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नोटबंदी की मार

वास्तव में नोटबंदी के कदम से काले धन की अर्थव्यवस्था का खात्मा किए जा सकने की धारणा मुख्यत: बंबइया फिल्मों से बनी समझ पर टिकी हुई थी। इस समझ के हिसाब से काले धन का मतलब ही है, तकियों या गद्दों में या बिस्तर के नीचे सूटकेसों में छुपाकर रखे गए नोटों के बंडल।
demonetisation
फाइल फोटो

स्वतंत्र भारत के समूचे इतिहास में सरकार का कोई भी आर्थिक कदम जनता के लिए इतना तबाही करने वाला और अपने घोषित लक्ष्यों को हासिल करने के पहलू से इतना निरर्थक साबित नहीं हुआ होगा, जितना 500 और 1000 रुपए के नोटों की नोटबंदी का फैसला साबित हुआ, जिसका मोदी सरकार ने 8 नवंबर 2018 को एलान किया था।

इस कदम का अपने घोषित लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रहना, किसी भी तरह से अप्रत्याशित नहीं था। उल्टे, हरेक अर्थशास्त्री के लिए, जब इस कदम का एलान किया गया उसी समय से यह स्वत:स्पष्ट था कि यह नोटबंदी मूर्खता की पराकाष्ठा थी। इसलिए, इसका सभी अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया था। हां! किसी भी कीमत पर सरकार की खुशामद करने के लिए तैयार, मुट्ठीभर, मौकापरस्त चंद लोगों की बात अलग है।

सरकार ने अपने इस कदम के तीन लक्ष्य बताए थे: काले धन का खात्मा; नकली नोटों का अंत और आतंकवाद की फंडिंग पर जबर्दस्त चोट करना। इनमें से आखिरी दो लक्ष्य तो, बस जैसे संख्या बढ़ाने के लिए ही जोड़ दिए गए थे, वर्ना सभी जानते थे कि इन लक्ष्यों के मामले में कोई गंभीरता थी ही नहीं। इंडियन स्टेटस्टिकल इंस्टीट्यूट के  एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया था कि जाली नोट, देश में मुद्रा के कुल चलन का अति-सूक्ष्य सा हिस्सा भर थे।

इसलिए, जाली नोटों के इस अति-सूक्ष्म हिस्से ने निजात पाने के लिए, देश की मुद्रा के 85 फीसद की अचानक नोटबंदी किए जाने के फैसले को, एक दलील के लिए रूप में गंभीरता से कोई ले ही नहीं सकता था। इसी तरह, आतंकवाद की फंडिंग तरह-तरह के स्रोतों से आती है और कोई भी गंभीरता से यह मानने को तैयार नहीं था कि नोटबंदी से आतंकवाद के लिए फंडिंग रुकना तो दूर, उस पर कोई चोट तक पड़ सकती थी।

जाहिर है कि इस कदम के पीछे असली नीयत काले धन को खत्म करने की थी। लेकिन, मोदी सरकार का यह मानना कि नोटबंदी से काले धन का अंत हो सकता था। इससे यही जाहीर होता है कि उसके पास काले धन की अर्थव्यवस्था व आम तौर पर बाकी अर्थव्यवस्था की समझ शून्य थी।

वास्तव में नोटबंदी के कदम से, काले धन की अर्थव्यवस्था का खात्मा किए जा सकने की धारणा, काले धन की मुख्यत: बंबइया फिल्मों से बनी समझ पर टिकी हुई थी। इस समझ के हिसाब से काले धन का मतलब ही है, तकियों या गद्दों में या बिस्तर के नीचे सूटकेसों में छुपाकर रखे गए, नोटों के बंडल। लेकिन, सच्चाई यह है कि काला धन नाम की तो कोई चीज होती ही नहीं है। हां! अनेक ऐसी आर्थिक गतिविधियां जरूर होती हैं, जिनको सरकारी हिसाब-किताब के लिए घोषित ही नहीं किया जाता है। ऐसा मुख्यत: कर देने से बचने के लिए किया जाता है। सभी आर्थिक गतिविधियों के संचालन के लिए पैसे की जरूरत होती है और उक्त अघोषित या सरकार से छुपाकर चलायी जाने वाली गतिविधियां भी, इसका अपवाद नहीं होती हैं।

इन सरकारी तौर पर अघोषित गतिविधियों को चलाने में लगने वाले पैसे को मोटे तौर पर ‘‘काला धन’’ कहा तो जा सकता है, लेकिन यह काला धन, गद्दे-तकिए या सूटकेसों में छुपाकर रखी गयी नोटों की गड्डियों के रूप में कोई निष्क्रिय रूप में नहीं पड़ा रहता है।

अब पैसे के इस्तेमाल को कभी भी, घोषित से अघोषित आर्थिक गतिविधियों की ओर मोड़ा जा सकता है। इसलिए, अगर मोदी सरकार को काली अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल होने वाले पैसे को बड़े पैमाने पर ‘खत्म’ करने में कामयाबी भी मिल गयी होती, जिस पैसे के स्वामी जैसाकि सरकार मानकर चली थी, अपनी बंदशुदा नोटों में जमा धनराशि को नये नोटों से बदलने के लिए बैंकों के दरवाजे पर नहीं भी पहुंचे होते, तब भी इससे काली आर्थिक गतिविधियों का अंत नहीं हो सकता था। उस सूरत में पैसा ‘सफेद’ अर्थव्यवस्था से निकालकर, ‘काली’ अर्थव्यवस्था की ओर यानी घोषित आर्थिक गतिविधियों से अघोषित आर्थिक गतिविधियों की ओर मोड़ दिया जाता और ज्यादा से ज्यादा इसका असर इतना ही होता कि अर्थव्यवस्था में आम तौर पर पैसे की किल्लत हो जाती और इस तरह आम मंदी तो पैदा हो ही सकती थी,  बल्कि काली अर्थव्यवस्था का अंत फिर भी नहीं होता।

पर अंतत: हुआ तो यह कि बंद किए गए 99 फीसद नोट, नये नोटों में बदले जाने के लिए बैंकों के पास पहुंच गए। नोटबंदी की घोर विफलता का इससे बड़ा सबूत दूसरा नहीं हो सकता है। सरकार यह मानकर चल रही थी कि ‘काला धन’ नये नोटों में बदलकर ‘सफेद’ कराने के लिए बैंकों के सामने आएगा ही नहीं क्योंकि इस काले धन के स्वमियों की ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं होगी। उन्हें इसका डर रहेगा कि अगर उनके पास ऐसा पैसा निकला, जिसे अपनी वैध कमाई के तौर पर वे साबित नहीं कर सकते होंगे, तो वे काले धन के साथ पकड़े ही जाएंगे।

भाजपा के प्रवक्ता तो यह भी सुझाने तक चले गए थे कि  इस तरह जो पैसा नये नोटों में बदले जाने के लिए सामने आएगा ही नहीं, उसका सरकार कैसे उपयोग कर सकती है। मान लीजिए कि 100 रुपए की राशि नये नोटों में बदलने के लिए नहीं आती है, तो मुद्रा चूंकि रिजर्व बैंक की देनदारी को दिखाती है, 100 रुपे की देनदारी रिजर्व बैंक के खाते में से कट जाएगी, जिसके बदले में रिजर्व बैंक उतनी राशि के नये नोट छाप सकता है और इस पैसे को जनता के बीच बांटा जा सकता है।

इसके अनुमान भी पेश किए जा रहे थे कि इस तरह जनता के बीच कितना पैसा बांटा जा सकता है। लेकिन, जब 99 फीसद बंद हुए नोट, नये नोटों में बदलने के लिए बैंकों के पास पहुंच गए, इससे न सिर्फ यह साबित हो गया कि उक्त अनुमान कितने बेतुके थे बल्कि यह भी साफ हो गया कि सरकार की यह उम्मीद कितनी बचकानी भी कि नोटबंदी से काला धन पंगु हो जाएगा और अर्थव्यवस्था से उसका खात्मा ही हो जाएगा। अंतत: यह पूरी की पूरी कसरत, पुराने नोटों को नये नोटों में बदलवाने भर की कसरत साबित हुई, जिसकी जनता के बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी।

लेकिन, इसकी वजह से जनता को हुई तकलीफ का इसके साथ ही अंत नहीं हो गया। नोटबंदी सिर्फ एक कष्टïप्रद खेल भर साबित नहीं हुई, जिसका नतीजा तो कोई खास नहीं निकला हो, पर जिसकी वजह से जनता को घंटों बैंकों के सामने लाइनों में लगे रहने की पीड़ा तो झेलनी ही पड़ी, कई लोगों की तो जानें भी चली गयीं। नोटबंदी के इस फैसले के अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही गंभीर आर्थिक दुष्परिणाम भी हुए। नोटबंदी के दायरे में आये नोट, अर्थव्यवस्था में चलन में मौजूद नकदी के करीब 85 फीसद से बराबर थे। और अर्थव्यवस्था की 85 फीसद नकदी के एकाएक जाम किए जाने कुपरिणाम, अल्पावधि में भी और दीर्घावधि में भी, अर्थव्यवस्था को पंगु करने वाले साबित हुए। नोटबंदी और पुराने नोटों के करीब-करीब पूरी तरह से ही बैंकों में लौट आने बीच, करीब नौ महीने का अंतराल रहा था। इस अंतराल में अर्थव्यवस्था में मुद्रा की तंगी बनी रही थी और इसकी सबसे बुरी मार लघु उत्पादन क्षेत्र पर पड़ी थी, जो मुख्यत: नकदी लेन-देन पर ही चलता है।

किसानों को अपनी रबी की फसल बेचने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें इसलिए भी मुश्किल का सामना करना पड़ा कि अगली फसल के लिए बीज और उर्वरक खरीदने के लिए उनके पास पैसे ही नहीं थे। उन्हें और ऋण लेने पड़े। इसी प्रकार अनेक दस्तकारों को और गैर-कृषि क्षेत्र के अनेक लघु उत्पादकों को, जो अपने उत्पाद नहीं बेच पा रहे थे, अपने उत्पादन में लगने वाली समग्री खरीदने के लिए ऋण लेने पड़े। और जिन उत्पादकों ने लागत सामग्री खरीदने के लिए ऋण नहीं लिए तथा इसके बजाए उत्पादन ही रोक दिया, उनके मजदूर बेकार हो गए और उन्हें घर वापस लौटने के लिए तथा बेरोजगारी के दौर में अपने परिवारों का पेट भरने के लिए ऋण लेने पड़े। इस तरह नोटबंदी का असर यह हुआ कि उसने लघु उत्पादन क्षेत्र को या ‘अनौपचारिक क्षेत्र’ को और कर्ज के बोझ तले दबा दिया। याद रहे कि यह वही क्षेत्र है जो हमारे देश की श्रम शक्ति के करीब 94 फीसद हिस्से को काम देता है।

इस कर्ज ने इस क्षेत्र पर अपना स्थायी घाव छोड़ा। जहां इस बीच की अवधि में उत्पादन रुक गया था, वहां इस अवधि में लिया गया ऋण, स्थायी बोझ बनकर रह गया। जहां उत्पादन हुआ हालांकि बिक नहीं पाने के चलते वह जमा होता रहा, अगर इस अवधि में खरीदी गयी नयी लागत सामग्री के लिए उठाए गए ऋणों का मूलधन बाद में चुका भी दिया गया, उसका ब्याज नहीं चुकाया जा सका, जो वैसे भी बहुत बढ़ा हुआ था क्योंकि ये ऋण संकट के बीच में लिए जा रहे थे। यह ऋण इन लघु उत्पादकों की गर्दन में चक्की का पाट बनकर पड़ा रहा है।

इस तरह लघु उत्पादन क्षेत्र पर चढ़े हुए कर्जे में स्थायी रूप से बढ़ोतरी हो गयी। लेकिन, चूंकि इस उद्योग क्षेत्र का बड़ा हिस्सा तो सबसे अनुकूल हालात में भी जैसे-तैसे कर के ही साधारण पुनरोत्पादन जारी रख पाता है, कर्जों में इस बढ़ोतरी ने ऐसी अनेक इकाइयों को आर्थिक रूप से अलाभकर बना दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि नोटबंदी से न सिर्फ अल्फावधि में उत्पादन बाधित हुआ, जो खासतौर पर इसलिए हुआ है कि लघु उत्पादन क्षेत्र नोटबंदी से पैदा हुई नकदी की तंगी को झेलने में असमर्थ था, बल्कि नोटबंदी ने इस क्षेत्र में दीर्घावधि रुग्णता भी पैदा कर दी है, जिसका असर इस क्षेत्र में लगी श्रम शक्ति पर तो पडऩा ही था। इस रुग्णता और दरिद्रीकरण का प्रभाव आज तक बना हुआ है।

बहरहाल, यह नुकसान सिर्फ लघु उत्पादन क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा है। संगठित उत्पादन क्षेत्र पर भी नोटबंदी की मार पड़ी, लेकिन एक भिन्न कारण से। लघु उत्पादन क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से, अपने साथ काम करने वालों की उपभोग मांगों के रास्ते से, संगठित क्षेत्र से अनेक माल खरीदता है और इसलिए जब लघु उत्पादन क्षेत्र पर नोटबंदी के चलते मंदी की मार पड़ी या और सामान्य रूप से कहें तो आय में हानि की मार पड़ी, तो संगठित क्षेत्र के मालों के लिए इस क्षेत्र से आने वाली मांग में भी गिरावट आयी और इसकी मार संगठित क्षेत्र पर पड़ी। इस प्रकार, इस तरह से या उस तरह से, समूची अर्थव्यवस्था पर ही नोटबंदी की चोट पड़ी है।

इसी बीच, नये-नये झूठ गढऩे में माहिर भाजपा ने, एक और कहानी गढऩी शुरू कर दी थी। उसने यह कहना शुरू कर दिया था कि भ्रष्टाचार और काला धन तो, अर्थव्यवस्था में नकदी के इस्तेमाल के ही कुफल हैं। इसलिए, अगर लेन-देन नकदी में न होकर, नकदी-इतर साधनों से होने लग जाए, तो ऐसे सभी सौदों का रिकार्ड रहेगा और इससे भ्रष्टाचार तथा काले धन पर खुद ब खुद अंकुश लग जाएगा। लिहाजा अब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि मोदी जी इतने जबर्दस्त  भविष्यदृष्टा हैं कि वह पूरी अर्थव्यवस्था का ही इस तरह से आधुनिकीकरण कर रहे हैं कि उसमें भ्रष्टाचार तथा काले धन के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाएगी। जाहिर है कि इस दावे का तथ्यों से कोई लेना-देना ही नहीं था। भ्रष्टाचार और किसी अर्थव्यवस्था में नकदी के उपयोग के स्तर का, जिसे मिसाल के तौर पर नकदी-जीडीपी अनुपात प्रतिबिंबित करता है, कोई संबंध ही नहीं है। मिसाल के तौर पर जर्मनी तथा जापान में नकदी-जीडीपी अनुपात, भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा है, लेकिन वहां भ्रष्टाचार साफ तौर पर भारत के मुकाबले कम है। बहरहाल, यह दिलचस्प है कि भारत का नकदी-जीडीपी अनुपात, जो नोटबंदी के बाद, पहले के अपने 12 फीसद के स्तर से फौरी तौर पर नीचे खिसक गया था, फिर से ऊपर चढ़ गया और इस समय 14 फीसद के स्तर पर चल रहा है। इस तरह, भाजपा के अपने ही तर्क के हिसाब से भी, नोटबंदी अपने लक्ष्य को पाने में पूरी तरह विफल रही है।

लेकिन, नोटबंदी का फरमान जारी करने में मोदी सरकार ने जनता की तकलीफों के प्रति जैसी संगदिली दिखाई थी, उतना संगदिल कोई कैसे हो सकता है? इसका जवाब है– मोदी की जनता को ‘दंग और सन्न’ करने की इच्छा और उनका यह विश्वास कि लोगों को जितनी तकलीफ होगी, उतना  ही ज्यादा लोगों को इसका विश्वास होगा कि सरकार अगर उन्हें इतनी तकलीफ झेलने पर मजबूर कर रही है, तो जरूर वह किसी महत्तर लक्ष्य के लिए ऐसा कर रही होगी। सरकार के स्तर पर अज्ञानता, अहंकार और ‘दंग और सन्न’ करने की इच्छा का योग बहुत ही घातक होता है। भारत की जनता नोटबंदी में भारी कीमत चुकाकर इस सच्चाई को जान चुकी है।    

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