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2022-23 की पहली तिमाही के जीडीपी दर के अनुमान

2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी 35.85 लाख करोड़ था और 2022-23 की पहली तिमाही में जीडीपी 36.85 लाख करोड़ आंका गया है, जो सिर्फ 2.8 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है।
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Image courtesy : Telegraph India

सरकार ने 31 अगस्त के दिन, अप्रैल-जून की तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद के जो अनुमान पेश किए हैं, वह भारतीय अर्थव्यवस्था की दयनीय तस्वीर पेश करते हैं। चूंकि वास्तविक मूल्य में (2011-12 की कीमतों पर) जीएसटी में, पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले, 13.5 फीसद की बढ़ोतरी नजर आती है और चूंकि 13.5 फीसद वृद्घि का आंकड़ा एक प्रभावशाली आंकड़ा नजर आता है, सरकारी प्रवक्ता इस वृद्घि को बहुत रंग-रोगन लगाकर पेश करने में लगे हुए हैं। लेकिन, जरा सा नजदीक से देखते ही साफ हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था तो गतिरोध की दलदल में और धंसती ही जा रही है।

आर्थिक गतिरोध के दलदल में

याद रहे कि 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत भारी संकुचन हुआ था। यह संकुचन, महामारी का और उसे देखते हुए किए गए लॉकडाउन का नतीजा था और यह लॉकडाउन भारत में बहुत ही कठोर रहा था। और 2021-22 में भारतीय अर्थव्यवस्था, इससे पहले वाले साल में हुई गिरावट से पूरी तरह से उबर तक नहीं पायी थी। इसलिए, 2022-23 की पहली तिमाही, अर्थव्यवस्था के अंतर्निहित जीवट के सूचक के रूप में खासतौर पर महत्वपूर्ण हो जाती है। उसका यह महत्व इसलिए खासतौर पर ज्यादा है कि कोविड-19 का प्रभाव, भले ही पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ हो, फिर भी इतना कम जरूर हो गया है कि 2022-23 को, एक ‘सामान्य’ कोविड-उत्तर वर्ष माना जा सकता है। यहां 2021-22 और 2020-21 से तुलना नहीं की जानी चाहिए क्योंकि ये दोनों तो महामारी से प्रभावित वर्ष हैं। हमें तुलना करनी चाहिए, 2019-20 से, जो कि हमारी अर्थव्यवस्था का ‘आखिरी’ कोविड-पूर्व वर्ष था।

2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी 35.85 लाख करोड़ था और 2022-23 की पहली तिमाही में जीडीपी 36.85 लाख करोड़ आंका गया है, जो सिर्फ 2.8 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है। संक्षेप में यह कि अब जबकि महामारी बहुत हद तक शांत हो चुकी है और उसे किसी गतिरोध का कारण नहीं माना जा सकता है, तब भी हमारी अर्थव्यवस्था में गतिरोध की स्थिति बनी हुई है। कुछ सरकारी अर्थशास्त्रियों ने इस पर संतोष जताया है कि जीडीपी के आंकड़ों ने कम से कम 2019-20 की पहली तिमाही के आंकड़ों को तो पीछे छोड़ दिया है। लेकिन, इन दोनों अवधियों के बीच तीन वर्ष का समय गुजर चुका है, जिसके दौरान देश की आबादी बढ़ी है और पूंजी स्टॉक का विस्तार हुआ है। इसलिए, तीन साल पहले के जीडीपी से महज आगे निकल जाने में, खुश होने वाली कोई बात नहीं हो सकती है। उल्टे यह तो संकट के हालात को ही दिखाता है। दूसरी तरह से कहें तो महामारी-पूर्व की ‘सामान्य’ स्थिति और महामारी के बाद की ‘सामान्य’ स्थिति के बीच, प्रतिव्यक्ति जीडीपी में वास्तव में गिरावट ही हुई है और यह गिरावट, प्रतिव्यक्ति पूजी स्टॉक के बढऩे के बावजूद हुई है।

यह भी याद रखना चाहिए कि 2019-20 का साल भी, भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोई बहुत अच्छा साल नहीं रहा था। वास्तव में 2019-20 की पहली तिमाही के जीडीपी ने, इससे पहले के साल की पहली तिमाही के मुकाबले सिर्फ 5 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज करायी थी, जबकि इससे पहले वाले साल में उसी तिमाही में 8 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज हुई थी। और जीडीपी में वृद्घि की दर में इस गिरावट से सरकारी अर्थशास्त्री काफी चिंतित भी थे। इस तरह, 2019-20 के दौरान जो गतिरोध शुरू हो रहा था, अब भी बना हुआ है और वास्तव में अब यह और भी बढ़ गया है।

बढ़ती असमानता और नवउदारवाद का मूल संकट

महामारी, गतिरोध की इस अवस्था के ऊपर से आ पड़ी एक अतिरिक्त मुसीबत थी। इसने पहले से चल रहे आर्थिक गतिरोध की तस्वीर को और धुंधला करने का काम किया और यह भ्रम पैदा किया था कि हमारे देश की आर्थिक  परेशानियां, इस महामारी से ही पैदा हुई थीं, वर्ना हमारी अर्थव्यवस्था के साथ बुनियादी तौर पर कोई समस्या नहीं थी। बहरहाल, सचाई यह है कि अर्थव्यवस्था से बाहर की इस परेशानी हटने के बाद, हमारे सामने इसके नीचे छुप गया आर्थिक गतिरोध फिर से सामने आ गया है, जो सरकार द्वारा किए जाते रहे तमाम आशावादी दावों को झुठला रहा है। इस गतिरोध का बना होना इसलिए गंभीर चिंता का विषय है कि हालांकि, आर्थिक वृद्घि बनी रहने के दौर में भी, मेहनतकश जनता के हिस्से में तो बदहाली ही आती है, जैसाकि खुद भारत में नवउदारवाद के दौर के सबसे शानदार चरण में हो रहा था, फिर भी आर्थिक गतिरोध का दौर तो मेहनतकश जनता को और भी ज्यादा बदहाली देता है।

इस गतिरोध का बुनियादी कारण है, मेहनतकश जनता के हाथों में क्रय शक्ति का गतिरोध में या गिरावट की अवस्था में होना और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में ऐसा होता है, आय की असमानता के बढऩे की वजह से। लेकिन, इस ठोस मामले में तो, 2019-20 की पहली तिमाही और 2022-23 की पहली तिमाही के बीच, निजी उपभोग व्यय में हुई बढ़ोतरी, जीडीपी की वृद्घि दर से ज्यादा ही बैठती है। बेशक, मेहनतकश जनता का उपभोग, पर्याप्त क्रय शक्ति के अभाव में शिथिल ही पड़ा रहा है, लेकिन अमीरों तथा खाते-पीते वर्ग का उपभोग, जो महामारी के दौर में मजबूरी में दबा रहा था, अब अचानक उछाल दिखा रहा है और इसने कुल उपभोग व्यय को ऊपर धकेल दिया है। इसलिए, जीडीपी में गतिरोध बने रहने का फौरी कारण कहीं और ही है। दो अतिरिक्त कारक काम कर रहे हैं, जो सकल मांग के स्तर तथा इसलिए जीडीपी में वृद्घि के स्तर को भी, ऊपर उठने से रोकते हैं। ये कारक है: सरकार के उपभोग व्यय गतिरोध बना होना और व्यापार घाटे का बढऩा यानी निर्यातों के मुकाबले आयातों का फालतू होना।

आर्थिक गतिरोध के दो फौरी कारण

जहां वास्तविक मूल्य (2011-12 की कीमतों) पर निजी उपभोग 2019-20 और 2022-23 की पहली तिमाहियों के बीच, 19.74 लाख करोड़ रु0 से बढक़र 22.09 लाख करोड़ रु0 हो गया है और इसी अवधि में कुल फिक्स्ड कैपीटल फार्मेशन 11.66 लाख करोड़ रु0 से बढक़र 12.78 लाख करोड़ रु0 पर पहुंच गया है, सरकार के उपभोग व्यय में कुछ न कुछ गिरावट ही हुई है और यह 4.21 लाख करोड़ रु0 से घटकर 4.14 लाख करोड़ रु0 ही रह गया है। इसके साथ ही साथ, इसी अवधि में निर्यातों और आयातों के बीच का अंतर यानी घाटा 1.62 लाख करोड़ रु0 से बढक़र, 2.98 लाख करोड़ रु0 हो गया है। जीडीपी के अनुपात के रूप में यह व्यापार घाटा (इस गणना के लिए इन दोनों का ही चालू कीमतों पर जो परिमाण है, उसे ही लिया गया है) 2019-20 की पहली तिमाही  के 4 फीसद के स्तर से बढक़र, 2022-23 की पहली तिमाही में, 5.3 फीसद हो गया है। अगर जीडीपी के अनुपात के रूप में व्यापार घाटा 2022-23 की पहली तिमाही में उतना ही रहा होता, जितना कि 2019-20 की पहली तिमाही में था, तो इन दोनों तिमाहियों के बीच जीडीपी की वृद्घि की दर भी 4.1 फीसद रही होती, न कि वर्तमान 2.8 फीसद, जो कि वास्तव में दर्ज हुई है।

इस तरह, बढ़ती आय असमानता की बुनियादी समस्या के ऊपर से, दो अतिरिक्त कारक और काम कर रहे हैं, जिन्होंने अर्थव्यवस्था में गतिरोध को बढ़ाया है। इनमें पहला है, राजकोषीय अनुदारतावाद, जिसने सरकारी उपयोग यानी (गैर-निवेश) खर्च को कम बनाए रखा है। और दूसरा यह तथ्य है कि सकल खर्च का कहीं बड़ा हिस्सा या अनुपात, आयातों के रूप में देश की सीमाओं से बाहर निकलता जा रहा है। और यह राजकोषीय अनुदारतावाद और आयातों के लिए बेलगाम खुलापन, ये दोनों ही उसी तरह से नवउदारवादी निजाम की महत्वपूर्ण निशानियां हैं, जैसे कि बढ़ती आय असमानता की बुनियादी समस्या इसकी निशानी है। इस तरह नवउदारवाद, अर्थव्यवस्था में उस दीर्घावधि गतिरोध के पीछे ही नहीं है, जो इस तरह की अर्थव्यवस्था की एक अंतर्निहित प्रवृत्ति के रूप में, आय की बढ़ती असमानता का ही नतीजा होता है। इसके साथ ही नवउदारवाद ही उन अतिरिक्त कारकों के भी पीछे है, जो इस आर्थिक गतिरोध को बढ़ाने में लगे हुए हैं। इसके ऊपर से यह अर्थिक गतिरोध, आने वाले दिनों में कम से कम दो कारणों से, बद से बदतरीन ही होने जा रहा है।

आर्थिक गतिरोध और बढ़ेगा

पहले कारण का संबंध इस तथ्य के साथ है कि अगर जीडीपी में गतिरोध की स्थिति बनी रहती है तो, निवेश को वर्तमान स्तर पर नहीं बनाए रखा जा सकेगा। चूंकि 2019-20 और 2022-23 के बीच जीडीपी में शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई थी, 2019-20 में जितनी उत्पादन क्षमता मौजूद थी, इस समय जितना उत्पादन हो रहा है, उसके लिए काफी पर्याप्त होगी। लेकिन, इस दौरान निवेश तो जारी ही रहा है और अगर हम उस निवेश को छोड़ भी दें जो समय पूरा हो जाने के चलते सेवा से बाहर हो रही उत्पादन क्षमता की जगह लेने के लिए किया गया है तथा नयी प्रक्रियाओं से जुड़े निवेश को भी छोड़ दें, तब भी कुछ निवेश जरूर अतिरिक्त क्षमता जोड़ता होगा और यह क्षमता उपयोग के बिना ही पड़ी रही होगी। दूसरे शब्दों में, जीडीपी में गतिरोध के दौर में जो निवेश हुआ है, उससे अर्थव्यवस्था में उपयोग में नहीं आ रही क्षमता का स्तर बढ़ गया होगा। उपयोग में नहीं आ रही क्षमता में इस बढ़ोतरी के चलते, आने वाले दिनों में निवेश घट ही जाने वाला है, जिससे सकल मांग के और इसलिए उत्पाद के घटने का रुझान और ज्यादा बढ़ जाने वाला है।

दूसरे कारण का संबंध, व्यापार घाटे मेें हो रही बढ़ोतरी से है। इसके चलते, चालू खाता घाटे में भी बढ़ोतरी हो रही है। मौजूदा हालात में, जब वित्तीय पूंजी का हाशियावर्ती देशों से, पूंजी के केंद्र में आने वाले या महानगरीय देशों की ओर पलायन हो रहा है, बढ़ते चालू खाता घाटों की भरपाई करना और भी मुश्किल हो जाएगा। इससे रुपए का और ज्यादा अवमूल्यन होगा और इससे अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की दर और बढ़ जाएगी। मुद्रास्फीति की दर में बढ़ोतरी के जवाब में सामान्य प्रवृत्ति सरकारी खर्च में कटौती करने तथा ब्याज की दर बढ़ाने की ही रहती है। और ठीक ऐसा ही तो हमारे देश में हो रहा है। ये बुनियादी तौर पर मंदी पैदा करने वाले कदम हैं, जिनका प्रभाव यही होता है कि मेहनतकश जनता की सौदेबाजी की ताकत घट जाती है और इस तरह उनकी कीमत पर मुद्रास्फीतिकारी प्रक्रिया का हल निकाला जाता है।
बढ़ता व्यापार घाटा : बढ़ती आफत 

इसके अलावा यहां एक नुक्ता और है। जब चालू खाता घाटा बढ़ता है, वित्तीय खिलाडिय़ों के बीच इसकी प्रत्याशा जाग जाती है कि रुपए का और अवमूल्यन होने जा रहा है। यह प्रत्याशा वास्तविकता में वित्त के पलायन की ओर ले जाती है और इस तरह ये प्रत्याशाएं, खुद ब खुद पूरी होने वाली प्रत्याशाएं बन जाती हैं। और इन हालात में, मुद्रास्फीति के बढऩे और उस पर काबू पाने के लिए मंदी पैदा करने वाले कदम उठाए जाने का वही परिदृश्य सामने आता है। इसलिए, अर्थव्यवस्था का गतिरोध और भी बढ़ जाने की ही संभावनाएं हैं।

इस मुकाम पर व्यापार घाटे का बढऩा, भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे अनिष्टकर नया घटनाविकास है। आर्थिक गतिरोध की प्रवृत्ति तो महामारी के आने से भी पहले ही चली आ रही थी। इसके ऊपर से दुनिया के पैमाने पर भी और भारत में भी, मुद्रास्फीति में उछाल और आकर पड़ गया। और अब उस सब के ऊपर से बढ़ते व्यापार तथा चालू खाता घाटे की मुसीबत आकर पड़ गयी है। संक्षेप में यह कि भारत की अर्थव्यवस्था ऐसे संकट में धंसती जा रही है, जो ज्यादा से ज्यादा सर्वसमेटू होता जा रहा है। और नवउदारवादी व्यवस्था के दायरे में, इस संकट का कोई समाधान है ही नहीं।

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