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कृषि क़ानून : केंद्र का राज्यों के अधिकार क्षेत्र में ख़तरनाक हस्तक्षेप

आज हमारा देश संविधान के थोक में ध्वंस के कगार पर है। इसीलिए, किसानों द्वारा पेश की गयी चुनौती हमारे भविष्य के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है।
किसान आंदोलन

तीन कुख्यात कृषि कानूनों के खिलाफ, जो खेती-किसानी के दरवाजे कार्पोरेट्स के हथियाने के लिए खोलना चाहते हैं, किसानों के आंदोलन को बदनाम करने की सुनियोजित तरीके से कोशिशें की जा रही हैं। इन कोशिशों में सरकार बार-बार इस दलील का इस्तेमाल करती आयी है कि इन कानूनों का विरोध तो सिर्फ एक-दो राज्यों के किसानों तक ही सीमित है और बाकी राज्यों के किसान तो इन कानूनों से काफी खुश ही हैं। इस दावे का झूठा होना इस बात से अच्छी तरह से साबित हो जाता है कि उक्त राज्यों से इतनी दूर, केरल जैसे राज्य ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर, इन कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है और मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के ही नहीं, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के भी किसान, इन कानून का विरोध करने वाले उक्त एक-दो राज्यों के आंदोलनकारी किसानों के साथ कंधे से कंधा भिड़ाकर चल रहे हैं। इसलिए, यह दावा कि इन कानूनों का विरोध तो एक-दो राज्यों तक ही सीमित है, एक झूठा भुलावा भर है।

बहरहाल, इस प्रक्रिया में सरकार चुपके से इस दावे के पीछे छुपी एक प्रस्थापना को आम स्वीकृति दिलाना चाहती है कि केंद्र सरकार के थोड़े से राज्यों के किसानों के हितों के खिलाफ जाने वाले कानून बनाने में तो कोई गलती नहीं है, बस ऐसे कानूनों का विरोध करने वाले राज्य बहुमत में नहीं होने चाहिए। यह एक खतरनाक प्रस्थापना है।

यह प्रस्थापना कि किसी कानून का विरोध थोड़े से ही राज्य तो कर रहे हैं और इसलिए संबंधित कानून के विरोध का आंदोलन गलत हो जाता है, न सिर्फ झूठी है बल्कि बहुत ही खतरनाक भी है।

ऐसा इसलिए है कि भारत का संविधान, केंद्र को किसी भी राज्य के किसानों पर, एक अकेले राज्य के किसानों पर भी, अपनी मर्जी थोपने की इजाजत नहीं देता है।

हमारे संविधान में खेती को राज्यों का विषय रखा गया है क्योंकि अलग-अलग राज्यों में खेती के हालात अलग-अलग हैं और अपने राज्य के किसानों की जिंदगियों पर असर डालने वाले मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार, राज्य विधायिकाओं को ही दिया गया है, जो सीधे राज्य की जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। राज्यों की विधायिका को राज्य की जनता सीधे चुनती है और उसे ही राज्य की ठोस परिस्थितियों का बेहतर तरीके से पता होता है।

कृषि को संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य का विषय बनाए जाने का अर्थ यह है कि हरेक राज्य के किसानों को यह संवैधानिक अधिकार है कि उनके राज्य में कानूनों के जरिए खेती की ऐसी व्यवस्था चले, जो उनकी इच्छाओं के अनुरूप हो।

केंद्र सरकार को कृषि से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का कोई अधिकार ही नहीं है और अगर वह यह चाहती भी हो कि कार्पोरेटों को खेती के क्षेत्र में घुसने देने की उसकी अक्लमंदी को राज्यों में आजमाया जाना चाहिए, तो भी उसे अपने पास किए उक्त तीनों कानूनों को निरस्त करना चाहिए और राज्यों को सलाह देनी चाहिए कि ऐसे कानून बनाएं, जिससे उसकी यह इच्छा पूरी हो सके। ऐसा होने पर कुछ राज्य, जहां के किसान केंद्र सरकार के दावे के अनुसार इस विचार को बहुत ही पसंद कर रहे हैं, चाहें तो अपनी विधायिका से ऐसे कानून पारित करा सकते हैं। और दूसरे राज्य, जहां इन कानूनों का भारी विरोध हो रहा है, ऐसे कानूनों से बचे रह सकते हैं। इस तरह, भांति-भांति की व्यवस्थाएं स्थापित हो सकती हैं, जिसे कि हमारा संविधान राज्य सूची के विषयों के मामले में स्वीकार्य मानकर चलता है और जो व्यवस्था अन्यथा कायम भी हुई होती। लेकिन, केंद्र सरकार को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वह कृषि के मामले में, जिसे ‘‘सही’’ समझे उस व्यवस्था को गला पकडक़र हरेक राज्य पर थोप दे।

लेकिन, यह रास्ता अपनाए जाने के लिए, यह पूरी तरह से अपरिहार्य है कि पहले उक्त तीनों कृषि कानूनों को निरस्त किया जाए। बिहार में पहले ही ऐसी व्यवस्था कायम है, जो प्रकटत: अन्य राज्यों से भिन्न है। और यह नैतिक तथा संवैधानिक, दोनों ही पहलुओं से सही होगा कि हरेक राज्य को, अगर वह मौजूदा व्यवस्था को असंतोषजनक पाता है तो, अपनी ही मर्जी की कृषि व्यवस्था बनाने की स्वतंत्रता हो।

लेकिन, अगर केंद्र सरकार की ऐसा रास्ता अपनाने की हिम्मत नहीं हुई है और इसके बजाय उसने कार्पोरेटों की किसानी खेती में घुसपैठ कराने के लिए केंद्रीय कानून बनाने का रास्ता अपनाया है, तो इसीलिए कि उसे पता है कि इन चीजों को राज्यों पर छोडऩा, जैसाकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था का तकाजा है, इन कदमों की संभावनाओं का ही रास्ता रोक देगा। कोई भी राज्य विधायिका, यहां तक कि भाजपा-शासित राज्यों की विधायिका भी, ऐसे सरासर किसानविरोधी कानून बनाने की हिम्मत ही नहीं कर पाएगी। इसके विपरीत, केंद्र सरकार ऐसा कर सकती है क्योंकि दो कारणों से उसे ऐसा लगता है कि वह इन कदमों के प्रतिकूल प्रभावों को संभालने के लिहाज से कहीं बेहतर स्थिति में है। पहला कारण तो यही है कि किसानों का ज्यादातर राज्यों की आबादी में जितना बड़ा हिस्सा है, पूरे देश की आबादी को मिलाकर उनका अनुपात उससे कम बैठेगा। दूसरे, सत्ताधारी पार्टी की सांप्रदायिक प्रकृति के चलते, केंद्र की सरकार यह समझती है कि वह कभी भी सही मौके पर कोई घटना करा सकती है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने के जरिए, अपने किसानविरोधी रुख से लोगों की नाराजगी को पीछे धकेलकर, चुनाव जीत सकती है। इसके विपरीत, राज्यों से ये कानून पारित कराने के लिए, हरेक राज्य में सही मौके पर ऐसी घटनाएं कराना, कहीं ज्यादा मुश्किल होगा और उसके नतीजों के बारे में निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता है। वैसे भी केंद्र के पास ऐसी घटनाएं कराने के या उनका इस्तेमाल करने के, कहीं ज्यादा मौके होते हैं क्योंकि विदेशी मामलों तथा प्रतिरक्षा जैसे क्षेत्र केंद्र के ही अधिकार में होते हैं।

इस तरह, ये कानून बनाने के जरिए मोदी सरकार ने अपना कार्पोरेटपरस्त एजेंडा थोपा है तथा साम्राज्यवाद परस्त एजेंडा भी थोपा है क्योंकि ये कानून, अमरीका तथा योरपीय यूनियन द्वारा पिछले काफी अर्से से की जा रही इस मांग को भी पूरा करने की दिशा में ले जाते हैं कि भारतीय खेती का जोर, खाद्यान्न उत्पादन की ओर से हटाया जाए और साम्राज्यवादी देशों से खाद्यान्न का आयात ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए। इस एजेंडा को थोपने के क्रम में मोदी सरकार ने सत्ता का और ज्यादा केंद्रीयकरण भी कर दिया है, जो जितना अलोकतांत्रिक है, उतना ही संविधान विरोधी भी है।

इससे पहले उसने राज्यों को ललचाकर, उन पर ऐसी जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स व्यवस्था थोपी थी, जो आर्थिक संसाधनों का बहुत भारी केंद्रीयकरण करती है। और यह ऐसे वादों के आधार पर कराया गया था, जो साफतौर पर झूठे साबित हुए हैं। उसने राज्यों से कोई परामर्श किए बिना ही, इकतरफा तरीके से एक नयी शिक्षा नीति का भी एलान कर दिया है, जबकि शिक्षा का विषय सातवीं अनुसूची के अंतर्गत, समवर्ती सूची का विषय है।

इसी प्रकार, राज्य विधायिका से कोई परामर्श किए बिना ही उसने जम्मू-कश्मीर से संबंधित, धारा-370 तथा 35ए को निरस्त करने का एलान कर दिया, जबकि संविधान की उक्त धाराओं से संबंधित संवैधानिक व्यवस्था को पलटने के लिए तो, राज्य विधायिका की मंजूरी भी काफी नहीं होती।

और अब उसने अपने हाथ ऐसे आइटम तक बढ़ा दिए हैं, जो समवर्ती सूची तक में नहीं आता है और सीधे-सीधे राज्यों के दायरे में ही आता है। और इस तरह वह देश की कृषि व्यवस्था में, दूरगामी बदलाव थोपने की कोशिश कर रही है। संसाधनों तथा निर्णय-प्रक्रिया का ऐसा केंद्रीयकरण, हमारे देश के जनतंत्र के लिए एक अशुभ संकेत है।

इसके ऊपर से इस तरह का केंद्रीयकरण, तरह-तरह के झूठ की आड़ में किया जा रहा है। हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह, जीएसटी व्यवस्था को अपनाने के लिए, राज्यों को इस सरासर झूठे बहाने के सहारे तैयार किया गया था कि इस व्यवस्था को अपनाने से उनकी जितनी भी राजस्व हानि होगी, केंद्र द्वारा उसकी भरपाई की जाएगी। अब पता चला रहा है कि इन कृषि कानूनों के सिलसिले में संसद में किया गया यह दावा भी पूरी तरह से झूठा था कि निजी व्यापारियों के लिए कृषि उत्पाद भंडारण पर लगी सीमा को हटाने पर, कई मुख्यमंत्रियों की एक कमेटी ने विचार किया था तथा उसी की यह सिफारिश थी और इस कमेटी की रिपोर्ट पर नीति आयोग की (जिसके सदस्यों में मुख्यमंत्री होते हैं) गवर्निंग बॉडी ने चर्चा की थी; और इसके बाद ही इस बदलाव को इन तीन कृषि कानूनों में से एक में शामिल किया गया था।

नीति आयोग से आरटीआई के तहत हासिल की गयी जानकारी में पता चला है कि नीति आयोग की गवर्निंग बॉडी की किसी भी बैठक में ऐसी कोई रिपोर्ट पेश ही नहीं की गयी थी, फिर उसके इस ऐसी रिपोर्ट का अनुमोदन करने का तो सवाल ही कहां उठता है। वास्तव में, निजी व्यापारियों की स्टॉक होल्डिंग पर लगी सीमाओं को ही खत्म करने की सिफारिश करने वाली रिपोर्ट का अस्तित्व ही, संदिग्ध लगता है। पुन:, स्टॉक होल्डिंग की सीमाएं तय करना, राज्यों का विशेषाधिकार है। लेकिन, झूठ दर झूठ बोलकर, राज्यों से उनके इस विशेषाधिकार को ही नहीं छीना जा रहा है, इस प्रक्रिया में जमाखोरों तथा सटोरियों को इसके लिए खुला न्यौता भी दिया जा रहा है कि किसी भी फसल की तंगी के हालात का फायदा उठाकर मुनाफाखोरी करें।

इस तरह की संदेहास्पद तिकड़मों के जरिए, देश पर थोपे जा रहे इस केंद्रीयकरण को अब, एक और खतरनाक आयाम दिया जा रहा है। अब मामला सिर्फ इतना ही नहीं रह गया है कि केंद्र सरकार द्वारा, राज्यों से वह भूमिका छीनी जा रही है, जो संविधान ने राज्यों को दी है। इसके ऊपर से अब तो केंद्र ने राज्यों की जगह पर ही नहीं बल्कि राज्यों की स्पष्ट रूप से प्रकट इच्छाओं के सरासर खिलाफ जाकर, उनके बदले में कानून बनाने का अधिकार हथिया लिया है। और केंद्र सरकार इसे, इस दावे के आधार पर सही ठहराने की कोशिश कर रही है कि थोड़े से राज्य, चंद राज्य ही, ऐसे कानूनों के खिलाफ हैं!

राज्यों की कीमत पर अपनी शक्तियों का विस्तार करने के लिए, भाजपायी सरकार को संविधान में संशोधन करने की कोई जरूरत ही नजर नहीं आ रही है। वह तो अपनी मन-मर्जी के हिसाब से संविधान का उल्लंघन कर रही है और चूंकि न्यायपालिका इतनी डरपोक है कि कार्यपालिका को चुनौती नहीं दे सकती है, सरकार के ऐसी मनमानी करने के हौसले बढ़ गए हैं। इसलिए, आज हमारा देश संविधान के थोक में ध्वंस के कगार पर है। इसीलिए, किसानों द्वारा पेश की गयी चुनौती हमारे भविष्य के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Farm Laws: India at Cusp of Wholesale Subversion of Constitution

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