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ज्ञानवापी केसः विवादित आकृति की कार्बन डेटिंग को लेकर अब बनारस में ‘पोस्टर वार’

"ज्ञानवापी केस का कोई अंत नहीं दिख रहा है। धरम-करम के बजाय अब रोज़ी-रोटी, पढ़ाई-लिखाई और तरक्की की बात होनी चाहिए। रोज-रोज की चिकचिक, बहस और नुक्ताचीनी से कुछ मिलने वाला नहीं है।"
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उत्तर प्रदेश के वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद में मिली विवादित आकृति की वैज्ञानिक जांच को लेकर हिन्दू पक्ष की ओर से दायर याचिका के चलते माहौल गरम है। एक तरफ जहां विश्व बौद्धिक सनातन संघ ने कार्बन डेटिंग न कराने की मांग उठाई है तो दूसरी ओर, शहर के कई हिन्दू संगठन इसके समर्थन में खड़े हो गए हैं। कार्बन डेटिंग कराए जाने के मुद्दे को लेकर बनारस शहर में ‘पोस्टर वार’ शुरू हो गया है। भगवा रक्षा वाहिनी ने विवादित आकृति को शिवलिंग बताते हुए अंधरापुल, कचहरी, दुर्गाकुंड समेत शहर के कई इलाकों पोस्टर लगवाया है। पोस्टर में विवादित आकृति की वैज्ञानिक जांच कराने कराने की मांग उठाई गई है। दूसरी ओर, शहर के कई इलाकों में कार्बन डेटिंग के समर्थन में पोस्टर लगाए गए हैं। इस बीच विश्व सनातन संघ प्रमुख जितेंद्र सिंह ने सोशल मीडिया पर पोस्टर जारी करते हुए दूसरे पक्ष पर निशाना साधा है। पोस्टर वार के चलते कमिश्नरेट पुलिस का सिरदर्द बढ़ गया है। पुलिस विवादित पोस्टरों को खुरचवा रही है।

ज्ञानवापी-श्रृंगार गौरी मामले में 29 सितंबर को ‘पोस्टर वार’ शुरू हुआ। आधी रात में दुर्गाकुंड, अंधरापुल से लगायात कचहरी तक कई स्थानों पर विवादित पोस्टर लगाए गए। इन पोस्टरों पर ज्ञानवापी में मिली विवादित आकृति को शिवलिंग बताते उसकी वैज्ञानिक जांच का समर्थन किया गया है। पुलिस उन लोगों की शिनाख्त में जुट गई है जिन्होंने शहर के कई इलाकों में विवादित पोस्टर लगवाया है। शिवलिंग की वैज्ञानिक जांच का समर्थन करने वाले पोस्टर में भगवा रक्षा वाहिनी, वाराणसी लिखा है। पोस्टर में एडवोकेट हरि शंकर जैन, विष्णु शंकर जैन के अलावा आशीष तिवारी, सुमित राज और संजय शर्मा की तस्वीरें लगाई गई हैं। हालांकि पोस्टर में जो मोबाइल नंबर दिए गए हैं, वो सभी स्विच ऑफ बता रहे हैं।

श्रृंगार गौरी के नियमित दर्शन-पूजन के बाबत जितेंद्र सिंह विसेन की अगुवाई में राखी सिंह सहित पांच महिलाओं ने जिला एवं सत्र न्यायालय में याचिका दाखिल किया था। अब मुकदमे की वादी सीता साहू, रेखा पाठक, मंजू व्यास और लक्ष्मी देवी ने यह मांग उठाई है कि कार्बन डेटिंग अथवा किसी अन्य वैज्ञानिक पद्धति से भारतीय पुरातत्व विभाग यह पता लगाए कि ज्ञानवापी में मिली आकृति कितनी पुरानी है? इनके वकील विष्णुशंकर जैन की ओर से कार्बन डेटिंग अथवा अन्य किसी पद्धति से विवादित आकृति की वैज्ञानिक जांच कराने के लिए जिला जज एके विश्वेश के कोर्ट में अर्जी लगाई है। यह वही आकृति है जो ज्ञानवापी परिसर में सर्वे के दौरान 16 मई को मिली थी और हिन्दू पक्ष के लोग इसे शिवलिंग बता रहे हैं।

दूसरी ओर, हिन्दू पक्ष की वादकारी राखी सिंह ने अपने अधिवक्ता जितेंद्र सिंह विसेन के हवाले से कोर्ट में इस आशय की अर्जी दी है कि कार्बन डेटिंग कराए जाने से कथित शिवलिंग खंडित हो सकता है। ऐसे में उसकी कार्बन डेटिंग उचित नहीं है। कार्बन डेटिंग कराए जाने का मतलब भगवान विश्वेश्वर के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाने जैसी बात होगी। फिलहाल इस मामले की सुनवाई आगामी 07 अक्टूबर 2022 को तय है।

जांच में जुटी पुलिस

वाराणसी शहर में विवादित पोस्टर चस्पा किए जाने के मामले में कमिश्नरेट पुलिस जांच में जुट गई है। पोस्टर लगवाने वाले कौन हैं? किसकी अनुमति से शहर के प्रमुख स्थानों पर ये पोस्टर चस्पा कराए गए है? इसके लिए क्या किसी की अनुमति ली गई थी, इस संबंध में कमिश्नरेट के पुलिस अफसरों का मीडिया में कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। दूसरी ओर, विश्व वैदिक सनातन संघ के प्रमुख जितेंद्र सिंह विसेन ने शहर में लगाए गए पोस्टरों पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने 30 सितंबर 2022 को कहा था, --हमारी संस्था का समर्थन करने वालों के ऊपर फर्जी मामले दर्ज किए जा रहे और अवैध तरीके से उन्हें जेल भेजा जा रहा है। एडवोकेट हरि शंकर जैन का समर्थन करने वालों के गले में माला पहनाई जा रही है।

ज्ञानवापी परिसर में विवादित आकृति की कार्बन डेटिंग के मुद्दे पर जहां हिन्दू पक्ष में दो फाड़ नजर आ रहा है, वहीं ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली इंतजामिया मसाजिद कमेटी किसी भी तरह के जांच का कड़ा विरोध कर रही है। कमेटी के सेक्रेटरी मोहम्मद यासीन कहते हैं, "विवादित आकृति शिवलिंग नहीं, फव्वारा है। उसकी कार्बन डेटिंग कराए जाने से कुछ भी नहीं मिलने वाला। जानबूझकर इस मामले को विवादित बनाया जा रहा है।"

कैसे होती है कार्बन डेटिंग?

अयोध्या मामले में कार्बन डेटिंग पर बहस छिड़ी थी और उस समय एक पक्ष ने इसके बारे में पूछा तो उसके जवाब में दूसरे पक्ष ने कहा कि मूर्ति के अलावा दूसरी चीजों की जांच हुई थी। दरअसल, कार्बन डेटिंग भी तभी हो सकती है जब उसमें कार्बन की मात्रा हो। कार्बन डेटिंग एक ऐसी विधि है, जिससे पुरानी चीजों के बारे में उसकी अनुमानित उम्र बता देती है। इसके जरिये लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों की उम्र का अंदाज हो जाता है। इसकी विधि तथ्य पर आधारित होती। आमतौर पर हर जीव अथवा पदार्थ कार्बन से बना होता है। इसी कार्बन के आधार पर उसकी उम्र का कैलकुलेशन किया जाता है। कार्बन डेटिंग के जरिये वैज्ञानिक लकड़ी, चारकोल, बीज, बीजाणु और पराग, हड्डी, चमड़े, बाल, फर, सींग और रक्त अवशेष और पत्थर व मिट्टी से भी उसकी बेहद करीबी वास्तविक आयु का पता लगा सकते हैं। ऐसी हर वो चीज जिसके कार्बनिक अवशेष हैं जैसे शैल, कोरल, बर्तन से लेकर दीवार की चित्रकारी की उम्र का भी पता लगा लेते हैं।

वैज्ञानिक भाषा में कहा जाए तो कार्बन डेटिंग के जरिये कार्बन-12 और कार्बन-14 के बीच अनुपात निकाला जाता है। कार्बन-14 एक तरह से कार्बन का ही रेडियोधर्मी आइसोटोप है, इसका अर्धआयुकाल 5730 साल का है। कार्बन डेटिंग को रेडियोएक्टिव पदार्थों की आयु सीमा निर्धारण करने में प्रयोग किया जाता है। कार्बन डेटिंग मेथड में जीव अथवा पदार्थ का कुछ अंश जांच के लिए प्रयोगशाला में भेजना पड़ता है।

न्याय प्रणाली में कार्बन काल विधि के माध्यम से तिथि निर्धारण होने पर इतिहास एवं वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने में मदद मिलती है। लेकिन, तमाम वजहों से ये विवादों में रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक रेडियो कॉर्बन का जितनी तेजी से क्षय होता है, उससे करीब 28 प्रतिशत तेज इसका निर्माण होता है। इससे संतुलन की अवस्था प्राप्त होना मुश्किल है। माना जाता है कि प्राणियों की मृत्यु के बाद भी वे कार्बन का अवशोषण करते हैं और अस्थिर रेडियोएक्टिव तत्व का धीरे-धीरे क्षय होता है।

रेडियो कार्बन डेटिंग तकनीक का आविष्कार 1949 में शिकागो विश्वविद्यालय के विलियर्ड लिबी और उनके साथियों ने किया था। 1960 में उन्हें इस कार्य के लिए रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने कार्बन डेटिंग के माध्यम से पहली बार लकड़ी की आयु पता की थी। इसे एब्सोल्यूट डेटिंग भी कहते हैं। कार्बनिक पदार्थों के डेटिंग में इसका महत्व पर्याप्त रूप से कम करके आंका नहीं जा सकता है। सबसे पहले पुरातत्त्वविदों ने पुराने शासनकाल की गणना करने के लिए इन विधियों का उपयोग किया था।

हालांकि आपको बता दें कि कार्बन डेटिंग से इस विवाद का अंत नहीं होने वाला। क्योंकि पत्थर तो प्राकृतिक हैं। ये हज़ारों साल में बनते-बिगड़ते हैं। इस तरह हर पत्थर की आयु हज़ारों-लाखों साल निकलेगी। इसलिए इससे इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा कि ये फव्वारा है या शिवलिंग। हालांकि इस तरह का विवाद पैदा कर हिंदुत्ववादियों को बहुत फायदा मिलेगा। अगर कार्बन डेटिंग कराई जाती है तो भी इसे शिवलिंग कहने वाले कहेंगे कि देखिए ये तो पत्थर तो हज़ारों साल पुराना है, औरगंजेब के ज़माने से भी पुराना और अगर कार्बन डेटिंग नहीं कराई जाती तो भी उनका प्रोपेगेंडा चल ही रहा है कि ये शिवलिंग है।

काफी पुराना है ज्ञानवापी विवाद

बनारस में ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में है। मौजूदा समय में मस्जिद का विवाद काफी पुराना अदालती मामला बन गया है। हालांकि साल 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने और उसके बाद राम मंदिर आंदोलन में आई तेज़ी के बीच, अक्सर मथुरा और काशी का नाम उछलता रहा है। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के करीब तीन दशक पूरे हो चुके हैं। काशी के साथ मथुरा के मामले अब कई अदालतों में चल रहे हैं। फिलहाल ज्ञानवापी मस्जिद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से नमाज हो रही है।

ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर पहला विवाद साल 1809 में खड़ा हुआ था, जो सांप्रदायिक दंगे में तब्दील हो गया। इसके बाद साल 1936 में एक मामला कोर्ट में दायर किया गया, जिसका निर्णय अगले साल आया। फ़ैसले में पहले निचले कोर्ट और फिर उच्च न्यायालय ने मस्जिद को वक़्फ़ प्रॉपर्टी माना था।

साल 1996 में सोहन लाल आर्य नाम के एक शख्स ने सर्वे की मांग को लेकर बनारस के कोर्ट में अर्ज़ी दाख़िल की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। बाद में सर्वे की मांग उठाने वाली पांच महिला याचिकाकर्ताओं में से एक बनारस की लक्ष्मी देवी हैं जो सोहन लाल की पत्नी हैं। कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने 18 सितंबर, 1991 को उपासना स्थल क़ानून पास किया, जो बाबरी मस्जिद छोड़कर सभी दूसरे धार्मिक स्थलों पर लागू होता है। यह कानून कहता है कि भविष्य में विवादित धार्मिक स्थलों का रूप नहीं बदला जा सकता।

मान्यता रही है कि मुग़ल बाहशाह औरंगज़ेब आलमगीर के आदेश पर काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा गया और उसकी जगह ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया गया। इस मामले में इतिहासकारों की राय एक-दूसरे से जुदा है। मौजूदा समय में काशी विश्वनाथ मंदिर है, उसे मराठा रानी अहिल्याबाई होलकर ने तैयार करवाया था।

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करनेवाली संस्था अंजुमन इस्लामिया मसाजिद कमेटी का दावा है कि काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद दोनों का निर्माण अकबर के समय में हुआ था। हालांकि वो यह भी मानते हैं कि मंदिर को औरंगज़ेब के शासनकाल में तोड़ा गया था। मस्जिद को पीछे से देखने पर दो तरह की कलात्मक परंपराओं का फ़र्क़ साफ़ दिख जाता है। मंदिर की सुसज्जित पत्थर की दीवार, जो विखंडित होने के बाद भी शानदार दिखती है, जिसके ऊपर पलस्तर किया हुआ मस्जिद की साधारण गुंबद है।

रोज खड़ा हो रहा नया वितंडा

ज्ञानवापी मस्जिद केस को लेकर बनारस में आए दिन कोई न कोई नया वितंडा खड़ा हो रहा है। एक तरफ बनारस के जिला अदालत में मामले की सुनवाई चल रही है तो दूसरी ओर हाईकोर्ट में। इससे पहले 12 सितंबर 2022 को वाराणसी की जिला अदालत ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में देवी-देवताओं की पूजा की मांग को लेकर हिन्दू पक्ष की महिलाओं की याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर चुकी है। साथ ही मुस्लिम पक्ष की अपील को खारिज किया जा चुका है।

बनारस में एक खबरिया चैनल में बतौर रिपोर्टर ज्ञानवापी मामले को कवर करने वाले जमील अहमद कहते हैं, "ज्ञानवापी केस का कोई अंत नहीं दिख रहा है। मथुरा, ताजमहल, कुतुब मीनार के साथ ज्ञानवापी मस्जिद का मामला जोरों से उछाला जा रहा है। फैसला चाहे जो भी हो, वो आखिरी हो, ताकि दोबारा उसका चैप्टर न खुल पाए। धरम-करम के बजाय अब रोज़ी-रोटी, पढ़ाई-लिखाई और तरक्की की बात होनी चाहिए। रोज-रोज की चिकचिक, बहस और नुक्ताचीनी से कुछ मिलने वाला नहीं है।"

"कोई भी धर्मिक विवाद जब सियासी नफा-नुकसान देने लगता है तब उसके ओर-छोर पता नहीं चलता। मंदिर-मस्जिद का मामला जब से उछला है तब से बनारस के हालात बेहद खराब हुए हैं। अच्छी बात यह है कि इस शहर का आदमी उन्मादी नहीं है। वह गंगा-जमुनी तहजीब में यकीन रखता है। ज्ञानवापी विवाद के जोर पकड़ने से हर आदमी के अंदर एक भय जरूर पैदा हो गया है कि पता नहीं, कब क्या हो जाए? हालात इतना बदतर हो चुका है कि बनारसी साड़ी और कारपेट के विदेशी खरीददार अब बनारस आने से कतराने लगे हैं।"

एक नज़र में ज्ञानवापी विवाद

1991: कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने उपासना स्थल क़ानून (विशेष प्रावधान) पास किया। भाजपा ने इसका विरोध किया, लेकिन अयोध्या को अपवाद माने जाने का स्वागत किया और मांग की कि काशी व मथुरा को भी अपवाद माना जाना चाहिए। कानून के मुताबिक केवल अयोध्या ही अपवाद है।

1991: ज्ञानवापी मामला कोर्ट पहुंचा। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर पहली बार कोर्ट में याचिका दाखिल की गई। काशी के साधु-संतों ने सिविल कोर्ट में याचिका दाखिल करके वहां पूजा-अर्चना करने के लिए कोर्ट में अर्जी लगाई। मस्जिद कमेटी ने इसका विरोध किया और दावा किया कि ये उपासना स्थल क़ानून का उल्लंघन है।

2019: अयोध्या फ़ैसले के क़रीब एक महीने बाद बनारस के सिविल कोर्ट में नई याचिका दाख़िल करके ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे कराने की मांग की गई।

2020: वाराणसी के सिविल कोर्ट से मूल याचिका पर सुनवाई की मांग उठाई गई।

2020: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सिविल कोर्ट की कार्यवाही पर रोक लदा दी। साथ ही इस मामले पर फ़ैसला सुरक्षित रखा।

2021: हाईकोर्ट की रोक के बावजूद वाराणसी सिविल कोर्ट ने अप्रैल में मामला दोबारा खोला और मस्जिद के सर्वे की अनुमति दी।

2021: इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। हाईकोर्ट ने फिर सिविल कोर्ट की कार्यवाही पर रोक लगाई और फटकार भी।

2021: अगस्त में पांच हिंदू महिलाओं ने वाराणसी सिविल कोर्ट में श्रृंगार गौरी की पूजा की अनुमति के लिए याचिका दाखिल की।

2022: अप्रैल में सिविल कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे करने और उसकी वीडियोग्राफ़ी के आदेश दिया।

2022: अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी ने कई वाराणसी के सिविल कोर्ट के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसे खारिज कर दिया गया।

2022: मई में मस्जिद इंतज़ामिया ज्ञानवापी मस्जिद की वीडियोग्राफ़ी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली गई।

2022: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले 16 मई को सर्वे रिपोर्ट फ़ाइल की गई। इसी दौरान वाराणसी सिविल कोर्ट ने मस्जिद के अंदर उस इलाक़े को सील करने का आदेश दिया, जहां विवादित आकृति मिली। वहां नमाज़ पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी गई।

2022: सुप्रीम कोर्ट ने 17 मई को 'कथित शिवलिंग' की सुरक्षा वुजूख़ाने को सील करने का आदेश दिया, लेकिन मस्जिद में नमाज़ जारी रखने की अनुमति दे दी।

2022: सुप्रीम कोर्ट ने 20 मई को इस मामले को वाराणसी की ज़िला अदालत में भेज दिया। कोर्ट ने बनारस की अदालत को यह भी तय करने को कहा कि मामले की सुनवाई चलने लायक है अथवा नहीं?

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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