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नारीवादी वकालत: स्वतंत्रता आंदोलन का दूसरा पहलू

हो सकता है कि भारत में वकालत का पेशा एक ऐसी पितृसत्तात्मक संस्कृति में डूबा हुआ हो, जिसमें महिलाओं को बाहर रखा जाता है, लेकिन संवैधानिक अदालतें एक ऐसी जगह होने की गुंज़ाइश बनाती हैं, जहां क़ानून को महिलाओं के लिए सामाजिक बदलाव के एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
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नारीवाद एक राजनीतिक नज़रिया है। शायद इस नज़रिये के साथ जीने या अनुसरण करने के लिहाज़ से सबसे मुश्किल वैचिराकता में से एक है। लेकिन, तब भी भारत का संविधान क़ानूनी होने के साथ-साथ मुख्य रूप से एक राजनीतिक दस्तावेज़ भी है। अदालतें एक ऐसी जगह होने की गुंज़ाइश देती हैं, जहां महिलाओं के लिए सामाजिक बदलाव के साधन के रूप में क़ानून का इस्तेमाल किया जा सकता है। संविधान महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और कई अन्य निम्न स्थिति वाले तबक़ों की ओर से बराबरी की मांग का सीधा-सीधा जवाब रहा है।

बंबई हाई कोर्ट और भारत के सुप्रीम कोर्ट में पिछले पचास सालों के मुकदमे के तजुर्बे के दौरान भारतीय संविधान की मुक्ति देने वाली इस प्रकृति में मेरा यक़ीन रहा है। 1986 में मैरी रॉय से लेकर 2017-2020 में सबरीमाला तक के मुकदमे में मैंने क़ानून को इस देश की महिलाओं के लिए बराबरी और आज़ादी को आगे बढ़ाने की क्षमता वाले 'सामाजिक बदलाव के एक साधन' के रूप में देखा है।

बतौर एक नारीवादी वकील मेरी प्रेरणा की जड़ें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और हमारे संविधान में उल्लेखित बराबरी के प्रावधानों में हैं।

मेरे लिए,यह नारीवादी संवैधानिक यात्रा धार्मिकता को धर्मनिरपेक्षता या नागरिकता से अलग करने की प्रक्रिया रही है।

ब्रिटिश शासन से आज़ादी पाने के संघर्ष के अलावा एक और संघर्ष सदियों से चला आ रहा था, जो आज भी जारी है। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट के अपने सबरीमाला फ़ैसले में इसे "आज़ादी का दूसरा पक्ष" कहा था। वह संघर्ष नारी को दमन से सामाजिक मुक्ति का रहा है। यह एक ग़ैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था को न्यायसंगत व्यवस्था में बदलने का संघर्ष रहा है। यह ऐतिहासिक अन्यायों को दूर करने और बुनियादी नाइंसाफ़ियो की जगह मौलिक अधिकारों को स्थापित करने की लड़ाई रही है। भारत का संविधान इन्हीं दोनों संघर्षों का आख़िरी उत्पाद है। स्वाधीनता की संतान होने के कारण यही मेरी विरासत थी।

शुरुआती भारतीय नारीवादी

"अनैतिक" क़ानूनों को ख़त्म किये जाने के बहुत सारे शुरुआती संघर्ष ब्रिटिश काल के दौरान ही शुरू हो  गये थे। सती प्रथा का उन्मूलन और शादी की उम्र से जुड़े क़ानून भारत के बनने से पहले के हैं। समाज सुधारक राजा राम मोहन राय (जिन्होंने सती, बहुविवाह और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ मुहिम चलायी), शिक्षक ईश्वर चंद्र विद्यासागर (जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया) और समाज सुधारक डीडी कर्वे (जिन्होंने विधवाओं के प्रति क़ायम पूर्वाग्रह को मिटाने की दिशा में काम किया) जैसे मध्यम वर्गीय पुरुषों ने एक नारीवादी रुख़ अख़्तियार किया था। विद्वान और न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे ने 1861 में विडो मैरिज एसोसिएशन की स्थापना की थी, जबकि बेहरामजी एम. मालाबारी ने बाल विवाह के ख़िलाफ़ एक अभियान चलाया और विधायिका से इस पर रोक लगाने की मांग की थी।

इस दौरान भारतीय महिलायें भी अपने हिस्से की हैसियत के लिए संघर्ष करते हुए इस पृष्ठभूमि में यथास्थिति को चुनौती देती रहीं। नारीवादी आदर्श बनने वाली ऐसी ही कुछ महिलाओं में शामिल हैं-विदेश में पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला-डॉ आनंदीबाई जोशी, भारत के मताधिकार आंदोलन की अगुवाई करने वाली और महिला शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली कवियित्री कामिनी रॉय, भारत में चिकित्सा की प्रैक्टिस करने वाली पहली भारतीय महिला और भारत की पहली दो महिला स्नातकों में से एक, डॉ मुथुलक्ष्मी रेड्डी,जिन्होंने चिकित्सक बनने के लिए पुरुषों के कॉलेज में पढ़ाई की और देवदासी प्रणाली को ख़त्म करने की दिशा में काम किया, समाज सुधारक पंडिता रमाबाई,जिन्होंने विधवाओं का समर्थन करने के लिए एक केंद्र शुरू किया था और शिक्षा की किंडरगार्टन पद्धति का अध्ययन किया, रुखमाबाई,जिन्होंने भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक बनने के लिए अपने बाल विवाह से इन्कार कर दिया था और पहली महिला भारतीय वकील होने के साथ-साथ बॉम्बे विश्वविद्यालय से पहली महिला स्नातक और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी थीं।

इस समझ को हासिल कर पाने में हम नाकाम रहे हैं कि धर्म एक अधिकार नहीं, बल्कि एक आज़ादी है, यानी अंतरात्मा की आज़ादी। हम सभी जिस किसी भी चीज़ में श्रद्धा या आस्था रखना चाहते हैं,उसका अनुसरण का अधिकार तो हमें है,लेकिन हमारे पास भेदभावपूर्ण तरीक़े से कार्य करने का लाइसेंस बिल्कुल नहीं है।

यही 'स्वतंत्रता आंदोलन का दूसरा पक्ष' है, जहां मैं अपनी नारीवादी वकालत की जड़ों को पाती हूं। इन बहुआयामी सामाजिक आंदोलनों के साथ-साथ समानता के प्रावधानों को समझते हुए महिलाओं के लिए संवैधानिक समानता की एक मज़बूत नींव विकसित की जा सकती है। इस लिहाज़ से भारत अनूठा है; हमारे संविधान से पहले दुनिया में किसी भी दूसरे संविधान ने संवैधानिक साधनों के ज़रिये इतने बड़े पैमाने पर सामाजिक बदलाव का प्रयास नहीं किया है। यह हमारे औपनिवेशिक काल के बाद के संविधान की एक अनूठी ख़ासियत है।

हालांकि, संविधान सभा में महिलाओं की असरदार भागीदारी की कमी को लेकर सवाल ज़रूर उठाये गये हैं, लेकिन भारतीय संविधान की नारीवादी संभावना से किसी को भी नकार नहीं हो सकता। यह सच है कि संविधान सभा में सिर्फ़ 15 महिला सदस्य ही थीं (जिनमें से महज़ एक दलित महिला थीं)। अगर महिलायें ज़्यादा होतीं, तो हम संविधान निर्माण, क़ानून और उनमें महिलाओं की भूमिका के लिहाज़ से एक अलग नज़रिया देखने को मिल सकता था। हालांकि, ज़्यादा से ज़्याद महिलाओं की भागीदारी का मतलब यह भी नहीं है कि इससे अपने आप बराबरी का सफ़र तय हो जाता है। जैसा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध करने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या और अपने पति  और परिवार के दूसरे पुरुष सदस्यों के मुक़ाबले ख़ुद की गौण भूमिकाओं की स्वैच्छिक स्वीकृति से स्पष्ट है कि महिलाओं ने भी पितृसत्ता को अपनी आंतरिक चेतना का हिस्सा बना लिया है।

किस तरह मेरे नारीवाद ने मेरी वकालत को प्रेरित किया

मैं अदालतों की बदलाव लाने वाली भूमिका में यक़ीन करती हूं, यही वजह है कि मैंने ऐसे मामलों को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया, जिनसे अहम सामाजिक सुधार के सवाल उठते हैं, जैसे कि फेरीवालों के अधिकार, संपत्ति की विरासत में महिलाओं का अधिकार, बच्चे की देख-रेख के मामलों में प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मां का अधिकार, तीन तालक़ की असंवैधानिकता, भोपाल गैस आपदा के पीड़ितों और बचे हुए लोगों के लिए मुआवज़ा, फुटपाथ पर रहने वालों और सेल्फ़-इंप्ल्यॉड वीमेंस असोसिएशन,यानी स्व-रोज़गार महिला संघ (SEWA) की महिला सब्ज़ी विक्रेताओं के अधिकार आदि।

हमने सबरीमाला मामले में संवैधानिक व्याख्या को लेकर एक नया नज़रिया अपनाया और दलील दी कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से अलग रखना संविधान के अनुच्छेद 17 का उल्लंघन है, क्योंकि जिन महिलाओं को महावारी हुई हो,उनके लिए मंदिरों में प्रवेश से इनकार करना दूषित और अशुद्धता के विचारों के आधार पर बरते जाने वाली "अस्पृश्यता" का एक स्पष्ट रूप है। बहुत सारे धार्मिक ग्रंथों में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के "अनुष्ठानात्मक रूप से अपवित्र" होने की अवैज्ञानिक और तर्कहीन धारणायें हैं, और इनमें महिलाओं के साथ दलितों और अछूतों की तरह व्यवहार किये जाने की बातें कही गयी हैं। मैंने इसे लेकर दलील दी थी कि "किसी भी रूप में" अभिव्यक्ति के इस इस्तेमाल में सामाजिक कारकों पर आधारित अस्पृश्यता शामिल है और यह अस्पृश्यता महावारी के ज़रिये महिलाओं के साथ बरते जाने वाले भेदभाव में व्यापक रूप से मौजूद है।

बतौर महिला इस 'जुड़ाव' ने मेरी नारीवादी वकालत को बढ़ावा दिया है। मैं नेपाल में महावारी को लेकर बरते जाने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ नारीवादी आंदोलनों से भी प्रेरित थी। उस समय संशयवादियों को लगा था कि मैं दलितों के संघर्षों का इस्तेमाल कर रही हूं; हालांकि, दलितों और महिलाओं दोनों को "दूषित" माना जाता रहा है,और मनु इन्हें एक समान बर्ताव के पात्र मानते थे। चलिए,कम से कम एक न्यायाधीश ने तो इस दलील को स्वीकार कर लिया और इस बात पर सहमति जता दी कि यह प्रथा अस्पृश्यता का ही एक रूप है। यह अदालतों की महिलाओं के अधिकारों को एजेंडे में बदल देने और इसे मुक्ति से जोड़ देने की शक्ति की एक ऐसी मिसाल है, जिसने मेरे पेशे और मेरे जीवन में आगे बढ़ने में मार्गदर्शन किया है।

नेटवर्किंग और ख़ेमेबाज़ी न्यायिक नियुक्तियों में एक अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन महिलाओं को इरादतन या जानबूझकर सभी पुरुष नेटवर्क से बाहर रखा जाता है।

मेरे लिए यह नारीवादी संवैधानिक यात्रा धार्मिकता को धर्मनिरपेक्षता या नागरिकता से अलग करने की एक प्रक्रिया रही है। अपने तमाम 'निजी क़ानूनों वाली मान्यताओं' से लदे हुए एक धर्म में पैदा होने के चलते जहां एक सवाल यह था कि जीवन के उस धार्मिक पहलू से बाहर कैसे निकला जाये,वहीं दूसरा सवाल यह भी था कि धर्म के अधिकार का सम्मान कैसे क़ायम रखा जाये।

इस रणनीति का भी एक इतिहास है

विभिन्न सामाजिक आंदोलनों (मसलन, राम मोहन राय, जाति-विरोधी कार्यकर्ता ज्योतिबा फुले, और कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ पेरियार और बाक़ि आंदोलनकारी) ने धर्म से जुड़ी पीछे की ओर ले जाने वाली सामाजिक प्रथाओं के ख़त्म किये जाने की दिशा में काम किया था। उन्होंने सती और बाल विवाह को समाप्त करने के लिए विभिन्न तर्कों का इस्तेमाल किया था। ऐसा करने के पीछे यह तर्क दिया गया कि ये प्रथायें नैतिकता और न्याय के सार्वभौमिक मानकों के विरोध में थीं,तो कभी यह शिकायत की गयी थी कि ये ब्रिटिश साम्राज्य के मूल्य थे, और कभी-कभी तो यह दलील भी दी गयी कि इसे इस आधार पर ख़त्म किये जाने चाहिए थे,क्योंकि ये "अनिवार्य रूप से धार्मिक" नहीं थे। कभी-कभी तो समुदाय की ओर से ही इसकी मांग की जाती थी, ऐसे में ब्रिटिश हुक़ूमतों को इस तरह की अप्रिय प्रथाओं को समाप्त करने में कोई समस्या नहीं दिखायी पड़ती थी। असल में मामला हमेशा से स्थानीय समुदाय के धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप किये बिना उनके विश्वास को बनाये रखने का था। लेकिन, वह रणनीति, जो औपनिवेशिक सत्ता के अनुकूल हो, ज़रूरी नहीं कि वह स्वतंत्र भारत के भी अनुकूल हो।

धर्म में समानता से वंचित रखी जाती रही हैं महिलायें

यही वजह थी कि डॉ बीआर अंबेडकर इस बात पर अड़े गये थे कि धार्मिक गतिविधियों और धार्मिक अनुष्ठानों में लिपटे धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों के बीच एक अलगाव होना चाहिए। धार्मिक अनुष्ठानों में लिपटे धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत कोई संवैधानिक छूट नहीं मिल सकती थी। इसलिए, लोगों को उनकी पसंद के धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी देते हुए हमारा संविधान यह स्पष्ट कर देता है कि इन अनुच्छेदों में कुछ भी राज्य को सामाजिक सुधार या कल्याण के लिए कोई क़ानून बनाने से नहीं रोक पायेगा, भले ही वह मामला "धर्म से ही क्यों न जुड़ा हुआ हो"। यहां सामाजिक सुधार का मतलब ही यही था कि सुधार की गयी प्रथा "अनिवार्य रूप से धार्मिक" नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष थी। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण विभिन्न निजी क़ानूनों से निर्धारित विरासत का अधिकार हो सकता है, क्योंकि ये क़ानून संपत्ति के अधिकार के साथ पूरी तरह से निपट लेते हैं।

लेकिन,फिर भी समानता को लेकर महिलाओं के किसी भी तरह के दावे के ख़िलाफ़ धर्म के अधिकार को तुरुप के पत्ता के रूप में देखा जाता है। मैंने सवाल किया था कि एक संवैधानिक अदालत इस तरह के भेदभावपूर्ण क़ानूनों को क्यों बनाये रखना चाहेगी, मगर कोई जवाब नहीं मिला। अदालत को आख़िरकार राजनेताओं के उलट वोटों की तलाश तो होती नहीं।

इस प्रासंगिक मामले के दो हालिया उदाहरण तीन तालक़ और सबरीमाला समीक्षा मामले हैं। दोनों में सुप्रीम कोर्ट को धर्म क्या है और क्या नहीं, इसकी अनिवार्य बहस में पड़ने के बजाय समानता का न्यायशास्त्र के गढ़ने का एक ऐतिहासिक मौक़ा मिला था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट अपने फ़ैसले में संविधान, धर्मनिरपेक्षता और समानता की बुनियादी विशेषताओं को कमतर करते हुए धर्म को शासन से अलग कर पाने में नाकाम रही।

यह समझ पाने में भी नाकामी मिली कि धर्म कोई अधिकार नहीं, बल्कि एक आज़ादी है, यानी अंत:करण की स्वतंत्रता है। हम सभी को इस बात में आस्था रखने का अधिकार है कि हमें क्या करना चाहिए;लेकिन हमारे पास भेदभावपूर्ण तरीक़े से कार्य करने का लाइसेंस नहीं है। विवाह नामक संस्था के आधुनिकीकरण की मांग करने वाले मौक़े को हमने गंवा दिया है।

महिलाओं के लिए समानता के मामले पर अदालतों के सामने एक अधूरा एजेंडा है। आज किसी भी नारीवादी वकील के सामने संविधान के ज़रिये बराबरी के हक़ को आगे बढ़ाने की सबसे बड़ी चुनौती पर्सनल लॉ की चुनौती है। पितृसत्ता ने धर्म के अधिकार के नाम पर संवैधानिक आधार पर मिलने वाली चुनौती से प्रतिरक्षित "पर्सनल लॉ " में अपना आश्रय ढूंढ़ लिया है। इस संघर्ष की शुरुआत उस नरसु अप्पा माली मामले से हुई थी, जिसके भूत का डर आज भी भारत के सुप्रीम  कोर्ट को सता रहा है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में माना था कि 'पर्सनल लॉ' भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 के अर्थ के भीतर आने वाला क़ानून नहीं हैं, और इस तरह, ये न्यायिक जांच के दायरे से परे हैं।

सुप्रीम कोर्ट को कई सालों से स्पष्ट रूप से भेदभाव वाले इन पर्सनल लॉ को रद्द करने के कई मौक़े मिलते रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट उन्हें रद्द कर पाने में विफल रही है। अदालत ने सही मायने में बराबरी के इस मुद्दे को तय करने और भेदभाव की दीवार को गिराने से बचने के रास्ते को चुना है। भारतीय कानूनों की संहिताबद्ध पितृसत्ता को ख़त्म किये बिना ‘क़ानून की व्याख्या’ का आसान रास्ता अख़्तियार किया गया और याचिकाकर्ता को तत्काल राहत प्रदान कर दी गयी।

वकालत के पेशे में लैंगिक समानता की दरकार

मैंने जिन कानूनी मामले की लड़ाई लड़ी है,वे समानता को लेकर नारीवादी मांग को जहां क़ानूनी व्यवहार का जामा पहनाने के लिहाज़ से एक अहम मोर्चे थे, वहीं एक नारीवादी वकील के रूप में मेरी यह लड़ाई अदालती मामलों से परे थी। अदालत के भीतर दाखिल होने वाले गलियारे, अदालती संस्कृति, वकालत और खंडपीठ,सबके सब समानता को पाने के संघर्ष स्थल रहे हैं।

क़ानून का पेशा बेहद पुरुष प्रधान रहा है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी से गुज़रते हुए मैंने वकीलों के परिवारों की तीन पीढ़ियों को देखा है।इन तीन पीढ़ियों में पिता से लेकर पुत्र और फिर पोते तक को देखा है,लेकिन इन पीढ़ियों में कभी मां से लेकर बेटी (या पिता से लेकर बेटी) और फिर पोती या नतिनी तक को वकील के रूप में नहीं देखा है। महिलायें इस पेशे में दाखिल होने और वकालत और खंडपीठ. दोनों में अपनी जगह बना पाने की मुश्किलों से घिरी पाती हैं। न्यायपालिका में महिलाओं की नुमाइंदगी बेहद कम है। मेरी इस बात को लेकर कोई तक़रार नहीं है कि एक महिला होने के नाते आपका नज़रिया नारीवादी ही हो, फिर भी मुझे लगता है कि नुमाइंदगी अपने आप में किसी भी लोकतांत्रिक समाज द्वारा पाये जाने जाने वाला एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। यह वास्तविक समानता का एक मामला ज़रूर है।

महिला जजों की सीमित संख्या की अहम वजह ढकी-छुपी कॉलेजियम प्रक्रिया है। इस प्रणाली में पारदर्शिता की कमी है और यह पूरी तरह से त्रुटिपूर्ण है। नेटवर्किंग और ख़ेमेबाज़ी नियुक्ति में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन महिलाओं को इरादतन या जानबूझकर सभी पुरुष नेटवर्क से बाहर रखा जाता है। जब तक चयन के उद्देश्य और पारदर्शी मानकों को विशेष रूप से तय नहीं कर दिया जाता है, तब तक बड़ी संख्या वाली खंडपीठों तक महिलाओं के नहीं  पहुंच पाने की यह स्थिति जारी रहेगी।

नारीवाद ने मुझे वह नज़र बख़्शी है, जिसके ज़रिये मैं संविधान की व्याख्या करती हूं, और अपनी वकालत और अपने जीवन को लेकर एक नज़रिया रखती हूं।

दूसरी वजह वरिष्ठता का नियम भी है। महिलायें आम तौर पर न्यायपालिका में देर से दाखिल होती हैं और यही वजह है कि वे उन पुरुषों के मुक़ाबले नियुक्ति में पीछे रह जाती हैं,जो वरिष्ठता की कतार में आगे होते हैं। महिलाओं या अन्य संरक्षित समूहों के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं होती है। एक और मुद्दा जो सामने आया है, वह महिला न्यायाधीशों का यौन उत्पीड़न है,जो उन्हें न्यायपालिका से बाहर हो जाने के लिए मजबूर करता है।

इन तमाम बाधाओं के बावजूद अदालतों का यह सफ़र रोमांचक रहा है। मैं ख़ास तौर पर अपने काम से प्यार करती हूं, क्योंकि एक महिला के रूप में मुझे ख़ुद के भीतर यक़ीन है। उछल-कूद करने वाले पुरुष वकीलों की पिछलग्गू बनने या खुद को उनके संरक्षण को हासिल करने की इजाज़त बिल्कुल नहीं देती हूं। पुरुष न्यायाधीशों को महिला वकीलों को संरक्षण देना पसंद है; यह एक चिर-परिचित उस खेल का हिस्सा होता है, जिसके नतीजे महिलाओं के लिए ख़तरनाक़ हो सकते हैं। मैंने उन महिला न्यायाधीशों की नुमाइंदगी की है, जिनका उनके वरिष्ठों ने कभी-कभी कामयाबी के साथ और अक्सर नाकामी के साथ यौन उत्पीड़न किया है। इसके बाद आपको एहसास हो जाता है कि वास्तव में किसी महिला का शब्द किसी पुरुष के शब्द के मुक़ाबले आधा होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि बिना बर्ख़ास्त या पीड़ित हुए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की गवाही कौन देगा ?

नारीवाद ने मुझे वह नज़र बख़्शी है, जिसके ज़रिये मैं संविधान की व्याख्या करती हूं, और मेरी वकालत और मेरे जीवन को लेकर मेरा एक नज़रिया है। इस सफ़र में कामयाबी और कथित नाकामियां भी मिली हैं। फिर भी मैं अपने किसी भी मुकदमे को 'हारा हुआ' नहीं मानती। हर एक मुकदमा ऊंची चढ़ाई वाली टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ी से  गुज़रते हुए अगले पायदान की ओर ले जाता है। हर एक मुकदमा अगले मुकदमे के लिए बुनियाद बनने या बेकार हो जाने वाली एक मिसाल है। बनाये गये क़ानून को रद्दी की टोकरी के हवाले करने का रास्ता भी कामयाबी के साथ खोज लिया गया है। फ़ैसलों में कोई पूर्ण विराम नहीं होता; हर एक फ़ैसला,फ़ैसलों से प्रभावित होने वाले पक्षों के बीच का एक ऐसा संवाद होता है, जो क़ानून के शासन में हमारे योगदान को समृद्ध करता है।

(यह लेख उस लेख पर आधारित है, जिसे लेखिका ने इंडियन बार एसोसिएशन की ओर से प्रकाशित 'फ़ेमिनिस्ट लॉयरिंग' शीर्षक नाम से लिखी गयी एक किताब के लिए लिखा है। व्यक्त विचार निजी हैं।)

साभार: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Feminist Lawyering: the Other Side of the Independence Movement

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