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सत्ताविहीन समाजवाद का भविष्य

यह मौका है जब इस देश के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट इतिहास में अपने सहयोग और विवाद का आज की जरूरत के लिहाज से मूल्यांकन कर सकते हैं। शायद यही वजह है कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के 87वें वर्ष के मौके पर हुई आनलाइन कॉन्फ्रेंस में श्रम कानूनों में किए गए बदलाव के ख़िलाफ़ 22 मई को देश की 10 प्रमुख ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर हो रहे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का फ़ैसला लिया गया।
सत्ताविहीन समाजवाद का भविष्य

संगठन और सत्ता के बिना भी समाजवादी विचार ज़िंदा रहेगा, यह जज़्बा 17 और 18 मई को देश भर के समाजवादियों ने आनलाइन सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में जता दिया। वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) की स्थापना का 87वां वर्ष मना रहे थे। उनकी यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण रही कि सत्ता पर काबिज़ हुए बिना भी समाजवादी समाज के निर्माण का प्रयास जारी रहना चाहिए।

यह वही तारीख़ है जब 86 वर्ष पहले सन 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी। उस सम्मेलन की अध्यक्षता प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक आचार्य नरेंद्र देव ने की थी। सम्मेलन में जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, संपूर्णानंद, एमआर मसानी, पुरुषोत्तम त्रिकुमदास, रामवृक्ष बेनीपुरी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे कई महत्त्वपूर्ण लोगों को मिलाकर कुल सौ लोग उपस्थित थे। उन लोगों ने अपने समाजवादी प्रस्तावों को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्य अधिवेशन में पेश किया जिसे ठुकरा दिया गया। उनका एजेंडा उत्पादन के समस्त साधनों के सामाजीकरण, आय की असमानता मिटाने और सहकारी खेती किए जाने के पक्ष में था। उसमें सर्वहारा की तानाशाही का जिक्र नहीं था वरना कार्यक्रम सब वही थे जो सोवियत संघ में चल रहे थे।

वह दौर भी आज ही की तरह तानाशाही ताकतों के उभार और वैश्विक मंदी का था। एक तरफ अंग्रेज सरकार गांधी इरविन समझौते को लागू नहीं कर रही थी तो दूसरी ओर गोलमेज सम्मेलन से लौटते ही गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था। वायसराय लार्ड विलिंगटन ने तय किया था कि वे छह हफ्तों के भीतर कांग्रेस पार्टी को खत्म कर देंगे। कांग्रेस पार्टी के भीतर इस बात की कशमकश चल रही थी कि वह आंदोलन करे कि धारा सभा (लेजिसलिव असेंबली) का चुनाव लड़े। महात्मा गांधी सक्रिय राजनीति से अलग होकर अखिल भारतीय ग्रामीण उद्योग संघ चला रहे थे। गांधी जी भी नहीं चाहते थे कि कांग्रेस चुनावी प्रक्रिया में उतरे, न ही समाजवादी इस पक्ष में थे। लेकिन पार्टी के भीतर चुनाव के पक्ष में बहुत लोग थे।

इन्हीं परिस्थितियों में जिस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ उसने कांग्रेस पार्टी को समाजवादी रास्ते पर चलाने और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से तालमेल बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस पार्टी के भीतर इस संगठन के उदय के साथ जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व को मजबूती मिली और उन्होंने भी इस संगठन से जुड़े लोगों को शक्ति दी। इस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य 1934 से पहले नासिक जेल में एक साथ मीटिंग कर चुके थे। तब उन्होंने जेल से रिहा होने पर इस तरह का संगठन बनाने का संकल्प लिया था। पटना की बैठक के बाद उन लोगों ने बंबई के रेडीमेडमनी टेरेस में एक बैठक करके सीएसपी का विधिवत गठन किया।

सीएसपी यूरोप के समाजवादी आंदोलन को अपनी विरासत मानती थी और कम से कम आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण जैसे दो नेता ऐसे थे जो अपने को घोषित तौर पर मार्क्सवादी कहते थे। इसीलिए उन लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को सीएसपी से जोड़ने का प्रयास किया। सीपीआई जो कि 1924 में बनी थी और तमाम तरह के प्रतिबंधों का शिकार रही थी उसके लिए यह समानधर्मा लोगों के साथ काम करने का सुनहरा अवसर था। प्रतिबंधित सीपीआई के प्रमुख सदस्यों पी सुंदरैया, ईएमएस नंबूदिरीपाद और कृष्णा पिल्लई ने सीएसपी के नेताओं से संपर्क साधा। इस संपर्क का जरिया बना कांग्रेस, सीएसपी और अखिल भारतीय किसान सभा के बीच तालमेल। इस बीच कम्युनिस्टों के अंतरराष्ट्रीय संगठन कोमिन्टर्न के निर्देशों के मुताबिक सीपीआई ने महात्मा गांधी के नेतृत्व के प्रति भी कड़ी आलोचना का रवैया बदला।

जनवरी 1936 में मेरठ सम्मेलन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कम्युनिस्टों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए। कम्युनिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव से बहुत प्रभावित थे। कहा जाता है कि नंबूदिरीपाद तो जेपी की किताब `व्हाई सोशलिज्म’ पढ़कर ही कम्युनिस्ट बने थे। मेरठ में हुए इस तालमेल के कारण सीपीआई के नेता पी कृष्णा पिल्लई, नंबूदिरीपाद, एनसी शेखर, के दामोदरन और एमवी घाटे राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बने। नंबूदिरीपाद और जे.ए. अहमद तो सीएसपी के आल इंडिया ज्वाइंट सेक्रेटरी बने। सीएसपी और भूमिगत सीपीआई के सदस्यों के बीच यह तालमेल 1936 से 1937 तक तो खूब परवान चढ़ा। लेकिन 1938 में लाहौर सम्मेलन में तीव्र मतभेद उभरे। डॉ. लोहिया, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी और अशोक मेहता सीपीआई से आए लोगों की नीतियों को पसंद नहीं कर रहे थे। उधर सोवियत संघ में भी कम्युनिस्ट पार्टी के असंतुष्ट नेताओं पर मुकदमा चलाने और उनकी हत्याओं का सिलसिला चल निकला था। आखिरकार 1940 में रामगढ़ के सम्मेलन में समाजवादियों और कम्युनिस्टों की राह अलग हो गई।

1948 में कांग्रेस से अलग होने के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भी नए--नए रूप ग्रहण किए और उसमें काफी टूट फूट हुई। इसी खींचतान में आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण निष्क्रिय होते गए और डॉ. राम मनोहर लोहिया की सक्रियता बढ़ती गई। 1967 में भी डॉ. लोहिया ने सभी विपक्षी दलों को कांग्रेस के विरुद्ध एकजुट करने की कोशिश की और उसमें जनसंघ और सीपीआई भी इस व्यापक मोर्चे में साथ आए। विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार के समय भी उनकी सरकार को एक ओर से भाजपा का समर्थन हासिल था तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टियां भी उनका साथ दे रही थीं।

यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि डॉ. लोहिया के साथी और समाजवादी आंदोलन के प्रसिद्ध स्तंभ मधु लिमए ने सोवियत संघ के विघटन के बाद मार्च 1991 में बहुत गंभीर रूप से एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था--सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरैक्शन इन इंडिया। यह पुस्तक नए संदर्भों में भारत के समाजवादियों और कम्युनिस्टों के बीच आए मतभेद को मिटाने और उनमें तालमेल कायम करने का प्रयास करती है।

उन्हीं सदर्भों में आज ऑन लाइन सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस का महत्त्व बढ़ जाता है। यूसुफ मेहरअली सेंटर के संस्थापक डॉ. जीजी पारीख, नर्मदा आंदोलन की संस्थापक मेधा पाटकर, प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार और समाजवादी समागम के डॉ. सुनीलम के साथ राष्ट्रसेवा दल के अध्यक्ष जीएन देवी के साथ देश भर के जनप्रतिनिधियों और मजदूर किसान नेताओं की यह अपील मायने रखती है कि सत्ता की चिंता किए बिना समाजवादी समाज के निर्माण के लिए काम करना होगा। वे लोग अपनी जरूरतें कम करने, श्रमिकों से संवाद करने, तानाशाही और जातिवाद का मुकाबला करने का आह्वान करते हैं। उनका कहना है कि आज भले ही समाजवादियों के पास कोई एक राष्ट्रीय पार्टी नहीं है लेकिन देश में समाजवादी बिखरे पड़े हैं। उन्हें चुनाववाद और संसदवाद से निकलकर वंचित तबके की आवाज बनना होगा। यह आवाज पूंजीवादी तंत्र को कमजोर करेगी और श्रमजीवी वर्ग को उसका हक़ दिलाएगी।

इसी के साथ ही फ़ैसला लिया गया कि श्रम कानूनों में किए गए बदलाव के ख़िलाफ़ 22 मई को देश की 10 प्रमुख ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर हो रहे विरोध प्रदर्शन में सभी समाजवादी कार्यकर्ता भाग लेंगे। कॉन्फ्रेंस में ज़ोर दिया गया कि असली बात यह है कि जीवन में समाजवाद की सोच को कैसे लाया जाए। इस ऑन लाइन कॉन्फ्रेंस में देशभर से करीब 75 हज़ार लोगों ने भाग लिया।

भारत में हिंदुत्व के तीव्र प्रभाव में समाजवादियों और साम्यवादियों से घृणा करने वाले बढ़े हैं लेकिन हाल में यूरोप में होने वाले सर्वे कुछ और ही संकेत दे रहे हैं। जर्मनी के एक पोर्टल स्टैटिस्टा ने ट्वीटर पर एक सर्वे में निष्कर्ष निकाला है कि दुनिया के दस बड़े देशों में लोग पूंजीवाद में विश्वास खो रहे हैं। ऐसे देशों में भारत का नंबर सबसे ऊपर है जहां 74 प्रतिशत लोग ऐसे हैं। दूसरे नंबर पर फ्रांस है जहां ऐसे लोगों की संख्या 69 प्रतिशत है। पूंजीवाद में यकीन खोने वालों की संख्या चीन में 63 प्रतिशत, ब्राजील में 57 प्रतिशत, जर्मनी में 55 प्रतिशत, कनाडा और अमेरिका में 47 प्रतिशत है।

यह एक सुनहरा अवसर है समाजवादी विचार और संगठन को जागृत और एकजुट करने का। यह मौका है जब इस देश के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट इतिहास में अपने सहयोग और विवाद का आज की जरूरत के लिहाज से मूल्यांकन कर सकते हैं। आज भारत आज़ाद जरूर है लेकिन जनता के सामने मंदी और तानाशाही की परिस्थितियां 1930 के दशक जैसी ही कठिन हैं। इसलिए उनके बीच संवाद कायम होना ही चाहिए।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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