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भ्रमित होने के आरोपों पर बोले किसान : हम कृषि क़ानूनों को सरकार से बेहतर समझते हैं 

न्यूज़क्लिक ने सिंघु, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों से बात कर क़ानून पर उनकी समझ को जानने की कोशिश की
सिंघु, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों से बात

नई दिल्ली: कृषि क़ानूनों के खिलाफ हो रहे देशव्यापी प्रदर्शनों को "भ्रामक धारणा" से उपजा हुआ बताने की कोशिश में केंद्र सरकार कोई कोताही नहीं बरत रही है। सरकार का कहना है कि इस धारणा के चलते किसानों में ग़लतफ़हमी पैदा हो गई है। सरकार की तरफ से यह बात फैलाई जा रही है कि विपक्ष किसानों को "ऐतिहासिक" क़ानूनों का विरोध करने के लिए "बरगला" रहा है, जबकि यह क़ानून कृषि क्षेत्र में "सुधार" के लिए लाए गए हैं।

30 नवंबर को अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाते हुए कहा, "विपक्ष ऐतिहासिक कृषि सुधार क़ानूनों का विरोध करने के लिए चालाकियां कर रहा है और किसानों को भ्रमित कर रहा है। अब एक नया चलन शुरु हुआ है; सरकार के शुरुआती फ़ैसलों का विरोध किया गया, अब विरोध करने के लए अफवाहों का सहारा लिया जाता है। अब यह प्रोपगेंडा चलाया जा रहा है कि फ़ैसला तो सही था, लेकिन इसके दूसरे नतीजे हो सकते हैं, जबकि यह चीजें हुई ही नहीं हैं और कभी होंगी भी नहीं। कृषि क़ानूनों के साथ भी यही चीज है।"

भारतीय जनता पार्टी के महासचिव तरुण चुग ने 12 दिसंबर को कहा कि "भ्रामक और छुपे हुए विमर्श" के चलते किसान आंदोलन हो रहा है।

क्या प्रदर्शन कर रहे किसानों का भ्रमित किया गया है? क्या उन्होंने तीनों क़ानूनों को पढ़ा है? क्या उन्हें गलत जानकारी है और वे क़ानूनों को अच्छे ढंग से नहीं समझते?

न्यूज़क्लिक ने दिल्ली की सिंघु, टिकरी और गाजीपुर सीमा पर कुछ प्रदर्शनकारियों से बात की, जहां किसान पिछले 19 दिनों से शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं।

हरियाणा की महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी से क़ानून की पढ़ाई कर रहे जसमिंदर से जब हमने सरकार के आरोपों पर बात की, तो उन्होंने इसका प्रतिकार में तर्क रखे।

उन्होंने कहा, "यह पहली बार है जब सरकार इतनी बड़ी संख्या के लोगों को भ्रमित करने में नाकामयाब रही है। सरकार ने हर गलत फ़ैसले, जिनमें नोटबंदी, जीएसटी, सीएए, प्रस्तावित एनआरसी शामिल हैं, उन पर लोगों को भ्रमित किया है, लेकिन इस बार वो बुरी तरह असफल हो रही है। इसलिए वे हमें गलत जानकारी वाला, कांग्रेसी या खालिस्तानी कह रहे हैं।"

सरकार ने हाल में- "फॉर्मर्स (एंपॉवरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फॉर्म सर्विस एक्ट, 2020", "फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिटेशन ऑर्डिनेंस), 2020" और "इशेंसियल कमोडिटीज़ एक्ट, 2020" नाम के तीन कृषि क़ानून पारित किए हैं।

पहले क़ानून को कांट्रेक्ट फॉर्मिंग लॉ के नाम से भी जाना जाता है, यह किसान और एक खरीददार के बीच, किसी भी कृषि उत्पाद के उत्पादन या बोए जाने के पहले समझौते का एक राष्ट्रीय वैधानिक ढांचा बनाता है। 

वह पूछते हैं, "सरकार इस क़ानून का बचाव यह कहते हुए कर रही है कि इससे किसान कृषि व्यापार कंपनियों, प्रसंस्करणकर्ताओं, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों या बड़े खुदरा व्यापारियों से कृषि सेवाओं और आपस में तय किए गए मूल्य पर भविष्य की पैदावार को बेचने के लिए व्यवहार करने में सशक्त और सुरक्षित होंगे। कोई भी समझौता बराबरी के दर्जे वाले दो पक्षों के बीच होता है। लेकिन यहां एक छोटा किसान, एक बड़ी कॉरपोरेट कंपनी के साथ समझौता कर रहा होगा। हालांकि शर्तें और नियमों पर आपस में सहमति बनेगी। लेकिन फिर भी यह कॉरपोरेट के हितों वाली नीतियां होंगी। किसानों को यह तय करना होगा कि समझौते के मुताबिक, अच्छी गुणवत्ता का उत्पादन वे कॉरपोरेट को अच्छे दामों पर बेच पाएं। यह कैसे संभव होगा? कोई कैसे फ़सल की गुणवत्ता को निश्चित कर सकता है जबकि यहां फ़सलें मौसम पर निर्भर करती हैं। दूसरी बात, कॉरपोरेट के पास समझौता तोड़ने के सभी अधिकार होंगे। लेकिन किसानों के पास नहीं। क्या यह असमानता नहीं है।"

पिछले साल पेप्सिको ने गुजरात के किसानों पर पेप्सिको द्वारा दर्ज आलू की किस्म को गैरक़ानूनी तरीके से उगाने और बेचने का आरोप लगाते हुए मुकदमा दर्ज करवा दिया था। जब राज्य सरकार ने हस्तक्षेप किया, तब कंपनी ने मुकदमा वापस लिया।

देश के कई हिस्सों में कांट्रेक्ट फॉर्मिंग जारी रही है, लेकिन इसमें बहुत ज़्यादा सफलता हाथ नहीं लगी है। उदाहरण के लिए स्नैक्स कंपनियां अकसर किसानों के साथ आलू के पापड़ और कुरकुरे आलू के लिए समझौता करती रही हैं। 

फिलहाल उन राज्यों में जहां कांट्रेक्ट फॉर्मिंग की इजाजत है, वहां खरीददारों को खुद को APMCs (एग्रीकल्चर मार्केट प्रोड्यूस कमेटी) में पंजीकृत करवाना होता है। दो पक्षों के बीच विवाद की स्थिति में APMCs विवाद का निपटारा करने के लिए आगे आती हैं। खरीददार को APMCs को बाज़ार शुल्क और कर देना होता है।

लेकिन नए क़ानून में इन कमेटियों को बॉयपॉस कर दिया है और कृषि उत्पाद व्यापारिक कंपनियों को सीधे किसानों से व्यवहार करने की छूट दे दी है। वह कहते हैं, "APMCs को बॉयपास कर सरकार ने बड़े औद्योगिक घरानों को खुली छूट दे दी है।"

वह बताते हैं, "शुरुआत में निजी खिलाड़ी MSP से ज़्यादा पैसे का प्रस्ताव रखेंगे। जियो सिम कॉर्ड के मामले में भी यही हुआ। इससे किसान APMCs को अपने उत्पाद बेचने के लिए हतोत्साहित होंगे, जो धीरे-धीरे अप्रभावी हो जाएंगी। एक बार ऐसा होने के बाद निजी क्षेत्र के खिलाड़ी किसानों का शोषण शुरू कर देंगे, तब उनके पास अपना उत्पाद निजी कंपनियों द्वारा तय किए गए मूल्य पर बेचने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।"

किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में किसानों के पास कोई क़ानूनी सहारा नहीं होगा, क्योंकि वे निजी कंपनियों को कोर्ट में नहीं ले जा सकती हैं, क्योंकि क़ानून के पास कंपनियों के खिलाफ़ कोई क़ानूनी प्रवाधान नहीं होंगे। वह कहते हैं, "वह मामले को सिर्फ सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट (SDM) के पास, उसके बाद डीएम के पास ले जाया जा सकता है। दोनों ही अधिकारी सरकारी हैं, जो हमेशा कॉरपोरेट की सुनेंगे।"

जसमिंदर कहते हैं कि दूसरा विधेयक- फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिटेशन) एक्ट, 2020 वह क़ानूनी ढांचा बनाता है, जिससे मौजूदा APMC को बॉयपास कर एक "समानांतर बाज़ार" स्थापित किया जा सके। जसमिंदर के मुताबिक़, "आप उतने बाज़ार बना दीजिए, जितना बना सकते हैं। हमें कोई समस्या नहीं है। हमारी मांग बिलकुल सीधी है: MSP को क़ानून के दायरे में ले आइए, ताकि कृषि उत्पादों की खरीद सरकार के मूल्य पर हो सके। तो जो भी इसका उल्लंघन करेगा, उसे क़ानून के ज़रिए सजा दी जा सके।"

तीसरा क़ानून इशेंसियल कमोडिटीज़ एक्ट, 2020 है, जो द इशेंसियल कमोडिटीज़ एक्ट, 1955 के सेक्शन 3 के सब-सेक्शन (1A) में किया गया एक संशोधन है।

सरकार का दावा है कि संशोधन से आलू, खाद्य तेल, दाल, तेल के बीज जैसे कृषि उत्पादों का "नियंत्रण" करने वाला तंत्र बनाया जा सकेगा। यह क़ानून बेहद विशेष परिस्थितियों में आपूर्ति को नियंत्रित करने का प्रावधान करता है, इन परिस्थितियों में कीमतों का बहुत ज़्यादा बढ़ जाना, प्राकृतिक आपदा, अकाल और युद्ध शामिल हैं। बड़े स्तर की जरूरी वस्तुएं, जैसे अनाज, दाल, तेल के बीज, खाने वाला तेल, प्याज और आलू को जरूरी वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है।

दिलचस्प है कि सरकार ने कृषि उत्पादों के ज़मा पर लागू अधिकतम सीमा को भी हटा दिया है। जसमिंदर कहते हैं, "ऐसा कर सरकार ने खरीददारों की जमाखोरी के रास्ते में आने वाली सारी बाधाएं दूर कर दी हैं। अब बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां हर कटाई के मौसम के बाद बड़ी मात्रा में कृषि उत्पाद खरीद कर उनकी जमाखोरी करेंगी। इसके बाद वे उत्पाद की कृत्रिम मांग पैदा करेंगी, जिससे उनका भंडार ऊंची कीमत पर बेचा जा सके। इससे कालाबाजारी बढ़ेगी। हमसे कम कीमत कृषि उत्पादों का ऊपार्जन किया जाएगा और उसे बाज़ारों में बहुत ऊंची कीमतों पर बेचा जाएगा। यह क़ानून में बेहद साफ है।"

लेकिन ज़मा सीमा पर कोई भी कार्रवाई कीमतों में उछाल पर आधारित होगी। जरूरी वस्तुओं की संशोधित क़ानून में व्याख्या नहीं की गई है। क़ानून कहता है कि "जरूरी वस्तुएं" मतलब वह वस्तुएं जिन्हें इस क़ानून की "सूची" में दिया गया है और केंद्र सरकार किसी भी वस्तु को इस सूची में जोड़ या घटा सकती है।

इसका मतलब हुआ कि अगर सरकार जनहित में ऐसा किए जाने की जरूरत से इत्तेफाक रखती है, तो केंद्र राज्य सरकारों से सुझाव लेकर उन्हें जरूरी वस्तुएं घोषित कर सकती है। इस "सूची" में फिलहाल 9 वस्तुएं- दवाईयां, कीटनाशक (चाहे जैविक, अजैविक या मिश्रित हों), खाद्य सामग्री, जिसमें खाद्य तेल शामिल है, पूरी तरह कपास से बना धागा, पेट्रोलियम और पेट्रो उत्पाद, कच्चा जूट और जूट के कपड़े, खाद्यान्न फ़सलों के बीज और फलो-सब्जियों के बीच, पशुओं के चारे बीज, जूट के बीज, कपास के बीज, चेहरे के मास्क और हैंड सेनेटाइज़र शामिल हैं।

सबसे हाल में इस सूची में चेहरे के मास्क और हैंड सेनेटाइजर जोड़े गए हैं, जिन्हें 13 मार्च, 2020 से कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में जरूरी वस्तु घोषित कर दिया गया था। 

क्या क़ानूनी विकल्पों को छीन लेने से किसानों को मदद मिलेगी?

चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री डिपार्टमेंट में शोधार्थी प्रिया पूछती हैं, "क्या सभी क़ानूनी विकल्पों को दूर कर देना किसानों के हित में है?" वह क़ानून का एक प्रावधान पढ़ती हैं, "केंद्र सरकार या राज्य सरकार या केंद्र सरकार के किसी भी अधिकारी या राज्य सरकार के किसी भी अधिकारी या किसी दूसरे व्यक्ति (इसे कॉरपोरेट पढ़ें) के खिलाफ़, अच्छे विश्वास तहत या इस क़ानून के तहत अच्छी मंशा से किए गए किसी भी काम के लिए कोई भी मुकदमा, कोई भी सजा या कोई भी क़ानूनी प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती और किसी भी नागरिक कोर्ट को इस क़ानून से जुड़े मामले के संबंध में कोई भी मुकदमा या सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं है।"

वह फिर से पूछती हैं कि "क्या एक लोकतांत्रिक देश में इस तरीके के उपबंध को बर्दाश्त किया जा सकता है।"

सरकार के इस तर्क पर कि अब किसानों के पास अपनी फ़सलों को, अपने मूल्यों पर कहीं भी बेचने का अधिकार होगा, वे कहती हैं, "APMC को हटकार, बिहार सरकार ने 2006 में कथित बिचौलियों का एकाधिकार खत्म किया था। क्या वहां किसान अमीर हो गए? क्या आपने कभी सुना है कि कोई बिहार में ज़मीन खरीदना चाहता है या वहां किसानी करने के लिए जाना चाहता है? अगर खुले बाज़ार से किसानों को फायदा होता, तो बिहार के लोगों को पंजाब नहीं आना पड़ता, बल्कि इसका उल्टा होता।"

सरकार दावा करती है कि क़ानून से हमें "आजादी" मिलेगी और इन "सुधारों" को मंडियों (APMC) को खत्म कर लाया जाएगा। लेकिन वैश्विक घटनाएं इसकी गवाही नहीं देतीं। अमेरिका में खुले बाज़ार के चलते कृषि में शोषण है। अगर यह विधेयक जारी रहते हैं तो हमारी मंडियों का भी वही अंजाम होगा।"

जब हमने बिचौलियों की बात की, तो वे कहती हैं, "आढ़तियों को बाज़ार से हटाने से जवाबदेही खत्म हो जाएगी, क्योंकि तब सिर्फ किसान और बड़े कॉरपोरेट ही बचेंगे। इससे छोटे किसान हट जाएँगे और निजी खिलाड़ी अपना शासन चलाएँगे।" प्रिया का दावा है कि किसान सरकार और उसके प्रवक्ताओं से बेहतर ढंग से तीनों कृषि क़ानूनों को समझते हैं। इसलिए सरकार उन्हें मूर्ख बनाना बंद करे।

कोई बिचौलिया नहीं, सिर्फ परिवार

पंजाब के फिरोजपुर में रहने वाले गुरकीरत सिंह संघा कनाडा के लेखक और किसान ब्रेंडा स्कोएप को उद्धरित करते हुए कहते हैं, "मेरे दादा कहा करते थे कि तुम्हें अपने जीवन में एक बार डॉक्टर की जरूरत पड़े़गी, एक बार वकील की, एक बार पुलिसवाले की, एक बार धार्मिक उपदेशक की, लेकिन दिन में तीन बार तुम्हें एक किसान की जरूरत पड़ेगी।"

वह कहते हैं कि वह आज जो भी कर पाए, वह उनके पिता की 14 एकड़ ज़मीन की बदौलत कर पाए। जब गुरकीरत से हमने पूछा कि क्या उन्हें भ्रमित किया जा रहा है, तो उन्होंने पलटवार करते हुए कहा, "हम जागरुक और शिक्षित हैं। हमें मूर्ख नहीं बनाया जा सकता, ना ही भ्रमित किया जा सकता है। हम इन तीनों विधेयकों के पीछे सरकार की मंशा जानते हैं और पहचानते हैं कि किन्हें इनसे फायदा होने वाला है।"

गुरकीरत आगे कहते हैं, "सरकार कहती है कि आढ़तिए बड़ा कमीशन लेकर, गलत तौल कर, खराब गुणवत्ता विश्लेषण कर किसानों का शोषण करते हैं। लेकिन हमारे लिए वो हमारी रीढ़ की हड्डी हैं। वे हमारे परिवार के सदस्य जैसे हैं। किसान हर चीज के लिए उनपर निर्भर हैं। वे हमें किसानी, शादी, पारिवारिक संस्कार या परिवार में किसी की मृत्यु के वक़्त कर्ज़ देते हैं। वे हमें उधार पर पैसे देते हैं और हमारा माल भी वापस खरीद लेते हैं। पंजाब में एक कहावत है, अगर किसी किसान की मांग मर जाती है, तो यह किसान की मां नहीं, बल्कि एक आढ़तिए की मां की मौत होती है। अंतिम संस्कारों में होने वाला पूरा खर्च आढ़तिए करते हैं और खरीद के वक़्त वे इसका हिसाब करते हैं।"

पंजाब में राजपुरा के रहने वाले वकील दलजीत सिंह खानपुर आढ़तियों की भूमिका को विस्तार से बताते हैं।

वह कहते हैं, "किसानों को बीज, फसल बुवाई, कीटनाशक, उर्वरक, सिंचाई और कटाई के लिए तुरंत पैसे की जरूरत होती है। एक फसल काटने के तुरंत बाद, दूसरी फ़सल का मौसम चालू हो जाता है, जिसमें उन्हें फिर पैसे की जरूरत होती है। जब वह उत्पाद बेचता है, तो उसे तुरंत पैसे नहीं मिलते। उसके बैंक खाते में पैसे आने में दो से तीन महीने लग जाते हैं। लेकिन उसे अपनी अगली फ़सल के लिए पैसे की जरूरत होती है। उस वक़्त वह पैसे मांगने के लिए आढ़तिए के पास जाता है। जब APMC से पैसे मिल जाते हैं, तो किसान आढ़तियों के पैसे वापस कर देता है। यह एक चेन है, जो चलती रहती है। इस तरह पूरा तंत्र काम करता है।"

जब हमने पूछा कि उन्हें नहीं लगता कि सरकार आढ़तियों पर इस निर्भरता को खत्म करना चाहती है। तो उन्होंने कहा, "बैंकिंग की प्रक्रिया में वक़्त लगता है। उसमें जटिल कागज़ी काम होता है। किसानों को कर्ज के लिए अपनी कोई चीज गिरवी भी रखनी पड़ती है, तभी कर्ज को अनुमति मिलती है। लेकिन किसानों को तुरंत पैसे की जरूरत होती है। उन्हें आढ़तियों के यहां कुछ भी गिरवी रखने की जरूरत नहीं होती और भुगतान भी आपसी समझ से हो जाता है। चूंकि आढ़तिया उसी समाज से आता है, तो वह भी किसान की स्थिति समझता है और भुगतान में देरी होने पर कोई अतिरिक्त पैसा नहीं लेता। जब किसान अपने कृषि उत्पाद के साथ मंडी पहुंच जाता है, तो यह आढ़तिये की ज़िम्मेदारी होती है कि वह उसका वज़न, पैकिंग करवाकर उत्पाद को MSP पर बेचे। बदले में अगर वे कुछ सेवा शुल्क लेते हैं, तो इसमें दिक्कत क्या है? यहां तक कि बैंक भी कर्ज देने के क्रम में कागजी कार्रवाई करने के दौरान पैसे लेते हैं।"

जब सरकार भी छूट देने के लिए राजी नहीं दिखती और किसान भी हार मानने को तैयार नहीं हैं। हमने उनसे इस पृष्ठभूमि में उनके प्रदर्शन का भविष्य पूछा तो उन्होंने कहा कि किसान दो लड़ाईयां जीत चुके हैं।

उन्होंने कहा, "पहला, जब सरकार ने हमें बातचीत के लिए बुलाया और दूसरा, जब सरकार ने अपना प्रस्ताव भेजा, जिसमें कुछ संशोधनों की बात थी। ध्यान रखिए कि यही सरकार शुरू में हमारे प्रदर्शन को देशविरोधी और दुनिया भर के लांछन लगाकर साख खराब करने की कोशिश कर रही थी। संशोधन का प्रस्ताव भेजकर सरकार ने यह माना है कि क़ानूनों में कुछ गड़बड़ है। और जब आप खुद यह मान रहे हो कि क़ानूनों में गड़बड़ है, तो आप हमसे यह उम्मीद क्यों करते हो कि हम कई गड़बड़झालों वाले क़ानून को मान लेंगे। इसे खत्म करिए और किसानों से सुझाव लेकर एक मसौदा तैयार कीजिए, फिर इसे संसद के दोनों सदनों से पारित करवाइए। अगर यह किसानों के हित में होगा, तो आपको हमसे किसी तरह का विरोध नहीं झेलना पड़ेगा।"

किसानों ने तेज़ किया आंदोलन

किसान संगठन और सरकार के बीच बातचीत रद्द होने के बाद किसानों ने अपना आंदोलन तेज कर दिया है। सोमवार को किसान यूनियनों द्वारा की गई राष्ट्रव्यापी अपील के बाद, पंजाब और हरियाणा में किसानों ने जिला कमिश्नरों के कार्यालयों का घेराव किया और विरोध में जुलूस निकाले। पंजाब और हरियाणा के कम से कम 9 जिलों में प्रदर्शन हुए।

राजस्थान से सैकड़ों किसान हरियाणा-राजस्थान सीमा पर रेवाड़ी के पास इकट्ठा हो गए। जब इन लोगों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए पुलिस ने बैरिकेड लगाए, तो यह लोग दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के एक किनारे पर प्रदर्शन के लिए बैठ गए। रेवाड़ी के जयसिंहनगर खेड़ा इलाके में भी किसान राजस्थान-हरियाणा सीमा के किनारे प्रदर्शन करते हुए बैठे हैं।

32 किसान संगठनों के नेताओं ने 14 दिसंबर को सुबह 8 बजे से भूख हड़ताल की योजना बनाई थी, ताकि उनके प्रदर्शन को तेज किया जा सके।

जब किसान अपना प्रदर्शन तेज कर रहे हैं, तो सोमवार को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि सरकार किसान नेताओं के साथ बातचीत की अगली तारीख़ निश्चित करने पर बात कर रही है। तोमर ने पीटीआई से कहा, "निश्चित तौर पर बैठक होगी, हम किसानों के साथ बात कर रहे हैं।"

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

Farmers’ Protest: ‘Misled’? Agitators Say They Understand Laws Better than Govt

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