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सामाजिक न्याय और संविधान को बचाने की लड़ाई लड़ना सबसे ज़रूरी है: चौथीराम

"अगर डॉक्टर आंबेडकर ने दलितों पिछड़ों और स्त्रियों के लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले संविधान की रचना नहीं की होती तो आज हम लोग तो कहीं होते ही नहीं..."। प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव से ख़ास बातचीत
Chauthiram Yadav

हिंदी साहित्य जगत में प्रोफेसर चौथीराम यादव एक जाना-माना नाम हैं। वे अपनी सीधी बात यानी साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं। वे मार्क्सवादी विचारक हैं पर अम्बेडकरी विचारधारा के समर्थक हैं। वे मूलतः आलोचक हैं। आलोचना पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

चौथीराम का जन्म 29 जनवरी 1941 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के कायमगंज में हुआ। वे बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत प्रोफेसर हैं। अभी बनारस में रहते हैं। आपकी साहित्यिक सक्रियता अभी भी बरकरार है। आपकी कई पुस्तकें हिंदी साहित्य जगत में चर्चित रही हैं। इनमे ‘उत्तरशती के विमर्श और हाशिये का समाज’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी समग्र पुनरावलोकन और लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा’, ‘लोक और वेद : आमने-सामने’ प्रमुख हैं।

चौथीराम को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमे प्रमुख हैं : साहित्य साधना सम्मान (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना),सावित्री त्रिपाठी सम्मान, अस्मिता सम्मान, कबीर सम्मान, आंबेडकर प्रियदर्शी सम्मान और लोहिया साहित्य सम्मान आदि।

हाल ही में उनसे मुलाक़ात हुई तो कई विषयों पर बात हुई। पेश हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश :

प्रश्न – सर, शुरुआत आप पर लगे एक आरोप से ही करता हूं कि बरेली में आपने अपने एक भाषण में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को अपमानित किया था?

उत्तर – उसे अपमानित करना तो नहीं, हां, आलोचना करना कह सकते हैं। हम कमजोर हैं और वे शक्तिशाली हैं। एक तरह से कह लीजिए कि हम निहत्थे हैं और उनके पास सारे हथियार हैं। ऐसे में हम सीधे-सीधे तो उनसे लड़ नहीं सकते। तब एक नारा चला था कि जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो। ये अकबर इलाहाबादी के एक शेर से लिया गया था कि – खींचो न कमानों को न तलवार निकालो/ जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो। लोगों को जागरूक करने के लिए जरूरी है। गांधी जी अपने समय में दो अखबार निकालते थे। एक अंगरेजी में एक प्रांतीय भाषा में। उनका उद्देश्य था कि हम स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं तो इस लड़ाई के बारे में जानकारी जनता तक पहुंचाना चाहते हैं। इसलिए प्रांतीय भाषा जरूरी है। जनता को जागरूक करें। जनता जाने कि हम क्या लड़ाई लड़ रहे हैं। इस लड़ाई का क्या उद्देश्य है। और दूसरी बात है अंगरेजी में अखबार निकालने की तो हम अंगरेजी हुकूमत को बता देना चाहते हैं कि हम ये लड़ाई क्यों लड़ रहे हैं और कोई छुप कर नहीं लड़ रहे हैं। हम आपसे भयभीत नहीं हैं। निर्भीक होकर गांधीजी अपनी बात अंग्रेजों तक पंहुचाना चाहते थे। साम्राज्यवादी सरकार तक वे ये बात पहुँचाना चाहते थे कि हमारा सत्याग्रह क्या है। हमारा अवज्ञा आंदोलन क्या है। अगर हमें आप आज़ाद नहीं करेंगे तो हम सत्याग्रह करेंगे। हम अवज्ञा आंदोलन करेंगे। इस तरह गांधी जी ने एक पद्धति चलाई थी अहिंसक आन्दोलन की। हम विरोध करेंगे पर कोई तोड़-फोड़ नहीं करेंगे। ये विरोध विनम्रता पूर्वक होगा। सत्य और अहिंसा का प्रयोग गांधी जी ने किया था। उसका एक असर भी पड़ा था।

प्रश्न – जब महात्मा गांधी और अन्य लोग स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे तब बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर भी दलित अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे थे। उन पर स्वाधीनता की लड़ाई न लड़ने का आरोप लगाया जाता है।

उत्तर - आज़ादी के जो नायक थे। गांधी जी थे। नेहरू जी थे। बालगंगाधर तिलक थे। इन्हीं में हमारे भीमराव आंबेडकर थे। ये आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे थे। आज़ादी की लड़ाई गांधी,नेहरू, तिलक लड़ रहे थे तो फुले और आंबेडकर की समानांतर लड़ाई थी। ये स्वाधीनता की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। इनकी लड़ाई उपनिवेशिक दासता के विरुद्ध थी। सामंतवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे। हमारी जो समस्या है वो सामंतवाद से है साम्राज्यवाद से नहीं। सामंतवाद की हम हजारों साल से गुलामी करते आए हैं। हमारी गुलामी से मुक्ति की जो लड़ाई है वह साम्राज्यवाद से मुक्ति नहीं बल्कि सामंतवाद से मुक्ति की लड़ाई है। इस लड़ाई के लिए आंबेडकर ने भी बहिष्कृत भारत, मूकनायक, जनता जैसे अखबार निकाले थे।

उस समय आंबेडकर पर आरोप लगे कि वे साम्राज्यवाद के समर्थक हैं। उस समय तिलक का एक नारा था – स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी नारे को ध्यान में रखते हुए डॉ. आंबेडकर ने सवाल खड़ा किया कि आज अपनी आज़ादी गँवा कर इन्हें ये एहसास हुआ है कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। अंग्रेजों की गुलामी का एहसास हुआ लेकिन क्या कभी यह भी सोचा कि सामंतो और सवर्णों की हजारों सालों से गुलामी झेल रहे दलितों का भी गुलामी से मुक्ति जन्मसिद्ध अधिकार है। उन्होंने कहा कि हमारे सामने बहुजन समाज है। तीन चौथाई हमारी आबादी है। अशिक्षा और अज्ञानता के अँधेरे में डूबी हुई है। उसको जागरूक करना हमारा उद्देश्य है। शिक्षा पर जोर देने की जरूरत है। उन्होंने नारा दिया शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो। ॉ

इससे पहले महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई का पूरा जोर शिक्षा पर था। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर भी जोर दिया। उन्होंने अछूतों के लिए 18 विद्यालय खोले थे। यह काम साहू जी महाराज भी कर रहे थे। उन्होंने अछूतों के लिए भोजनालय भी खोले और खुद उनके साथ बैठकर खाना खाते थे। इस तरह उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त करने का काम किया। उनका उद्देश्य सामजिक समानता लाना था। पर गांधी और नेहरू का ये उद्देश्य नहीं रहा। वे संस्कारों से मुक्त नहीं थे। गांधी जी जाति के पैटर्न को फोलो करते थे। जाति के रहते छूआछूत दूर हो नहीं सकती। इसलिए आंबेडकर ने कहा था समता-विहीन स्वतंत्रा में मेरा विश्वास नहीं है। इसलिए उन्होंने जाति के विनाश की बात कही। आंबेडकर का स्पष्ट कहना था कि आजादी मिलने पर सत्ता सवर्णों के ही हाथ में जाएगी। जो अति दलित और अति पिछड़े हैं उन्हें तो सत्ता मिलेगी नहीं। इसका मतलब हम लोग तो हजारों साल से गुलाम हैं और अधिक गुलाम हो जाएंगे।

ये राजनीतिक सत्ता की लड़ाई थी। अंग्रेजों की सत्ता बदल कर सवर्णों के पास आ गयी। यानी ये सामजिक आज़ादी की लड़ाई नहीं थी। समतामूलक समाज बनाने की लड़ाई नहीं थी। इसीलिए उन्होंने कहा कि ये आधी-अधूरी लड़ाई है। ये सत्ता का हस्तांतरण है। पुरानी सामाजिक व्यवस्था के साथ ही समाज और देश आजाद हो रहा है। इसलिए समता-विहीन आज़ादी का हमारे लिए कोई मतलब नहीं है।

प्रश्न –आपकी एक किताब है ‘लोक और वेद: आमने सामने’। इस पुस्तक में आपने क्या कहने का प्रयास किया है। इसके बारे में हमारे पाठकों को कुछ बताएं।

उत्तर - देखिये ये जो लोक चेतना है, लोकजीवन है, लोक संस्कृति है, ये हमारी लोक परम्परा है, ये हमारा सामान्य लोगों का जीवन है, मजदूर है, किसान है, सामान्य जन है, जो मेहनतकश जनता है। जो हमारा श्रमजीवी समाज है। और ये समाज बड़ा व्यापक है। इसमें किसानों और मजदूरों से लेकर तमाम जो घुमंतू जातियां हैं। ये उन सब के लिए होता है। ये लोकजीवन है। दूसरा है शास्त्र जीवन। ये शिक्षित लोगों का जीवन है। जो धर्मग्रंथ पढ़ते थे। पढ़ने-लिखने का काम कौन करते थे - ब्राह्मण। शिक्षा का अधिकार उन्हें ही था। शूद्रों को शिक्षा का अधिकार ही नहीं था। स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार बिल्कुल नहीं था। चाहे ब्राह्मण स्त्री ही क्यों न हो। शूद्रों और स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। अब तक लोग ज्यादातर इसी बात पर चर्चा करते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों शूद्रों अछूतों को उनके अधिकारों से वंचित रखा। पर एक सच्चाई यह भी है कि इस व्यवस्था ने सम्पूर्ण स्त्री समुदाय को भी उनके अधिकारों से महरूम किया। वे इसे अपनी वैदिक संस्कृति मानते थे। स्त्रियाँ वेद नहीं पढ़ सकती थीं।

इसी श्रेष्ठता के अधिकार पर कबीर ने सवाल उठाए हैं। ब्राह्मण क्यों श्रेष्ठ है। श्रेष्ठता के दो आधार बताए गए हैं। एक तो यह कल्पना कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए। अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए कि हम परमपुरुष के मुंह से पैदा हुए। क्षत्रिय भुजाओ से पैदा हुए। वैश्य जंघा से पैदा हुए। शूद्र पैरों से पैदा हुए। ये थोथी कल्पना उन्होंने अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए गढ़ी। ये कपोल कल्पित आदर्श गढ़ा। उनके ग्रंथों में यही सब कपोल-कल्पनाएँ भरी हुई हैं।

दूसरा आधार उपनयन संस्कार। जनेऊ संस्कार। जनेऊ संस्कार ब्राह्मणों के बेटों का होता था। ब्राह्मणों की बेटियों का नहीं होता था यानी ब्राह्मणों की स्त्रियों का जनेऊ संस्कार नहीं होता था और आज भी नहीं होता है। जिनका उपनयन संस्कार नहीं होता था वे वेद नहीं पढ़ सकते थे। स्त्रियों का नहीं होता था इसलिए ब्राह्मण स्त्रियां वेद नहीं पढ़ सकती थीं। ब्राह्मणों का मानना था कि जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं। उपनयन संस्कार के बाद वे द्विज हो जाते हैं। द्विज यानी दो बार जन्मा। इसीलिए कबीर ने सवाल उठाया कि – पहरि जनेऊ जो बामन होया महरी के पहराया वा तो जन्म-जन्म की शूद्रिन वा परसे तू खाया। तो वहां छुआछूत नहीं लगती। तो जब तुम्हारे घर में छुआछूत है और उसे नहीं मानते हो तो समाज में ये ढोंग क्यों करते हो।

तो बड़े तार्किक ढंग से कबीर इसका विरोध करते हैं। भले ही पढ़े लिखे कम रहे हों लेकिन उनका लोक ज्ञान बहुत था। कबीर हों रैदास हों ये पढ़े लिखे बेशक न हों लेकिन ये लोग लोकज्ञानी थे। इनके पास लोक जीवन के अनुभव थे। गाँव में रहने वाला आदमी सारी चीजों से अपना ज्ञान प्राप्त करता है। आदिवासी समुदाय में कौनसा वेद-पुराण होता है। ये सब वहां नहीं होता है। उनका अपना जीवन है। उनकी अपनी जीवन पद्धतियाँ हैं। उन्हें लोक जीवन का अनुभव है। तो पूरी संत परम्परा लोक जीवन से जुड़ी हुई है। वे शास्त्रीय ज्ञान को नहीं जानते। शास्त्र को हमारे विरोध में लिखा गया है। उनमें मनुवादी व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। इसलिए सारे शास्त्र न केवल शूद्रों-दलितों बल्कि स्त्रियों के भी घोर विरोधी हैं। शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया गया है। ये ब्राह्मणों का सबसे बड़ा षड़यंत्र था। स्त्रियों और शूद्रो को शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित रखा गया। ये शूद्रों और स्त्रियों को गुलाम बनाए रखने की उनकी ये साज़िश थी।

इसको कबीर, रैदास, मीराबाई और गुरु नानक ने नकारा है। कबीर ने तो कहा है - पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। ब्राह्मणों ने प्रेम तो दूर बल्कि नफरत की हद कर दी।अति शूद्र के पीछे झाडू लटका दी आगे मटकी लटका दी। यानी वह जमीन पर थूक भी न सके। उसके पैरों के निशान भी रास्ते में न बनें। यानी उन्हें बुरी तरह गुलामी मे जकड़ रखा था।

प्रश्न – हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में बात करें तो विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने एक पुस्तक लिखी है व्योमकेश दरवेश। और आपने भी हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में समय का पुनरवलोकन और लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा लिखी तो इस सन्दर्भ में बताइए।

उत्तर - देखिये रामचंद्र शुक्ल की जो आलोचना है वो शास्त्रधर्मी आलोचना है। उसके केंद्र में वैदिक पौराणिक परम्परा है। ये काल्पनिक होती है। जैसे वसुदैव कुटुम्बकम। देखने में ये आदर्श है। पूरा विश्व एक परिवार है। ये देखने में बहुत अच्छा लगता है। पर है काल्पनिक। क्योंकि अभी भी इसका कार्यान्वन नहीं होगा। अच्छे से अच्छा आदर्श जब तक समाज में कार्यान्वित न हो उसकी उपयोगिता क्या है। इसी तरह सत्यमेव जयते देखने-सुनने में अच्छा लगता है। सत्यमेव जयते यानी जो सत्य है उसकी जीत होगी। पर वास्तव में तो जो असत्य है, झूठ है, उसी का बोलबाला है। सत्य की तो हत्या कर दी गई। आप सरकारी कार्यालयों में जाइए वहां आपको अधिकारी की सीट के पीछे सत्यमेव जयते लिखा मिल जाएगा। वही अधिकारी टेबल के नीचे से रिश्वत ले रहा होगा। ये पाखंड है । विडम्बना है। काल्पनिक आदर्श है। इसीलिए मैं लोक की बात कहता हूँ। लोक में सच्चाई होती है। लोक जीवन का अनुभव यथार्थ जीवन का अनुभव होता है। इसलिए वे लोकज्ञानी कहे जाते हैं। और ये शास्त्र ज्ञानी कहे जाते हैं जो जीवन का व्यावहारिक पक्ष जानते ही नहीं हैं। श्रेष्ठता का भी इतना दंभ रहा है कि ब्राह्मणों ने अपने में भी उच्च-निम्न आधार बना रखा है। चितपावन ब्राह्मण स्वयं को ब्राह्मणों में भी उच्च समझते हैं। जो झूठ, पाखण्ड और दंभ में जीएगा उसके अन्दर सत्यता और प्रेम की भावना आएगी भी कहां से।

इसीलिए आंबेडकर ने कहा था हिन्दू धर्म हमारा नहीं है। उसमें हमें सांस लेने में घुटन होती है। इसीलिए वे बुद्धिज़्म में गए जहां वो खुले में सांस ले सकते थे। वहां समता स्वतंत्रता का एक रूप मिला।

प्रश्न – आपकी एक और पुस्तक है उत्तरशती के विमर्श और हाशिये का समाज , इसके बारे में बताइए।

उत्तर- देखिये, 1990 के आसपास यानी जब बीसवीं सदी पूरी होने में दस वर्ष बचे थे और इक्कीसवी सदी दस्तक दे रही थी तब से लोग नई शताब्दी के स्वागत की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस के राहुल गांधी जोश में थे। नई शताब्दी आ रही है। नया भारत बनेगा। अरे, नई शताब्दी आने से सामाज के जो दुःख हैं जो कष्ट हैं वे थोड़े ही बदल जाएंगे। मूल समस्या है जाति-व्यवस्था। वह तो समाप्त हुई नहीं। इसलिए हमारी दूसरी लड़ाई सामाजिक-आर्थिक मुक्ति की लड़ाई है। वही लड़ाई फुले लड़ रहे थे। आंबेडकर लड़ रहे थे और कथा साहित्य में प्रेमचंद लड़ रहे थे।

इक्कीसवीं सदी में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श शुरू हो गए थे। इस समय दलितों के सवाल उठाए गए। स्त्रियों के सवाल उठाए गए। ये महसूस किया गया कि पुरुष के साथ स्त्री का शरीर भी गिरवी रखा हुआ है। स्त्री अपने पति की दासी है। यही आदर्श माना जाता था। स्त्री-पुरुष का विवाह बंधन बराबरी पर है ही नहीं। पति परमेश्वर हो जाता है। यानी ईश्वर हो जाता है। और पत्नी को उसके चरणों की दासी कहा जाता है। इस पितृसत्तात्मक समाज में, इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज में, स्त्री की भूमिका एक नौकरानी जैसी थी। वह अपने बच्चों की देखभाल करती थी। पति की सेवा करती थी। सास-ससुर की सेवा करती थी। एक स्त्री पूरी तरह बंट कर के पूरे परिवार की सेविका बनी हुई थी।

प्रश्न – हम आंबेडकर की बात करें और भारतीय संविधान की बात करें तो संविधान तो साफ़-साफ कहता है कि देश के किसी भी नागरिक के साथ चाहे वह पुरुष हो स्त्री हो, लिंग के आधार पर, जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर या स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। लेकिन वास्तविकता ये नहीं है यानी अभी संविधान का पूरी तरह से पालन नहीं हो रहा है। आप से आख़िरी सवाल है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। लेकिन आजकल जो माहौल चल रहा है चाहे वो जेएनयू का मामला हो या जहाँगीरपुरी का हो या जगह जगह जो हो रहा है तो धर्म निरपेक्ष देश में धर्म के नाम पर नफ़रत की राजनीति की जा रही है। इसको आप कैसे देखते हैं और लोकतंत्र को ये किस तरह प्रभावित करेगी?

उत्तर- देखिये, इनका 2014 से आना हुआ। मोदी जी का आभिर्भाव हुआ। ये तो अपना हिंदुत्व का एजेंडा लेकर आए थे। संघ का तो एजेंडा ही है - उग्र हिंदुत्व। इसे लागू करना उनका एजेंडा था। और डॉक्टर आंबेडकर का जो संविधान है ये उनके आगे सबसे बड़ी बाधा था। यानी हिन्दू राष्ट्र बनाने में सबसे बड़ी बाधा भारतीय संविधान है। क्योंकि ये सेकुलर है। धर्मनिरपेक्ष है। वह इंडिया दैट इज भारत कहता है। लेकिन इनका मतलब है "हिंदुस्थान" यानी हिन्दुओं के रहने की जगह। इसमें मुसलमानों के लिए कोई गुंजाईश नहीं है। हिन्दू बनकर रहना हो तो रहें। ये खेल उनका बहुत पहले से चल रहा था। 2014 से तो यह खुलेआम हो गया। इनका उद्देश्य संविधान को ख़त्म करना है।

अगर डॉक्टर आंबेडकर ने दलितों पिछड़ों और स्त्रियों के लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले संविधान की रचना नहीं की होती तो आज हम लोग तो कहीं होते ही नहीं। जिसकी वजह से हम अत्याचारों के न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। अब तो हिन्दू राष्ट्र कायम कर दिया है उन्होंने। मनुवाद लागू हो गया है। संसद के सामने संविधान की प्रतियाँ जलाईं गयीं कौन लोग थे जलाने वाले। कुछ किया सरकार ने। जो जलाने वाला था उसका क्या हुआ। मॉब लिंचिंग क्या है। झूठे बहाने बनाकर दलितों से मुसलमानों की हत्या करवाना –यही मॉब लिंचिंग है। सांप्रदायिक दंगे करना इनका काम है।

आज के समय में सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान के लिए लड़ाई लड़ो – यही सबसे जरूरी है। अगर वो संविधान पर चोट करेंगे, संविधान को ख़त्म करेंगे। लोकतांत्रिक मूल्यों को ख़त्म करेंगे। वे कर ले जाएंगे और आप आवाज नहीं उठाएंगे तो आप नहीं बच सकते। आप का देश नहीं बच सकता।

भारतीय संविधान की जो प्रस्तावना है वही उसका बेस है। वही हमारा हथियार है। हमारी आजादी का मूलमंत्र है। वह रहेगा तो हम अपनी आजादी और अपने अधिकारों के लिए लड़ सकेंगे।

इस समय तो हिटलरशाही हो गई है। यानी हम जो बोल रहे हैं। हम जो कह रहे हैं उसे आपको मानना है। अगर आप विरोध करते हैं तो आपके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो जाएगी। आपको देशद्रोही कहा जाएगा। और आपको जेल में डाल दिया जाएगा। और ये हो रहा है। लोकतंत्र तो इन्होंने लगभग ख़त्म ही कर रखा है। सीधे सीधे उनकी डिक्टेटरशिप (तानाशाही) चल रही है। आधार बनाया गया है मनुवाद को। हमारे सरकारी शिक्षा संस्थान खत्म किए जा रहे हैं जिसमें हमारे बच्चे पढ़ सकते थे उनको खत्म किया जा रहा है।

बड़े-बड़े और महंगे स्कूलों में उनके बच्चे पढ़ेंगे। मध्यम वर्ग और गरीब घर के बच्चे खासकर मेहनतकशों के बच्चों को पढ़ने के लिए जगह ही नहीं है। उनका कहना है ये पढ़-लिख कर क्या करेंगे। इनके जो पारंपरिक और पुश्तैनी पेशे हैं उन्हीं को अपनाएंगे। और इन्हें वही अपनाने भी चाहिए। आखिर इनके पुरखे भी तो अपने ही पेशे करते थे। यानी ये मानकर चलिए कि मनुस्मृति काल की वापसी लगभग तय है।

(साक्षात्कारकर्ता सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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