Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

EXCLUSIVE: उलझती जा रही विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद की गुत्थी, अब पांच और नए मुकदमे!

बनारस के सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं ''जब बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो लगा था कि बनारस के मुसलमान चैन से रह सकेंगे। बुझे मन से सभी ने बाबरी मस्जिद के फैसले को मान लिया, लेकिन ये तो अब सांस भी नहीं लेने दे रहे हैं। साल 1991 के मुकदमे के बाद से पांच और मुकदमे दायर किए गए हैं।"
ज्ञानवापी मस्जिद की ताजा-तरीन तस्वीर
ज्ञानवापी मस्जिद की ताजा-तरीन तस्वीर

काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को सुलझाने की जितनी कवायद हो रही है, उतनी गुत्थी उलझती जा रही है। दशकों से चल रहे मुकदमे अभी खत्म हुए भी नहीं, बनारस की अदालत में पांच नई याचिकाएं दायर कर दी गईं हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि यह वाद उन लोगों ने खड़े किए हैं, जिनका इस विवाद से पहले कभी दूर-दूर तक सरोकार नहीं था। नई याचिकाएं दायर करने वालों में हिन्दू संगठनों से जुड़ी कुछ महिलाएं हैं, तो कई अधिवक्ता भी शामिल हैं। सभी ने वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) की अदालत में वाद दायर किया है। सबका लक्ष्य कथित तौर पर वही है कि ज्ञानवापी मस्जिद मुक्त कराना और बाबा विश्वनाथ को न्याय दिलाना। 

इस बीच 10 सितंबर 2021 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी की एक अदालत में चल रही वो कार्यवाही फौरी तौर पर रोक दी है, जिसमें बनारस के सिविल जज (फास्ट ट्रैक कोर्ट) ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) को मस्जिद का सर्वेक्षण कराने का आदेश पारित किया था। इस आदेश पर हाईकोर्ट का स्टे लगने के बाद ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का विवादास्पद काम निलंबित हो गया है। पुरातत्व विभाग ज्ञानवापी परिसर का सर्वे कर यह पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि हिंदुओं के मंदिर के एक बड़े हिस्से को तोड़कर 17वीं सदी में ज्ञानवापी मस्जिद तो नहीं बनाई गई?

18 सितंबर 1991 में बने उपासना स्थल क़ानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अयोध्या से जुड़ा मुक़दमा आज़ादी के पहले से अदालत में लंबित था,  इसलिए उसे इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया था। सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता अभय नाथ यादव कहते हैं, "विवादित ढांचे को खोदे जाने से शांतिभंग का खतरा बढ़ सकता है।"

पुराने मुद्दे पर पांच नए मुकदमे

विश्वानाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को लेकर बनारस में पांच नई याचिकाएं दायर की गई हैं। सबसे ताजा मुकदमा वाराणसी के केदारघाट स्थित विद्यामठ की साध्वी पूरनम्बा और देवी शारदंबा ने इसी 3 सितंबर 2021 को वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) की अदालत में दायर किया है। दोनों साध्वी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की शिष्याएं हैं। इन्होंने यूपी के प्रमुख सचिव के अलावा अंजुमन इंतजामिया कमेटी और काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट को प्रतिवादी बनाया है। इससे पहले 16 अगस्त 2021 को दिल्ली की श्रीमती राखी सिंह बगैरह ने एक अन्य वाद दायर किया है। तीसरा मुकदमा आलमबाग (लखनऊ) के सत्यम त्रिपाठी, आशीष कुमार शुक्ल और सुंदरपुर के पवन कुमार पाठक ने मिलकर खड़ा किया है। यहीं एक और वाद 19 फरवरी 2021 को निशातगंज (लखनऊ) की अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री, अधिवक्ता जितेंद्र सिंह विसेन और जम्मू कश्मीर के अधिवक्ता अंकुर शर्मा वगैरह ने संयुक्त रूप से दाखिल किया है। इन्होंने भारत सरकार के गृह सचिव, उत्तर प्रदेश सरकार के अलावा बनारस के जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड व विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को प्रतिवादी बनाया है।

विश्वनाथ कॉरिडोर के तहत किये जा रहे निर्माण का एक दृश्य

यूपी के प्रमुख सचिव, जिलाधिकारी, पुलिस कमिश्नर को प्रतिवादी बनाते हुए हुसैनगंज लखनऊ की श्रीमती राखी सिंह, श्रीमती लक्ष्मी देवी, चेतगंज (वाराणसी) की श्रीमती सीता साहू, रामनगर (वाराणसी) की मंजू वैश्य और श्रीमती रेखा पाठक ने एक अन्य वाद दायर किया है। इन सभी याचिकाओं में वादियों के अपने-अपने तर्क और दावे हैं। सभी का मकसद एक है वो है- ज्ञानवापी मस्जिद मुक्त कराना।

पांचवीं याचिका काशी विश्वनाथ मुक्ति आंदोलन के अध्यक्ष सुधीर सिंह के साथ रतनवीर सिंह (साकेत-वाराणसी), राजीव राय (कमक्षा-वाराणसी), मानवेंद्र तिवारी (लालगंज-बलिया) और होरीलाल यादव (सैदपुर-गाजीपुर) ने अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद कमेटी के खिलाफ याचिका दायर की है और कहा है कि हिन्दू संप्रदाय के लोगों को देवी श्रृंगार गौरी की पूजा-अर्चना और परिक्रमा करने नहीं दिया जा रहा है। खबर है कि इस मुद्दे पर कुछ और लोग नए वाद दायर करने की तैयारी में हैं।

समाजसेवी सुधीर सिंह अपने मुकदमे को जायज करार देते हैं। वह कहते हैं, "हमने कोई नया विवाद खड़ा नहीं किया है। अलबत्ता, श्रृंगार गौरी का दर्शन-पूजन और परिक्रमा के लिए के लिए कोर्ट से अनुमति मांगी है। हम चाहते हैं कि दूसरे मंदिरों की तरह यहां भी श्रृंगार गौरी को रोज भोग लगे और पूजा हो। अगर मंदिर है तो हर आस्थावान व्यक्ति को पूजा और प्रार्थना का अधिकार तो मिलना ही चाहिए। इस मामले में अभी सुनावाई शुरू नहीं हुई है। सिर्फ तारीख पर तारीख लग रही है। इस बाबत हम दो बार जेल जा चुके हैं। फिलहाल सोशल मीडिया के जरिए हमारा आंदोलन चल रहा है। अगर मुसलमान चाहें तो हम अपने फंड से कहीं और मस्जिद बनवाने के लिए तैयार हैं।"

अब ऐसी दिखती है मस्जिद
 
हाईकोर्ट से फ़ैसला आना बाक़ी

ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण के लिए सबसे पहले अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय कहते हैं, "प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिग भगवान विश्वेश्वरनाथ और अन्य के पक्षकार के रूप में मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे रामरंग शर्मा ने ज्ञानवापी में नए मंदिर के निर्माण और हिंदुओं को पूजापाठ करने का अधिकार देने के लिए साल 1991 में मुकदमा दायर किया था। याचिका में कहा गया था कि मस्जिद ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वरनाथ मंदिर का एक अंश है। वहां हिंदू आस्थावानों को पूजा-पाठ, राग-भोग, दर्शन-पूजन आदि का अधिकार है। इसके निर्माण, मरम्मत, पुनरोद्धार आदि कार्य कराने का भी पूरा अधिकार है। इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसका फैसला आना बाकी है।"

पांडेय कहते हैं, "इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी के सिविल कोर्ट में दोबारा सुनवाई शुरू हो गई और मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण को मंज़ूरी दे दी गई, जिसपर हाईकोर्ट ने अब स्टे दे दिया है।"

सपने में आए थे बाबा विश्वनाथ...!

भगवान विश्वेश्वरनाथ के वादमित्र पूर्व जिला शासकीय अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी की तरफ से दाखिल याचिका में 10 दिसंबर 2019 को कहा गया था, "करीब चार दशक पहले भगवान विश्वेश्वर मेरे सपने में आए थे और काशी के कोतवाल कालभैरव से कहा था कि विवादित ढांचे के नीचे पड़े उनके ज्योतिर्लिंग को मुक्त कराएं। औरंगाबाद निवासी इस अधिवक्ता ने दावा किया कि है कथित विवादित परिसर में स्वयंभू विश्वेश्वरनाथ का शिवलिंग आज भी स्थापित है। यह देश के बारह ज्योतिर्लिगों में से एक है परिसर में ज्ञानवापी नाम का बहुत ही पुराना कुआं है और इसी कुएं के उत्तर तरफ भगवान विश्वेश्वरनाथ का मंदिर है। 15 अगस्त 1947 को भी विवादित परिसर का धार्मिक स्वरूप मंदिर का ही था। इस मामले में केवल एक भवन ही विवादित नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ा परिसर भी विवादित है। इसका धार्मिक स्वरूप तय करने के लिए एक भवन तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता, बल्कि पूरे परिसर का धार्मिक स्वरूप तय होना जरूरी है।"

विश्वनाथ मंदिर परिसर का अब ऐसा दिखता है स्वरूप

वादमित्र ने भवन के बाहरी और अंदरूनी दीवारों, गुंबदों, तहखानों आदि के भी संबंध में एएसआई से निरीक्षण कराकर रिपोर्ट मंगाने की अपील की थी। साथ ही यह भी कहा था कि मौजा शहर खास स्थित ज्ञानवापी परिसर के 9130, 9131, 9132 रकबा एक बीघा नौ बिस्वा जमीन का पुरातात्विक सर्वेक्षण करके यह बताया जाए कि जो जमीन है, वह मंदिर का अवशेष है या नहीं? साथ ही विवादित ढांचे का फर्श तोड़कर यह देखा जाए कि 100 फीट गहरा अरघा ज्योतिर्लिंग स्वयं भू विश्वेश्वरनाथ का परिलक्षित होता है या नहीं? दीवारें प्राचीन मंदिर की हैं या नहीं? 14वीं शताब्दी के मंदिर में प्रथम तल में ढांचा और भूतल में तहखाना है, जिसमें 100 फीट गहरा शिवलिंग है, यह खुदाई से स्पष्ट हो जाएगा। मंदिर का जीर्णोद्धार पहले 2050 विक्रमी संवत में राजा विक्रमादित्य ने, फिर सतयुग में राजा हरिश्चंद्र ने और वर्ष 1780 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। यह भी कहा कि 100 वर्ष तक 1669 से 1780 तक मंदिर का अस्तित्व नहीं था।

अदालत से अपील की गई थी कि संपूर्ण ज्ञानवापी परिसर और कथित विवादित स्थल के संबंध में भौतिक व पुरातात्विक दृष्टि से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा रडार तकनीक से सर्वेक्षण और परिसर की खोदाई कराकर रिपोर्ट मंगाई जाए।”

वाद मित्र रस्तोगी यह भी कहते हैं कि बाहरी लोगों ने इस विवाद को ज्यादा हवा दी और अब अधिक उलझा दिया, अन्यथा मामला कब का सुलट गया होता। वह कहते हैं, "औरंगज़ेब ने अपने शासन के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फ़रमान तो जारी किया था, लेकिन उन्होंने मस्जिद बनाने का फ़रमान नहीं दिया। मस्जिद बाद में मंदिर के ध्वंसावशेषों पर ही बनाई गई है। साल 1991 से वह इस मामले को देख रहे हैं। मूल वादी सोमनाथ व्यास और डा.रंगनाथ शर्मा की मृत्यु के बाद कोर्ट ने इसे जनप्रतिनिधित्व वाद मान लिया। इस मामले में बाबा विश्वनाथ की ओर से साल 2019 में हमें वाद मित्र बनाया गया। सालों पुराने मामले को डिस्टर्ब करने के लिए हिन्दू महासभा के लोगों ने नया मुकदमा खड़ा किया है। हम हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। आधा दर्जन नए मुकदमे सुनियोजित योजना के तहत दायर किए गए हैं, जिसका कोई औचित्य ही नहीं है।"

हाईकोर्ट ने सरकारों से मांगा जवाब

पिछले तीस साल पुराने मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए तीन सप्ताह की समय सीमा तय की है। कोर्ट ने यह आदेश उस मामले में जारी किया है जिसमें वाराणसी के सिविल कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद में मंदिर के अवशेष खोजने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को निर्देश के दिया, जिस पर बड़ा विवाद खड़ा हो गया था।

इस शक्ल में दिखेगा नव निर्मित कॉरिडोर

बनारस के लोहटिया इलाके में अपनी लकड़ी की दुकान में बैठे सैयद मोहम्मद यासीन के पास ज्ञानवापी मस्जिद से संबंधित दस्तावेजों का ढेरों पुलिंदा है। वह ब्रितानी काल के भूलेख निकालकर दिखाते हैं, जिनमें ज्ञानवापी परिसर मस्जिद के तौर पर दर्ज है। मोहम्मद यासीन बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव हैं। वह बताते हैं, "वाराणसी के सिविल कोर्ट का आदेश ही विवादास्पद था। जब हाईकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था तो निचली अदालत को नया आदेश पारित करके नए विवाद को कतई जन्म नहीं देना चाहिए था। सिविल जज (फास्ट ट्रैक कोर्ट) आशुतोष तिवारी का तबादला 30 मार्च 2021 को शाहजहांपुर हो गया था। ट्रांसफर आर्डर मिलने के बाद भी दो अप्रैल और छह अप्रैल को उन्होंने इस मामले की सुनवाई की। बाद में आठ अप्रैल 2021 को मस्जिद के सर्वे के बाबत आदेश पारित कर दिया। आदेश इसलिए भी विवादित था कि सिविल जज ने अपने आदेश में सर्वे के दौरान मस्जिद में नमाज अदा करने से रोकने और कहीं अन्यत्र नमाज पढ़ने की बात कही थी। सिविल कोर्ट का यह आदेश हमारे अधिकार पर प्रहार था। हमें नमाज की इजाजत है और हम पढ़ रहे हैं, जिसे रोका नहीं जा सकता है।"

यासीन यह भी कहते हैं, "प्लेस आफ वर्सिप एक्ट 1991 में स्पष्ट रूप से इस बात का प्रावधान किया गया है कि 15 अगस्त 1947 को जिस धर्म स्थल की जो स्थिति थी, वही रहेगी। इसी आधार पर हाईकोर्ट ने बनारस के सिविल जज के सर्वे वाले आदेश पर स्थगनादेश दिया। हाईकोर्ट में पहले इस मामले पर सुनवाई हो चुकी है और फैसला सुरक्षित है। हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान विपक्ष के वकील को कड़े शब्दों में कहा था कि फैसला सुरक्षित है। इस मामले में जल्दबाजी मत कीजिए और दबाव भी नहीं बनाइए। इस समूचे मामले में वाराणसी जिला प्रशासन ने हमारी कोई मदद नहीं की। अगर हमें नमाज पढ़ने से रोका जाता तो शहर की फिजा खराब हो सकती थी। अगर अयोध्या की कहानी दुहराई जाती तो लाभ किसे मिलता, यह बात सर्वविदित है।"

मस्जिद परिसर में ज्योतिर्लिंग होने और वहां नमाज न होने के आरोपों को खारिज करते हुए यासीन कहते हैं, "ज्ञानवापी में रोजाना पांच वक्त की नमाज होती है। समिति के दो मुअज्जिन वहां मुकर्रर हैं। जुमे के दिन पूरे बनारस से लोग वहां नमाज पढ़ते हैं। यदि मस्जिद परिसर में शिवलिंग है तो वो बताएं कि कितना लंबा शिवलिंग है? अगर ज्योतिर्लिंग मस्जिद परिसर में है तो फिर अहिल्याबाई होल्कर के जमाने से जिस मंदिर में पूजा होती आ रही है, क्या वो ज्योतिर्लिंग नकली है? तो क्या वो हजारों हिंदुओं से गलत शिवलिंग की पूजा करा रहे हैं? जब बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो लगा था कि बनारस के मुसलमान चैन से रह सकेंगे। बुझे मन से सभी ने बाबरी मस्जिद के फैसले को मान लिया, लेकिन ये तो अब सांस भी नहीं लेने दे रहे हैं। साल 1991 के मुकदमे के बाद से पांच और मुकदमे दायर किए गए हैं।"

बाहरी लोगों ने मामला उलझाया

ज्ञानवापी मस्जिद में नमाज पढ़ाने वाले मुफ्ती अब्दुल बातिन नोमानी कहते हैं, "ज्ञानवापी का विवाद बाहर के लोगों ने खड़ा किया है। बनारस के हिन्दुओं ने कभी इसे मुद्दा नहीं बनाया। विश्वनाथ मंदिर के महंत से आज भी हमारे अच्छे रिश्ते हैं। जहां तक मस्जिद और मंदिर की बात है तो दोनों को अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे, लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य काफी दिन बाद के हैं। ज़्यादातर लोग तो यही मानते हैं कि मस्जिद अकबर के ज़माने में बनी थी। औरंगज़ेब ने मंदिर को तुड़वा दिया था, क्योंकि वो 'दीन-ए-इलाही' को नकार रहे थे। मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है। यह मंदिर से बिल्कुल अलग है। ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआं है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिल्कुल ग़लत है। साल 2010 में हमने कुएं की सफ़ाई कराई थी तो वहां कुछ भी नहीं था।"

विश्वनाथ कॉरिडोर के तहत किया जा रहा निर्माण

बातिन यह भी कहते हैं, "इस्लामी कानून में इस बात की साफ मनाही है कि किसी नाजायज, विवादित अथवा दूसरे धर्म स्थल पर नमाज पढ़ी और पढ़ाई नहीं जा सकती है। बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब और मेल-जोल की सनायत बनारसी साड़ियों से जुड़ी है। आपने देखा होगा कि विश्वनाथ कारिडोर में जब विग्रहों को उखाड़ा जा रहा था तब भी बनारस के मुसलमानों ने प्रशासन का साथ नहीं दिया। विग्रहों को उखाड़ने के लिए यहां का न कोई हिन्दू गया और न ही मुसलमान। बाहरी लोगों से यह घिनौना कार्य कराया गया। इतिहास खंगालेंगे तो इस शहर में सांप्रदायिकता का जहर हमेशा बाहर के लोगों ने घोला है। पॉलिटिकल लोग अपना उल्लू सीधा करने आते हैं और माहौल बिगाड़कर चले जाते हैं। बनारस का हर आदमी अमन पसंद है और गंगा-जमुनी तहजीब को जिंदा रखना चाहता है। हाल के दिनों में मंदिर-मस्जिद को लेकर जितने भी मुकदमे हुए हैं, उनमें ज्यादतर के वादकारी बाहरी हैं।

नज़रिया इतिहासकारों का

काशी विश्वनाथ मंदिर व ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर स्पष्ट और पुख़्ता ऐतिहासिक जानकारी बहुत कम और किस्सों-कहावतों की भरमार ज्यादा है। मंदिर-मस्जिद के निर्माण और पुनर्निमाण को लेकर आम धारणा यह है कि काशी विश्वनाथ मंदिर को औरंगज़ेब ने तुड़वाया और वहां मस्जिद बना दी गई, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को देखने-समझने पर मामला ज्यादा पेंचीदा नजर आता है। इस मुद्दे पर इतिहासकारों में भी मतभेद है। कुछ का मानना है कि ज्ञानवापी मस्जिद को 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने बनवाया था। इस बाबत यहां पहले से मौजूद विश्वनाथ मंदिर को तोड़ दिया गया था। हालांकि तमाम इतिहासकार इस तथ्य को सही नहीं मानते क्योंकि यह दावा साक्ष्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। शर्की सुल्तानों की ओर से कराए गए किसी निर्माण का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। साथ ही उनके दौर में किसी मंदिर तोड़े जाने का कहीं कोई ब्योरा दर्ज नहीं है। विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का श्रेय अकबर के नौरत्नों में से एक राजा टोडरमल को दिया जाता है, जिन्होंने साल 1585 में अकबर के आदेश पर दक्षिण भारत के विद्वान नारायण भट्ट की मदद से इसकी नींव रखी थी।

वाराणसी के जाने-माने इतिहासकार डा.महेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, "विश्वनाथ मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने कराया, इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। उन्होंने इसी तरह के कई और निर्माण भी कराए हैं। दूसरी बात, टोडरमल ने यह काम अकबर के निर्देश पर कराया, यह तथ्य भी ऐतिहासिक रूप से पुष्ट नहीं है। अकबर के दरबार में राजा टोडरमल की हैसियत ऐसी थी कि उन्हें किसी आदेश की ज़रूरत ही नहीं थी। उन्होंने जो मंदिर बनवाया था वही आज का ज्ञानवापी है। मौजूदा विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करीब 150 साल बाद इंदौर घराने की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था।"

डा. महेंद्र यह भी कहते हैं, "औरंगजेब बहुत बुरा शासक नहीं था। इतना जरूर है कि उसके राज्य में ज्यादातर इतिहासकार दरबारी थे और उसे खुश करने के लिए झूठी व मनगढ़ंत कहानियां भी लिखा करते थे। यह तथ्य भी अधिक प्रचलित है कि औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को इसलिए तुड़वा दिया था कि उसके तहखानों में महिला श्रद्धालुओं को लूटने और उनके साथ बलात्कार करने की घटनाएं ज्यादा होने लगी थीं। ये शिकायत औरंगजेब तक पहुंची तो उसने सेना भेजकर मंदिर को तुड़वा दिया और पुजारियों का खोल ओढ़कर अपराध करने वाले दरिंदों को कठोर सजाएं दी। मंदिर को तोड़ा जाना ज्यादा दिक्कत वाला नहीं था, जितना वहां मस्जिद बनाया जाना। जहां तक 'दीन-ए-इलाही' धर्म की बात है तो अकबर के शासन मे इस धर्म को मानने वाले सिर्फ नौ लोग थे। अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' को अपनाने के लिए कभी किसी पर दबाव नहीं बनाया। अलबत्ता इसे मानने और न मानने का विकल्प दिया। इस बाबत उसने न किसी को प्रलोभन दिया और न ही डराया-धमकाया।"

अकबर के ज़माने में ज्ञानवापी मस्जिद दीन-ए-इलाही के दर्शन के तहत बनाई गई या औरंगज़ेब के ज़माने में, इसको लेकर जानकारों में मतभेद है। वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और धरोहर प्रबंधन केंद्र के समन्वयक राकेश पांडेय कहते हैं, "राजा टोडरमल द्वारा का बनवाया गया मंदिर बहुत विशाल नहीं था। किसी को चकित नहीं होना चाहिए कि मंदिर टूटने के बाद मस्जिद बनी है। मंदिर-मस्जिद को लेकर तमाम धारणाएं और दावे ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से प्रमाणित नहीं होते हैं। ज्ञानवापी काशी का केंद्रीय स्थल है, जहां प्राचीन काल से शिव मंदिर है। वहां वापी स्थान है, जिसे ज्ञान का तालाब भी कह सकते हैं।"

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी के मुताबिक विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने के आदेश का ऐतिहासिक तथ्य कहीं नहीं है। औरंगज़ेब के समकालीन इतिहासकार साक़ी मुस्तईद ख़ां और सुजान राय भंडारी ने मस्जिद के निर्माण का न कोई दस्तावेजी साक्ष्य रखा है और न ही कहीं उसका जिक्र किया है। इनके विवरण को उस दौर का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ माना जाता है। मस्जिद का नाम ज्ञानवापी हो भी नहीं सकता। ऐसा लगता है कि ज्ञानवापी कोई ज्ञान की पाठशाला रही होगी। पाठशाला के साथ मंदिर भी रहा होगा जो प्राचीन गुरुकुल परंपराओं में हमेशा हुआ करता था। उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी तो उसका नाम ज्ञानवापी पड़ गया, ऐसा माना जा सकता है।"

ऐसा होगा बनारस का विश्वनाथ कॉरिडोर

विश्वनाथ मंदिर तोड़ने और फिर मस्जिद बनवाने के बारे में कुछ और दिलचस्प कहानियां हैं जिनमें ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के साथ उन्हें जोड़ने की कोशिश होती है। वाराणसी में वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "पुराणों में जिस विश्वनाथ मंदिर का ज़िक्र मिलता है, उसका इस मंदिर से कोई संबंध है या नहीं, इसका कोई सटीक जवाब इतिहासकारों के पास भी नहीं है। ज्ञानवापी के पास आदिविश्वेश्वर मंदिर के बारे में ज़रूर कहा जाता है कि यह वही मंदिर है, जिसका पुराणों में वर्णन है। मंदिर टूटने के बाद ही मस्जिद बनी और ज्ञानवापी कूप के नाम पर मस्जिद का भी नाम ज्ञानवापी पड़ा। ज्ञानवापी कूप आज भी मौजूद है।"

प्रदीप यह भी कहते हैं, "मंदिर तोड़ने के बाबत औरंगज़ेब का फ़रमान हिन्दू विरोध अथवा उनके प्रति किसी घृणा की वजह से नहीं, बल्कि उन पंडों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा था जिन्होंने कच्छ की रानी के साथ दुर्व्यवहार किया था। मंदिर गिराने का आदेश औरंगज़ेब ने दिया था, उसे ढहाने का काम कछवाहा शासक राजा जय सिंह की देख-रेख में किया गया था। कच्छ के राजा आमेर के कछवाहा शासक थे।"

क्या कहते हैं राजस्व दस्तावेज़?

बनारस के राजस्व दस्तावेजों में साल 1883-84 में ज्ञानवापी मस्जिद का पहली बार जिक्र आया है। मस्जिद के प्रवक्ता मो. यासीन कहते हैं, "राजस्व अभिलेख ही मस्जिद के सबसे पुराने दस्तावेज़ हैं। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और अदालत ने इसे मस्जिद के तौर पर स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया। इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है।"

पहले ऐसी थी ज्ञानवापी मस्जिद

दिलचस्प बात यह है कि साल 1669 में ज्ञानवापी मस्जिद बनाए जाने के बाबत कोई ऐतिहासिक साक्ष्य कहीं उपलब्ध नहीं है, जो मो. यासीन के दावे की पुष्टि करता हो। हालांकि यासीन यह भी बताते हैं, "मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। साल 1937 में अदालती फ़ैसले में उर्स करने की अनुमति भी मिली थी। मस्जिद की दोनों कब्रें आज भी सुरक्षित हैं, मगर वहां अब कोई उर्स नहीं होता है। ये क़ब्रें कब की हैं, इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है।"

वरिष्ठ साहित्यकार रामजी यादव कहते हैं, "मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं, लेकिन ये विवाद आज़ादी से पहले के हैं, उसके बाद के नहीं। ज़्यादातर विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के इलाक़े में नमाज़ पढ़ने को लेकर हुए थे। सबसे अहम विवाद साल 1809 में हुआ था जिसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे हुए थे। साल 1991 के बाद ज्ञानवापी मस्जिद को चौतरफा लोहे की बाड़ से घेर दिया गया। इसके बाद कोई सांप्रदायिक विवाद नहीं खड़ा हुआ। साल 1937 में फ़ैसले के तहत मस्जिद का रकबा एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर था, लेकिन  साल 1991 में सिर्फ़ मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया।  इसके बाद कभी नाप-जोख नहीं हुई।"
रोक के बावजूद कैसे खड़ा हुआ मुकदमा?

1991 में कांग्रेस सरकार ने जब रामजन्मभूमि विवाद को छोड़कर बाकी सभी मंदिर-मस्जिद विवादों में 1947 के बाद की यथास्थिति बनाए रखने का कानून पारित किया, तब भी हरिहर पांडेय और उनके साथियों ने इसके खिलाफ मुकदमा दायर किया था। वह कहते हैं, 'ज्ञानवापी परिसर के भौतिक परीक्षण की जरूरत ही नहीं है। सब कुछ साफ दिखता है। कानूनी दांवपेच के लिए जरूरी है कि हम लड़ाई लड़ते रहें। जीत भी हमारी होगी और ज्ञानवापी मस्जिद हर हाल में टूटेगी। अगर जन समुदाय मस्जिद को तोड़ने पर उतारू हो जाएगा तो उसे भला कौन रोक पाएगा? दीगर बात है कि हम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। अगर इंसाफ नहीं हुआ तो फिर जो करना है, हम करेंगे ही।"

किनकी आंखों में चुभ रहे मुसलमान?

ज्ञानवापी मस्जिद को मंदिर घोषित करने के समर्थक इस मुद्दे पर लड़ाई जारी रखने की बात कहते हैं तो मस्जिद की इंतेजामिया समिति भी सुप्रीम कोर्ट तक मामले को लेकर जाना चाहती है। इतिहासकार मो. आरिफ कहते हैं, "कुछ लोगों की आंखों में सिर्फ ज्ञानवापी मस्जिद ही नहीं बल्कि सारे मुसलमान चुभ रहे हैं। यदि उनकी चले तो मुसलमानों को जहाज में भरकर समंदर में छोड़ दें। लेकिन उनकी चल नहीं रही है। जब कानून से यह साफ है कि 15 अगस्त 1947 के बाद मंदिर-मस्जिद विवाद का कोई मुकदमा नहीं चल सकता तो ताबड़तोड़ नए मुकदमे क्यों दायर कराए जा रहे हैं? इससे तो सिर्फ सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा। जाहिर है कि ऐसे में मुसलमान भी चुप बैठने वाले नहीं हैं।"

ज्ञानवापी विवाद को लेकर वाराणसी के मुसलमानों ने भी हाल ही में बैठक की है, जिसमें कानूनी स्तर पर मस्जिद के लिए मजबूत लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया गया। बैठक में कहा गया कि बनारस में साढ़े पांच लाख मुसलमान रहते हैं और वह हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहेंगे। फिर क्या होगा? जिस रास्ते पर ये देश को ले जाना चाह रहे हैं, उस रास्ते पर सिवाय बर्बादी के कुछ हाथ नहीं आने वाला हैं।

नेपथ्य में देखें तो ज्ञानवापी को लेकर बनारस में कई बार संघर्ष हो चुका है। डियाना एल ऐक की किताब के मुताबिक साल 1809 में जब हिंदुओं ने विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के बीच एक छोटा स्थल बनाने की कोशिश की थी, तब भीषण दंगे हुए थे। तब से कई बार ज्ञानवापी को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष और झड़पें हो चुकी हैं।

मस्जिद तोड़ेंगे तो झगड़ा बढ़ेगा

एक तरफ वाराणसी में ज्ञानवापी का इतिहास कुरेदा जा रहा है तो दूसरी तरफ आम लोग वर्तमान से संघर्ष कर रहे हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर और आसपास के दुकानों पर बैठे छोटे कारोबारियों को लगता है कि ज्ञानवापी का जो होना वो तो होगा,  मगर दंगे हुए तो बहुत से लोग तबाह हो जाएंगे। एक्टिविस्ट डा. लेनिन कहते हैं, "गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर बनारसी जीते हैं, क्योंकि यह कबीर और नज़ीर का शहर है और उस सोच (गंगा-जमुनी) के लोग इस काशी को तबाह होते हुए नहीं देखना चाहेंगे।"

डा. लेनिन यह भी कहते हैं, "किसने क्या बिठाया है और किसने मंदिर तोड़ा है? ये सब राजनीति की बातें हैं। भगवान धर्म नहीं देखते हैं। वह लोगों को जोड़ते हैं। जहां मंदिर है, वहां मस्जिद भी है। मस्जिद तोड़ेंगे तो झगड़ा बढ़ेगा। काशी में सभी यही चाहते हैं कि अमन चैन कायम रहे। बाबा चाहते हैं तभी तो यहां मस्जिद हैं। मस्जिद हटने से बाबा का नाम और ऊंचा नहीं होगा। मंदिर-मस्जिद साथ रहेंगे तो सुंदर रहेगा। दोनों धर्मस्थल सदियों एक साथ हैं और आगे भी गंगा-जमुनी संस्कृति की परंपरा बरकरार रहनी चाहिए। यह परंपरा आगे भी चलती रहे, यही बनारस और बनारसियों के हित में है।"

बनारस के वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीनाथ त्रिपाठी कहते हैं, "अफगानिस्तान में तालिबानों द्वारा जो जुल्म और ज्य़ादतियां हो रही हैं उसे भाजपा भुनाने की जुगत में है। हैरत की बात यह है कि मुस्लिम संप्रदाय के लोग खुराफाती साजिशों का पुरजोर विराध नहीं कर रहे हैं। केंद्र और राज्य में जब एक दल का शासन हो तो कहीं भी कब्जा करने से किसे कौन रोक लेगा?  बनारस कारिडोर में अकारण पुरातन मंदिरों को ढहाने और विग्रहों के साथ छोड़छाड़ के चलते ही भारत में व्याधियां आ रही हैं।"

समाजवादी पार्टी के नेता वीरेंद्र सिंह इस विवाद पर सधा हुआ सियासी बयान देते हैं। वह इस बात से आशंकित हैं कि ज्ञानवापी का नया रगड़ा खड़ा करने के लिए विश्वनाथ कारिडोर में आबा-ढाबा तैयार किया जा रहा है। कहते हैं, "लगता है कि भाजपा साल 2024 के लिए यहीं से अयोध्या जैसी कहानी दोहराना चाहती है। पहले वह इसलिए कामयाब नहीं हो पा रही थी कि कारसेवकों के लिए यहां जगह ही नहीं थी और अब कॉरिडोर में हजारों लोग जुट सकते हैं। इनकी प्लानिंग आज के लिए नहीं, कल के लिए है। एक बार अयोध्या मे कामयाब हो चुके हैं। जब साक्ष्य के बजाए आस्था के आधार पर फैसले होंगे तो विवाद खड़ा होगा ही। ऐसे में भरोसा करना मुश्किल हो जाता है कि न्यायिक आदेशों के कोई मायने ही न हो।

"पिछले घटनाक्रमों पर गौर किया जाए तो पूरे परिसर का विस्तार सुंदरीकरण के नाम पर मंदिरों को ध्वस्त कर किया गया। जिनका सैकड़ों साल का इतिहास रहा है वो इस विस्तारीकरण की भेंट चढ़ गए। इतना सब नेक इरादे से नहीं किया गया है। इसके पीछे बहुत बड़ा मकसद लगता है। भाजपा के लिए बनारस किसी कारपून से कम नहीं है। आरएसएस और विहिप को यह शहर काफी सूट करता है। पहले ज्ञानवापी मस्जिद दिखती नहीं थी। कॉरिडोर बनने के बाद भाजपा के लोग मस्जिद दिखाकर ऐसी कहानियां सुनाएंगे जिस पर आंख बंदकर भरोसा करने पर बाध्य होंगे। बनारस में वैसे भी सांप्रदायिकता का जहर आसानी से घुलने लगता है। मंदिर-मस्जिद को लेकर साल-दो साल में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाली कोशिशें जरूर होती हैं ताकि यह मुद्दा हमेशा जिंदा रहे, जिस पर आसानी से सियासत की रोटियां सेंकी जा सकें।"  

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest