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भारत के कर्तव्यों का उल्लंघन है रोहिंग्या शरणार्थियों की हिरासत और उनका निर्वासन

भारत में शरणार्थियों से संबंधित कोई विशेष क़ानून नहीं है, ऐसी स्थिति में मनमाफ़िक ढंग से रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ व्यवहार किया जा रहा है, दूसरे देशों से आने वाले शरणार्थियों की तुलना में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है।
rohingya

भारत में शरणार्थियों से निपटने के लिए अलग से क़ानून नहीं है, ऐसे में भारत मनमाफ़िक ढंग से रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ बर्ताव कर रहा है। दूसरे देशों से आने वाले शरणार्थियों की तुलना में रोहिंग्याओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है, उनके साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है और उन्हें निर्वासित तक किया जा रहा है। यह सारी चीजें अंतराष्ट्रीय क़ानून और भारत द्वारा की गई संधियों के विरोध में जाती हैं।

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भारत में रह रहीं एक रोहिंग्या शरणार्थी हसीना बेगम को 22 मार्च को मणिपुर की तेंग्नाउपाल जिले के सीमावर्ती कस्बे मोरेह से म्यांमार वापस भेज दिया गया। हसीना बेगम को पहले जम्मू-कश्मीर में कठुआ की उपजेल में 6 मार्च, 2021 से हिरासत में रखा गया था। उनके पास भारत में शरणार्थी के तौर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का पंजीकरण (305-13C01783) भी था। उनके पति और तीन किशोर बच्चे अब भी बेहद खराब हालत में जम्मू में एक झुग्गी में रह रहे हैं। जबसे हसीना को हिरासत में लेकर म्यांमार वापस भेजा गया है, तबसे तीनों बच्चों को रो रोकर बुरा हाल है। 

बेगम, कलील मोहम्मद की बेटी हैं, जो मूलत: म्यांमार में राखाइन राज्य में पोस्ट बाली बाज़ार में पड़ने वाले रानी गोइंग मानेरा ताई (रोहिंग्या भाषा में बोनफारा और बर्मी भाषा में मोरोब्बोंग) गांव के रहने वाले हैं। उनके निर्वासन के दस्तावेज़ों में गलत ढंग से उनका पता राखाइन के माउंगडॉ जिले में तोउंग ब्रुंग बताया गया है। 

15 मार्च को जम्मू-कश्मीर पुलिस की एक टीम उन्हें निर्वासन बिंदु के सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन, नागालैंड में दीमापुर तक लेकर गई। उन्हें वहां से 316 किलोमीटर दूर ले जाकर मोरेह से 22 मार्च को म्यांमार निर्वासित किया जाना तय किया गया। 

जम्मू-कश्मीर पुलिस की टीम 18 मार्च को दीमापुर से इंफाल पहुंच गई और उसी दिन मोरेह के लिए निकल गई। उसी दिन म्यांमार में स्थित सीमावर्ती कस्बे तामु में जिला प्रवास अधिकारी ने हसीना बेगम की सुपुर्दगी ली। लेकिन जैसा बताया गया है कि मणिपुर पुलिस के एसपी, क्राइम ब्रॉन्च ने गलती से मणिपुर राज्य मानवाधिकार आयोग से हुई बातचीत में तारीख़ 22 मई 2022 बताई। 

अनुमानों के मुताबिक़ भारत में फिलहाल करीब़ 40,000 रोहिंग्या हैं। दूसरे स्त्रोतों का कहना है कि इस आंकड़े को जानबूझकर बढ़ा चढ़ाकर बताया गया है, ताकि रोहिंग्याओं की "घुसपैठ" के मुद्दे को बढ़ाकर बताया जा सके, इन रोहिंग्याओं में बहुत सारे लोग मुस्लिम हैं, जो हिंदू बहुल भारत में आ गए हैं। अगस्त 2020 तक भारत में मानवाधिकार आयोग के पास 18,914 रोहिंग्या पंजीकृत थे। 

निश्चित निर्वासन के खिलाफ़ गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ह्यूमन राइट्स अलर्ट ने मणिपुर मानवाधिकार आयोग के पास 21 मार्च को शिकायत दर्ज कराई। उसी दिन आयोग ने संज्ञान लिया और मणिपुर सरकार से 24 मार्च तक जवाब देने को कहा। उसी दिन यह आदेश मणिपुर पुलिस को पहुंचा दिया गया था। 22 मार्च की सुबह स्थानीय मीडिया मानवाधिकार आयोग के आदेश की खूब रिपोर्टिंग भी की। लेकिन फिर भी शरणार्थी को निर्वासित कर दिया गया। 

31 मार्च की शाम को जम्मू में 20 रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लिया गया। "साउथ एशियन ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन सेंटर (एसएएचआरडीसी) के पास हिरासत में लिए गए शरणार्थियों में से 13 की जानकारी है। रिपोर्टों के मुताबिक़, यह लोग जम्मू में रहने वाली 6000 से ज़्यादा के रोहिंग्या समुदाय के लिए रमज़ान की तैयारियों को लेकर मिले थे। ऐसी आशा जताई जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और इसके सहयोगी एनजीओ मुस्तैदी के साथ क़ानूनी ढंग से हस्तक्षेप करेंगे।

25 मार्च की शाम को दिल्ली के एक रोहिंग्या सामाजिक कार्यकर्ता को हैदराबाद में कुछ वक़्त के लिए हिरासत में लिया गया था। स्थानीय वकीलों ने एसएएचआरडीसी से संपर्क कर कुछ घंटों बाद उनकी रिहाई सुनिश्चित कराई थी। 

कई दशकों से रोहिंग्या भागकर भारत आ रहे हैं, 2005 और 2012, फिर 2016/17 में इनकी बड़ी लहर आई। भारत सरकार के अनुमानों के मुताबिक़, भारत में आज अधिकतम 40,000 रोहिंग्या हैं। दूसरे सूत्र बताते हैं कि इस संख्या को जानबूझकर बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है, ताकि रोहिंग्या द्वारा हिंदू बहुल हिंदुस्तान में होने वाली "घुसपैठ" को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा सके, इन रोहिंग्याओं में से कई मुस्लिम हैं।

अगर रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजा गया, तो उनके सामने मौजूद होंगे कई खतरे

म्यांमार में नृजातीय आधार पर रोहिंग्याओं के खात्मे की मुहिम शुरू होने के बाद से ही वहां की सरकार ने स्थिति को सुधारने के लिए कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। यहां तक कि म्यांमार की सरकार ने बड़ी संख्या में हत्याओं से भी इंकार किया है। बल्कि सरकारी अधिकारी तो यह दावा तक करते रहे हैं कि रोहिंग्या खुद ही अपने घरों में आग लगाते और अपने ही समुदाय के खिलाफ़ नरसंहार को अंजाम देते रहे हैं।

रोहिंग्याओं को राहत पहुंचाने के लिए बांग्लादेश के साथ किए गए समझौते में म्यांमार सरकार ने कहा था कि वह लौटने वाले लोगों को अवैधानिक ढंग से देश छोड़ने के लिए दंडित नहीं करेगी, जबकि रोहिंग्याओं की घनी आबादी वाले इलाकों में कर्फ्यू लगा हुआ था। लेकिन म्यांमार सरकार के वायदे से यह गारंटी नहीं मिलती कि रोहिंग्याओं के खिलाफ़ फिर से अत्याचार नहीं होंगे।

भारत ने शरणार्थियों को प्रवासियों से अलग पहचान दी

भारत में शरणार्थियों के संबंध में कोई भी विशेष अधिनियम नहीं है। भारत में व्यवहारिक तौर पर रोहिंग्याओं को अवैध प्रवासियों के वर्ग में शामिल किया जाता रहा है, जिन्हें भारत सरकार द्वारा विदेशी नागरिक क़ानून और विदेशी नागरिक आदेश, 1948 के तहत निर्वासित किया जा सकता है। हालांकि क़ानूनी तौर पर शरणार्थी, प्रवासियों का एक विशेष वर्ग होता है, जिन्हें अवैध प्रवासियों के साथ नहीं मिलाया जा सकता। अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत शरणार्थी कहा जाता है: 

"कोई भी ऐसा व्यक्ति जो जाति, धर्म, राष्ट्रीयता या किसी विशेष सामाजिक समुदाय या किसी राजनीतिक विचार को मानने वालों में से होने के चलते, जो डर के कारण अपनी राष्ट्रीयता वाले देश से बाहर है और संबंधित डर के चलते अपनी राष्ट्रीयता वाले देश से सुरक्षा नहीं लेना चाहता; या वो व्यक्ति जिसके पास राष्ट्रीयता नहीं है और वह ऐसे ही किसी कारण से अपने पूर्व नियमित रहवास से बाहर है और उसी डर से वापस नहीं लौटना चाहता या वापस लौटने का इच्छुक नहीं है, वह शरणार्थी है।"

भारत में शरणार्थियों के संबंध में कोई भी विशेष अधिनियम नहीं है। भारत में व्यवहारिक तौर पर रोहिंग्याओं को अवैध प्रवासियों के वर्ग में शामिल किया जाता रहा है, जिन्हें भारत सरकार द्वारा विदेशी नागरिक क़ानून और विदेशी नागरिक आदेश, 1948 के तहत निर्वासित किया जा सकता है। हालांकि क़ानूनी तौर पर शरणार्थी, प्रवासियों का एक विशेष वर्ग होता है, जिन्हें अवैध प्रवासियों के साथ नहीं मिलाया जा सकता।

शरणार्थी की परिभाषा को पहली बार शरणार्थियों के दर्जे से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के अभिसमय (कंवेंशन), 1951 के अनुच्छेद 1(अ)(2) में लिपिबद्ध की गई थी। आज यह पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून की मानी हुई व्याख्या है। बल्कि इस अनुच्छेद में जो परिभाषा दी गई है, वह पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून से संकीर्ण है, क्योंकि प्रगतिशील ढंग से अब इसमें उन लोगों को भी शामिल कर लिया गया है, जो ऊपर उल्लेखित वर्ग में नहीं आते, पर उन्हें अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरत है। दोनों ही समूहों के लिए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और उन्हें वापस ना भेजे जाने की गारंटी, उनके अधिकारों में खासतौर पर पहचानी जाती है। सहसे अहम बात यह है कि कोई व्यक्ति इसलिए शरणार्थी नहीं है कि उसे मान्यता मिल गई, असल में उसे इसलिए मान्यता दी जाती है क्योंकि वह शरणार्थी है। 

चूंकि शरणार्थियों का दर्ज सिर्फ़ घोषणात्मक ही होता है, तो वापस ना भेजे जाने की गारंटी का सिद्धांत उन लोगों पर भी लागू होता है, जिनका शरणार्थी का दर्जा घोषित नहीं हुआ है और जो सीधे शरण लेने के लिए आए हुए हैं, यहां तक कि यह गारंटी उन लोगों पर भी लागू होगी, जिन्होंने खुद को सुरक्षित किए जाने की मंशा व्यक्त नहीं की है। 

बल्कि अतीत में भारत सरकार ने अवैध प्रवासियों और शरणार्थियों के बीच में अंतर भी किया है, जबकि इस दौरान कोई घरेलू क़ानून भी नहीं था। 

जैसे भारत ने कभी तिब्बती शरणार्थियों को निर्वासित करने या तिब्बत से आने वाले नए शरणार्थियों के लिए दरवाजा बंद करने की कार्रवाई नहीं की है। श्रीलंकाई तमिलों की तरह ही भारत सरकार शरणार्थी कैंपों और तिब्बती बसाहटों में रहने वाले तिब्बतियों को शरणार्थी ही मानती है। यहां तक कि सरकार ने तिब्बतियों और श्रीलंकाई शरणार्थियों के लिए विशेष दस्तावेज भी जारी किया है, जिसमें उन्हें शरणार्थी का दर्जा दिया गया है और उन्हें सामाजिक-आर्थिक अधिकारों तक पहुंच की अनुमति दी गई। 

भारत ने कभी तिब्बती शरणार्थियों को निर्वासित करने या तिब्बत से आने वाले नए शरणार्थियों के लिए दरवाजा बंद करने की कार्रवाई नहीं की है।

भारत सरकार ने पहले हमारे यहां आने वाले तिब्बतिय़ों को पंजीकरण प्रमाणपत्र (आरसी) जारी किया था। यह "रजिस्ट्रेशन ऑफ फॉरेनर्स एक्ट, 1939" और 1950 के "तिब्बती नागरिकों का भारत में प्रवेश का नियंत्रण, 1950" के वैधानिक नियम और आदेश संख्या 1108 के तहत जारी किया गया क़ानूनी दस्तावेज़ है। हालांकि यह साफ़ तौर पर दस्तावेज़ में उल्लेखित नहीं किया गया है, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर यह आरसी, रहवास अनुमित के तौर पर कार्य करती है। इससे किसी भी तिब्बती शरणार्थी को भारतीय नागरिक की तरह ही अधिकार मिलते हैं, सिर्फ़ चुनावों में मतदान और सरकारी कार्यालयों में नौकरियों को छोड़कर।

इसके अलावा, जब "शरणार्थियों को लंबे समय के लिए वीज़ा के आवेदन के अधिकार" को बढ़ाते वक़्त केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था:

"फिलहाल शरणार्थियों पर कोई राष्ट्रीय क़ानून नहीं है। 29 दिसंबर, 2011 को सरकार ने ऐसे विदेशी नागरिक जो शरणार्थी होने का दावा करते हैं, उनके लिए राज्य सरकारों को एक मानक प्रक्रिया आदेश जारी किया है। यह प्रक्रिया उन मामलों में काम करती है, जहां प्राथमिक तौर पर नस्ल, धर्म, लिंग, राष्ट्रीय, नृजातीय पहचान, किसी सामाजिक समहू या राजनीतिक विचार की सदस्यता के आधार पर इन मामलों को सही मान लिया जाता है, इसके तहत राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की सरकारें, सुरक्षा जांच के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय को संबंधित शख़्स को "लंबे वक़्त के लिए वीज़ा (एलटीवी)" करने के लिए सलाह दे सकती हैं।"

इसके अलावा भारत सरकार लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों से शरणार्थियों और प्रवासियों में अंतर करने पर जोर देती रही है, इनमें शामिल हैं:

1) भारतीय विदेश मंत्रालय के सचिव (पश्चिम) द्वारा यह टिप्पणी किया जाना कि "शरणार्थी और प्रवासियों के बीच कम होता अंतर चिंताजनक है।"

2) ,संयुक्त राष्ट्र संघ में शरणार्थियों और प्रवासियों पर न्यूयॉर्क घोषणा को अपनाकर, जिसके ज़रिए "शरण देने के परिपाटी के लिए सम्मान और शरण लेने के अधिकार" को मान्यता दी गई। 

3) एक कूटनीतिक अधिकारी के द्वारा यह टिप्पणी कि "हमें शरणार्थी अभिसमय और इसके प्रोटोकॉल की फिर से व्याख्या के रास्ते पर नहीं जाने के लिए सतर्क रहना चाहिए और किसी भी मामले में 'शरणार्थियों को वापस न भेजे जाने के सिद्धांत' को दोबारा परिभाषित नहीं करना चाहिए।"

भारत पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत "शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत" से बंधा है

शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने का सिद्धांत, मतलब उन्हें उस जगह वापस ना भेजा जाना, जहां उन्हें ख़तरा है, यह पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून का नियम बन चुका है। शरणार्थियों की स्थिति पर अभिसमय के अनुच्छेद 33(1) में यह कर्तव्य स्पष्ट उल्लेखित किया गया है। 

"कोई भी देश को एक शरणार्थी को निर्वासित या उस क्षेत्र की सीमा पर वापस नहीं भेजेगा, जहां धर्म, नस्ल, किसी सामाजिक समहू के सदस्य होने या किसी राजनीतिक विचार को मानने के चलते उसके जीवन या आज़ादी को ख़तरा हो।" 

यह सिद्धांत लिखित तौर पर भी संहिताबद्ध है, जो पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत उपजने वाले कर्तव्य से अलग है। 

किसी व्यवहार या कर्तव्य को पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून बनने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यों के व्यवहार में लागू होना चाहिए और इन राज्यों द्वारा यह व्यवहार साभार करने के बजाए कर्तव्य के तौर पर किए जाते हों (ओपिनियो ज्यूरिस)। 

साफ़ है कि शरणार्थियों को वापस ना भेज जाने के व्यवहार का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक तरीके से पालन किया जाता है। 1951 के अभिसमय में फिलहाल 145 देश पक्षकार हैं, जबकि 1967 के प्रोटोकॉल का 146 देश पालन करते हैं, मतलब संयुक्त राष्ट्र संघ के दो तिहाई देश एक या दोनों संधियों का हिस्सा हैं। यह सबसे ज़्यादा मान्य मानवाधिकार संधियों मे से एक हैं। चूंकि कुछ राज्य इस सिद्धांत का पूर्णत: पालन नहीं करते, इसलिए यह नियम खारिज़ नहीं हो जाता, बल्कि यह दर्शाता है कि यह देश इन कर्तव्यों को नज़रंदाज़ कर रहे हैं।

जहां तक ओपिनियो ज्यूरिस की बात है, तो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने कहा है "ज़्यादातर राज्यों ने यह प्रदर्शित किया है कि वे शरणार्थियों को वापस ना भेजने जाने के अधिकार को अनिवार्य मानकर पालन करते हैं। फिर कई उदाहरणों में जहां शरणार्थियों को वापस भेजा गया है या भेजे जाने की मंशा थी, वहां संबंधित राज्यों ने मानवाधिकार परिषद के प्रतिनिधियों को इसकी वज़ह बताई हैं, जिससे यह निश्चित होता है कि वे इस सिद्धांत को मान्यता देते हैं।" इसलिए यह सिद्धांत पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत अपनी मान्यता पाता है, जबकि इसका संहिताकरण भी हो चुका है।  

जैसा ऊपर बताया कि भारत में शरणार्थियों को वापस भेजे जाने से बचाने के लिए कोई अधिनियम मौजूद नहीं है। इस लिहाज़ पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून कुछ अंतर को पाटते हैं। 2016 में डोंग लिआन खाम बनाम् भारत संघ 226 (2015) में दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस आशुतोष कुमार के फ़ैसले से भी यह साफ़ हो जाता है:

"शरणार्थियों को वापस ना भेजने के कर्तव्य को पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून और कई देशों के स्थानीय क़ानूनों में मान्यता मिली है और अब इसकी बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय पहचान-मान्यता हो चुकी है।"

"ग्रामोफोन कंपनी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड बनाम् बीरेंद्र बहादुर पांडे व अन्य  (1984) में भी सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि राष्ट्रों का शिष्टाचार यह मानता है कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून के नियमों को स्थानीय क़ानूनों में जगह दी जा सकती है, भले ही स्थानीय क़ानूनों में इसके लिए विधायिका से क़ानून ना बना हो, शर्त यह है कि इस नियमों का संसद के क़ानूनों से टकराव नहीं होना चाहिए। इस फ़ैसले में जिस "डॉक्ट्रीन ऑफ़ इंकॉरपोरेशन" की बात की गई, उसके मुताबिक़, शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने का सिद्धांत, जो एक जाना-माना अंतरराष्ट्रीय क़ानून है, उसे देश के क़ानून में मान्यता मिलनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में कोई ऐसा क़ानून मौजूद नहीं है, जिसका इस सिद्धांत से टकराव हो।

अगर टकराव होता भी, तो भी शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत को "जस कॉगेन्स" की मान्यता मिल जाती है (मतलब यह अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ऐसे नियमों में शामिल है, जो अपरिहार्य हैं, जिन्हें चाहकर भी किसी भी स्थिति में अलग नहीं किया जा सकता)। साथ में विशाखा एवम् अन्य बनाम् राजस्थान राज्य (1997) में कहा गया, "कोई भी अंतरराष्ट्रीय संधि, जो मूल अधिकारों से टकराव में नहीं हैं, और इनकी मूल आत्मा से मेल खाती है, तो उसके प्रावधानों को इन अधिकारों का दायरा बढ़ाने के लिए साथ में पढ़ा जाना चाहिए, ताकि संवैधानिक सुरक्षा के लक्ष्य को प्रोत्साहित किया जा सके।"

कई दूसरी संधियों से भी बंधा हुआ है भारत

 जैसा पहले बताया गया, शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत का अंतरराष्ट्रीय क़ानून में जस कॉगेन्स का दर्जा प्राप्त है, इसलिे भारत को इसका पालन करना ही पड़ता। लेकिन भारत ने कुछ संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत का समर्थन करते हैं।

ना केवल भारत ने इस सिद्धांत का समर्थन करने वाली कई संधियों पर समर्थन दिया है, बल्कि कम से कम भारत दो ऐसी संधियों पर हस्ताक्षरकर्ता भी है, जिनमें किसी भी व्यक्ति को ऐसी जगह वापस भेजा जाना प्रतिबंधित है, जहां उसके जीवन या शारीरिक अखंडता को खतरा हो। (संधियों को समर्थन देने और उन पर हस्ताक्षर करने में यह अंतर होता है कि हस्ताक्षर करने की दशा में संबंधित संधि को संसद से पारित करवाना होता है।)

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस "डॉक्ट्रीन ऑफ़ इंकॉरपोरेशन" को मान्यता दी है, उसके मुताबिक़ शरणार्थियों को वापस ना भेजने जाने का सिद्धांत, अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त क़ानून है, इसलिए इसे हमारे स्थानीय क़ानून में भी समाहित करना चाहिए, क्योंकि भारत में कोई भी ऐसा क़ानून नहीं है, जिसका इस सिद्धांत के साथ टकराव हो।

भारत ने प्रताड़ना या अन्य क्रूरता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सजा (CAT), 1997 पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका अनुच्छेद 3 कहता है:

"किसी भी राज्य को किसी भी व्यक्ति को दूसरे राज्य में निर्वासित, वापस या बाहर नहीं करना, जहां उसके प्रताड़ित होने का ख़तरा मौजूद होने के पर्याप्त सबूत हो।" 

यहां यह अहम है कि "प्रताड़ना" शब्द का मतलब सिर्फ़ ऐसे क्रियाकलापों से नहीं है, जिनसे सिर्फ़ शारीरिक दर्द हो, बल्कि ऐसे काम जिनसे पीड़ित को मानसिक दुख भी पहुंचे, यह भी प्रताड़ना में शामिल है। 

हालांकि CAT को अभी संसद से पारित करवाना बाकी है, लेकिन भारत ने इस संधि से सिर्फ़ मौखिक प्रतिबद्धता जताने से कहीं ज़्यादा काम किया है। संधियों के क़ानूनों पर विएना अभिसमय (कंवेंशन) (VCLT) का अनुच्छेद 18 कहता है कि अगर किसी संधि को लागू किया जाना लंबित है, तो भी किसी राज्य को उस वायदे के खिलाफ़ नहीं जाना चाहिए, जो संधि पर हस्ताक्षर करते वक़्त किया गया था, मतलब राज्य वह काम करने से प्रतिबंधित है, जो उस संधि के उद्देश्य को नुकसान पहुंचाते हों। 

हालांकि भारत ने VCLT पर भी हस्ताक्षर नहीं किए हैं। लेकिन यह संधि दो वज़हों से अहम है: पहली बात, यह पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को मान्यता देती है, जैसा भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने राम जेठमलानी बनाम् भारत संघ (2011) में भी माना है। दूसरा, दिल्ली हाईकोर्ट ने AWAS 39423 आयरलैंड बनाम् डॉयरेक्टोरेट ऑफ़ सिविल एविएशन (2015) में VCLT के ठोस प्रावधानों को लागू किया है। जैसा ब्रिटिश वकील माइक सैंडरसन ने CAT के बारे में कहा है:

"हालांकि अब कई साल निकल चुके हैं, जब भारत इस अभिसमय (कंवेंशन) पर हस्ताक्षरकर्ता बना था, लेकिन वहां अब भी इसे संसद से पारित करवाने पर बहस ही जारी है। हाल में 2010 में लोकसभा में इस अभिसमय को पारित करवाने के लिए एक विधेयक पेश किया गया था। लेकिन राज्य सभा की चयन समिति के पास पुनर्परीक्षण के लिए भेजे जाने के बाद ऐसा लग रहा है कि यह अनंत काल के लिए लंबित हो गया है, लेकिन यह भी साफ़ है कि भारत ने अब तक इस संधि में पक्ष ना बनने के लिए भी कोई फ़ैसला नहीं लिया है।" इसलिए भारत का कर्तव्य है कि वह ऐसा कोई भी काम ना करे, जिससे CAT के उद्देश्यों को हानि पहुंचती हो।" 

इसी वज़ह से भारत "जबरदस्ती गुमशुदा किए जाने के खिलाफ़ सभी व्यक्तियों को सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कंवेंशन (अभिसमय)" का पालन करने के लिए भी बाध्य है, जिस पर भारत ने 2007 में हस्ताक्षर किए थे। इसका अनुच्छेद 16 "शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत" का प्रतिपादन करता है।

"किसी भी राज्य को किसी भी व्यक्ति को दूसरे राज्य में निर्वासित, वापस या बाहर नहीं करना, जहां उसके जबरदस्ती गुमशुदा होने का ख़तरा मौजूद होने के पर्याप्त सबूत हो।" 

बड़ी व्यवहारिक चुनौतियां

चूंकि भारत ने शरणार्थियों से संबंधित संधियों को संसद में मान्यता देकर लागू नहीं किया है और ना ही कोई शरणार्थियों से जुड़ा क़ानून बनाया है, इसलिए भारत के पास एक व्यवस्थित शरणार्थी पहचान प्रक्रिया नहीं है। इसके बजाए, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को शरणार्थी दर्जा देने और शहरी शरणार्थियों को पंजीकरण दस्तावेज़ उपलब्ध कराने का काम दिया गया है। अगस्त 2020 तक भारत में तथाकथित 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थियों में से सिर्फ़ 19,000 को ही यह दर्जा दिया गया है। ऐसी स्थिति इसलिए नहीं है कि बाकी के रोहिंग्याओं को शरणार्थी नहीं माना गया, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके आवेदनों को UNHARC की लेटलतीफी के चलते अब तक परीक्षण ही नहीं हो पाया है। संगठन की टीम भारत में अक्सर अहम घटनाक्रमों के दौरान नदारद ही रहती है। 

भारत ने इस सिद्धांत को अपनी सहमति कुछ ऐसी संधियों पर हस्ताक्षर कर भी दी है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से "शरणार्थियों को वापस ना भेजे जाने के सिद्धांत" से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख करती हैं।

पिछले साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजे जाने का जो आदेश दिया है, वह अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और इनके प्रति भारतीय प्रतिबद्धताओं के खिलाफ़ है। भारत सरकार ने जो राष्ट्रीय सुरक्षा का आधार इस निर्वासन के लिए बताया था, कोर्ट ने उस पर आंख मूंदकर भरोसा किया, यह तक नहीं पूछा कि ऐसे शरणार्थी किस तरह का ख़तरा पैदा कर सकते हैं। इस बीच जम्मू और भारत के दूसरे हिस्सों में हिरासत केंद्रों में रोहिंग्या शरणार्थी बड़ी बुरी हालत में रहने के लिए मजबूर हैं।

सबसे डरावनी बात यह है कि शरणार्थी अभिसमय (कंवेंशन) और इससे जु़ड़े प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए बिना ही भारत जेनेवा में संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार परिषद की कार्यकारी समिति में 1995 से काबिज है।

(यह लेख, लेखक द्वारा लिखी गई किताब "द रूटलेज हैंडबुक ऑफ़ रिफ्यूजी इन इंडिया" के चैप्टर "रिफ्यूजी इन इंडिया: गवर्मेंटल एंड ज्यूडीशियल एटीट्यूड" से लिया गया है, जिसे एस इरुदया राजन ने संपादित किया है, जिसका प्रकाशन पिछले महीने हुआ है।) 

लेखक "साउथ एशियन ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटशन सेंटर" के कार्यकारी निदेशक भी हैं।

साभार: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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