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चुनाव 2022: उत्तराखंड में दलितों के मुद्दे हाशिये पर क्यों रहते हैं?

अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी दलित समाज के अस्तित्व से जुड़े सवाल कभी भी मुख्यधारा के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रश्न नहीं रहे हैं। पहाड़ी जिलों में तो दलितों की स्थिति और भी भयावह है।
Uttarakhand

यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि आखिर उत्तराखंड में दलित समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हमेशा से ही हाशिये पर क्यों रहा है। अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी दलित समाज के अस्तित्व से जुड़े सवाल कभी भी मुख्यधारा के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रश्न नहीं रहे हैं। पहाड़ी जिलों में तो दलितों की स्थिति और भी भयावह है। भाजपा और कांग्रेस-जैसी मुख्यधारा की पार्टियों के एजेंडे में उत्तराखंड के दलित समाज के मुद्दे कभी भी प्रमुखता से नहीं रहे हैं।

पहाड़ी इलाकों में दलितों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से अब तक जो कुछ भी घटित होता रहा है उसे निश्चित रूप से खतरनाक ही कहा जा सकता है। लेखक और वरिष्ठ पत्रकार प्रेम पुनेठा कहते हैं कि सवर्ण बहुल इलाका होने के कारण दलितों का सवाल तो कभी भी सामने आया ही नहीं। आजादी से पहले भी यहां किसी भी आंदोलन में दलितों से संबंधित प्रश्न सामने नहीं आए और आज भी नहीं आ रहे हैं।

वह कहते हैं, “आजादी के पहले के कुली बेगार से लेकर वर्तमान तक यहां जो भी आंदोलन हुए उनमें दलितों की आवाज तो कहीं थी ही नहीं। कुली बेगार की लड़ाई तो सवर्णों की लड़ाई थी।” जाहिर है, दलित तो सवर्णों के लिए बेगार कर ही रहे थे, तो उनके लिए स्थितियां उस आंदोलन से बदलनी नहीं थी। अगर हम उत्तराखंड राज्य आंदोलन के पूरे चरित्र को भी देखें तो उसमें आरक्षण का विरोध बहुत प्रबल तरीके से मौजूद था। राज्य के लिए हुए आंदोलन के दौर में पहाड़ों में दलितों पर हमलों की कई घटनाएं भी सामने आईं।

लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी कहते हैं, “राज्य आंदोलन के समय दलितों का एक प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति से मिला और उसने अलग राज्य के गठन के विरोध में ज्ञापन दिया था।” इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि दलितों को साफ दिख रहा था कि नए राज्य के निर्माण के बाद भी उनके लिए स्थितियां बदलने वाली नहीं हैं, क्योंकि उनसे जुड़े सवाल तो आंदोलन में कहीं थे ही नहीं।

अगर हम उत्तराखंड के तराई इलाके की बात करें तो वहां भी दलितों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। पुनेठा कहते हैं, “तराई का इलाका तो आजादी के बाद से बसना शुरू हुआ। वहां भी दलित उस तरीके से नहीं हैं।...जहां तक हरिद्वार की बात है तो वह सांस्कृतिक रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हिस्सा है। अगर यह क्षेत्र वहीं रहता तो वहां का दलित समुदाय राजनीतिक रूप से दूसरी तरह से बात करता, लेकिन उत्तराखंड में आने पर वह माइनॉरिटी में आ गया। अब वह मायावती या दूसरे संगठन को समर्थन नहीं कर रहा है, उसकी मजबूरी है कि वह कांग्रेस या भाजपा में चला जाए।”

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद कुछ समय तक हरिद्वार जिले की कुछ सीटों पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का प्रभाव था, लेकिन धीरे-धीरे वह प्रभाव कमजोर होता चला गया है। उत्तराखंड में 2012 के विधानसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत करीब 12 फीसदी था, लेकिन 2017 में इसमें बड़ी गिरावट देखी गई और यह 6.9 प्रतिशत पर पहुंच गया।

दलितों की स्थिति पर चारु तिवारी कहते हैं, “आजादी के बाद कोटद्वार से लेकर टनकपुर तक भूमिहीनों और दलितों को जमीन देने के संबंध में सरकार एक योजना लाई थी। उसमें बहुत सारी जमीन को आरक्षित किया गया था, जिसमें पहाड़ के लोगों को तराई में जमीन देने की बात कही गई थी, लेकिन उस जमीन पर बड़े इजारेदारों और पूंजीपतियों का कब्जा हो गया। 1968 में समाजवादियों ने उस जमीन को छुड़ाने के लिए तराई में एक बड़ा आंदोलन भी चलाया था।”

वह बताते हैं कि रामनगर के पास सुंदरखाल में पहाड़ के दलितों को जमीन आवंटित की गई थी, लेकिन जैसे-ही जिम कॉर्बेट पार्क की सीमा को बढ़ाने की बात आई तो उनको फिर से बेदखल कर दिया गया।

संसाधनों और ज़मीन पर हक़ का सवाल

महत्वपूर्ण मसला दलितों के अधिकारों का है। चारु तिवारी इस पर रौशनी डालते हुए कहते हैं, “हम जमीन की पैमाइश की बात करते हैं। हम चकबंदी की बात करते हैं। अपने संसाधनों को बचाने की बात करते हैं, लेकिन उसमें दलित समाज का कहीं भी नाम नहीं आता है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में कहा जाता है कि हम दलितों को आरक्षण का लाभ देंगे, उनको आर्थिक सहायता देंगे, लेकिन कोई यह नहीं कहता है कि हम उनको जमीनों पर अधिकार देंगे। हमारे संसाधनों पर भी उनका अधिकार नहीं है। जंगल पर उनका अधिकार नहीं। पानी पर उनका अधिकार नहीं। नोले पर उनका अधिकार नहीं। मंदिर पर उनका अधिकार नहीं।”

तिवारी कहते हैं, आजादी के बाद हम समता मूलक समाज बनाने की बात कह रहे थे, लेकिन हमारे यहां (उत्तराखंड) उस कोई काम हुआ ही नहीं, क्योंकि हमारे यहां जमीन पर हक का जो सवाल है, तो उस पर दलित कहीं था ही नहीं। सवर्णों ने कहा कि कोई हमारा लौहार है, कोई हमारा दर्जी है, तो उसे मकान बनाने के लिए एक खेत दे दिया। जमीन के इस प्रश्न को वह एक उदाहरण के जरिये और भी स्पष्ट करते हैं। वह कहते हैं, “अभी जो आपदा आई तो उसमें दलितों के भी बहुत से मकान टूटे। ये मकान ऐसी जमीन पर बने थे जो किसी काम की नहीं थी। गांवों के एकदम किनारों पर। लेकिन जब मुआवजे की बात आई तो पता चला कि वह जमीन तो उनके नाम पर है ही नहीं।”

पहाड़ में दलितों के पास जमीन न के बराबर है। वैसे भी राज्य में ज्यादातर सीमांत किसान हैं। एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की संख्या 74.78 प्रतिशत है। दलित समुदाय कृषि कार्य से जुड़ा नहीं रहा है। वह खेती-बाड़ी से संबंधित औजार बनाना था।

पुनेठा कहते हैं, “पहाड़ों में खेती का जो परंपरागत तरीका था उसमें दलित समुदाय के लोग खेती से संबंधित औजार बनाते थे और फसल होने पर अपना हिस्सा ले लेते थे। अब जब लोगों ने खेती ही करना छोड़ दिया तो वह आर्थिक संबंध भी खत्म हो गया।”

पहाड़ों में दलित समाज हमेशा से ही अस्पृश्यता का शिकार रहा है। पहाड़ी समाज में भी छूआछूत की भावनाएं उसी तरह से प्रबल हैं जिस तरह से देश के अन्य स्थानों पर हैं। अंग्रेजों के राज के समय यहां दलितों ने बड़ी संख्या में ईसाई धर्म अपनाया, क्योंकि अंग्रेज को उसके साथ खाना खाने या उसके हाथ का पानी पीने में कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन सवर्ण उसके साथ ऐसा नहीं करता था। 1933 में हरिप्रसाद टमटा ने ‘समता’ अखबार निकाला और उसके माध्यम से कुमाऊं में दलितों के हक की लड़ाई लड़ी। उन्होंने दलित महिलाओं की बेहतरी और दलितों की शिक्षा के लिए बहुत काम किया। यही कारण था कि सवर्ण समाज एक तरह से उनके खिलाफ था। उधर, गढ़वाल में जयानंद भारती ने डोली-पालकी आंदोलन चलाया था। लेकिन आजादी से पहले से लेकर आज तक पहाड़ का दलित समाज अस्पृश्यता का दंश लगातार झेल रहा है।

पहाड़ में दलित समाज किस क्रूर तरीके से अस्पृश्यता का शिकार है इसको हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। लेखक और दलित चिंतक मोहन मुक्त ने पिछले दिनों अपनी एक फेसबुक पोस्ट में दलितों के संबंध में एक गाय का संदर्भ देते हुए एक घटना का जिक्र किया। वह लिखते हैं, “वर्ष 2014-15 में दलितों को रोजगार मुहैया कराने के लिए एक गाय पालक योजना का क्रियान्वयन मुझे कराना था। योजना के अंतर्गत 30 हजार की गाय और तीन हजार का राशन दलित लाभार्थी को दिया जाता है। लाभार्थी, उसकी पत्नी और मैं अपने स्टाफ के साथ लोहाघाट (चंपावत जिला) से गाय खरीदने गए। एक गाय पसंद की गई, लेकिन विक्रेता 32 हजार से कम में उसे बेचने को तैयार नहीं था। गाय वास्तव में अच्छी थी और उसका दूध 18 लीटर था। मुझे भी गाय पसंद आई, लेकिन लाभार्थी के पास 2000 रुपये अतिरिक्त नहीं थे। वह उसी गाय को पालना चाहता था। उसकी स्थिति को देख मैंने उसे दो हजार रुपये दिए जो उसने बाद में मुझे लौटा दिए थे।” अब जो कहानी है वह दलितों की सामाजिक स्थिति की हकीकत को बयां करती है। मोहन मुक्त लिखते हैं, “असल बात इसके बाद शुरू हुई। उस गांव में प्रमुखतः बहुत गरीब दलित रहते हैं और अपर कास्ट भी, अब समस्या थी कि दलित लाभार्थी 18 लीटर दूध कहां बेचे। दलित अमूमन गरीब हैं और अपर कास्ट द्वारा उसका दूध खरीदना संभव नहीं है। सरकार द्वारा दिया गया तीन हजार का राशन तो कुछ दिन ही चलेगा, आगे उसको दूध बेचकर ही गाय पालनी थी।” इस कहानी में आगे यह है कि वहां जो स्थानीय डेयरी थी वह अपर कास्ट गांवों से दूध कलेक्ट कर रही थी। आखिर दलित अपना दूध कहां बेचें।

वह बताते हैं, “मेरे बिरादर किशोर की गाय का दूध भी उस डेयरी ने खरीदने से मना किया। पता चला कि उस दूध को लेकर डेयरी से नियमित दूध खरीदने वाले रेस्तरां वाले ने शिकायत की कि उसकी चाय लोग नहीं पी रहे। छोटी जगहों पर लोग सब पता कर लेते हैं, दूध की जात भी।”

आखिर उस दलित लाभार्थी की गाय का क्या हुआ? थक-हारकर वह अपनी गाय आठ हजार रुपये में किसी सवर्ण परिवार को बेचकर राज्य से सपरिवार बाहर चला गया। यह घटना उत्तराखंड में दलितों की हकीकत को तो बताती ही है और साथ ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था की सच्चाई को भी सामने लाती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)  

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