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अर्थव्यवस्था की जर्जर हालत से अनभिज्ञ हैं मोदी एंड कंपनी

अर्थव्यस्था में एक नई जान फूंकने के लिए सामाजिक शांति के अलावा नव-उदारवादी नीतियों की सीमाओं से परे जाकर एक मज़बूत राजकोषीय हस्तक्षेप की भी ज़रूरत है।
Economic slowdown in India

हाल के दिनों में आकलन की पद्धति में किये गए फेरबदल ने भारतीय अर्थव्यस्था में सांख्यिकीय के काम को उलझा कर रख दिया है। जब कभी भी सांख्यिकीय आँकड़े अर्थव्यस्था की खस्ता हालत को दर्शाते नजर आते हैं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार उसे सीधे दाब कर बैठ जाती है। इस सबके बावजूद कोई भी इस तथ्य को दबा कर नहीं रख सकता कि भारतीय अर्थव्यस्था एक गंभीर गतिरोध में घिर चुकी है।

जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) को लेकर तीसरी तिमाही के बारे में जो आकलन हाल ही में जारी किये गए हैं उसके अनुसार पिछले साल की इसी तिमाही की तुलना में वृद्धि दर 4.7% को दिखाया गया है। जबकि दूसरी तिमाही के आँकड़े 4.5% के थे। राष्ट्रीय राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) का अब जाकर मानना है कि 2019-20 के वित्तीय वर्ष के लिए वृद्धि दर 5% से अधिक की नहीं होने जा रही है। कई वित्तीय संस्थाओं ने अपने अनुमानों में इसे और भी कम करके आँका है। 

अगर हम 5% के आँकड़े को लेकर भी चलते हैं तो भी यह 11 वर्षों में सबसे कम बैठती है। इसके अतिरिक्त अब जाकर यह पूरी तरह से साफ़ हो चुका है कि जीडीपी के लिए जिन नए अनुमानों की पद्धति अपनाई गई थी, उसमें विकास दर को लेकर अनुमानों को बढ़ा-चढ़ाकर क दर्शाया गया था। उल्टा एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तो यहाँ तक खुलासा किया है कि मंदी की शुरुआत से पहले जिस 7% विकास का दावा किया गया था, उसकी तुलना में वास्तविक विकास दर के मात्र 4.5% होने की ही गुंजाईश रही होगी। इसका अर्थ तो यह हुआ कि 2019-20 के लिए जो अनुमानित विकास दर 5% रखी गई है, उसके भी काफी कम रहने की उम्मीद है। जो शायद 3 से 3.5% से अधिक तो नहीं होने जा रहा। पुराने दिनों में इस विकास दर को व्यंग्यात्मक लहजे में “हिन्दू विकास दर” कहा जाता रहा है।

हिंदुत्व की ताकतों के उभार से तो ऐसा लगता है मानो इसने विकास दर का भी “हिन्दुकरण” ही कर डाला है! लेकिन आज के 3.5% विकास में और उन पुराने दिनों में कुछ महत्वपूर्ण फर्क भी हैं, जिनमें से कम से कम तीन कारण को तो अवश्य ही ध्यान में रखे जाने चाहिए।

इसमें सबसे पहला तो यह कि पूर्व के दौर में जब 3.5% जीडीपी की विकास दर हासिल होती थी तो वह रोजगारपरक विकास को ध्यान में रखकर चलती थी। क्योंकि उन दिनों श्रम विस्थापन जैसी तकनीकी एवं ढांचागत परिवर्तनों को लागू करने पर प्रतिबंध लागू थे।

दूसरा कारण था उस दौर की तुलना में आज के समय में आय वितरण के मामले में बढती असमानता का पाया जाना। वास्तव में, जैसा कि पिकेटी और चांसल ने आयकर के डेटा के आधार पर अनुमानित किया है कि शुरूआती 1980 के दशक में शीर्ष के 1% परिवारों की कुल आय मात्र 6% तक सीमित थी। इसके बाद 2013-14 तक जाकर यह 22% तक पहुँच चुकी थी। आय में ऐसी असमानता 1922 के बाद से अब तक के सर्वाधिक स्तर पर पहुँच चुकी है, जबसे भारत में यह आयकर की व्यवस्था को पहली बार लागू किया गया था।

तीसरे कारण में हम पाते हैं कि उस दौरान समग्र विकास दर कायम रहने के पीछे कृषि क्षेत्र में विकास दर का भारी योगदान था। विशेष तौर पर खाद्यान्न उत्पादन के मामले में। यह विकास दर इस मात्रा में हुई थी कि प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन और उसकी उपलब्धता में भारी इजाफा देखने को मिला था। वह इतनी थी कि यह औपनिवेशिक शासनकाल की पिछली अर्ध शती की खासियत बताने वाली को उलट देने वाली साबित हुई। 1900 के आसपास प्रति व्यक्ति जहाँ यह उपलब्धता 200 किलोग्राम के आस-पास हुआ करती थी, आजादी (1947) के दौरान यह घटकर 140 किलोग्राम तक पहुँच चुकी थी। 1980 के दशक में जाकर यह बढ़कर के बार फिर से 180 किलोग्राम तक पहुँच गई थी, और उसके बाद से इसमें फिर से गिरावट दर्ज की जा रही है।  

दूसरे शब्दों में कहें तो जहाँ उदारीकरण के पूर्व की अवधि के दौरान जीडीपी विकास की दर अपेक्षाकृत कम स्तर पर बढ़ रही थी, लेकिन आय के वितरण के मामले में इसमें कहीं अधिक साम्यता थी। भूख निवारण के मामले में यह आजके उछाल भरे नव-उदारीकरण के दौर से कहीं बेहतर हालत में थी। जबकि आज हम विकास दर के भी धीमे पड़ते जाने को देख रहे हैं। 

2018-19 (जिसके बारे में विकास दर में 6.1% का अनुमान लगाया गया था) की तुलना में 2019-20 में धीमी विकास का मुख्य कारण गैर-खेतिहर क्षेत्र में विकास की कमी से सम्बद्ध है। खेती के क्षेत्र में 2019-20 में विकास दर का अनुमान पिछले साल जैसा ही दर्शाया गया है । पिछले साल यह 2.9% थी और उसकी तुलना में 2.88% की विकास दर हालाँकि छोटी है लेकिन स्थिर बनी हुई है। लेकिन बाकी जगहों पर यह मंद पड़ती जा रही है और अनुमान है कि कुलमिलाकर यह विकास गिरकर 5% तक पहुँच जायेगी। सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि औद्योगिक विकास दर में गिरावट का होते जाना, खास तौर पर निर्माण के क्षेत्र में यह गिरावट एक चिंता का विषय है।

सरकार को आशा है कि 2019-20 के चालू वित्त वर्ष में औद्योगिक विकास की दर 2% के आस-पास बनी रहेगी। लेकिन 2019-20 की दूसरी और तीसरी तिमाही की नकारात्मक विकास दर को देखते हुए 2% की विकास दर भी अब दूर की कौड़ी नजर आ रही है। जहाँ एक तरफ औद्योगिक विकास की रफ्तार लगातर सुस्त पड़ती जा रही है वहीँ कृषि क्षेत्र में विकास अवरुद्ध है। पहली नजर में देखने में यह दिलचस्प नजर आ सकता है लेकिन इसके पीछे तीन मूल वजहें हैं। 

सबसे पहला, कृषि क्षेत्र में विकास की दर वही नहीं है जैसा कि ग्रामीण उपभोक्ता व्यय की विकास दर में रहा है। यहाँ तक कि जिस दौरान कृषि क्षेत्र में विकास दर काफी ऊँची भी पाई गई, उस समय भी ग्रामीण उपभोग व्यय के क्षेत्र में विकास की रफ़्तार सुस्त रही। इसका नायाब नमूना 2017-18 के वित्तीय वर्ष में देखने को मिला था। उस साल बम्पर फसल की पैदावार हुई थी, लेकिन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के डेटा के अनुसार उस वित्त वर्ष में भी प्रति व्यक्ति वास्तविक खर्च 2011-12 की तुलना में 8% तक काफी कम देखने को मिला था। इसके पीछे की कुछ वजह तो ये हो सकती है कि कृषि विकास की दर के अनुमान में ही कुछ कमी रही हो। लेकिन एक वजह ये भी है कि किसानों और खेतिहर मजदूरों के जीवन-निर्वाह मूल्य सूचकांक की लगभग अनदेखी की गई। क्योंकि इसमें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी आवश्यक सेवाओं के क्षेत्र में निजीकरण के चलते मूल्य वृद्धि को नजरअंदाज किया जाता रहा है।

दूसरा एक नव-उदारवादी अर्थव्यस्था में घरेलू बाजार की तुलना में बाहरी बाजार का प्रभाव तुलनात्मक तौर पर काफी बढ़ जाता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए अपने बाजार को जानबूझकर प्रतिबंधित किया जाता है, जिसमें मजदूरी की दर को निचले स्तर पर बनाये रखना शामिल है। विश्व आर्थिक संकट का भारत पर जो प्रभाव पड़ा है वह अपना प्रभाव भारतीय अर्थव्यस्था पर छोड़ रहा है। निर्यात के मामले में भी हमारी विकास दर वास्तव में नीचे जा चुकी है, और जिसके चलते सारी अर्थव्यस्था पर इसका गुणात्मक प्रभाव नजर आ रहा है, जिसमें औद्योगिक क्षेत्र भी शामिल है।

यहाँ पर भारतीय अर्थव्यस्था की एक खासियत पर ध्यान दिलाना चाहूँगा। विश्व बाजार और पूंजी के प्रवाह के लिए खुद को खोलकर भारत ने सेवा क्षेत्र के उत्पादों, खासकर आईटी क्षेत्र से जुड़ी सेवाओं में अपने निर्यात को बढ़ा पाने में सफलता हासिल कर ली। लेकिन जहाँ तक औद्योगिक क्षेत्र का सम्बन्ध है, इस “खुलेपन” से भारतीय अर्थव्यस्था को शायद ही कोई फायदा मिल सका है। उल्टा इसका नकरात्मक असर ही हुआ होगा। इस सम्पूर्ण नव-उदारवादी दौर में औद्योगिक विकास दर को अगर देखें तो शायद यह विकास दर उस अपंजीकृत दौर से बेहतर नहीं रही है।

जहाँ एक ओर भारतीय उद्योग के लिए घरेलू बाजार में पूर्वी एशियाई देशों, खासकर चीनियों से मुकाबला करना मुश्किल होता गया। वहीँ दूसरी तरफ निर्यात बाजार में भी इसे कुछ ख़ास प्रगति हासिल नहीं हो सकी है। दूसरे शब्दों में कहें तो अर्थव्यस्था को “खोलने” का अर्थ भले ही विशिष्ट सेवा क्षेत्रों को अग्रगति देने में सफलता हासिल करने से लगाया जाता हो, लेकिन इसने कुलमिलाकर औद्योगिक विकास को दबाकर रख दिया। आज नव-उदारवाद के अपने अंतिम-मुकाम पर पहुँचने से विश्व अर्थव्यस्था मंदी के दौर में प्रविष्ट कर चुकी है। जिसके चलते यह औद्योगिक दमन अब अपने ह्रासमान स्तर पर पहुँच चुकी है। वहीँ दूसरी ओर सेवा क्षेत्र में जितनी तेजी आनी थी वह आ चुकी है और कुल मिलाकर अर्थव्यस्था के इस गतिरोध के दौर को दीर्घकालीन बना रही है।

और यहीं पर जाकर औद्योगिक गतिरोध का तीसरा पहलू सक्रिय होता है। इसे हम निवेश में कटौती के रूप में देख सकते हैं। इस कटौती के कारण खासकर पूंजीगत माल के निर्माण का क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होना आरंभ हो जाता है। और यही पूँजी निवेश, औद्योगिक गतिरोध का कारक और उसका प्रतिफलन बनकर उभरता है। 

कहने की आवश्यकता नहीं कि बीजेपी सरकार के पास अर्थव्यस्था को पुनर्जीवित करने को लेकर कोई समझ क्यों नहीं है। इसकी ओर से कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती के जरिये सुधार की गुंजाईश का जो पूर्वानुमान लगाया गया था, उससे निजी कॉर्पोरेट द्वारा निवेश में कुछ भी फर्क नहीं पड़ा है। चूँकि इस प्रकार के निवेश की गुंजाइश तभी बनती है जब बाजार में किसी उछाल की उम्मीद नजर आती हो। और जब तक बाजार में उछाल की संभावना नजर नहीं आती, तब तक किसी बड़े निवेश की संभावना न के बराबर रहती है, चाहे टैक्स में कितनी भी छूट क्यों न दे दी जाये। उल्टा यदि टैक्स में इस प्रकार की छूट की क्षतिपूर्ति के लिए सरकार अपने खर्चों में कटौती करती है (अपने वित्तीय घाटे के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए) तो इसका असर कहीं और ख़राब पड़ता है। इस प्रकार की कटौती से न सिर्फ पूर्ण क्षमता के इस्तेमाल में गिरावट देखने को मिल सकती है, बल्कि निजी कॉर्पोरेट के निवेश में भी कमी आ सकती है।

इसके द्वारा उठाये गए दूसरे अन्य उपाय जैसे कि टैक्स में छेड़छाड़ के रूप में जीएसटी और “मेक इन इंडिया” अभियान भी दोषपूर्ण रहे हैं। अक्सर इस तरह की छेड़छाड़ से फायदा नहीं होता, उल्टा यदि इसके चलते कहीं आय में कमी होने लगती है तो फिर खर्चों में भी कमी खुद-ब-खुद करने के लिए मजबूर होना पड़ता है ( एक बार फिर से वित्तीय घाटे के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए।) यह अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारने जैसा हो जाता है।

जहाँ तक “मेक इन इण्डिया’ का सवाल है तो विश्व अर्थव्यस्था के संकट के कारण वैसे भी कोई बड़ा निवेश हो नहीं सका। और आगे भी भारत में किसी बड़े निवेश की उम्मीद नहीं है। इसके अलावा निवेश के लिए जिस प्रकार के सौहार्द्यपूर्ण माहौल की ज़रूरत होती है उसमें मुस्लिमों के ख़िलाफ़ जिस तरह के नरसंहार को अंजाम दिया गया, वह इस प्रकार के निवेश को आकर्षित करने के बजाय वापस खींच लेने के लिए प्रेरित करता है। नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकों के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से देश में उपजे सामाजिक अशांति के बारे में तो कुछ और बताने की आवश्यकता ही नहीं है। 

संक्षेप में कहें तो हम लोग गंभीर आर्थिक गतिरोध के दौर में जी रहे हैं। इससे निपटने के लिए हमें जिन चीजों की तत्काल आवश्यकता है उनमें सामाजिक शांति के अलावा जोरदार राजकोषीय हस्तक्षेप की जरूरत है जो नव-उदारतावादी सोच से परे जाती हो। दुःख की बात ये है कि मोदी एंड कंपनी को इसकी रत्ती भर परवाह नहीं है। और यह सब बात हम तब कर रहे हैं जब विश्व अर्थव्यस्था कोरोनावायरस के संकट से जूझ रही है। 

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Economy Sliding into Serious Stagnation but Modi & Co are Clueless

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