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ख़बरों के आगे-पीछे: बिहार और झारखंड में भी हैं कई “एकनाथ शिंदे”

हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
Eknath Shinde
एकनाथ शिंदे (File photo)

भाजपा का अगला निशाना झारखंड होगा! 

अगर महाराष्ट्र में भाजपा का 'ऑपरेशन लोटस’ सफल होता है तो झारखंड में भी यह ऑपरेशन होगा। झारखंड मे सरकार चला रहे झारखंड मुक्ति मोर्चा में तो टूट की संभावना कम है लेकिन उसकी सहयोगी कांग्रेस के कई विधायक पहले से भाजपा के संपर्क में हैं। जिस तरह महाराष्ट्र में दो बार के प्रयास के बाद तीसरी बार में सफलता मिली है उसी तरह झारखंड में भी दो प्रयास असफल हो चुके है। तीसरा प्रयास अगले कुछ दिन में हो सकता है। इसी बीच भाजपा ने झारखंड की राज्यपाल रहीं द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। उनका जीतना तय है। भाजपा के इस एक फैसले से उसकी आदिवासी विरोधी होने की अपनी छवि बदली है। झारखंड के आदिवासी विधायकों को भी अब भाजपा के साथ जाने में दिक्कत नहीं होगी। पिछले चुनाव में भाजपा को 25 सीटें मिली थीं, जिनमें सिर्फ दो आदिवासी जीते थे। बाद में बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने से उसके आदिवासी विधायकों की संख्या तीन हुई। पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने से भाजपा की छवि आदिवासी विरोधी की हो गई थी, जो अब बदलेगी। इसीलिए झारखंड में अभी से अटकलों का दौर शुरू हो गया है। कांग्रेस के विधायक बुधवार को पार्टी आलाकमान के बुलावे पर दिल्ली आए थे लेकिन राज्य में चर्चा शुरू हो गई कि दिल्ली में वे भाजपा नेताओं से मिलेंगे। बहरहाल, 'ऑपरेशन लोटस’ सफल नहीं होने की एक स्थिति यह बन रही है कि राज्य में एक सीट पर विधानसभा का उपचुनाव हो रहा है, जिस पर कांग्रेस के जीतने की प्रबल संभावना है। अगर कांग्रेस जीतती है तो उसके विधायकों की संख्या बढ़ेगी और तब उसके दो-तिहाई विधायकों को तोड़ना थोड़ा और मुश्किल हो जाएगा।

बिहार में भी तैयार थे 'एकनाथ शिंदे’

महाराष्ट्र जैसा खेल बिहार में होते-होते रह गया। वहां भी सरकार का नेतृत्व कर रहे जनता दल (यू) में 'एकनाथ शिंदे’ तैयार हो गए थे लेकिन समय रहते जद (यू) के नेताओं ने खतरा भांप लिया और उनके पर कतर दिए। बताया जा रहा है कि पार्टी के नंबर दो नेता और केंद्र सरकार में मंत्री आरसीपी सिंह के जरिए भाजपा का करना चाहती थी। जिस तरह महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे ने बड़ी संख्या में पार्टी के विधायकों को एकजुट करके बगावत की, वैसी बगावत बिहार में आरसीपी सिंह के नेतृत्व में होने की संभावना थी। महाराष्ट्र में तो भाजपा अपनी सरकार बनाने के लिए दांव चल रही है लेकिन बिहार में वह आरसीपी को भी मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार थी। बिहार में जनता दल (यू) के 43 विधायक हैं। उनमें से 28-29 विधायक अलग हो जाते तो भाजपा का काम बन जाता। बिहार विधानसभा के स्पीकर विजय सिन्हा भाजपा के नेता हैं, सो वे अलग गुट को मान्यता देने में जरा भी देर नहीं करते। दूसरी ओर भाजपा के कुछ नेता कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने में भी लगे थे। लेकिन महाराष्ट्र की तरह खेल नहीं हुआ तो उसका कारण यह है कि बिहार के सारे नेता आमतौर पर 24 घंटे राजनीति में रमे रहते हैं। सो, नीतीश कुमार ने पहले ही भांप लिया कि आरसीपी सिंह भाजपा के करीब जा रहे हैं। इसीलिए उन्हें राज्यसभा का टिकट भी नहीं दिया और उनके कुछ समर्थकों को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया। 

उद्धव के पास प्रबंधकों का अभाव    

महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद इस तरह की कई खबरें आई हैं कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को महीनों से पता था कि उनकी पार्टी में बगावत की तैयारी हो रही है। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार सहित कई माध्यमों से उन्हें जानकारी मिल गई थी कि शिव सेना के अंदर सब ठीक नहीं है और उनको अपना घर ठीक करना चाहिए। सवाल ये है कि जब उद्धव ठाकरे जानते थे तो उन्होंने समय रहते संकट-प्रबंधन क्यों नहीं किया? इसका एक कारण तो ठाकरे परिवार की कार्यशैली को बताया जा रहा है। ठाकरे परिवार के सामने पार्टी के किसी नेता की हैसियत चपरासी से ज्यादा नहीं होती है। इसी बीच उद्धव ठाकरे की सेहत खराब थी, जिससे वे अपनी पार्टी के नेताओं से दूर रहे थे। इसके अलावा एक बड़ा कारण यह है कि शिव सेना के पास कोई प्रबंधक नहीं है। इससे पहले महा विकास अघाड़ी बनी और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने तो उसके पीछे शरद पवार का प्रबंधन था। बाद में भी गठबंधन सरकार चलाए रखने में पवार का प्रबंधन ही काम करता रहा। पहली बार शिव सेना में संकट पैदा हुआ और वह बेकाबू हो गया क्योंकि पिछले दो दशक में शिव सेना ने कोई प्रबंधक नहीं बनाया। उसके शीर्ष नेता यानी ठाकरे परिवार मानता रहा कि कोई भी शिव सैनिक बागी होने के बारे में सोच ही नहीं सकता। बाल ठाकरे के जमाने में शिव सेना के पास मनोहर जोशी, छगन भुजबल, नारायण राणे जैसे नेता थे, जो लोकप्रिय भी थे और प्रबंधन में भी माहिर थे। भुजबल और राणे के जाने के बाद ले-देकर एक संजय राउत बचे हैं, लेकिन वे भी बयान देने वाले नेता और प्रवक्ता हैं, प्रबंधक नहीं। आदित्य ठाकरे के बारे में माना जाता है कि वे प्रबंधन संभाल सकते हैं, लेकिन बाल ठाकरे का पोता होने का जो अहंकार और अहसास है वह उन्हें पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूर रखता है।

द्रौपदी मुर्मू को बिना मांगे कई पार्टियों का समर्थन

विपक्षी दलों ने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का साझा उम्मीदवार बनाया है। वे झारखंड के हैं और हजारीबाग उनका संसदीय निर्वाचन क्षेत्र रहा है। इसलिए उम्मीद थी कि झारखंड की सभी पार्टियों और सांसदों-विधायकों का समर्थन उनको मिलेगा। लेकिन भाजपा की ओर से द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाने के बाद अब उस समर्थन की उम्मीद खत्म हो गई है। द्रौपदी मुर्मू संथाल आदिवासी हैं और झारखंड की राज्यपाल रही हैं। वे देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति होने जा रही हैं। इसलिए झारखंड का पूरा समर्थन उनको मिलेगा। ध्यान रहे शिबू सोरेन भी संथाल आदिवासी हैं। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा की रहने वाली हैं और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने पहले ही कह दिया है कि उनका राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना ओडिशा के लिए गर्व की बात होगी। सो, बीजू जनता दल का पूरा समर्थन उनको मिलेगा। बड़ा सवाल छत्तीसगढ़ को लेकर है। आदिवासी बहुल इस राज्य में कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस ने यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी का समर्थन किया है। लेकिन छत्तीसगढ़ के आदिवासी वोटों का महत्व समझते हुए पार्टी को फैसला करना होगा। मुर्मू देश की पहली आदिवासी हैं, जो सर्वोच्च पद पर पहुंचेंगी। ऐसे में एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना होगा। कांग्रेस पहले भी एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम का समर्थन कर चुकी है। उससे पहले केआर नारायणन की उम्मीदवारी का समर्थन भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एक साथ किया था। इसलिए अगर द्रौपदी मुर्मू को भी कांग्रेस समर्थन दे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। हालांकि पहले की स्थिति के मुकाबले इस बार फर्क यह है कि अभी भाजपा और कांग्रेस के रिश्ते बेहद कटुतापूर्ण हैं, जबकि पहले विरोधी होने के बावजूद रिश्ते अच्छे थे।

बेढंगे तरीके से बदली जा रही हैं किताबें

केंद्र सहित कई राज्यों में भाजपा की सरकारें इतिहास और राजनीतिक शास्त्र सहित कुछ अन्य विषयों की किताबें बदल रही हैं। ऐसा नहीं है कि पहली बार किताबों में बदलाव हो रहा है। लेकिन पहली बार बेहद आसान तरीके से किताबें बदली जा रही हैं। इससे पहले किताबों को बदलने की एक प्रक्रिया होती थी। लेखकों और संपादकों की टीम उसमें काम करती थी। विषय की समग्रता को ध्यान में रख कर बदलाव किया जाता था। यह ध्यान रखा जाता था कि किसी विषय की किताब में बदलाव इस तरह हो कि बदलाव के बावजूद तारतम्य बना रहे। ऐसा न लगे कि अचानक बीच में कुछ हटा दिया गया है। इस बार ऐसा नहीं किया जा रहा है। इस बार कहीं से कुछ भी हटा और जोड़ दिया जा रहा है, जिससे विषय की समग्रता प्रभावित हो रही है। एनसीईआरटी की कई किताबों में बदलाव किया गया है। दिल्ली सल्तनत और मुगल काल के शासकों के बारे में जो अध्याय थे उन्हे छोटा किया गया है। लेकिन छोटा करने का यह मतलब नहीं है कि नए सिरे से अध्याय लिखे गए हैं। कहीं से कुछ चीजें हटा दी गई है। इसका मकसद यह है कि छात्र कुछ चीजों के बारे में न जाने या कम जाने। इसकी जगह अगर वस्तुनिष्ठ तरीके से उन विषयों के बारे में नए सिरे से लिखा जाता तो वह ज्यादा बेहतर होगा। उससे छात्रों को अपना दृष्टिकोण बनाने में मदद मिलती। अगर भाजपा को अपनी विचारधारा के हिसाब से ही इतिहास और राजनीतिशास्त्र की किताबें बनवानी है तब भी हर अध्याय नए सिरे से लिखना ज्यादा बेहतर होता। जैसे कांग्रेस शासन के समय जो किताबें तैयार हुई उनमें भी इमरजेंसी का अध्याय है। लेकिन अब गुजरात दंगों का अध्याय हटाया जा रहा है। अगर थोड़ी मेहनत की जाती है तो अध्याय हटाने की बजाय उसे नए परिप्रेक्ष्य के साथ लिखा जा सकता था। लेकिन यह एक बौद्धिक कर्म है और इसमें समय भी बहुत ज्यादा लगता है।

बिहार में मजबूरी का नाम भाजपा

बिहार में मजबूरी का नाम भाजपा है। केंद्र सरकार जो भी फैसला करती है या सिद्धांत के तौर पर भाजपा के नेता जिस बात पर बयान देते हैं, उसका सहयोगी जनता दल (यू) उसे खारिज कर देता है। अभी अग्निपथ आंदोलन के बेकाबू होने पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने राज्य सरकार पर निशाना साधा तो जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसके बाद फिर भाजपा नेताओं के मुंह बंद हो गए। जैसे जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, भाजपा के लिए गठबंधन तोड़ना और मुश्किल होता जा रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा जोखिम नहीं ले सकती है। हालांकि प्रदेश भाजपा के नेता 2014 के चुनाव की याद दिला रहे हैं और कह रहे हैं कि उस समय जदयू से अलग लड़ कर भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों ने 40 में से 32 सीटें जीती थीं। इसलिए भाजपा को अकेले लड़ जाना चाहिए। पर दिल्ली के नेता खासतौर से नरेंद्र मोदी और अमित शाह इसके खतरे को समझ रहे हैं। 2014 में नीतीश और लालू प्रसाद नहीं मिले थे। अगले साल विधानसभा में जब दोनों मिल गए तो भाजपा और उसकी सहयोगियों का सूपड़ा साफ हो गया था। अगर अगले लोकसभा चुनाव में राजद, जदयू, कांग्रेस और लेफ्ट साथ हो जाते हैं तो भाजपा के लिए मुश्किल हो जाएगी। भाजपा की और मजबूरी यह है कि उसने एक-दो नेताओं की महत्वाकांक्षा के चक्कर में लगभग सारे सहयोगी गंवा दिए। इसलिए उसकी मजबूरी हो गई है कि जद (यू) की बात बर्दाश्त करके उसके साथ रहे।

हरियाणा के तीनों लाल परिवार भाजपा के साथ

एक समय था, जब हरियाणा में लाल परिवारों का बोलबाला था। प्रदेश की पूरी राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूमती थी। अब उनका असर खत्म तो नहीं हुआ है लेकिन काफी कम जरूर हो गया है। इस बार के राज्यसभा चुनाव के बाद हरियाणा के तीनों लालों के परिवार के बारे में एक जुमला सुनने को मिला तो सभी लालों के परिवार बिक गए। हरियाणा में इस बात की चर्चा है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तीनों लाल परिवार अब भाजपा के साथ हैं। ध्यान रहे चौधरी देवीलाल का परिवार बंट गया है लेकिन राज्यसभा चुनाव में पूरे परिवार ने भाजपा को वोट दिया। दुष्यंत चौटाला पहले से भाजपा के साथ हैं और राज्य में उप मुख्यमंत्री हैं। लेकिन उनके चाचा और इंडियन नेशनल लोकदल के इकलौते विधायक अभय चौटाला ने भी भाजपा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार को वोट दिया। हरियाणा के दूसरे लाल भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई कहने को तो कांग्रेस में हैं लेकिन उन्होंने राज्यसभा चुनाव में भाजपा समर्थित निर्दलीय को वोट दिया। अब उनके भाजपा में जाने की अटकलें हैं। इस तरह दो लालों- देवीलाल और भजनलाल का परिवार तो प्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ है। तीसरे यानी बंसीलाल का परिवार आधिकारिक रूप से कांग्रेस के साथ है लेकिन कहा जा रहा है कि राज्यसभा चुनाव में बंसीलाल की बहू किरण चौधरी ने भाजपा समर्थित निर्दलीय की जीत सुनिश्चित करने के लिए अपना वोट जान-बूझकर अवैध कराया। हालांकि वे इस बात से इनकार कर रही हैं पर कांग्रेस के नेता इस पर भरोसा नहीं कर रहे हैं।

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