी ट्यूशन क्लास करने के लिए घर से निकला था, जब एक तेज रफ्तार पुलिस वैन ने उसे पहियों तले रौंद डाला था)। कामरान यूसुफ/न्यूज़क्लिक

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Death, Injury, and Trauma: Life of Children in Conflict

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